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रामदास हनुमान

राम दूत और रुद्र के अवतार, हनुमान को प्रणाम, जो समूचे ब्रह्मांड के आकार के हो सकते थे जिनके पास अद्भुत शक्तियाँ थीं, जो शानदार कारनामे कर सकते थे, जिनके पास अविश्‍वसनीय बल था, और जो हज़ार सूर्यों के समान देदीप्यमान थे। —हनुमान की स्तुति

इसी तरह कई माह बीत गए। सुग्रीव सदा अपने राज्य व परिवार की क्षति को लेकर दुखी रहता था लेकिन हनुमान हमेशा उसे अच्छी सलाह देते थे। इस बीच, नियति अपने जटिल धागे गूँथ रही थी तथा समय धीरे-धीरे, किंतु निश्‍चित गति से, सुग्रीव के अनुकूल होता जा रहा था। एक बार जब हनुमान, सुग्रीव तथा कुछ अन्य वानर एक शिला पर बैठे हुए थे तो उन्होंने पर्वत के ऊपर से एक रथ को दक्षिण दिशा में जाते देखा। रथ में एक सुंदर स्त्री और एक
विशालकाय पुरूष सवार थे।

वह स्त्री दयनीय ढंग से रो रही थी। स्त्री ने, जैसे ही इन लोगों को नीचे बैठे देखा, उसने अपने ऊपरी वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़ा और अपने आभूषण उस वस्त्र में लपेटकर नीचे गिरा दिए । वानरों ने वह वस्त्र उठा लिया और उसे सँभालकर अपनी गुफा में रख लिया।

दूर अयोध्या में, जो वहाँ की राजधानी थी, विचित्र घटनाएँ हो गई थीं। उस राज्य का राजा दशरथ था और उसके चार पुत्र थे - राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। राम, भगवान विष्णु के अवतार थे और अत्यंत विलक्षण पुरुष थे। उनका विवाह विदेह नरेश की पुत्री सीता से हुआ जो, अपने सौंदर्य तथा अच्छे व्यवहार के लिए विख्यात थी। अपनी वृद्धावस्था के कारण दशरथ ने राम को राजा बनाने का फैसला किया। यद्यपि, ऐसा होने से पूर्व, कुछ ग़लतफ़हमियों के चलते, राजा दशरथ को अपनी मनपसंद रानी कैकेयी को दिए वचन का पालन करना पड़ा, जिसके अंतर्गत राम को चौदह वर्ष का वनवास तथा कैकेयी के पुत्र भरत को अयोध्या की राजगद्दी देना निश्चित हुआ। हालाँकि राजा ने रानी को दो वरदान बहुत पहले दिए थे, परंतु उस रानी ने उन वरदानों को माँगने का यही उचित अवसर समझा। राजा की इन माँगों को पूरा करने में बिलकुल रुचि नहीं थी किंतु जब कैकेयी ने आत्महत्या करने की धमकी दी तो राजा को उसकी बात माननी पड़ी। जब राम को इस बात का पता लगा तो उन्होंने राज्य को त्यागकर अपने पिता का वचन निभाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। उनकी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण ने भी उनके साथ वन में जाने का हठ किया और फिर तीनों चुपचाप वन के लिए प्रस्थान कर गए। राजा दशरथ से वियोग का दुख सहन नहीं हुआ और उसकी मृत्यु हो गई।

जिस समय यह सब हुआ, उस समय कैकेयी का पुत्र भरत वहाँ मौजूद नहीं था। लौटने के बाद जब उसे इस बात का पता लगा तो उसे अपनी माँ पर बहुत ग़ुस्सा आया और उसने सिंहासन स्वीकार करने से मना कर दिया। वह अपने भाई राम से बहुत प्रेम करता था। वह उनके पीछे वन में गया और उनसे वापस चलने का आग्रह करने लगा। परंतु राम ने उसकी बात नहीं मानी और उसको कहा कि अपने पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। भरत अनिच्छा से लौट आया लेकिन उसने अपने भाई की राजगद्दी पर बैठना स्वीकार नहीं किया। उसने राम की पादुकाएँ सिंहासन पर रख दीं और स्वयं नगर के बाहर अपने भाई की तरह कुटिया बनाकर तपस्वी का जीवन जीने लगा।

इस बीच राम, लक्ष्मण और सीता अपना समय वन के आस-पास घूमते और ऋषि-मुनियों से मिलते हुए बिताने लगे। दुर्भाग्य से, उनके वनवास के अंतिम वर्ष में लंका के दुष्ट राक्षसराज, रावण की दृष्टि सीता पर पड़ गई और उसे सीता से प्रेम हो गया । वह सीता का अपहरण करके उन्हें अपने साथ लंका ले गया। ऋष्यमूक पर्वत के ऊपर से गुज़रते समय सीता ने ही अपने आभूषणों की पोटली बनाकर नीचे फेंकी थी, जहाँ हनुमान तथा सुग्रीव बैठे हुए थे।

