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रंग-बिरंग

आशा रानी को इधर नौकरी देने से पहले मुझे स्कूल-प्रबन्धक के कमरे में बुलाया गया। स्कूल प्रबन्धक को मेरी समझ पर बहुत भरोसा था और वे प्रत्येक नियुक्ति मेरी संस्तुति पर ही किया करते थे-उनकी राय में पहली कक्षा के पाँच विद्यार्थियों से शुरू किए गए इस स्कूल को बारह वर्ष की अवधि में आठ कक्षाओं के 661 विद्यार्थियों वाले स्कूल में बदल देना मेरे ही परिश्रम एवं उद्यम का परिणामी फल था।

“ प्रणाम, सर, ” उन के कमरे में अपना आसन लेते ही मैं ने उन का अभिवादन किया।

’’आइए, मिस शुक्ल, “ स्कूल-प्रबन्धक ने मेरा स्वागत किया, “मदन लाल की इस विधवा पत्नी का यह प्रार्थना-पत्र जुगल किशोर बनाकर लाए हैं.....’’

जुगल किशोर हमारे स्कूल के हेड-क्लर्क थे और मदन लाल फ़ीस-क्लर्क। किन्तु दुर्भाग्यवश पिछले ही माह मदन लाल की एक सड़क-दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी।

“आशा रानी आप हैं?”मैं ने उसे और उस के प्रार्थना-पत्र को अपनी नज़र में उतारा।

“जी, ” वह रूमाल से अपने आँसू पोंछने लगी। तीस और पैंतीस के बीच की उम्र की वह स्त्री मुझसे एक-दो बरस बड़ी भी हो सकती थी या एक-दो बरस छोटी भी। मैं तैंतीस बरस की हूं। लेकिन जो बैंजनी और चटख पीला रंग वह पहने थी उन्हें मैं हमेशा दूर से ही देखती रही थी। उन दोनों रंगों को अपने पास आने का मौका मैंने कभी न दिया था। पहनावे और दिखावट में मेरा चुनाव सादे और हल्के दिखाव-बनाव की साड़ियों तक ही सीमित रहा करता है।जबकि आशा रानी अपनी रोनी सूरत के बावजूद पूरी तरह से तैयार होकर आई थी। चेहरा तो उस का लिपस्टिक और बिंदी लिए ही था, तिस पर बैंजनी रंग के बार्डर और पल्ले वाली चटख पीली साड़ी के साथ उसने बड़े करीने से अपने बाल एक चटकीले बैंजनी क्लिप में समेट रखे थे।हाथ की उस की चूड़ी और कान की उस की बाली ज़रूर अधमैले से नीले रंग की रहीं।

’’आप बी.ए. तक पढ़ी हैं?’’ मैंने पूछा, ” मगर सर्टिफिकेट साथ नहीं लायीं?”

वह रोने लगी।

“देखिए, ’’ में खीझ गई, ’’आप रोएँगी तो फिर हम कैसे देखेंगे आपको कहाँ रखें ? आप की पढ़ाई देख कर ही तो कोई काम आप को दिया जाएगा…..”

“ बी.ए.पास हूं मैं।सर्टिफिकेट कल लेती आऊंगी, ’’ उसने आँसू लोप हो जाने दिए और प्रकृतिस्थ हो ली, ’’मैं कुछ भी कर सकती हूं।’’

“बी.ए.में कौन सी डिवीज़न पाए हैं?”

