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खड़े होने वाला विकास

"आप क्यों खड़े हो रहे हैं?"
वो " क्योंकि बैठने मे कष्ट होता है "
मै.. किसने खड़ा किया आपको? "
वो.." खुद ही खड़ा हूं "
मै " क्या piles आदि है क्या?"
वो " पांच साल बैठा रहा,वो तो होगा ही पर आप मत ही पूछो"
मैं" तो बेठे रहो न "
वो. आदत नहीं है" 
मै.. विकास का मतलब क्या जुगाड़ ही होता है? 
वो.. जो आप समझे वो विकास नहीं तो कुछ भी.. 
आगे का भी सुनिए.. 

   कुर्सी पे बैठना क्या विकास है? इस विषय पर एक रचना है जो मेरा एक नेता जी के साथ इंटरव्यू ही है 

एक दिन, एक पत्रकार ने एक नेता से पूछा, "कुर्सी पे बैठना क्या विकास है?"

नेता मुस्कुराते हुए बोले, "जी बिल्कुल, मैं पांच साल बैठा रहा। देखिए, विकास हुआ न, अपने आप ही हुआ। मैंने सिर्फ माल खाया।"

पत्रकार ने हैरानी से पूछा, "तो आप कह रहे हैं कि आपने कुछ नहीं किया और विकास अपने आप हो गया?"

नेता ने गर्व से कहा, "बिल्कुल! कुर्सी पे बैठने का यही तो फायदा है। आप बस बैठिए और विकास होता रहेगा।"

पत्रकार ने सोचा, "वाह! क्या बात है। अगर ऐसा है तो फिर से बैठ जाएं, विकास होता रहेगा।"

नेता ने तुरंत कुर्सी पर बैठते हुए कहा, "देखिए, अब विकास की रफ्तार और तेज हो जाएगी।"

पत्रकार ने हंसते हुए कहा, "तो क्या आप मानते हैं कि कुर्सी ही सब कुछ है?"

नेता ने गंभीरता से जवाब दिया, "बिल्कुल! कुर्सी ही तो विकास का असली स्रोत है। जब तक मैं कुर्सी पर हूं, विकास होता रहेगा।"

पत्रकार ने सोचा, "अगर कुर्सी ही सब कुछ है, तो फिर जनता का क्या?"

नेता ने मुस्कुराते हुए कहा, "जनता? जनता को तो बस कुर्सी पर बैठे नेता चाहिए।पूजा करते हैं बस विकास की एसी तेसी, विकास की चिंता मत कीजिए, वो अपने आप हो जाएगा।"

इस व्यंग्य के माध्यम से हम यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि कैसे कुछ लोग सिर्फ कुर्सी पर बैठकर ही विकास का दावा करते हैं, जबकि असली विकास के लिए मेहनत और ईमानदारी की जरूरत होती है। 
मै " कुर्सी पे बैठना क्या विकास है?"
वो " जी बिल्कुल,मैं पांच साल बैठा         रहा,देखिये,विकास हुआ न ,अपने आप ही हुआ,मैंने सिर्फ माल खाया ""
मै " फिर से बैठ जाएं,विकास होता रहेगा "
वो" खडा हूँ,चुनाव के बाद जीतते ही बैठ जाऊंगा "
इस बात से मैं सहमत नहीं था अब आगे देखते हैं 
   आइए इस विषय पर एक हास्य कविता लिखते हैं:

बिना किसी डकार के माल खाया, अब फिर खड़ा हो रहा हूँ

बिना किसी डकार के माल खाया,
अब फिर खड़ा हो रहा हूँ।
पेट भरा है, दिल भी तृप्त है,
फिर भी भूखा सा लग रहा हूँ।

कुर्सी पे बैठा, विकास का दावा,
माल खाया, बिना कोई हिचकिचाहट।
अब फिर से खड़ा हो रहा हूँ,
नई कुर्सी की तलाश में, बिना कोई झिझक।

जनता कहे, "नेता जी, क्या बात है?"
मैं कहूं, "बस विकास की सौगात है।"
माल खाया, बिना किसी डकार के,
अब फिर से खड़ा हो रहा हूँ, नई सरकार के।

कुर्सी का खेल है निराला,
बैठो तो विकास, खड़े हो तो भी।
जनता को समझाना है आसान,
बस कुर्सी पे बैठो, विकास होता रहेगा।

   (कैसे कुछ लोग बिना किसी मेहनत के भी विकास का दावा करते हैं। य़ह रचना आपको केसी लगी?) 


मुझे उनकी लॉजिक ठीक लगी ,आपको?