इधर, राम परेशान हो गए और उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे सीता को कहाँ खोजें। लक्ष्मण ने राम को दिलासा दी और वे दोनों सीता को खोजते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते रहे। मार्ग में उनकी भेंट एक वृद्धा तपस्विनी शबरी से हुई, जिसने उन्हें सुग्रीव नाम के वानर से मिलने का सुझाव दिया। इस बात को ध्यान में रखते हुए वे दोनों भाई, सुग्रीव की तलाश में ऋष्यमूक पर्वत की ओर जा रहे थे।

वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित, राम व हनुमान की सुप्रसिद्ध भेंट से पूर्व, हम एक अन्य बहुत सुंदर कथा के बारे में जानेंगे, जिसमें बताया गया है कि राम और हनुमान की भेंट बचपन में ही हो गई थी।

यह जानते हुए कि भगवान विष्णु ने राम के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया है, भगवान शिव के मन में राम के दर्शन करने और उनकी बाल-लीला की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने महल के भीतर प्रवेश करने के लिए अनेक रूप धारण किए। उन्होंने राम को देखने के लिए ज्योतिषी, भिक्षु और भाट का रूप भी धारण किया, किंतु उनके सभी प्रयास असफल हो गए। अंत में उन्होंने मदारी का रूप धारण करके अपने साथ एक बंदर ले जाने का फैसला किया। इसके लिए शिव, अंजना की गुफा में गए और अंजना से उसके पुत्र को अपने साथ भेजने की प्रार्थना की। अंजना ने अपने इष्ट देव को पहचान लिया और उन्हें प्रणाम करके हनुमान को उनके समक्ष लाकर खड़ा कर दिया। मारुति को भी शिव बहुत परिचित-से लगे। उनके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा, “ये और मैं एक हैं!”

शिव ने शिशु वानर के गले में रस्सी बाँधी और ऐसा करने के लिए उससे क्षमा भी माँगी। वे अयोध्या में जहाँ भी गए, उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। मारुति ने अपने चातुर्यपूर्ण करतबों से सबको मुग्ध कर दिया। जब वे राजमहल के द्वार पर पहुँचे तो द्वारपाल ने उन्हें कठोरता से लौट जाने को कहा। शिव, मदारी का रूप धारण किए वहीं खड़े डमरू बजाते रहे। महल के अंदर से राम ने, जो उस समय सिर्फ़ केवल चार वर्ष के थे, डमरू की आवाज़ सुनी तो उसे देखने का हठ करने लगे। विवश होकर दशरथ ने मदारी को महल के भीतर बुलाने का आदेश दे दिया। महल के प्रांगण में दोनों ने मिलकर राजकुमारों को अपना तमाशा दिखाए। यह कोई साधारण तमाशा नहीं था, क्योंकि डमरू बजाने वाले, स्वयं नृत्य के देवता नटराज थे, जो उस समय साधारण मदारी के रूप में नाच रहे थे। भगवान विष्णु, जो सारे संसार को अपनी धुन पर नचाते हैं, प्रसन्नतापूर्वक ताली बजा रहे थे। बंदर के करतब के अतिरिक्त, उनका किसी अन्य बात पर ध्यान नहीं था। वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मदारी और नाचते हुए बंदर को देख रहे थे। दरबार में राजगुरु वसिष्ठ के अतिरिक्त किसी को इस रहस्य का पता नहीं लगा। वसिष्ठ ने आदरपूर्वक शिव को प्रणाम किया।

नाच समाप्त होने के बाद, मदारी और बंदर को अनमोल उपहार दिए गए किंतु जब वे जाने लगे तो राम रोने लगे और उन्होंने इस बात के लिए हठ किया कि उस बंदर को वहीं रहने दिया जाए। राम की माता को मदारी से यह कहते हुए संकोच हो रहा था कि वह अपनी आजीविका के साधन को वहीं छोड़ जाए। तभी मदारी अदृश्य हो गया और बंदर उछलकर राम की गोद में आ गया। उसके बाद से हनुमान, राम के साथ रहने लगे। दिन के समय, वे राजकुमारों की सेवा करते और उनके साथ खेलते थे। वे उनकी गेंद लेकर आते, पतंगों की डोर सुलझाते तथा राजकुमारों के चौसर खेलते समय, हनुमान उनको पंखा झलते थे। वे नदी पर उनकी नाव चलाते और सरयू नदी में स्नान करते समय राजकुमारों की रक्षा करते थे। धनुर्विद्या के अभ्यास के दौरान, हनुमान उनके बाण लेकर आते और पेड़ पर चढ़कर उनके लिए फल तोड़ते थे। इसके पुरस्कारस्वरूप, हनुमान को राम के साथ उनकी शय्या पर सोने, उनकी थाली का बचा हुआ भोजन खाने तथा उनके कंधे पर बैठकर घूमने की अनुमति थी। गुरु विश्वामित्र द्वारा अपने यज्ञ की रक्षा हेतु राम को अपने साथ वन ले जाने तक हनुमान राम के साथ उनके पालतू पशु बनकर रहे। वन को जाते समय, राम ने हनुमान को धीरे-से कहा कि वे किष्किंधा जाकर सुग्रीव की सेवा करें तथा राम के वहाँ आने की प्रतीक्षा करें।

