Kalvachi-Pretni Rahashy - S2 - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

कालवाची--प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(६)

इसके पश्चात दोनों अपनी व्यवस्था बनाकर वैतालिक राज्य की ओर चल पड़े,कालवाची और भूतेश्वर अभी वैतालिक राज्य पहुँचे ही थे कि उन दोनों को अचलराज ने बंदी बनाकर बंदीगृह में डलवा दिया,कालवाची और भूतेश्वर सैनिकों से पूछते रहे कि उन दोनों का अपराध क्या है परन्तु किसी सैनिक ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया,इसके पश्चात जब वे वैतालिक राज्य के बंदीगृह में पहुँचे तो तब उनसे भेंट करने अचलराज वहाँ पहुँचा,अचलराज को देखकर कालवाची अत्यधिक प्रसन्न हुई और उससे बोली...
"मुझे पूर्ण विश्वास था अचलराज की तुम यहाँ अवश्य आओगें,देखो ना हम दोनों को बिना किसी अपराध के तुम्हारे सैनिकों ने बंदी बना लिया है"
"मेरे आदेश पर उन्होंने तुम दोनों को बंदी बनाया है",अचलराज बोला....
"तुम्हारे आदेश पर हम दोनों को बंदी बनाया गया है,परन्तु क्यों? ऐसा क्या अपराध किया है हम दोनों ने",भूतेश्वर ने पूछा...
"अपराध...नहीं ! संदेह है उसका कारण,मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस प्रकार राज्य में जो निर्मम हत्याएंँ हो रहीं हैं,हो सकता है कि उसका कारण कालवाची हो"अचलराज बोला...
"तुम ऐसा कैंसे सोच सकते हो अचलराज! मैं तुम्हारी मित्र हूँ",कालवाची बोली....
"मेरी मित्र बनने से पूर्व तुम एक प्रेतनी थी और एक प्रेतनी कभी भी अपनी प्रकृति का त्याग नहीं कर सकती",अचलराज बोला...
"ये तुम क्या कह रहे हो अचलराज? ये सत्य नहीं है,मैं सदैव के लिए मनुष्य प्रकृति में परिवर्तित हो चुकी हूँ,मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकती,मैं मनुष्यों की भाँति ही आहार लेती हूँ,मुझे अब मनुष्य के माँस से घृणा है,मैं भला मनुष्यों को क्यों अपना आहार बनाऊँगी",कालवाची बोली....
"मुझे जब पूर्ण विश्वास हो जाएगा कि तुम ये कार्य नहीं कर रही हो तो तब मैं तुम्हें बंदीगृह से मुक्त कर दूँगा"
ऐसा कहकर अचलराज वहाँ से चला गया और कालवाची उसे दुखी मन से जाते हुए देखती रही,इधर राज्य में जब अत्यधिक निर्मम प्रकार से हत्याएंँ होने लगी तो विराटज्योति अपने सेनापति दिग्विजय सिंह और सैनिकों के साथ रात्रि के समय समूचे वैतालिक राज्य का भ्रमण करने लगा...
और एक रात्रि उसने राज्य के घरों की मुन्डेरों पर किसी विचित्र एवं रहस्यमयी प्राणी को उड़ते हुए देखा,तब विराटज्योति को कुछ ठीक नहीं लगा और वो सोचने लगा कि ये विचित्र प्राणी कौन हो सकता है ,इसलिए उसके विषय में ज्ञात करने हेतु विराटज्योति ने उसका पीछा करना प्रारम्भ कर दिया, विराटज्योति ने उसके पीछे भागना प्रारम्भ किया तो सेनापति और सैनिक भी विराटज्योति के पीछे पीछे हो लिए,विराटज्योति उस प्राणी के पीछे भागता रहा किन्तु विराटज्योति उसे पकड़ नहीं पाया,भागते भागते विराटज्योति वैतालिक राज्य की सीमा के मुख्य द्वार पर पहुँच गया,किन्तु वो प्राणी तब भी उसके हाथ नहीं आया,एकाएक तभी राज्य की सीमा के मुख्य द्वार के पीछे से किसी ने कहा....
"कृपया! राज्य का मुख्य द्वार खोल दीजिए,मुझे राज्य के महाराज से कुछ बात करनी है,मेरी दशा कुछ ठीक नहीं है,यदि समय पर मेरा उपचार नहीं किया गया तो मैं जीवित नहीं बचूँगा",
कदाचित ऐसा कहते कहते वो युवक धरती पर अचेत होकर गिर पड़ा,क्योंकि जब वो धरती पर गिरा तो उसके गिरने का स्वर सुनाई दिया था,जब विराटज्योति ने उस युवक के स्वर को सुना तो शीघ्रता से सैनिकों को आदेश दिया कि राज्य का मुख्य द्वार खोल दिया जाए,किन्तु सेनापति दिग्विजय सिंह को कुछ संदेह सा प्रतीत हुआ इसलिए वो विराटज्योति से बोले...
"महाराज! मुझे कुछ संदेह सा हो रहा है,हो सकता है कि ये वही विचित्र प्राणी हो और हमें भ्रमित करने हेतु ऐसा कह रहा हो,कहीं ऐसा ना हो कि हम मुख्य द्वार खोल दें और हम सबके प्राणों पर कोई संकट आ जाए"
" किन्तु! सेनापति! वो विचित्र प्राणी तो अभी कुछ समय पहले राज्य का भ्रमण कर रहा था,यदि उसे कुछ ऐसा करना होता तो वो ये सब पहले ही कर चुका होता",विराटज्योति बोला...
"हाँ! महाराज! आपका कथन भी सही है",सेनापति दिग्विजय सिंह बोले...