“नंबर तो कुछ ऐसे ही थे। थर्ड डिविज़न के।कालेज तो कभी गयी नहीं थी। प्राइवेट से ही परीक्षा दी थी, ” डिवीज़न शब्द बोलते समय उस ने ‘ज़’ की बजाय ‘ज’ का प्रयोग किया।

मैं मन ही मन गर्व से भर ली। बी.ए. क्या, मैं तो अपनी एम.ए.भी प्राइवेट पढ़ाई से किए हूं, मगर डिवीज़न दोनों ही में प्रथम पाए हूं।

“मदन लाल का काम आपको दिया जा सकता है, ’’ मैंने अपना निर्णय सुनाते हुए स्कूल प्रबन्धक की ओर देखा।

“जो आप उचित समझो”, स्कूल प्रबन्धक ने हामी भरी।

“चलती हूं, सर”, मैं ने कहा।

मैं ने अपने दफ़्तर का रास्ता लिया और अपने पीछे आ रहे जुगल किशोर को निर्देश दिया, “कौन-कौन दिन किस - किस जमात की कितनी-कितनी लेट फ़ीस जमा करने का क्या-क्या टाइम रहता है, सब आशा रानी को समझा दीजिए। विस्तार से।”

उन दिनों वार्षिक परीक्षाओं के परिणाम घोषित किये जाने वाले थे और उस से पहले जिन छात्रों की फ़ीस के लेखे- जोखे के आधार पर कुछेक जो भी बकाया रहता था, उन्हें लेट- फ़ीस देने की सुविधा दी गयी थी।

“जी, मैडम।”

हमारा स्कूल प्राइवेट है और इसलिए फ़ीस की रकम और दिन तय करने की हमें पूरी स्वतंत्रता है।

“आज हम जल्दी जाएँगी, दीदी’’, आशा रानी ने अपना रूमाल हवा में लहराया, ” उधर लड़कियाँ हमारे इंतज़ार में घर पर हमारी बाट जोह रही हैं……”

“ कैसी लड़कियाँ ? कौन सी लड़कियां ?” मैंने हैरानी जतलाई।

“जी, दीदी, ’’ वह रो पड़ी, “ आज हम बस आप लोग से मिलने ही आए थे । अपना काम हम कल समझ- बूझ लेंगे।चार- चार लड़कियाँ वह मुझ बेसहारा के सहारे छोड़ गए हैं। सबसे छोटी तो अभी कुल जमा तीन बरस ही की है.....’’

“ओह ?’’ मैं चिढ़ गई, ’’इसका मतलब आपके लिए काम करना सुगम न रहेगा?’’

’’मैडम, ’’ जुगल किशोर बातूनी होते हुए भी मेरे साथ मेरी उपस्थिति में संक्षिप्त बात कहने का आदी था, ’’आप निश्चिन्त रहिए। आज मैं सब देख लूंगा । आशा को आज जा लेने दीजिए। कल से काम शुरू कर देंगी…… ’’

“आप अपने काम से मतलब रखिए, जुगल किशोर जी, ’’ उम्र में जुगल किशोर मुझसे बीस वर्ष बड़ा बेशक रहा किन्तु उसके संग कठोर स्वर प्रयोग में लाने का मुझे अच्छा अभ्यास था, ’’फ़ीस की रसीद काटने का काम आशा रानी ही को करना पडे़गा।’’

“जी, मैडम।”

मैं अपने दफ़्तर की ओर बढ़ ली।

’’फ़ीस की रसीद काटने का काम अगर मैं न करूँ तो ?’’ दस मिनट के अन्दर आशा रानी मेरे दफ़्तर में चली आई, ’’आपकी सेक्रेटरी बन जाऊँ ? तो ? दीदी?’’

’’एक तो यहाँ हेड मिस्ट्रेस को मैडम कहा जाता है, ’’ आशा रानी की सीमा तय करना मेरे लिए अनिवार्य हो गया, ’’दीदी नहीं। और फिर सेक्रेटरी का काम आप कर भी नहीं पाएंंगी। उस के लिए कम्प्यूटर पर टाइप करना आना चाहिए। और मुझे नहीं लगता आप टाइपिंग जानती होंगी। वैसे भी मैं अपनी सेक्रेटरी से बहुत सन्तुष्ट हूँ। मैं उसे बदलना नहीं चाहती।”

“जी, मैडम जी। मुझे कम्प्यूटर के बारे में कुछ मालुम नहीं, मगर मैं कुछ और भी कर सकती हूं। आप की फ़ाइल- वाइल आप की आलमारी से ला- लिवा सकती हूं…..”