वाल्मीकि द्वारा लिखी कथा में राम और लक्ष्मण की उपमहाद्वीप की यात्रा का वर्णन है तथा उनकी शबरी नामक भीलनी का भी उल्लेख है, जिसने राम को सुग्रीव के पास जाने का सुझाव दिया था। सुग्रीव, हनुमान तथा अपने अन्य मंत्रियों के साथ एक वृक्ष के नीचे बैठा था जब उन लोगों ने राम और लक्ष्मण को पर्वत के ऊपर आते देखा। सदा की भाँति, ग़लतफ़हमियों से ग्रस्त सुग्रीव भयभीत हो गया। उसे लगा कि अवश्य ही बाली ने उसे मारने के लिए उन दोनों को वहाँ भेजा होगा। हनुमान ने पर्वत की चोटी पर चढ़कर देखा कि वे दोनों ऊपर ही आ रहे हैं। राम को देखते ही हनुमान उल्लास से भर उठे परंतु वे उसका कारण नहीं बता सकते थे। हनुमान को लगा कि उन्हें ईश्वर के दर्शन हो गए। उन्होंने अपने दोनों हाथ सिर के ऊपर रखकर राम को प्रणाम किया। फिर हनुमान ने सुग्रीव से कहा कि उन्हें इस बात का विश्वास है कि उन दोनों को बाली ने नहीं भेजा है और किसी बुरी नीयत से वहाँ नहीं आए हैं। परंतु सुग्रीव को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने हनुमान को वेश बदलकर उन दोनों के वहाँ आने का उद्देश्य पता करने भेजा। हनुमान ने एक युवा ब्राह्मण का रूप धारण किया और दोनों भाइयों से मिलने पहुँच गए। राम और हनुमान की इस भेंट के, न केवल हनुमान के लिए अपितु आगामी युगों में समस्त भक्तों के लिए, दूरगामी परिणाम होने वाले थे।

ज्यों ही हनुमान, राम व लक्ष्मण के पास पहुँचे, उन्हें इतनी प्रसन्नता हुई जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हनुमान का मन साफ़ और शुद्ध था तथा उनके मन में किसी तरह का संदेह उत्पन्न नहीं हुआ। उस समय, पंछी सामान्य की अपेक्षा अधिक मधुरता से चहक रहे थे । दक्षिण दिशा से आने वाली मंद, शीतल एवं सुगंधित हवा बह रही थी, जो एक प्रकार से हनुमान के पिता का आशीर्वाद था। वृक्षों से लिपटी बेलें मानो उनके चरणों में पुष्प अर्पित कर रही थीं। उन्हें एक बार भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि यही वह घटना है, जहाँ से उनके जीवन में नया मोड़ आएगा और यह कि उनकी भेंट अपने स्वामी से होने वाली है जिनकी सेवा में फिर उन्हें पूरा जीवन बिताना है !

हनुमान, एक छलाँग में दोनों भाइयों के निकट आ गए और फिर वेश बदलकर उनके सामने पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया।

हनुमान के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं में से उनका सर्वश्रेष्ठ गुण उनकी वाक्पटुता थी, जिसके कारण वे अपने स्वामी राम को अत्यंत प्रिय और आकर्षक लगते थे। हनुमान जब पहली बार दोनों भाइयों के पास पहुँचे तो उन्हें बहुत अच्छा लगा तथा बुद्धि, विवेक, विचार और वाक्पटुता के उनके सभी गुण उभर आए। हनुमान ने उन दोनों को प्रणाम करके मृदु व सुखद वाणी में उन्हें संबोधित किया। वाल्मीकि ने रामायण में इसका बहुत सुंदर विवरण दिया है।

“अदम्य बल, अचल शक्ति, कठोर प्रण एवं विलक्षण रूप वाले आप दोनों तपस्वी, इस क्षेत्र में किस प्रयोजन से आए हैं? आपको देखने से लगता है कि आप कोई राजर्षि अथवा देवगण हैं। ऐसा लगता है मानो आप कुछ खोज रहे हैं। आपके आने से इस झिलमिलाते जल सरोवर का सौंदर्य और बढ़ गया है। आप दोनों कमल जैसे नेत्रों वाले तथा जटाजूटघारी प्रतीत हो रहे हैं! आप दोनों वीर स्वर्गलोक से आए हुए लगते हैं!"

