whip rider in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | चाबुक सवार

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चाबुक सवार

 

                  साहित्य के क्षेत्र में मेरी अनभिज्ञता अजेय- अज्ञान के निकट थी और सुमंत्रित उन लोगों की भलाई चाहने के अतिरिक्त उनके संग मेेरी सहचारिता शुन्य थी। बहन के सभी मित्र बुद्धिजीवी थे। हर किसी के पास कहने को बहुत कुछ था।

                  दूूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन उन्नीस सौ तैंतालीस के उन दिनों के कस्बापुर में भी वे सब जंग लड़ रहे थे — ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़े आंदोलनकारियों को बचाने की जंग— बल्कि उन में से कुछ तो सन उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग भी ले चुके थे। 

                  ऐसा अक्सर होता जिसे मैं पिछली शाम बहन के संग मिली होती अगले दिन उस के दूसरे मित्र उसकी गिरफ़्तारी की चर्चा कर रहे होते और कभी- कभी तो उस की मौत की भी।

                  एक अजीब जुनून के अंतर्गत वे सब खूब बहस किया करते : कहानी पर, उपन्यास पर, कविता पर,राजनीति पर, रणनीति पर, बलनीति पर।

                 बहन के घर वे अक्सर आ जाया करते लेकिन मुझे यदि कोई रास्ते में दिखाई दे भी जाता तो मैं होशियारी से कन्नी काट लिया करती या फिर वही अपना मुंह दूसरी दिशा में घुमा ले जाते।

                 पिछले दिसंबर माह बहन को कस्बापुर के एक निजी इंटर कालेज में हिंदी पढ़ाने की जब नौकरी मिली थी तो बाबूजी को हमारे वहां रहने के लिए एक परिचित के सुझाव पर उस के पड़ोस के ऊपर वाला हिस्सा  पसंद आ गया था।

                 बाहरी सीढ़ी से ऊपर जाकर बाबूजी जब ये दो कमरे देखे थे तो मुझे बहन के हवाले कर दिया था, “बहनें- बहनें साथ रहेंगी तो दोनों का वक्त अच्छा कट जाएगा और छोटी अपनी इंटर भी यहीं कस्बापुर में कर लेगी।”

 

                तरसेम उस दिन अकेला आया था।

               “अपनी कोई कविता लाए हो?” बहन ने उसे लौटाया नहीं।

                “नहीं,” उस के हाथ में एक किताब थी, “आप का दोस्तोवस्की वापस करने आया था…..”

                 किताब का नाम क्राइम एंड पनिशमेंट ( जुर्म और सज़ा) था।

                 “आओ,आओ,” बहन ने उस का स्वागत किया, “ किताब कैसी लगी?”

                  “विस्मित करने वाली। चकराने वाली…..”

                  “है न?” बहन हंसी, “आओ,अंदर बैठते हैं। छोटी हमारे लिए चाय बना लाएगी…..”

                  बहन उसे हमारी बैठक में ले गई। हमारे सोने की चारपाइयां दूसरे कमरे में लगी थीं। दोनों कमरों के आगे जो एक चौड़ा, खुला आंगन था, उस के एक कोने में बनी रसोई में खाना बनाने का सामान जमा था।

                  मैं रसोई की ओर चली आई।

                  जभी मुझे बाहरी सीढ़ी पर कुछ पुलिस बूटों की आवाज़ सुनाई दी।

                  दौड़ कर मैं बहन को बाहर बुला लाई।

                  एक आगंतुक पुलिस अफ़सर की वर्दी में था और उस के पीछे चले आ रहे दोनों वर्दीधारी जन पुलिस कांस्टेबल मालूम दे रहे थे। एक अधेड़ था और दूसरा युवक।

                 “आप?” बहन ने अचरज से पहले आगंतुक की ओर देखा।

                 “हां,उस दिन आप का पता इधर आने ही को लिया था,” पुलिस अफ़सर की वर्दी वाला भी युवा था। यही कोई सत्ताइस- अट्ठाइस का।