“ नहीं, आप जाइए और उधर वह काम देखिए जो आप को दिया गया है..…”

’’लेकिन, दीदी, ’’ आशा रानी मेरी सामने वाली कुर्सी पर बैठ ली, ” मुझे वहां अच्छा नहीं लग रहा। किसी पर-पुरुष के पास पहले कभी बैठी नहीं हूं….”

“हमारे स्कूल में फ़ीस जमा करने का काम हेड- क्लर्क वाले कमरे ही में करवाया जाता है। और जुगल किशोर कोई पर- पुरुष नहीं। स्कूल के हेड-क्लर्क हैं। और आयु में पचास पार कर चुके हैं। आप के पिता समान हैं…..”

“फिर भी…..फिर भी हमें वहां अच्छा नहीं लग रहा, ” वह सिसकने लगी।

’’यह धृष्टता है, ’’ मैं ने आपत्ति जतलायी, ’’काम के समय आप अपनी कुर्सी पर दिखालायी देनी चाहिए....मेरे दफ़्तर की कुर्सी पर नहीं…..…’’

कुर्सी से उठने की बजाय उसने अपनी रूलाई तेज़ कर दी।

’’बड़े बाबू को बुलाओ, ’’ घंटी बजाकर मैंने चपरासी को आदेश दिया।

“मैं अन्दर आ सकता हूँ, मैडम?’’ जुगल किशोर ने मुझसे दरवाजे पर पूछा।

’’इन्हें हमारे दफ़्तर के नियम समझाइए, जुगल किशोर जी......’’

’’बहुत अच्छा, मैडम.....’’

अगले दिन आशा रानी अपनी दो बेटियों को मेरे दफ्तर में ले आयी, ’’मैडम को नमस्ते करो और अपने नाम और कक्षा बताओ....’’

’’मेरा नाम सीमा है, आंटी, ’’ बड़ी लड़की पहले बोल दी। उसने चटख लाल रंग की पृष्ठभूमि में काले पोल्का डाट्स वाली फ्राक पहन रखी थी, ’’मैं सातवीं जमात में पढ़ती हूँ.....’’

’’मेरा नाम करिश्मा है, आंटी, ’’ दूसरी लड़की बोली। उसने तोतई रंग की हरी फ़्राक पहन रखी थी जिसमें नीले रंग के फूल खड़े थे, अपनी डण्डियों समेत, ’’मैं तीसरी जमात में पढ़ती हूँ....’’

’’आंटी नहीं, मैडम, ’’ मैंने कहा। अगर मैं उन्हें अपने दफ़्तर के बाहर मिली होती तो यक़ीन मानिए मैं सौ-दो सौ रूपए उन्हें दे देती लेकिन अपने दफ़्तर में मुझे अनुशासन पसन्द था।

“ इन्हें आज स्कूल दिखलाने लायी थी, ” आशा रानी थोड़ी झेंप ली, ”सोचती हूं इन्हें इसी आप के स्कूल में दाखिला दिलवा दूं…..”

“ उस के लिए पहले इन दोनों को अलग अलग एक इम्तिहान देना होगा। यह देखने के लिए कि यह किस जमात में ली जा सकतीं हैं।”

“इम्तिहान लेना ज़रूरी है क्या?” आशा रानी परेशान हो ली।

“ बिल्कुल ज़रूरी है, ” मैंने कहा, “और अब आप इन्हें स्कूल में तभी लाएँगी जब दोनों के इम्तिहान लेने के बारे में स्कूल- प्रबन्धक सर अपना निर्णय देंगे।’’