इतना कहने पर भी दोनों भाइयों को शांत खड़ा देखकर हनुमान ने उन्हें अपना परिचय दिया। “मैं एक वानर हूँ और मेरा नाम हनुमान है। मुझे सुग्रीव नामक सद्गुणी वानर ने आपके पास भेजा है। वे आपसे मित्रता करना चाहते हैं और उन्होंने मुझे आपसे बातचीत करने के लिए भेजा है।” वास्तव में, यह अंतिम पद्यांश विवेकी हनुमान ने स्वयं ही जोड़ दिया था क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे दोनों भाई सुग्रीव की सहायता करने में समर्थ हैं।

वाल्मीकि ने हनुमान को आदर्श वक्ता के रूप में प्रस्तुत किया है, जिन्होंने अपने शब्दों के जादू और कौशलपूर्ण अभिव्यक्ति से अजनबी राम का हृदय जीत लिया था।

ब्राह्मण के व्यवहार से राम विस्मित हो गए और हनुमान की मधुर वाणी ने उन्हें पूरी तरह मुग्ध कर दिया। राम ने लक्ष्मण से कहा कि जिसने वेदों का अभ्यास किया हो, केवल वही इस तरह की भाषा बोल सकता है। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि हनुमान की आकृति, आँखों, भँवों उनके मस्तक व अंगों में किसी प्रकार का दोष नहीं था ।

“हे लक्ष्मण ! इन्होंने पूर्ण, विशिष्ट और विलक्षण भाषण दिया है जो व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध, धाराप्रवाह और सुनने में मधुर था। कोई शत्रु, जिसके हाथ में तलवार हो, वह भी इस भाषण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। "

राम व हनुमान के मन में एक दूसरे के प्रति बनी प्रथम छवि, पारस्परिक आकर्षण में बदल गई जिसने उन दोनों को जीवनभर के लिए निस्वार्थ सेवा, त्याग एवं निष्ठापूर्ण गाथा में बाँध दिया। इसके बाद महाकाव्य में हुई सभी घटनाएँ उन्हें निकट ले आईं जिससे उनके बीच प्रेम, प्रशंसा और तालमेल प्रगाढ़ होता गया।

इस क्षण के बाद से, हनुमान ने राम को अपना इष्ट मान लिया। वे केवल राम को ही परमेश्वर मानते थे। हनुमान का मस्तिष्क और बुद्धि पूर्ण रूप से राम के प्रति समर्पित थे।

" अपने स्वामी के प्रति निस्वार्थ सेवा और एकनिष्ठ समर्पण भरे जीवन ने हनुमान के आध्यात्मिक उत्थान को त्वरित कर दिया। संसार के भक्तिमय साहित्य में राम के प्रति हनुमान की भक्ति की किसी से बराबरी नहीं की जा सकती। वह सदैव संसार के सबसे पवित्र और सर्वश्रेष्ठ भक्त माने जाएँगे। वाल्मीकि कहते हैं कि अत्यंत सामान्य ढंग से लिया गया राम का नाम भी, हनुमान की आँखों में हर्ष के आँसू लाने और उन्हें अपने इष्ट के समक्ष करबद्ध होने के लिए पर्याप्त था।

लक्ष्मण ने हनुमान से कहा, “हम कोसलनरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं। ये महाराज के ज्येष्ठ पुत्र तथा मेरे बड़े भाई राम हैं और मैं इनका अनुज लक्ष्मण हूँ। ठीक उसी समय, जब इनका राज्याभिषेक होने वाला था, नियति की अक्षम्य चाल के कारण इन्हें इनके राज्याधिकार से वंचित कर दिया गया और फिर ये अपनी पत्नी सीता और मुझे साथ लेकर वन में रहने लगे। इनकी पत्नी देवी लक्ष्मी का वास्तविक रूप हैं तथा उनका सही स्थान आभूषण एवं सुख-सुविधाओं से युक्त राजमहल में है। परंतु उन्होंने भी राम के साथ वन में रहने का निश्चय किया। दुर्भाग्य से, एक राक्षस, जिसके विषय में हमें पता नहीं है, सीता का हरण करके अपने साथ ले गया है। हमें महान साध्वी शबरी ने बताया कि हमें वानरों के मुखिया सुग्रीव का सहयोग लेना चाहिए क्योंकि वही हमारी इस कार्य में सहायता कर सकेंगे।"

