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सुंदर काण्ड

मैं पवन-पुत्र को प्रणाम करता हूँ, जिनका बल अतुलनीय है, जिनका तन, सूर्य के वर्ण समान सुनहरा है,
जो विवेकशील प्राणियों में श्रेष्ठ हैं,
जिनमें सभी सद्गुण मौजूद हैं,
जो वानरों में श्रेष्ठ हैं,
जो राम के प्रिय भक्त हैं। —श्री हनुमत स्तोत्र

हनुमान को जैसे ही उनकी शक्तियों का स्मरण करवाया गया, वे तत्काल ऊर्जा से भर उठे और उन्होंने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि उनका मस्तक आकाश को छूने लगा। उनका चेहरा उदय होते सूर्य की भाँति चमक रहा था, उनके बलशाली अंगों में ऊर्जा का संचार हो रहा था और उनके नेत्र ग्रहों की भाँति दमक रहे थे। उनकी श्वास के चलने से ऐसा लग रहा था मानो कोई ज्वालामुखी फटने वाला हो। उनकी पूँछ, युद्ध के देवता कार्तिकेय की पताका की भाँति उनके सिर के ऊपर लहरा रही थी। उन्हें देखकर सभी भयभीत हो गए। पक्षी चीखते हुए इधर-उधर भागने लगे, वन्य पशु अपनी गुफाओं में जा छिपे और मछलियाँ भी समुद्र तल में चली गईं। सिर्फ़ वानर थे, जो भयभीत नहीं हुए तथा हनुमान के इस शानदार करतब को हैरानी से देखते रहे। वे प्रसन्नता से चिल्लाने और ऊपर- नीचे उछलने लगे।

अपने विराट रूप में हनुमान बोले, वानरों, भयभीत न होओ! मैं वायुदेव का पुत्र हूँ, जिनकी शक्ति असीमित है। मैं मेरु पर्वत की परिक्रमा कर सकता हूँ तथा चिलचिलाते सूर्य को भी पीछे छोड़ सकता हूँ। जब मैं समुद्र के पार छलाँग लगाऊँगा तो मेरा रूप भगवान विष्णु के त्रिविक्रम अवतार (जिसने तीन पग में पूरी धरती नाप ली थी) जैसा दिखाई देगा। मैं कुछ ही क्षणों में समुद्र को लांघ जाऊँगा और राम की पत्नी को खोजकर और यदि संभव हुआ तो, उन्हें साथ लेकर लौटूंगा। मैं अब इस पर्वत शिखर पर जा रहा हूँ क्योंकि छलाँग लगाने पर, सिर्फ़ यही है, जो मेरे भार को सहन कर सकता है। उल्लास में भरकर हनुमान ने एक शिखर से दूसरे पर छलाँग लगाई और उन शिखरों को फूल की डाल की तरह मसल दिया! उनके शक्ति प्रदर्शन को देखकर अन्य वानरों के मुख आश्चर्य से खुले रह गए। इसके बाद हनुमान ने महेंद्र पर्वत पर छलाँग लगाई, जो उस तट का सबसे ऊँचा स्थान था और वहाँ से समुद्र के पार छलाँग लगाने की तैयारी करने लगे। उनके भार के नीचे, वह पर्वत काँप रहा था। उसका पानी बाहर निकल गया तथा पशु-पक्षी भयभीत होकर वहाँ से भागने लगे। हनुमान ने राम का ध्यान करके स्वयं को शांत किया तथा राम, राम का जादुई मंत्र जपने लगे। उन्होंने अपने हाथ जोड़े और पूर्व दिशा की ओर देखकर अपने पिता वायुदेव का अशीर्वाद प्राप्त किया। उन्होंने अपने अंगों को खोला और पहलवान की भाँति उन्हें थपथपाया। इसके बाद वे थोड़ा-सा झुके, फिर अपने हाथों को धरती पर रखा और धावक की तरह एक पैर पीछे खींचकर आकाश में जोरदार छलाँग लगा दी। उनकी छलाँग के वेग से वृक्ष और झाड़ियाँ उखड़ गए और उनसे झड़े फूल, हनुमान पर आ गिरे मानो उन्हें आशीर्वाद दे रहे हों। उनकी पूँछ, पताका की भाँति, उनके सिर के ऊपर से मुड़ी हुई लहरा रही थी। वायुदेव के इस विलक्षण पुत्र को मार्ग देने के लिए बादल भी हट गए। इस आश्चर्यजनक करतब को देखने के लिए समुद्र के जीव-जंतु सागर की सतह पर आ गए। हनुमान अपने ऊपर आकाश को छू रहे थे और नीचे, टिमटिमाते समुद्र को देख रहे थे।