                 “ओह! वर्दी में आप बहुत अलग दिखाई दे रहे हैं,आइए,” बहन बैठक की ओर बढ़ ली।

                  “तुम दोनों नीचे जीप में ड्राइवर के साथ बैठो,” पुलिस अफ़सर ने दोनों कांस्टेबलों को आदेश दिया, “ज़रूरत पड़ी तो ऊपर बुला लूंगा।”

                  चाय बनाने फिर मैं रसोई में न गई। बहन के साथ जा जुड़ी।

                  “यह आप की छोटी बहन होंगी,” पुलिस अफ़सर ने मेरी ओर देखा।

                  “हां, यह मेरी गार्डियन है,”  बहन हंसी।

 

                  “इधर तो पूरी बैठक जमी है,” पुलिस अफ़सर ने बैठक में कदम धरते ही अपने होंठों से सीटी बजाई, “मिलांएगी नहीं इन से?”

                  “यह शूरवीर है,” बहन ने तरसेम का नाम छिपा लिया, “मेरे कॉलीग हैं। और यह जसपाल हैं, कस्बापुर के एस.पी.। मुझे एक चित्र- प्रदर्शनी में मिले थे…..”

                  “आप लेक्चरर हैं?” जसपाल ने तरसेम की मैली बुशर्ट और बदरंग हो रही पतलून पर निगाह दौड़ाई। सख्त सर्दी के उस मौसम में भी उस ने बिना बाज़ू का एक स्वैटर पहन रखा था जिसे किसी अनाड़ी हाथ ने बुना था।

                  “नहीं, अभी अनियमित टीचर हैं,” जवाब फिर बहन ने दिया, “अभी इसी साल ही इन्हों ने अपनी एम.ए. पूरी की है। आजकल दोस्तोवस्की पढ़ रहे हैं। आप दोस्तोवस्की पढ़ें हैं क्या?”

                  “डी. एच. लॉरेंस को दोस्तोवस्की बेहद नापसंद था,” जसपाल ने अपनी नाक सिकोड़ी, “कहता था, ही इज़ द रैट, स्लिदिरिंग अलौंग इन हेट। वह उस चूहे की भांति है जो घृणा के बिल में आगे- पीछे फिसलता रहता है। और मालूम है आर. एस. स्टीवनसन ने ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ के बारे में क्या कहा था? आए कैन से इट नियरली फ़िनिश्ड मी। इस वौज़ लाइक हैंविंग एन इलनेस। मैं कह सकता हूं इस ने मुझे लगभग खत्म कर दिया। मानो किसी बीमारी ने मुझे अपने काबू में ले लिया…..”

                  “नहीं, आप सही नहीं समझे?” बहन उत्तेजित हो ली, “आप गलत समझ रहे हैं। उस उपन्यास ने तो स्टीवनसन को इतना प्रभावित किया था कि फिर उस ने अपने उपन्यास ‘डाॅ. जैकिल और मिस्टर हाइड’ में अपने जैकिल में दोस्तोवस्की के  रसकौलिनीकोव ही की मनोविकृति को सजीव आकार दिया था…..”

                   “हम दोनों के इलावा यहां कोई और ज़ुबान नहीं रखता क्या?” जसपाल ने तरसेम की ओर देखा, “आप बताइए आप को दोस्तोवस्की कैसे लगे?”

                   “गूढ़,” तरसेम ने अपनी चुप्पी तोड़ी, “बहुत गूढ़। एक अपराधी की मनोदशा और ‘आए एम राइट,’ ‘मैं सही हूं’ वाले उस के बोध को मूर्त बनाने में दोस्तोवस्की का कोई सानी नहीं। अचरज नहीं उसे शेक्सपियर के बराबर का बड़ा लेखक माना जाता है…..”