लक्ष्मण ने यह भी कहा कि सुग्रीव का नाम उन्हें कबंध नाम के दैत्य ने भी बताया था जिसे उन्होंने शाप से मुक्त किया था।

“हमें यह जानकर सचमुच बहुत प्रसन्नता हुई कि आप सुग्रीव के मंत्री हैं। ऐसे दूत के अभिवचन द्वारा महाराज के सभी प्रयोजन पूर्ण हो जाएँगे। मेरे प्रिय भाई, इस राज्य के शासक हैं किंतु नियति की क्रूरतावश इन्हें भिक्षु की तरह जीवनयापन करना पड़ रहा है। इनकी पत्नी सीता को खोजने में, हमें आपके स्वामी सुग्रीव की सहायता लेने में प्रसन्नता होगी।”

हनुमान ने कहा, “सुग्रीव भी उसी मुसीबत में हैं, जिसमे आपके भाई फँसे हैं। सुग्रीव के भाई ने उनका राज्य और पत्नी दोनों छीन लिए हैं। सुग्रीव को राज्य से निष्कासित कर दिया है, जिसके कारण उन्होंने इस पर्वत पर शरण ली हुई है। वे अवश्य सीता को खोजने में आपकी सहायता करेंगे।”

लक्ष्मण ने राम से कहा, “भैया, लगता है हम लोगों की भेंट सही समय पर सही व्यक्ति से हुई है। हमें इनके साथ चलकर सुग्रीव से मिलना चाहिए । ”

राम द्वारा निस्वार्थ भाव से राज्याधिकार के त्याग की कथा सुनकर हनुमान के मन में उनके लिए जो प्रशंसा का भाव था, वह आदर और प्रेम में बदल गया। वे समझ गए कि राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं बल्कि महान एवं पूजनीय व्यक्ति हैं।

राम सहर्ष सुग्रीव से मिलने के लिए तैयार हो गए किंतु हनुमान जानते थे कि वे दोनों भाई ऋष्यमूक पर्वत की असंभव चढ़ाई नहीं चढ़ सकेंगे। उन्होंने फिर से अपना वानर रूप धारण कर लिया और दोनों भाइयों को अपने एक-एक कंधे पर बैठाकर छलाँग लगाते हुए पर्वत शिखर पर चढ़ गए जहाँ सुग्रीव अपने अन्य मंत्रियों के साथ बैठा हुआ था।

राम और लक्ष्मण को सुग्रीव के सामने धरती पर उतारते हुए हनुमान ने कहा, “ये इक्ष्वाकु वंशज राम और इनके भाई लक्ष्मण हैं। ये दोनों महाराज दशरथ के पुत्र हैं। अपनी पत्नी कैकेयी को दिए वचन की रक्षा हेतु दशरथ ने राम को वनवास जाने को कह दिया। ये अपने भाई और पत्नी के साथ वन में चले आए। दुर्भाग्य से, किसी राक्षस ने इनकी पत्नी का हरण कर लिया है और अब ये उन्हें खोजने के उद्देश्य से आपकी सहायता हेतु यहाँ आए हैं।”

सुग्रीव, जो अब तक उन्हें संदेहपूर्वक देख रहा था, आगे बढ़ा और उसने राम के हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा, "यह मेरा सौभाग्य है कि आप मेरी सहायता लेने यहाँ आए हैं। आइए, हम लोग मित्र बन जाएँ तथा एक-दूसरे की सहायता करने का प्रण लें। यदि आप मेरे भाई बाली को मारकर, मेरी पत्नी और मेरा राज्य मुझे वापस दिलाने का वचन देंगे तो मैं भी यह वचन देता हूँ कि आपकी पत्नी को खोजने में आपकी सहायता करूंगा!"

राम ने सुग्रीव की पूरी कहानी सुनी, जो उनकी अपनी कहानी से बहुत मिलती थी। फिर राम ने कहा, “धर्म ही सभ्यता का नियम है। वह इच्छा पर नहीं, अपितु कर्त्तव्य पर आधारित होता है और वही सामाजिक स्थिरता को सुनिश्चित करता है। जो धर्म की रक्षा करता है, वही आर्य है और जो उसकी रक्षा नहीं करता, वह राक्षस होता है। बाली पशु है, बर्बर जाति का है तथा रावण से किसी भी तरह भिन्न नहीं है। वे दोनों बल के प्रयोग को उचित समझते हैं। दोनों ज़बरदस्ती राजा बन बैठे हैं और दोनों ही विवाह की पवित्रता को नहीं मानते। यदि सभ्यता को स्थापित करना है तो बाली और रावण जैसे लोगों का संहार करना आवश्यक है।”