जंबूद्वीप (भारत) और लंका के बीच में, मैनाक नाम का एक पर्वत था। समुद्र के देवता वरुणदेव ने जब हनुमान को ऊपर से गुज़रते हुए देखा तो उनके मन में उस राम दूत की सहायता करने का विचार आया। वरुणदेव ने मैनाक पर्वत को, जो सागर में डूबा हुआ था, थोड़ा ऊपर उठने को कहा ताकि आंजनेय उसके ऊपर ठहरकर कुछ देर विश्राम कर सकें। मैनाक ने तत्काल आज्ञा का पालन किया। अचानक हनुमान ने मैनाक पर्वत के सुनहरे शिखर को सागर से ऊपर उठते देखा। शिखर ने उनका मार्ग रोक लिया था। पर्वत ने मनुष्य का रूप धारण किया और हनुमान से आग्रह किया कि वे मैनाक व समुद्र-देवता का सत्कार स्वीकार करें तथा अपनी यात्रा पर आगे बढ़ने से पूर्व कुछ देर विश्राम कर
लें।

कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा के कारण हनुमान ने पर्वत का आग्रह अस्वीकर कर दिया और उसे कहा कि उनके पास बहुत कम समय है और उन्हें अपना कार्य समाप्त करके यथाशीघ्र लौटना है। इसलिए हनुमान ने पर्वत द्वारा किए गए स्वागत को स्वीकारते हुए सिर्फ़ उसे एक बार स्पर्श किया और फिर तेज़ी से आगे चले गए क्योंकि उन्हें सूर्य के अस्त होने से पहले, लंका पहुँचने की जल्दी थी। मैनाक पर्वत समुद्र के नीचे चला गया और उसने फिर से अपना पहले वाला स्थान ले लिया।

इसके बाद देवताओं ने हनुमान की परीक्षा लेने का निर्णय किया। उन्होंने सर्पों की माता सुरसा को हनुमान का मार्ग रोकने तथा उनके बल की परीक्षा लेने को कहा। सुरसा ने तत्काल अपना आकार बढ़ाया और कमर पर हाथ रखकर हनुमान का मार्ग रोककर खड़ी हो गई।

देवताओं का यह आदेश है कि कोई प्राणी मेरे मुख में प्रवेश किए बिना इस दक्षिणी समुद्र को पार नहीं कर सकता। उन्होंने आज, तुम्हें मेरा भोजन बनाकर भेजा है, इसलिए मैं अब तुम्हें खाऊँगी। यह भी एक कारण था कि अब तक कोई प्राणी रावण के निवास तक नहीं पहुँच पाया था।

ऐसा कहकर सुरसा ने अपना भयंकर मुख खोला और हनुमान को निगलने लगी। हनुमान ने सुरसा से विनम्रतापूर्वक यह कहकर कि वे राम के दूत हैं और उन्हें एक अत्यंत आवश्यक कार्य से आगे जाना है, सुरसा से जाने की अनुमति माँगी। हनुमान ने सुरसा को यह वचन भी दिया कि कार्य पूरा होने के बाद, स्वयं उसके पास वापस आ जाएँगे। परंतु सुरसा ने हठ किया और कहा कि आगे बढ़ने से पहले हनुमान को उसके मुख में प्रवेश करना पड़ेगा। हनुमान को उसकी नासमझी पर बहुत ग़ुस्सा आया और उन्होंने अपना आकार दो गुना बढ़ा लिया। सुरसा ने भी अपना मुख खोल दिया। हनुमान ने फिर से अपना आकार दो गुना बढ़ाया तो सुरसा ने भी अपना मुख दो गुना अधिक फैला लिया। यह देखकर बुद्धिमान हनुमान ने तुरंत अपना आकार घटाकर अँगूठे जितना किया और तेज़ी से सुरसा के मुख में प्रवेश करके उसके नथुनों से बाहर निकल आए !

मैंने आपकी शर्त पूरी कर दी है कि कोई आपके मुख में प्रवेश किए बिना आगे नहीं जा सकता। अब आप कृपया मुझे जाने दीजिए! हनुमान ने कहा।

हनुमान की बुद्धि और सूझबूझ देखकर देवता प्रसन्न हो गए और उन्होंने सुरसा से हनुमान का मार्ग छोड़ देने के लिए कह दिया। सुरसा ने कहा, हे उच्चात्मा हनुमान! अपने मार्ग पर आगे बढ़ो तथा राम की सीता से मिलवाने में सहायता करो!