फट से आशा रानी सिसकने लगी।

लड़कियों को भी मानो सिसकने का संकेत मिला और वे भी सिसक पड़ीं।

मैंने घंटी बजा दी।

’’इन्हें बाहर ले जाओ, ’’ चपरासी से मैंने कहा और अपनी फाइल सँभाल ली। अगले ही दिन हमें अपनी कक्षा आठ के परिणाम घोषित करने थे और मैं फ़ेल हुए विद्यार्थियों के छमाही और तिमाही परीक्षाओं के रिकार्ड देखना चाहती थी। उन्हें फ़ेल घोषित करने से पूर्व।

आगामी सप्ताह भी आशा रानी लगभग रोज़ ही किसी न किसी बहाने मेरे दफ़्तर में आती रही और मुझसे झिड़की लेकर लौटती रही।

मगर उस दिन झिड़की खा कर वह लौटी नहीं ।बोली, ” आप की वीणा जी से मिल लूं क्या?”

वीणा जी मेरी निगरानी में हमारे स्कूल का पुस्तकालय देखती हैं , जो मेरे दफ़्तर के बगल में स्थित है।वह मुझ से आयु में दस- बारह साल बड़ी ज़रुर हैं मगर अगल- बगल होने के कारण हम दोनों की अच्छी बनती है। दोपहर के हमारे डिब्बे एक साथ खुलते हैं। चाय भी हमारी सांझी रहती है।

“क्यों? उन से क्यों? “

“ सोचती हूं, उन का काम देख- समझ लूं……. और फ़ीस के काम की बजाय पुस्तकालय वाला काम……”

’’वीणा जी का काम बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है, आशा रानी, ” मैं ने उस की बात काटी, , ”किताबों का रिकार्ड रखना और उन्हें ले जाने- वापिस करने वालों के नाम का रजिस्टर कायदे से कायम रखना तुम्हारे बस का नहीं। उस काम का ज़िम्मा तुम्हें नहीं दिया जा सकता। तुम लापरवाह भी हो और कार्यक्षम भी नहीं.....फ़ीस की रसीद काटती हो, तो कभी विद्यार्थी का नाम गलत भरती हो तो कभी रकम सही नहीं लिख पाती। वह तो गनीमत है जो जुगल किशोर जी आप की गलतियां समय पर पकड़ लेते हैं……”

“ लेकिन……”

“ लेकिन क्या? जाओ और जो काम तुम्हें दिया गया है, उसे देखो…..”

उस के जाने के बाद अभी बीस मिनट भी न बीते होंगे कि मुझे स्कूल-प्रबन्धक का बुलावा आ पहुंचा।

“जी, सर, , ” तुरंत मैं ने अपनी उपस्थिति वहां जा दर्ज करवाई।

“मिस शुक्ल, आप कार्य-कुशल तो हैं लेकिन व्यवहार-कुशल नहीं। अनुशासन सद्गुण ज़रूर है, लेकिन करुणा उस से बड़ा सद्गुण है…., ”

“मैं समझी नहीं, , , ”

“ आशा रानी अभी मेरे पास आई थी………”

“ वह मेरे पास भी आई थी, सर। फ़ीस के काम की बजाय वह पुस्तकालय का काम चाहती है, जो उस से हो न पाएगा।”

’’लेकिन, मिस शुक्ल, ’’ स्कूल प्रबन्धक ने अपना सिर हिलाया, ’’हमें याद रखना होगा उस ने अपना पति हाल ही में खोया है ।ऐसी दारूण अवस्था में हमें उसका साहस बँधाए रखना है। तोड़ना नहीं......’’

’’मैं समझती हूँ वह यहाँ काम करने के लिए आई है, हमदर्दी जमा करने नहीं।’’

’’लेकिन उसके काम में इतनी धर-पकड़ करनी, इतना स्पष्टीकरण माँगना उचित है क्या?काम वह सीख जाएगी। इस से पहले वह अपने घर से बाहर कभी निकली नहीं है।उसे सहानुभूति की ज़रूरत है न कि सख़्ती की।”

“सर, ऐसा नहीं कि मुझे उस से सहानुभूति नहीं।सहानुभूति है। पूरी सहानुभूति है। मगर कुछ तो चटकीला उस का दिखाव- बनाव आड़े आ जाता है और कुछ उस का बात-बात पर आंसू टपकाना….”