हनुमान ने तुरंत अग्नि प्रज्ज्वलित की तथा राम व सुग्रीव को आमने-सामने खड़ा करके अग्नि को साक्षी बनाकर दोनों के बीच मैत्री संधि स्थापित कर दी। उन्होंने पुष्प अर्पित करके अग्नि की पूजा की तथा उसके तीन बार परिक्रमा करके, एक-दूसरे की सहायता करने का वचन दिया। इसके बाद दोनों ने एकदूसरे को गले लगाकर परस्पर शाश्वत मैत्री का प्रण लिया।

सुग्रीव ने फूलों से लदी एक डाल तोड़ी और उसे धरती पर बिछाकर राम के लिए आसन बना दिया। हनुमान ने भी लक्ष्मण के लिए ऐसा ही किया।

आराम से बैठने के बाद, सुग्रीव ने अपनी दयनीय कथा राम को सुनाई और राम से बाली को मारने की प्रार्थना की क्योंकि बाली ने सुग्रीव को अपमानित किया था और उसके साथ दुर्व्यवहार किया था ।

राम ने मुस्कराते हुए कहा, “मेरे बाण सर्पदंत की तरह पैने हैं और उनसे तुम्हारा भाई तत्काल मारा जएगा। इसलिए अब तुम मत घबराओ !”

सुग्रीव ने राम से कहा, “मुझे हनुमान ने बताया था, किस तरह वह राक्षस आपकी प्रिय पत्नी को उठाकर ले गया है। आप भरोसा करें कि उसने आपकी पत्नी को धरती या आकाश में कहीं भी छिपाया हो, मैं उन्हें आपको वापस लाकर दूँगा। आप दुखी न हों, आपकी प्रिय पत्नी अवश्य ही वापस मिलेगी! मुझे लगता है कि रावण ने ही उनका हरण किया है। मेरे विचार से वह उन्हीं को अपने हवाई रथ में यहाँ से ले जा रहा था।”

राम को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने सुग्रीव को पूरी कथा सुनाने को कहा।

सुग्रीव ने कहा, “जिस समय मैं और हनुमान चार अन्य लोगों के साथ इस पर्वत पर बैठे हुए थे तो हमने ऊपर से एक रथ को जाते देखा। मुझे लगता है कि उसमें रावण ही बैठा था। उसने अपनी बाँहों में एक अत्यंत सुंदर स्त्री को जकड़ रखा था। वह छटपटाते हुए चिला रही थी, “राम! लक्ष्मण! मुझे बचाओ! मेरी रक्षा करो!”

“हमें नीचे खड़ा देखकर, उस स्त्री ने ऊपरी वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़ा और उसमें अपने आभूषण बाँधकर, रावण की नज़र बचाकर नीचे फेंक दिया। हमने वह पोटली सँभालकर रखी है। मैं वह आपको दिखाता हूँ। आप उसे पहचानिए कि क्या वे आभूषण आपकी पत्नी के हैं।”

यह सुनकर राम बहुत उत्सुक हो गए और उन्होंने सुग्रीव को तुरंत वह पोटली दिखाने को कहा। सुग्रीव, गुफा के भीतर गया और एक वस्त्र का टुकड़ा लेकर आया तथा राम को दे दिया। राम ने उस वस्त्र को खोला और उसमें रखे अपनी प्रिय पत्नी के आभूषण देखे। उन्होंने उसे अपने हृदय से लगाया तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उनसे कुछ बोला नहीं गया। अंत में उन्होंने स्वयं को सँभाला और लक्ष्मण को वे आभूषण दिखाते हुए बोले, “लक्ष्मण क्या तुमने विदेहकुमारी के इन आभूषणों को नहीं पहचाना?”

लक्ष्मण ने उत्तर दिया, “मैं उनकी पायल तो पहचानता हूँ, जिन्हें मैं उनके चरण स्पर्श करते समय सदा देखा करता था, परंतु मैंने उन्हें गर्दन से ऊपर कभी नहीं देखा । ”

“हे सुग्रीव!” राम ने कहा, “क्या तुमने देखा, वह दुष्ट रावण मेरी सीता को कहाँ ले गया है? उसका अंत अब निकट है क्योंकि मैं अवश्य ही उसका पीछा करूँगा और उसे मार डालूँगा।”

सुग्रीव ने कहा, “यद्यपि मैं जानता हूँ कि वह लंका का राजा है, मुझे उसके निवास का ठीक से पता नहीं है। परंतु मैं वचन देता हूँ कि मेरे वानर उसे खोज निकालेंगे और सीता को वापस ले आएँगे। आपके जैसे श्रेष्ठ पुरुष को इस तरह शोक करना शोभा नहीं देता।”