                   “लेकिन दोस्तोवस्की के मुकाबले उसी के समकालीन तोल्स्तोय ने ज़्यादा प्रशस्ति पाई। ज़्यादा गुणगान कमाया। युगांतरकारी एपिक, वीर- कथा, वौर एंड पीस, (युद्ध व शांति) लिखा। पथ- भृष्ट ऐना कैरेनीना के कामोन्माद को एक क्लासिक, एक गौरव- गाथा का रूप दे दिया…..” जसपाल ने कहा।

                  “लेकिन जिन व्यक्तिगत और राजनैतिक समस्याओं को तोल्स्तोय ने अपने लेखन में बुना, वह मुझ जैसे लोगों के लिए बेगानी हैं,” तरसेम ने कहा, “जब कि दोस्तोवस्की के एंटी- हीरोज़ किसी भी वर्ग के सदस्य को तादात्म्य का भाव दे सकते हैं। उस का लेखन उमड़ कर सभी के साथ बहने वाला ज्वार है। लुहार जब बना रहा है तो उसे सब कुछ आना चाहिए…..”

                  “सन उन्नीस सौ पांच में फ़्रासीसी मनोवैज्ञानिक एलफ़र्ड बिनेट ने ‘इंटेलिजंस कोशंट’ टेस्ट विकसित किए थे और उन का कहना था, इंटेलिजंस के मूलभूत क्रियाकलाप तीन ही हैं :टु जज वेल, टु कौंपरिहैंड वेल, टु रीज़न वेल। सही आंकना, सही समझना और सही तर्कणा,” बहन ने जोड़ा, ,”मेरे विचार में हमें एक लेखक की सफलता इन तीनों के संदर्भ में देखनी चाहिए …..”

                  “ तोल्स्तोय में तीनों थे,”जसपाल हंसा।

                   “दोस्तोवस्की में भी। बुद्धिमता तो दोनों में रही,” बहन भी हंस  पड़ी।

                   “लेकिन उन के वर्गभेद ने उन्हें अलग- अलग अनुभव दिए,” तरसेम ने मैदान न छोड़ा, “लेखक का माहौल और वर्ग ही तय करता है वह किस किस्म के नैतिक दर्शन का पक्ष लेगा। जिस नीति- शास्त्र को तोल्स्तोय अग्रसर करता था वह फ़ुर्सत वाले वर्ग की नैतिकता थी। जब कि दोस्तोवस्की के पात्र नैतिकता की परिभाषा को बदलने की ताकत रखते थे…..”

                  “मालूम भी है?” जसपाल भड़क लिया, “मैं साहित्य  में एम.ए. हूं। और साहित्य में एक लेखक को परखने के हमारे पास अपने मापदंड होते हैं। उपन्यास- कला के मापदंड पर हम इन दो को परखेंगे तो निश्चित रूप से तोल्स्तोय को दोस्तोवस्की से बहुत ऊपर रखेंगे। तोल्स्तोय का चरित्र- चित्रण, उस का सामाजिक विश्लेषण, उस का कथा- निर्वाह, उस की ऐतिहासिक दृष्टि…..”

                “मगर लचीलापन?” तरसेम भी भड़का, “वह तोल्स्तोय में कहां रहा? उस के विलाप में रोदन है मगर दोस्तोवस्की जैसा अनुताप नहीं। उस के विषाद में उदासी है मगर शोक नहीं। उस के दुख में व्यथा है मगर क्लेश नहीं…..”

                 “मालूम है? अपने अंतिम दिनों में तोल्स्तोय ने अपनी सारी ज़मीन- जायदाद त्याग दी थी और वह एक खानाबदोश की मौत मरा था। एक अनजान रेलवे प्लेटफॉर्म पर। जबकि दोस्तोवस्की जुआरी था, स्वार्थी था, अराजकतावादी था…..”