हनुमान ने सुरसा को प्रणाम किया और बादलों को पीछे छोड़ते हुए पवन गति से आकाश मार्ग में उड़ गए।

उस समय, सिंहिका नाम की एक राक्षसी भी समुद्र में रहती थी जो प्राणी की पानी पर पड़ने वाली परछाईं को पकड़कर शिकार करती थी। उसने हनुमान को ऊपर से उड़ते देखा तो यह सोचकर बहुत ख़ुश हुई कि देवताओं ने उसके लिए बढ़िया भोजन का प्रबंध किया है। उसने जैसे ही हनुमान की परछाईं को पकड़ा तो हनुमान को लगा कोई उन्हें पानी के भीतर खींच रहा है। वे यह सोच ही रहे थे कि उनके साथ क्या हो रहा है कि तभी वह राक्षसी उन्हें निगलने के लिए पानी से बाहर निकल आई। हनुमान ने तुरंत अपना आकार बढ़ा लिया किंतु उस राक्षसी ने भी अपना मुख फैला लिया और हनुमान पर झपटी । तब हनुमान ने अपना आकार घटा लिया और उसके मुख में प्रवेश कर गए तथा उसके अंगों को अपने नाख़ूनों से फाड़ दिया। फिर उन्होंने भीतर ही अपना आकार बढ़ाया और उस राक्षसी के शरीर के टुकड़े करके, बाहर निकल गए जिससे उसकी मृत्यु हो गई। समुद्र की मछलियों ने झटपट आकर उसके मृत शरीर को खाना आरंभ कर दिया।

हनुमान ज्यों ही फिर से आकाश में उड़े, देवताओं और दिव्यात्माओं ने उनकी प्रशंसा की। आपने इस भयंकर जीव का वध करके सचमुच बहुत अच्छा कार्य किया है। जिसके पास दृढ़ता, सही दृष्टि, समझ और कौशल है, वह किसी भी कार्य में असफल नहीं हो सकता। हे वायुपुत्र, आपका उद्देश्य पूर्ण हो और आप शीघ्र लौटकर आएँ!

इसके बाद शीघ्र ही, हनुमान को समुद्र के हृदय में आभूषण-सा चमकता हुआ लंका द्वीप दिखाई पड़ा। वह वनों, नदियों तथा जलप्रपात व फूलों के उपवनों से घिरा हुआ था। लंका नगरी तीन शिखर वाले त्रिकूट पर्वत के उच्चतम शिखर के बिलकुल नीचे समतल स्थान पर बसी हुई थी और ऐसा लगता था मानो वह बादलों पर स्थित है। दरअसल यह शिखर, कथाओं में विख्यात मेरु पर्वत का ही एक अंश था। कहते हैं, एक बार पवित्र नाग वासुकि का, जिसके ऊपर विष्णु विश्राम करते हैं, वायुदेव के साथ मुक़ाबला हो गया। अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए वासुकि ने स्वयं को मेरु पर्वत के आस-पास लपेट लिया और वहाँ से हिलने से मना कर दिया। वायुदेव को बहुत क्रोध आया और उन्होंने पूरी शक्ति से बहना आरंभ किया जिसके कारण पूरे विश्व में भगदड़ मच गई। देवतागण भागे-भागे विष्णु के पास पहुँचे और उनसे हस्तक्षेप करने की याचना की। विष्णु ने वासुकि को मेरु पर्वत को छोड़ देने का आदेश दिया। ज्यों ही सर्प ने अपनी एक कुंडली खोली, उसी समय वायु ने पर्वत का एक टुकड़ा, जो ऊपर दिखाई दे रहा था, तोड़ दिया और उसे उड़ाकर समुद्र में फेंक दिया। वह टुकड़ा दक्षिणी समुद्र में गिरा और समय के साथ यही त्रिकूट पर्वत कहलाया। उसी दौरान, ऋषि विश्रवा का पुत्र कुबेर एक नगर का निर्माण करना चाहता था। उसके पिता ने देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा को त्रिकूट पर्वत के ऊपर नगर का निर्माण करके को कहा। यह बहुत सुंदर शहर था और इसे 'लंका' नाम दिया गया। विश्रवा का एक पुत्र था - रावण । उसे ब्रह्मा से अनेक वरदान प्राप्त थे और इस कारण वह अत्यंत अहंकारी हो गया। उसने अपने भाई कुबेर के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और उसे लंका से भगाकर वहाँ अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