“ मजबूर है बेचारी। उस के पास ले- दे कर बाहर पहनने वाले यही कपड़े रहे होंगे जो उसे पारिवारिक शादी-विवाहों में दिए- दिलवाए या मिले- मिलवाए होंगे। और घर में पहनने वाले उस के कपड़े कुछ ज़्यादा ही मामूली रहे होंगे। सो बेचारी वही चटकीले पहन कर आ जाती है। इन्हें फेंक नहीं सकती और दूसरे खरीद नहीं सकती…..”

“ मानती हूं सर, मगर वह सज- धज? वे टूम- छल्ले? चूड़ियां? बालियां?”

“आप की यह आपत्ति तो एकदम बेजा है। आप को नहीं, मगर हो सकता है उसे आकर्षक दीखना ज़रूरी लगता हो। वह एक विवाहिता रही है और इन सब की उसे पहले ही से आदत रही होगी।”

मुझे लगा यह मेरे साथ सरासर अन्याय था। स्कूल-प्रबन्धक न केवल आशा रानी को मुझ से ज़्यादा तूल दे रहे थे, बल्कि यहां मुझे याद भी दिला रहे थे, मैं अविवाहिता रह गयी हूं। जानते भी रहे, पिता की असामयिक मृत्यु ने मुझ पर अपनी तीन छोटी बहनों की पहले पढ़ाई-लिखाई का और उत्तरोत्तर उन में से दो को ब्याहने का ज़िम्मा असमय आन लादा था और परिवार में उन से बड़ी होने के कारण उसे निभाना मेरे कर्तव्य रहा था।

“आप क्या चाहते हैं, सर?”कैंसर की अपनी रुग्णावस्था के अतिंम दिनों के दौरान मेरे बाबू जी ने मुझे समझाया था, जब भी कोई उत्तर न सूझे, सामने वाले पर यही सवाल दाग देना चाहिए। उस समय मैं अपनी बी.ए. के दूसरे वर्ष में थी और इधर- उधर पड़ोस के परिवारों के बच्चों को छुटपुट ट्यूशन दे रही थी। इस स्कूल का काम मैं ने अपनी बी.ए. के बाद शुरू किया था।

“चाहता यह हूं कि आप आशा रानी के साथ प्यार-स्नेह का बरताव करें। उसे पुस्तकालय में बैठने दें। शुरु में आप उस की सहायता करें, किताबें और पत्र- पत्रिकाओं को निकालने और समेटने का काम सिखाएं, और वीणा उधर फ़ीस वाला काम देख लेगी…..”

“जी, यदि आप ऐसा ही चाहते हैं तो ऐसा ही होगा, सर, ” न चाहते हुए भी मैं नरम पड़ गई।लगी-लगायी अपनी नौकरी मैं गंवाना नहीं चाहती थी।घर में बीमार माँ थीं। और तीसरी छोटी बहन की डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी होनी अभी बाकी थी।

“ऐसा सोचना ज़रूरी है। बेचारी घर से बाहर इस से पहले कभी निकली नहीं। पति खोने के बाद अब मजबूरी में इस नौकरी को पकड़े है। पुस्तकालय का काम धीरे -धीरे सीख लेगी। एक बात और। अपनी जिन दो बेटियों को वह यहां हमारे स्कूल में दाखिल करवाना चाहती है, उस की इस इच्छा को भी हमें पूरा करना चाहिए। ”

“जी, सर, ” अनमने मन से मैं ने कहा और अपने दफ़्तर की ओर चल दी।

आशा रानी वहां मुझ से पहले पहुंच चुकी थी।

मुझे देखते ही अपने हाथ जोड़ कर उठ खड़ी हुई। और जब तक मैं ने अपना स्थान ग्रहण नहीं किया वह उसी मुद्रा में खड़ी रही।

“ मैं जानती हूं, मैैडम जी, आप मुझे पसंद नहीं करतीं । लेकिन यह सच है आप के पास मैं बहुत सुरक्षित महसूस करती हूं….”