उसी समय, बहुत दूर लंका में सीता की बाईं आँख फड़कने लगी और ऐसा ही किष्किंधा में बाली को महसूस हुआ। इधर रावण के भी दसों बाएँ नेत्र फड़कने लगे। बाएँ अंग का फड़कना, स्त्रियों के लिए शुभ संकेत परंतु पुरुषों के लिए अशुभ संकेत माना जाता है।

यह सुनकर राम ने शोक करना बंद कर दिया और सुग्रीव के साथ उसके भाई के हाथों हुए अन्याय की कथा सुनने लगे। फिर उन्होंने सुग्रीव को भरोसा दिलाया कि वे बाली को अवश्य मार देंगे। हालाँकि सुग्रीव पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ क्योंकि वह अपने भाई की विलक्षण शक्तियों से परिचित था और उसे डर था कि दुबले-पतले राम उसके भाई का मुक़ाबला नहीं कर सकेंगे।

वह झिझकते हुए बोला, “मैं जानता हूँ कि आप बहुत बलशाली हैं किंतु निरंतर हुए उत्पीड़न ने मुझे डरपोक बना दिया है। मैं विश्वास से नहीं कह सकता कि आप उस शक्तिशाली बाली को लड़ाई में पराजित कर सकेंगे। दरअसल, वह इतना ताक़तवर है कि एक बार उसने रावण को भी अपने वश में कर लिया था।” इसके बाद, वह राम को बाली के बारे में बताने लगा।

“एक बार निशाचर रावण के मन में इंद्र को परास्त करके, स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा जागृत हुई। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र मेघनाद को बुलाया और अपनी इच्छा बताई।”

मेघनाद बोला, “पिताश्री! आप मुझसे यह कहने में इतना संकोच क्यों कर रहे हैं? आप केवल आदेश कीजिए और आप जानते हैं कि मैं आपकी आज्ञा का तत्काल पालन करूँगा। आइए, हम इंद्र के स्वर्गलोक चलते हैं और उसे बंदी बना लेते हैं।”

वे दोनों इंद्र के पास गए और उसे चुनौती दे डाली। इंद्र उस युद्ध के परिणाम के प्रति आश्वस्त नहीं था इसलिए वह युद्ध के लिए अनिच्छुक था। परंतु वह युद्ध के लिए मना भी नहीं कर सकता था इसलिए वह तैयार हो गया। युद्ध आरंभ हुआ तो शीघ्र ही, स्पष्ट हो गया कि रावण की पराजय होने वाली है। यह देखकर, उसका पुत्र मेघनाद युद्ध में उतर आया। उसने आसानी से इंद्र को परास्त कर दिया और उसे बंदी बनाकर अपने पिता के सामने डाल दिया। इसी वीरता के कारण मेघनाद को उसका नया नाम इंद्रजित (जिसने इंद्र को जीत लिया हो) मिला। रावण ने इंद्र को बंदी बना लिया और वहीं प्रांगण के बीच में स्तंभ से बाँध दिया ताकि सब लोग उसे देख सकें। इसके बाद उसने स्वर्गलोक को लूटा। उसे अपनी महानता पर बहुत गर्व हो रहा था। नारद ने इंद्र की दयनीय स्थिति के विषय में ब्रह्मा को बताया। ब्रह्मा ने रावण को बहुत से वरदान दिए थे जिनके कारण वह अजेय हो गया था । ब्रह्मा को इस बात पर ग्लानि महसूस हुई तो वे लंका गए और रावण से कहकर इंद्र को छुड़ा लाए। इंद्र इस घटना पर लज्जित हो रहा था और वह चुपचाप यह सोचकर स्वर्गलोक आ गया कि अन्य देवताओं को इस बात का पता नहीं लगा होगा। हालाँकि उसके तुरंत बाद, नारद भी वहाँ आ गए और उन्होंने इंद्र को रावण से बदला लेने का तरीक़ा बताया।

“एकमात्र आपका पुत्र, बाली ही रावण के घमंड को चूर कर सकता है, ” नारद बोले।

“आप यह सब मुझपर छोड़ दीजिए। मैं आपको न्याय दिलवाऊँगा!” यह कहकर नारद लंका चले गए जहाँ रावण ने उनका स्वागत किया। फिर नारद ने रावण के अहंकार को हवा देते हुए कहा बाली नाम का एक वानर, जो इंद्र का एक पुत्र है, सबको कहता घूम रहा है कि जिसने भी उसके पिता का अपमान किया है, वह उससे प्रतिशोध लेगा! रावण को यह सुनकर बहुत गुस्सा आया और उसने उस धृष्ट बाली वानर को सबक सिखाने का निश्चय किया। वह अपने समस्त अस्त्र-शस्त्रों और सेना के साथ बाली के पास जाने के लिए तैयार हो गया। नारद ने उसकी ये तैयारियाँ देखीं तो हँसते हुए कहा, “वह केवल एक वानर है। आपको उसे परास्त करने के लिए सेना और शस्त्रादि की आवश्यकता नहीं है। उसे बाँधने के लिए आपको केवल एक रस्सी चाहिए। इससे पहले कि उसे किसी बात का पता लगे, आप उसे पीछे से बाँध लीजिए!”