हनुमान एक पहाड़ी शिखर पर उतरे और उन्होंने वहीं से उस शानदार लंका नगरी को देखा। सूर्यास्त के समय उसकी छतें स्वर्णमंडित लग रही थीं। रावण की नगरी का वैभव देखकर हनुमान स्तब्ध रह गए। उन्होंने सोचा कि वह बाहर से इतनी सुंदर है तो भीतर से कितनी भव्य होगी। उन्होंने देखा कि लंका समुद्र से घिरी होने के कारण चारों ओर से सुरक्षित थी । उसमें चार द्वार थे जो चार दिशाओं में खुलते थे और उसकी चारदीवारी सोने की बनी हुई थी। लंका की मोर्चाबंदी, अत्यंत दृढ़तापूर्वक की गई थी तथा उसके चारों ओर खाइयाँ और खंदकें थीं, जिनमें विषैले सर्प तैरते थे। पर्वत की ढलान, वृक्षों व पल्लवित झाड़ियों से आच्छादित थी और उसके भवन संध्या - प्रकाश में चमक रहे थे। हनुमान ने देखा कि वहाँ के मार्ग साफ़, सफ़ेद थे जिनके किनारों पर हरी और स्वादिष्ट घास लगी हुई थी। पर्वत के ऊपर स्थित होने के कारण लगता था मानो लंका बादलों के बीच हवा में तैर रही हो। हनुमान के चेहरे से टकराने वाले वायु के झोंके में मिर्च, लौंग और मसालों की सुगंध आ रही थी। मारुति फुर्ती से एक शिला से दूसरी शिला पर छलाँग लगाते हुए उत्तरी द्वार तक पहुँच गए। उसकी दीवारों के चारों ओर बनी खाई में आदमखोर मछलियाँ तैर रही थीं।

पत्थर से बने द्वार - तोरणों के नीचे हाथी खड़े थे और भयभीत करने वाले राक्षस धनुर्धर, छतों व बुर्जियों पर तैनात थे। हनुमान ने सोचा, यदि राम अपनी वानर सेना के साथ किसी तरह समुद्र पार करके यहाँ तक पहुँच भी गए तो क्या उनके लिए इस नगर के प्राचीर को पार कर पाना संभव होगा। उन्होंने सोचा, यहाँ तक कि मेरे पिता वायुदेव के लिए भी इस नगर में छिपकर प्रवेश करना कठिन होगा। परंतु फिर उन्होंने सोचा कि उनका तात्कालिक कार्य सीता का पता लगाना और उसका समाचार अपने स्वामी को देना है। भीषण राक्षस पहरेदार होते हुए, उनके लिए अपने मौजूदा रूप में लंका में प्रवेश करना असंभव था। वे इस बात पर विचार करने लगे कि सीता को खोजने का कार्य किस तरह पूर्ण किया जाए। वे अँधेरा होने की प्रतीक्षा करने लगे। जो शीघ्र ही, लंका नगरी पर अँधकार का आवरण छा गया। फीका चंद्रमा अपने कुछ सहयोगी तारों के साथ आकाश में तैर रहा था और लंका नगरी किसी स्वप्न की भाँति उसके ऊपर छाई हुई थी। हनुमान ने अपना आकार घटाकर बिल्ली जितना कर लिया और उत्तरी द्वार से अंदर प्रवेश करने लगे । बिल्ली, रात के समय, कहीं भी घूम सकती है, उन्होंने सोचा ।

लंकिनी नाम की एक योद्धा युवती, किसी समय ब्रह्मलोक की रक्षक रह चुकी थी। उसके अहंकारी हो जाने पर ब्रह्मा ने उसे शाप दिया था कि उसे देवताओं की नगरी को छोड़ना तथा राक्षसों की नगरी का रक्षक बनकर रहना होगा। उसे एक वानर द्वारा पराजित होने के बाद ही शाप से मुक्ति मिलेगी। वह लंका के द्वार पर सजगता से पहरा दे रही थी जबकि शेष सभी लोग आराम से सो रहे थे। वह कमर पर हाथ रखकर मारुति के सामने उसका मार्ग रोककर खड़ी हो गई।

वनवासी, तुम कौन हो? उसने पूछा। रावण की शक्ति द्वारा सुरक्षित और सभी ओर से घिरे इस द्वार से मेरी अनुमति के बिना कोई भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।


हनुमान ने लंकिनी से उल्टा प्रश्न पूछा। हे दयालु देवी, आप कौन हैं? आप मुझे रोकने के लिए इतनी आतुर क्यों हैं?