..”      “ठीक है। अच्छी बात है।मुझे सर ने यही बताया, ” अप्रकृतिस्थ रही होने के बावजूद अपने पद की मर्यादा बनाए रखना मुझे ज़रूरी लगा, ” अब तुम्हें पुस्तकालय का काम मुझ से सीखना- जानना है……”

“ मगर, मैडम जी, उस से पहले मुझे आप से कुछ कहना है….”

“ हां। बैठो और कहो, ” मैं ने उसे अपनी बगल वाली कुर्सी लेने का इशारा किया।

वह वहां आन बैठी, बिना अपने जुड़े हाथों को अलग किए, और धीमे स्वर में शुरु हो ली, “आप ज़रूर सोचती होंगी मैं ने सर से अपनी कुर्सी बदलवाने पर क्यों ज़ोर दिया होगा…..”

“ क्यों ज़ोर दिया?” मैं ने अपनी खीझ दबा ली ।

“ मैं ने सर से तो नहीं बताया मगर आप को जरूर बताना चाहती हूं। जुगल किशोर जी भले आदमी नहीं। उन के कमरे में उन के साथ बैठने में मुझे बहुत उलझन रहा करती। वह गलत हरकतें किया करते……”

“ ऐसा क्या?”मैं स्तब्ध रह गयी, ”मगर जुगल किशोर स्वंंय पांच बेटियों के पिता हैं, जिन में से दो इसी स्कूल से आठवीं जमात किए रही हैं और तीन अभी भी यहां पढ़ रही हैं….”

“ मैं जानती हूं, मैडम जी। यहां वाली तीनों से तो वह हमें मिलवा भी चुके हैं। उन्हीं लड़कियों का लिहाज रखने की खातिर जभी सर से उन की शिकायत नहीं की। डर था वह कहीं उन से उन की नौकरी न छीन लें……”

“ हां, यह बात भी सोचने की है, ” आशा रानी का ऐसा सोचना मुझे छू गया, “आप सही कहती हो, जुगल किशोर का नौकरी में बने रहना उन लड़कियों के भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है।लेकिन उसे लज्जित करना भी कम ज़रूरी नहीं।वह सब मैं देख लूंगी। मगर तुम ने पहले मुझे यह बताया क्यों नहीं?”

“आप के पास जब भी आती आप डांट कर मुझे भगा देतीं। मौका ही नहीं देतीं मैं कुछ बोलूं-बतलाऊं। दो- एक बार तो जुगल किशोर जी ही को बुलवाया रहा आप ने। मुझे आप के कमरे से बाहर ले जाने के वास्ते। जिस से इधर मैं कमज़ोर पड़ जाती और उधर उन की हिम्मत और जोर पकड़ लेती….”

“ मुझे तनिक अंदाज़ा न था, आप बार बार मेरे पास क्यों आती रही थीं, ” मैं ग्लानि से भर उठी। कैसी आंख की अंधी रही मैं !

और आशा रानी के जुड़े हाथों को अलग करते हुए मैं ने उन्हें अपने हाथों में थाम लिया, ” मुझ से भंयकर भूल हुई। मगर अब ऐसा न होगा।बल्कि आप की सर से कही दूसरी बात भी पूरी की जाएगी।सीमा और करिश्मा दोनों ही को इस स्कूल में दाखिला दिया जाएगा….”

“ आप को उन के नाम याद हैं?”वह हैरान हुई।

“ मुझे नाम कभी नहीं भूलते, ” उस के हाथों को थपथपा कर मैं ने उन से अपने हाथ अलग कर लिए, ” और मैं ने यह भी सोचा है, उन दोनों को इस स्कूल की यूनिफ़ौर्म इस पहली बार मैं खरीद कर दिलाऊंगी।”