यह सुनकर रावण ने अपने अस्त्र-शस्त्र और सेना को वहीं छोड़ दिया और बाली की तलाश में निकल पड़ा। नारद इस तमाशे से वंचित नहीं रहना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भी रावण के साथ चलने पर ज़ोर दिया। वे दोनों दक्षिणी समुद्र के पार पहुँचे तो उन्होंने देखा कि बाली समुद्र तट पर ध्यान में लीन बैठा था। बाली को आदत थी कि वह प्रतिदिन सुबह स्नानादि और ध्यान के लिए छलाँग लगाकर एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक जाता था।

बाली की अतिविशाल काया देखकर पहले तो रावण भयभीत हो गया, लेकिन नारद ने उसे उकसाया और कहा कि वह पीछे से जाकर बाली की पूँछ पकड़ ले और फिर उसे रस्सी से बाँध ले। वानर की शक्ति उसकी पूँछ में ही होती है और बाली की पूँछ तो अत्यंत विशेष थी । वास्तव में उसकी असाधारण रूप से लंबी और बलशाली पूँछ के कारण ही उसका नाम बाली रखा गया था। पूँछ को संस्कृत में ‘वाल' कहते हैं।

रावण चुपचाप पीछे से गया और उसने बाली की पूँछ पकड़ ली। परंतु बाली पूजा करता रहा और उसने केवल रावण का हाथ, अपनी पूँछ में लपेट लिया। रावण ने जब अपना दूसरा हाथ आगे बढ़ाया तो बाली ने उसे भी पूँछ में लपेट लिया। शीघ्र ही बाली ने रावण का पूरा शरीर अपनी पूँछ में लपेट लिया। वह शांति से बैठा पूजा भी करता रहा! नारद को लगा कि अब वहाँ से भाग निकलने में भलाई है!

बाली ने अपनी पूँछ कसकर रावण के पूरे शरीर पर लपेट ली। रावण का केवल मुँह दिखाई दे रहा था। रावण को इसी तरह अपनी पूँछ में लपेटकर बाली एक समुद्र से दूसरे समुद्र उछलता रहा और हर बार जब वह समुद्र में डुबकी लगाता तो रावण को भी सागर के खारे पानी में डुबो देता था! बहुत समय तक यही सिलसिला चलता रहा। अंत में, रावण के पुत्र इंद्रजित को अपने पिता की चिंता हुई और वह बाली से लड़ने को तैयार हो गया। इस अवसर पर, नारद ने इंद्रजित को बाली से लड़ने के लिए मना किया और कहा कि बाली की रावण से कोई शत्रुता नहीं है, बल्कि वह तो इंद्रजित की ही प्रतीक्षा कर रहा है, जिसने उसके पिता इंद्र को बंदी बनाया था। नारद ने इंद्रजित को यह भी कहा कि यदि वह बाली से लड़ने गया तो बाली उसे अवश्य मार डालेगा। उन्होंने इंद्रजित को धैर्य रखने का सुझाव दिया और कहा कि एक दिन बाली, रावण को स्वयं ही छोड़ देगा।

जैसा कि होना तय था, बाली रावण को अपनी पूँछ में लेकर घूमते-घूमते थक गया और फिर उसने रावण को मुक्त कर दिया। रावण बुरी तरह परास्त हो गया था। उसने बाली से क्षमा माँगी । बाली ने रावण को इस शर्त पर क्षमा किया कि वह और उसका पुत्र इंद्रजित फिर कभी स्वर्गलोक जाकर उसके पिता को परेशान नहीं करेंगे। इसके बदले, बाली ने भी रावण को वचन दिया कि वह न तो कभी रावण के विरुद्ध युद्ध करेगा और न ही रावण को पराजित करने वालों का पक्ष लेगा।

राम को बलि की शक्ति का एहसास करवाने के लिए सुग्रीव ने उन्हें यह कथा सुनाई थी। उसने राम को यह भी बताया कि बाली को यह वरदान मिला हुआ था कि जो भी उससे युद्ध करेगा, उसकी आधी शक्ति, बाली में समा जाएगी। यह भी कारण था कि राम ने बाली को पेड़ के पीछे से छिपकर मारा था।