लंकिनी, हनुमान के विनम्र व्यवहार अथवा छद्म वेश से प्रभावित नहीं हुई और बोली, वानर, मैं लंका नगरी का मानवीकृत रूप हूँ और लंका में घुसने वालों को रोकना ही मेरा दायित्त्व है। मरने के लिए तैयार हो जाओ क्योंकि मैं अब तुम्हें मार डालूँगी।

लंकिनी की बात से घबराए बिना हनुमान ने धीरे से कहा, मैं इस नगरी को सिर्फ़ देखने आया हूँ क्योंकि मैंने यहाँ के अनेक अद्भुत किस्से सुने हैं।

लंकिनी की आँखों से ज्वाला निकल रही थी और उसके बलशाली हाथों में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे। वह हनुमान के मधुर वचनों से प्रभावित नहीं हुई और उपहास करते हुए बोली, वानर, मुझे पराजित किए बिना तुम अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते! यह कहकर लंकिनी ने हनुमान के गाल पर मुक्का जड़ दिया।

इससे हनुमान को गुस्सा आ गया और उन्होंने बिना कुछ कहे अपनी बाईं मुट्ठी बंद की और एक ज़ोरदार वार किया जिससे लंकिनी धरती पर गिर पड़ी।

हनुमान के प्रहार तथा अपने सम्मान पर लगी चोट से स्तब्ध लंकिनी ने कहा, हे वानर श्रेष्ठ! कृपया मुझे छोड़ दीजिए। मैं यहाँ से हट जाती हूँ और आपको प्रवेश करने की अनुमति देती हूँ । संसार के रचयिता ब्रह्मा ने जब मुझे यहाँ नियुक्त किया था तो ये शब्द कहे थे, 'एक दिन एक वानर तुम्हें पराजित करके नीचे गिरा देगा। जिस दिन ऐसा हो, तो समझ लेना कि इस नगर और यहाँ के राजा रावण का सर्वनाश निकट है!' मैं समझ गई हूँ कि ब्रह्मा द्वारा की गई भविष्यवाणी के सत्य होने का समय आ चुका है। आप नगर में प्रवेश करके अपना कार्य पूरा कीजिए। आपको राजा जनक की धर्मनिष्ठ पुत्री अवश्य मिल जाएगी. यह कहकर लंकिनी सदा के लिए लंका छोड़कर चली गई।

लंका के पहरेदारों के विषय में एक अन्य कथा आती है । रावण, भगवान शिव का इतना महान भक्त था कि एक बार शिव और पार्वती दोनों लंका में रहने के लिए आए थे, जिसके कारण लंका अभेद्य हो गई। जब इंद्र के नेतृत्व में देवताओं ने ब्रह्मा से रावण के अत्याचार की शिकायत की तो ब्रह्मा ने लंका जाकर शिव-पार्वती से उनके द्वारा लंका को दी सुरक्षा वापस लेने की प्रार्थना की। तब शिव ने वानर रूप में जन्म लेने और रावण के विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए अपनी सहमति प्रदान की तथा पार्वती ने काली का रूप धारण कर लिया और उनकी प्रतिमा को द्वारा पर स्थापित किया गया। लंका में प्रविष्ट होते समय, हनुमान ने त्रिनेत्रधारी देवी का मंदिर देखा, जिसमें देवी ने अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र पकड़े हुए थे तथा उनके निकट आठ योगिनियाँ मौजूद थीं। देवी ने हनुमान को चुनौती दी और सृष्टि की माता के रूप में अपने समस्त भयावह स्वरूपों को प्रकट कर दिया। हनुमान ने भी समस्त देवताओं की ऊर्जा से युक्त अपने दिव्य रूप को प्रकट करके उत्तर दे दिया। देवी ने हनुमान को पहचान लिया कि वे भगवान शिव के पुत्र के रूप हैं और उन्हें प्रणाम किया । मारुति ने देवी से प्रार्थना की कि वे उस द्वीप को छोड़कर चली जाएँ क्योंकि उनके रहते, कोई उस द्वीप को अपने अधीन नहीं कर सकता। देवी माँ वह स्थान छोड़ने पर सहमत हो गईं और उन्होंने हनुमान को आदेश दिया कि शरद ऋतु के समय नौ रातों तक होने वाली उनकी पूजा (नवरात्रि) वसंत ऋतु के समय भी की जानी चाहिए। हनुमान ने उनकी बात स्वीकार कर ली। उसके बाद, देवी सदा के लिए लंका से विदा हो गईं।