25. उन्हें सूचित करना ही होगा-
परमर्दिदेव अन्तरंग सभा में चाहमान
माँगों पर विमर्श कर रहे थे। एक तीर को
दुर्ग के अन्दर आते कई लोगों ने देखा। जैसे ही तीर गिरा, चन्दन ने उठा कर उसे मन्त्री देवधर को
दिया। तीर की रचना विशिष्ट थी। इस पर भगवती दुर्गा का चित्र बना था । तीर
दुर्ग के निकट से ही फेंका गया था। देवधर चिन्तित हुए। दुर्ग के इतने निकट चामुण्डराय
का कोई धनुर्धर आया और उसी ने शर सन्धान
किया। उन्होंने तीर को महाराज के सामने प्रस्तुत किया। महाराज ने तीर को देखा पर
माँग पत्र पर विचार जारी रखा। महाराज के आदेश पर माँग पत्र खोला गया। माहिल भी गुप्त द्वार से
आ गए थे। वे विमर्श की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। महामन्त्री देवधर ने
पत्र पढ़ा। पत्र में कुछ माँगें रखी गईं थीं। यदि उनकी आपूर्ति हो जाती है तो
चाहमान सेना शान्तिपूर्वक लौट जाएगी। गोपाद्रि राज्य, खर्जूरवाहक की बैठक, उड़नबछेड़े आदि के साथ ही चन्द्रावलि के
डोले को सूची में देखकर अभयी, समरजीत के नथुने फड़क उठे। के भी क्रुद्ध हो जाने से माहिल को धक्का लगा। ‘आप सभी लोग विचार कर लें। सायंकाल हम
लोग पुनः बैठेंगे।’ महाराज के इतना कहते ही , माहिल अभयी के साथ बाहर आ गए। वे अभयी को अपने कक्ष में ले गए। कक्ष
के बाहर प्रहरी बिठा दिया।
‘महोत्सव की सुरक्षा के लिए प्राण देना उचित नहीं
है। तुम उरई के दीपक हो। तुम्हें अपने को बचाकर कार्य करना है,’ उन्होंने कहा।
‘पर कापुरुष कहलाना मुझे स्वीकार्य नहीं है पिताजी’, अभयी ने उत्तर
दिया। ‘मैं महोत्सव की रक्षा के लिए यहाँ आया हूँ। महाराज से विश्वासघात नहीं
किया जा सकता।’ अभयी का तेवर देखकर माहिल ने तत्काल बात करना उचित नहीं समझा। वे शीघ्र
ही कक्ष से बाहर आ गए।
माँगों की चर्चा राजमहल में भी
पहुँची। मल्हना ने महाराज के साथ बैठकर विचार किया। उन्होंने सोचा कि यदि चन्द्रा
तक बात पहुँची तो उसे कष्ट होगा। पर सूचनाओं के भी पंख होते हैं। चित्रा को चन्दन
से यह सूचना मिली। उसने रोते-रोते बताया।
‘रो मत चित्रे, इसके निदान के लिए सन्नद्ध होना है, रोना नहीं। राजदुहिता होने का अर्थ ही
है झंझावातों से खेलना। यदि कही प्रकृति ने सौन्दर्य भी उड़ेल दिया तो संकट का अन्त
नहीं। अभी तो यह देखना है कि माँ क्या सोचती है?’ चन्द्रा उठी और
माँ के पास चली गई। महाराज परमर्दिदेव और महारानी बैठे हुए थे। एक आसन्दी पर
चन्द्रा भी वहीं बैठ गई। माँ से पूछा’, क्या चाहमान नरेश ने कुछ माँग की है?’
‘हाँ, की है पर हम उसे दे नहीं सकते। हमें युद्ध की ही तैयारी करनी हैं,’ महारानी ने
उत्तर दिया।
‘क्या मैं जान सकती हूँ कि उन्होंने क्या माँग की है?’
महाराज ने पत्र बढ़ा दिया। चन्द्रा ने
उसे पढ़ा एक दो तीन बार। पत्र पढ़ते ही उसके शरीर में सनसनी फैल जाती।
‘पिताजी आपने चाहमान नरेश का उत्तर देने
के लिए क्या सोचा है?’
