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महाराजा छत्रसाल


छत्रसाल (4 मई, 1649-20 दिसंबर, 1731) भारत के मध्ययुग के एक महान् राजपूत (क्षत्रिय) प्रतापी योद्धा थे, जिन्होंने मुगल शासक औरंगजेब को युद्ध में पराजित करके बुंदेलखंड में अपना राज्य स्थापित किया और ‘महाराजा’ की पदवी प्राप्त की। छत्रसाल बुंदेला का जीवन मुगलों की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष और बुंदेलखंड की स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए जूझते हुए बीता। महाराजा छत्रसाल बुंदेला अपने जीवन के अंतिम समय तक आक्रमणों से जूझते रहे। बुंदेलखंड केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल बुंदेला के बारे में ये पंक्तियाँ बहुत प्रभावशाली हैं—
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥

चंपतराय बुंदेला जब समर भूमि में जीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे, उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत् 1707 (सन् 1641) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिधोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास-पुरुष छत्रसाल बुंदेला का जन्म हुआ। छत्रसाल ओरछा के रुद्र प्रताप सिंह के वंशज थे। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय बुंदेला की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जनमे, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ। पाँच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेरे के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात् ही वे बड़े भाई अंगद बुंदेला के साथ देवगढ़ चले गए। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल बुंदेला ने परमार वंश की कन्या देवकुँअरी से विवाह किया। जिसने आँख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पाई हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर माँ-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था राजपूती शौर्य, संस्कार, बहादुर माँ-बाप का अदम्य साहस और ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ का गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया, वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुँचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया। राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे, अतः औरंगजेब ने जब उन्हें दक्षिण-विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल बुंदेला को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। 1665 में बीजापुर युद्ध में छत्रसाल बुंदेला ने असाधारण वीरता दिखाई और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गौंड राजा को पराजित करने में तो उन्होंने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गया, उनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते। इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बाँध मुगल भाई-भतीजेवाद में बँट गया तो छत्रसाल बुंदेला का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी। इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन् 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो छत्रपति शिवाजी महाराज ने छत्रसाल बुंदेला को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी।
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो॥
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें॥

शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन् 1670 में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आए, परंतु तत्कालीन बुंदेलखंड भूमि की स्थितियाँ बिल्कुल भिन्न थीं। अधिकांश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल बुंदेला के भाईबंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछा नरेश सुजान सिंह बुंदेला ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया, तब छत्रसाल बुंदेला ने राजाओं की बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं, उनके बचपन के साथी महाबली ने उनकी धरोहर, थोड़ी सी पैतृक संपत्ति के रूप में वापस की, जिससे छत्रसाल बुंदेला ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. 1728 (सन् 1671) के शुभ मुहूर्त में औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।

औरंगजेब से युद्ध

औरंगजेब छत्रसाल को पराजित करने में सफल नहीं हो पाया। उसने रणदूलह के नेतृत्व में 30 हजार सैनिकों की टुकड़ी मुगल सरदारों के साथ छत्रसाल का पीछा करने के लिए भेजी थी। छत्रसाल अपने रणकौशल व छापामार युद्ध नीति के बल पर मुगलों के छक्के छुड़ाता रहे। छत्रसाल ने मुगल सेना से इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकाल सहित अनेक स्थानों पर लड़ाई लड़ी। छत्रसाल की शक्ति बढ़ती गई। बंदी बनाए गए मुगल सरदारों से छत्रसाल ने दंड वसूला और उन्हें मुक्त कर दिया। बुंदेलखंड से मुगलों का एकछत्र शासन छत्रसाल ने समाप्त कर दिया।

छत्रसाल बुंदेला का राज्याभिषेक

छत्रसाल बुंदेला के राष्ट्र प्रेम, वीरता और हिंदुत्व के कारण छत्रसाल बुंदेला को भारी जनसमर्थन प्राप्त हुआ, अतः छत्रसाल बुंदेला ने एक विशाल सेना तैयार कर ली। इसमें 72 प्रमुख सरदार थे। वसिया के युद्ध के बाद मुगलों ने छत्रसाल बुंदेला को ‘महाराजा’ की मान्यता प्रदान की थी। उसके बाद छत्रसाल बुंदेला ने ‘कालिंजर का किला’ भी जीता और मांधाता को किलेदार घोषित किया। छत्रसाल ने 1678 में पन्ना में राजधानी स्थापित की। विक्रम संवत् 1744 में योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया था। छत्रसाल के शौर्य और पराक्रम से आहत मुगल सरदार तहवर खाँ, अनवर खाँ, सहरुद्दीन, हमीद बुंदेलखंड से दिल्ली का रुख कर चुके थे। बहलोद खाँ छत्रसाल के साथ लड़ाई में मारा गया था। मुराद खाँ, दलेह खाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार बुंदेला वीरों से पराजित होकर भाग गए थे। छत्रसाल के गुरु प्राणनाथ आजीवन क्षत्रिय एकता के संदेश देते रहे। उनके द्वारा दिए गए उपदेश ‘कुलजम स्वरूप’ में एकत्र किए गए। पन्ना में प्राणनाथ की समाधि-स्थल है, जो उनके अनुयायियों का तीर्थ स्थल है। प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। किंवदंती है कि जहाँ तक छत्रसाल बुंदेला के घोड़े की टापों के पदचाप बनी वह धरा धनधान्य व रत्न-संपन्न हो गई। छत्रसाल बुंदेला के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ गौरव के साथ दोहरायी जाती है—
इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौंस॥

छत्रसाल बुंदेला अपने समय के महान् शूरवीर, संगठक, कुशल और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल बुंदेला को अपने जीवन की संध्या में भी आक्रमणों से जूझना पड़ा। 1729 में सम्राट् मुहम्मद शाह के शासनकाल में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने छत्रसाल पर आक्रमण किया। उसकी इच्छा एरच, कोंच (जालौन), सेवड़ा, सोपरी, जालौन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुगलों से लड़ने में दतिया, सेवड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। तब छत्रसाल बुंदेला ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा।
जो गति भई गजेंद्र की सो गति पहुँची आय
बाजी जात बुंदेल की राखो बाजीराव।

बाजीराव सेना सहित सहायता के लिए पहुँचा। छत्रसाल और बाजीराव ने बंगस को 30 मार्च, 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हारकर वापस लौट गया। छत्रसाल की पुत्री मस्तानी, बाजीराव प्रथम की द्वितीय पत्नी बनी। 20 दिसंबर, 1731 की मृत्यु के पहले ही छत्रसाल ने महोबा और उसके आसपास का क्षेत्र बाजीराव प्रथम को सौंप दिया था। महाराजा छत्रसाल साहित्य के प्रेमी एवं संरक्षक थे। कई प्रसिद्ध कवि उनके दरबार में रहते थे। कवि भूषण उनमें से एक थे, जिन्होंने ‘छत्रसाल दशक’ लिखा है। इनके अतिरिक्त लाल कवि, बक्षी हंसराज आदि भी थे। इसलिए उस महान् वीर के लिए कहा गया है—
छता तोरे राज में धक धक धरती होय।
जित जित घोड़ा मुख करे उत उत फत्ते होय॥