Prajapati Daksha was given life, but not Mata Sati – what was the secret behind this? in Hindi Spiritual Stories by Rahul Gupta books and stories PDF | प्रजापति दक्ष को मिला जीवनदान, पर माता सती को नहीं — इसके पीछे क्या था ब्रह्म रहस्य?

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प्रजापति दक्ष को मिला जीवनदान, पर माता सती को नहीं — इसके पीछे क्या था ब्रह्म रहस्य?

नमस्कार दोस्तों!🙏

आपने वह प्रसिद्ध कथा ज़रूर सुनी होगी…

जब माता सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष द्वारा आयोजित महायज्ञ में, अपमान सहन न कर पाने पर, स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया था।

सती के आत्मदाह से क्रोधित महादेव ने अपना स्वरूप बदलकर वीरभद्र का रूप धारण किया और क्रोध में दक्ष का शीर्ष धड़ से अलग कर दिया।

लेकिन फिर वही महादेव ने क्रोध शांत होने पर दक्ष को हिरण का सिर लगाकर पुनः जीवन प्रदान किया।

परंतु क्या आप जानते हैं…

प्रजापति दक्ष को जीवित करने वाले महादेव ने अपनी प्रिय पत्नी सती को क्यों जीवन दान नहीं दिया?

क्या कारण था कि शिव, जो मृत्यु को भी पराजित कर सकते हैं, अपनी स्वयं की अर्धांगिनी को वापस नहीं ला सके?

आइए इस रहस्य के उत्तर की खोज करने की कोशिश करते हैं।

यह उस समय की बात हैं जब धरतीलोक पर ब्रह्मा जी ने माता सती के पिता दक्ष को प्रजापतियो का नायक बना दिया था। इतना बड़ा अधिकार पाकर दक्ष के हृदय में अत्यंत अभिमान उत्पन्न हो गया था।

प्रजापति दक्ष ने एक बड़े भव्य यज्ञ का आयोजन किया जिसमें तीनों लोकों के महान ऋषि-मुनि, किन्नर, सिद्ध, नाग, गंधर्व और समस्त देवताओं को उनकी पत्नियों सहित आमंत्रित किया गया।

यह देख माता सती ने भी शिवजी से कहा, हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ?

शिवजी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आयी। पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, इसीलिए तुम्हारा वहां जाना अनुचित है।

दक्ष ने अपनी सब पुत्रियों को बुलाया है; किन्तु हमारे वैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया। एक बार ब्रह्मा की सभा में वे हमसे अप्रसन्न हो गये थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं।

हे भवानी! जो तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील स्नेह ही रहेगा और न ही मान-मर्यादा रहेगी। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये। तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।

शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर माता सती नहीं मानी। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी।

शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेव जी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको अपने पिता के यज्ञ आयोजन में जाने की अनुमति दे दी।

जब माता सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में पहुँचीं तो वहाँ किसी ने उनका सम्मान नहीं किया। केवल माता ने उनके आने पर कुशल-क्षेम पूछा, परंतु प्रजापति दक्ष सती को देखकर क्रोध से भर उठे।

जब सती ने यज्ञ वेदी को देखा तो वहाँ सभी देवताओं और दामादों को आसन दिया गया था, परंतु भगवान शिव के लिए कोई स्थान नहीं था। उस क्षण सती को शिवजी की कही चेतावनी याद आ गई। अपने आराध्य और स्वामी का ऐसा अपमान देखकर उनका हृदय वेदना और क्रोध से भर उठा।

दक्ष ने शिवजी के विषय में अपमानजनक वचनों का उच्चारण किया, जिससे सती अत्यंत व्यथित हो गईं। उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा—

जहाँ भगवान शिव, विष्णु या संतों की निंदा सुनी जाए, वहाँ बैठना भी पाप है।

मेरा दुर्भाग्य है कि यह शरीर उस व्यक्ति के रक्त से बना है, जो शिवजी जैसे जगतपालक का अपमान करता है। इसलिए मैं इस शरीर को धारण नहीं रख सकती।

इतना कहकर सती ने यज्ञ अग्नि में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग दिया। पूरी यज्ञशाला में त्राहि-त्राहि मच गई।

माता सती की मृत्यु देखकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। ये सब समाचार सुनते ही शिवजी भी अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने गुस्से से वीरभद्र को वहां भेजा।

वीरभद्र ने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और वहां जिन जिन लोगों ने शिवजी की निंदा की या सुनी सबको मृत्यु के घाट उतार दिया।

अंत में वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष का शीर्ष धड़ से अलग कर दिया और उसी अग्नि कुंड में भस्म कर दिया जिसमें माता सती ने आत्म दाह किया था।

दूसरी तरफ प्रजापति दक्ष का शरीर बिना शीर्ष के तड़प रहा था।

शिवजी ने प्रजापति दक्ष को क्यों पुनः जीवन दान दिया ?

वहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि ये देख चिन्तित हो गए, क्योंकि प्रजापति दक्ष ने जो महायज्ञ शुरू किया था उसे पूर्ण करना और सृष्टि का संतुलन बनाए रखना जरूरी था।

जिसके लिए महायज्ञ करने वाले यजमान का जीवित होना जरूरी था। इसीलिए ब्रह्म और भगवान विष्णु ने करुणापूर्वक भोलेनाथ जी से प्रार्थना की कि वे दक्ष को माफ कर दे,

भोलेनाथ जो भक्तवत्सल दयानिधि हैं जो जगत का कल्याण चाहते हैं उन्होंने दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर उनके मृत शरीर को प्राण दान दिए।

पुनर्जीवित होने पर दक्ष ने जब अपनी नई काया देखी, तो उनका अहंकार पूरी तरह समाप्त हो गया। उन्होंने तुरंत शिवजी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और उनकी स्तुति की।

शिवजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि वे अब अहंकार मुक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करें और उनके यज्ञ को पूरा करें।

शिवजी ने माता सती को क्यों पुनः जीवन दान नहीं दिया?

भगवान शिव, स्वयं महाकाल हैं, माता सती ने अपने पिता के यज्ञ में स्वयं को भस्म करके स्वेच्छा से देह त्याग किया था। यह उनका अपना निर्णय और कर्म था। इस कर्म के फल को बाधित करना सृष्टि के विधान के विरुद्ध होता।

माता सती का यह देह त्याग उनके पिछले जन्म के अहंकार और पति के प्रति संशय की त्रुटियों को दूर करने के लिए आवश्यक था। माता सती आदि शक्ति का अवतार थीं।

माता सती को अगला जन्म (पार्वती के रूप में) लेकर घोर तपस्या करनी थी, ताकि वह शिव को पूर्ण समर्पण के साथ प्राप्त कर सकें और इस प्रकार आदिशक्ति के रूप में अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पूरा कर सकें।

यह शक्ति और शिव के मिलन की कहानी को आगे बढ़ाने और संसार को तपस्या का महत्व समझाने के लिए आवश्यक था।

देवताओं को तारकासुर का वध करने के लिए शिव-सती के पुत्र (कार्तिकेय) की आवश्यकता थी। सती का पुनर्जन्म पार्वती के रूप में होना उस दैवीय योजना का हिस्सा था, जिसके द्वारा शिव को उनके वैराग्य से बाहर निकालकर गृहस्थ जीवन में लाया जाना था, जो सृष्टि के संतुलन के लिए आवश्यक था।

तो कैसी लगी यह दिव्य कथा? यदि आपके पास इससे जुड़ी कोई और जानकारी हो, तो अवश्य कमेंट में साझा करें।

धन्यवाद, जय श्रीराम 🙏

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