"तो अब क्या करें,द्वार खोले या नहीं",विराटज्योति ने दिग्विजय सिंह से पूछा....
"महाराज! राज्य पर आई विपदा का निवारण तो हमें करना ही होगा,इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि द्वार खोल देना चाहिए,कदाचित हमें कोई शुभ संकेत मिल जाए",दिग्विजय सिंह बोले...
"मैं भी यही चाहता था",विराटज्योति बोला...
इसके पश्चात विराटज्योति के आदेश पर सैनिकों ने नगर का मुख्य द्वार खोल दिया ,द्वार खोलते ही सभी ने देखा कि एक व्यक्ति मुँह के बल अचेत अवस्था में धरती पर पड़ा है,अब समस्या ये थी कि उसके समीप जाए कौन?,क्योंकि सभी को यही संदेह था कि कहीं ये वही विचित्र प्राणी ना हो जो कुछ समय पहले राज्य का भ्रमण कर रहा था,जब कुछ समय तक कोई भी सैनिक उसके समीप नहीं गया तो साहस करके विराटज्योति को ही उसके समीप जाना पड़ा ,तब उसने उससे पूछा....
"कौन हैं आप? और आपकी ये दशा कैंसे हुई"
किन्तु उस व्यक्ति ने विराटज्योति के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया,कदाचित उसकी अवस्था ऐसी नहीं थी कि वो विराटज्योति को उसके प्रश्न का उत्तर दे पाएँ,अब विराटज्योति के पास एक ही विकल्प शेष बचा था,किन्तु ऐसा करने पर कोई संकट आ सकता था,परन्तु तब भी उसने उस व्यक्ति को सीधा किया,इसके पश्चात एक सैनिक से अग्निशलाका मँगाकर उसके मुँख को देखा और उसे देखकर विराटज्योति के मुँख से निकल पड़ा....
"ओह....ये तो यशवर्धन है"
तब सेनापति दिग्विजय ने विराटज्योति से पूछा....
"महाराज! क्या आप इनसे परिचित हैं"?
"जी! सेनापति जी! ये तो मेरा मित्र है, इतने वर्षों के पश्चात ये यहाँ आया है,इसे देखकर मुझे प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है,कृपया करके इसे राजमहल ले चलिए एवं शीघ्रतापूर्वक राजवैद्य को बुलवाकर इसका उपचार प्रारम्भ करवा दीजिए",
"जैसी आपकी आज्ञा महाराज! मैं अभी इन्हें राजमहल ले चलने की व्यवस्था करता हूँ",
इसके पश्चात सेनापति दिग्विजय सिंह यशवर्धन को लेकर राजमहल आए और शीघ्र ही वहाँ उसका उपचार प्रारम्भ कर दिया गया,जब ये सूचना चारुचित्रा तक पहुँची तो वो भी यशवर्धन को देखने के लिए उसके कक्ष में पहुँची किन्तु अभी भी यशवर्धन अचेत था,तब विराटज्योति चारुचित्रा से बोला....
"ये इतने वर्षों पश्चात मुझे मिला है,ना जाने किस बात से रुठकर ये मुझे छोड़कर ना जाने कहाँ चला गया था"
"हाँ! मुझे भी आश्चर्य हो रहा है यशवर्धन को यहाँ देखकर और मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी विशेष कार्य हेतु ये यहाँ आया है",चारुचित्रा बोली...
"हाँ! हो सकता है,तुम इसका विशेष रूप से ध्यान रखो,जब ये सचेत हो जाए तो किसी सैनिक द्वारा मुझे सूचना भेज देना,मैं अभी राज्य भ्रमण हेतु जा रहा हूँ",विराटज्योति वहाँ से जाते हुए बोला....
"अपना ध्यान रखिएगा",चारुचित्रा बोली...
विराटज्योति के जाते ही चारुचित्रा यशवर्धन के बिछौने के समीप जा बैठी और उसे ध्यानपूर्वक देखने लगी,उसे बीते हुए वो क्षण स्मरण हो आए जब उसकी मित्रता यशवर्धन और विराटज्योति से थी,तीनों आपस में मिलकर खेल खेला करते थे,कितने प्रसन्न रहते थे तीनों आपस में किन्तु उस एक बात ने यशवर्धन के हृदय को इतनी पीड़ा पहुँचाई कि वो मुझे और विराटज्योति को सदैव के लिए छोड़कर ना जाने कहाँ चला गया,उसके माता पिता को भी उसके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था कि वो कहाँ गया है,उसके जाने के दुख में उसकी माँ वत्सला रोगिणी बन गई,कुछ भी हो अपने इकलौते पुत्र के शोक में कोई भी माता ऐसा ही करेगी, जब वत्सला काकी को लगा कि यशवर्धन नहीं लौटेगा तो उनकी आशा टूटने लगी और एक दिन उन्होंने यशवर्धन के दुख में अपने प्राण त्याग दिए.....
यही दशा काका सारन्ध की भी हुई,वत्सला काकी की मृत्यु के पश्चात उनके पास जीवित रहने का कोई भी उद्देश्य नहीं रह गया था,पुत्र का कुछ पता नहीं था और पत्नी मृत्युलोक हेतु प्रस्थान कर चुकी थी,इसलिए उन्होंने अपना राजपाठ त्यागकर साधू का वेष धर लिया और वन में एक दिवस एक विषैले सर्प ने अपने विषदन्त गड़ाकर उनके प्राण हर लिए.....
चारुचित्रा यही सब सोच रही थी कि तभी यशवर्धन के शरीर में प्रतिक्रिया हुई और उसने अपनी आँखें खोलीं ,तब अपने समक्ष चारुचित्रा को देखकर वो बोला....
"चारू! तुम और यहाँ?"

क्रमशः....
सरोज वर्मा...