‘घेरा डालना भी आज की रणनीति का एक अंग है। उन्होंने महोत्सव की घेराबन्दी की
है। हमें उससे भयभीत होने की आवश्यक ता नहीं। हम उनका उत्तर देंगे;’ महाराज ने कहा।
परमर्दिदेव ने विश्वस्त सैनिकों को
दुर्ग के द्वार पर लगा दिया। गुप्त द्वार की सुरक्षा के लिए विशेष दल नियुक्त किया
गया। यह दल मन्त्रिवर माहिल पर भी दृष्टि रखता। महारानी
मल्हना को माहिल की नीतियों पर अविश्वास होने लगा था। महाराज भी कुछ खिंच गए। पर माहिल
अपनी राय देने में चूक नहीं करते थे। वे महाराज और महारानी के साथ लगे रहते।
मृदुभाषी, व्यवहार कुशल माहिल महाराज एवं महारानी को विश्वास में लेने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहते। वे ऐसा
ध्वनित करते जैसे वे ही महोत्सव के हितैषी हैं। महाराज, राजकुमार को सेना का भार सौंपना चाहते थे पर माहिल ने यह परामर्श
दिया कि राजकुमार को सुरक्षित रखा जाए। जब
तक अभयी उपलब्ध हैं, राजकुमार को कष्ट देने की आवश्यक ता नहीं हैं। महाराज निश्चय
अनिश्चय की डोर में झूलते रहते।
ज्यों ज्यों भुजरियों का पर्व निकट
आता जा रहा था महारानी की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। नवयुवतियाँ चन्द्रा के माध्यम से
पर्व मनाने के लिए दबाव बना रही थीं। महोत्सव के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था। महारानी ने
चन्द्रा को बुलाकर बात की। चन्द्रा ने वामावाहिनी का गठन प्रारम्भ कर दिया था । पुरुषों के मर मिटने के लिए इतना पर्याप्त था। जो सुनता
पर्व मनाने के पक्ष में ही बात करता। राजकुमार ब्रह्मजीत, समरजीत, अभयी थे, पर महारानी का विश्वास किसी पर टिक
नहीं पा रहा था। उन्हें लगता था कि पर्व में बालिकाएँ सुरक्षित नहीं रहेंगी। सभी
की शिविकाएँ चाहमान शिविर में पहुँच जाएँगी। महोत्सव के लिए कितना लज्जाजनक होगा यह? पुरुषोत्तम होते तब भी वे विश्वास कर सकती थीं। पर अब? आज उन्होंने लहुरे वीर को स्मरण किया। उदय सिंह का प्रकरण आते ही महारानी मल्हना और चन्द्रा दोनों की
आँखों मे अश्रु बह चले। कुछ स्वस्थ होने पर चन्द्रा ने कहा,’ यदि उन्हें
सूचना मिल जाए तो एक क्षण की भी देर नहीं करेंगे वे।’
‘कैसे कहती हो बेटी, हमने उनका निष्कासन किया है।’
‘उनका मन बड़ा निर्मल है माँ। उन्होंने तुम्हें प्राण दान दिया है न?’
‘हाँ दिया है, पर महोत्सव से निष्कासन………।’
‘नहीं माँ, वे आएँगे। जाते समय उन्होंने कहा था, ‘बहन से कह देना
दुःखी न हो। महोत्सव की आन के लिए महारानी को प्राणदान दे चुका हूँ। जब तक उदय
सिंह जीवित हैं, महोत्सव की ओर कोई आँख उठाकर देख नहीं सकेगा। ’
‘माँ, उन्हें सूचित करना ही होगा।’
‘पर उन्हें सूचना देना अत्यन्त कठिन है। चामुण्डराय के गुप्तचर दिन रात चौकसी कर रहे हैं। चलो माँ
चन्द्रिका से प्रार्थना करें। हो सकता है वही हमारी सहायता करें।’ माँ बेटी तैयार हुईं। चित्रा को साथ
लिया और माँ चंद्रिका की मठिया में पूजन हेतु आ गईं। अश्रु विगलित नयनों से
माँ-बेटी ने माँ की वन्दना की। उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। प्रार्थना करते-करते
माँ-बेटी इस तरह बात करने लगीं जैसे वे उदय सिंह से बात कर रही हों। उन्हें ध्यान
ही न रहा कि वे माँ चंद्रिका की मठिया में बैठी हैं। कुछ क्षण के बाद उन्हें ध्यान
आया और वे माँ की वन्दना में निमग्न हो गईं।
चन्द्रिका की मठिया से लौटकर भी
चन्द्रा लहुरे वीर का ही ध्यान करती रहीं। मौन, कभी बुदबुदाते हुए वे लहुरे वीर से ही
बात करतीं। उस रात सोते हुए भी वह उन्हीं का नाम
लेती रहीं।