                  “पुरानी सोच के लोग नई सोच को अराजकता का नाम ही दिया करते हैं,” तरसेम हंसने लगा।

                   जसपाल तुरंत आंगन की ओर लपक लिया।

                   “इधर ऊपर आओ,” आंगन से उस ने जीप में बैठे अपने कांस्टेबलों को आदेश दिया।

                  “वे तस्वीरों इधर लाओ,” अपने पास पहुंच रहे उन दोनों से उस ने कहा, “जिन लोग ने ‘भारत छोड़ो’ चिल्लाते हुए टाउनहौल के बाहर खड़े मल्लिका विक्टोरिया के बुत पर पत्थर फेंके थे और उस के हाथ का बटुआ फोड़ दिया था…..”

                  जब तक तरसेम भी बाहर आंगन में पहुंच लिया। बहन और मेरी संगति में।

                  पुलिस कांस्टेबलों को देखते ही उस के चेहरे का रंग उड़ गया।

                  “इस में एक तस्वीर कम कैसे हो गई?” जसपाल चिल्लाया।

                  “आप शायद नहीं जानतीं,” जसपाल ने बहन की ओर देखा, “जिसे आप शूरवीर बता रही हैं, उस का असली नाम तरसेम है। और उस के नाम मेरे पास वारंट है।”

                  “साहब जी,” तभी अधेेड़ कांस्टेबल जसपाल के कदमों में लोट लिया, “इसे बख्श दीजिए, साहब जी। बेअक्ल यह लड़का मेरा बेटा है। इस की मत मैं सही कर लूंगा…..”

                  “क्या यह सच है?” बहन को कंपकंपी छिड़ गई, “हम नहीं जानती थीं…..”

                  “बोलो,” जसपाल ने तरसेम को ललकारा, “क्या बोलते हो?”

                  “मैं गरीब ज़रूर हूं,” तरसेम की तनी छाती तनी ही रही, “और गरीब मेरे पिता ने मेरे मानमर्दन में कोई कसर भी नहीं छोड़ी है लेकिन फिर भी मैं खुश हूं मेरे हितैषी होने के दिखावटी हाव- भाव वाले आज बेनकाब हो रहे हैं…..”

                  स्पष्ट था उस का इशारा घबराई खड़ी बहन की ओर था।

                  “मैं खुश हूं ,” तरसेम ने जोड़ा,  “तुरही- नाद बजी तो मेरे साथ अपने कंधे और कदम मिलाने वाले लोग मुझ से अलग हो लिए…..”

                  “तुम जा सकते हो,” जसपाल ने अपने दोनों कांस्टेबलों को आदेश दिया।

                  “साहब जी,” अधेेड़ कांस्टेबल ने जसपाल की ओर हाथ जोड़े, “आप का अहसान ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा। आप आज़माइश कर लीजिएगा। मेरी चमड़ी की खाल का जूता भी मांगेंगे तो मैं खुशी- खुशी हाज़िर कर दूंगा…..”

                  “मैं भी जाऊं क्या?”  बहन की ओर बिना अपनी नज़र घुमाए, तरसेम ने जसपाल से पूछा।

                  “हां,” जसपाल हंसा, “तेरे बाप की वजह से आज तुझे छोड़ दिया है। मगर फिर तेरी कोई करतूत मुझ तक पहुंची तो तेरी खैर नहीं। बेशक आज तू जा सकता है। मैं अभी यहां कुछ देर बैठूंगा।”

                  “देखें, हमारी अगली मुलाकात कब होती है?कहां होती है?” तरसेम ने अपने ये शब्द हवा में उछाले और चल दिया।

                  बहन और मैं चुप बनी रहीं।

                  “चाय नहीं पूछेंगी?” जसपाल बहन की ओर मुड़ा।

                  “क्यों नहीं?” बहन प्रकृतिस्थ हो ली।

 

                   उसी रात बहन ने बाबूजी को चिट्ठी लिखी : “इधर माहौल ठीक नहीं। अपने प्रिंसीपल को कल ही एक महीने का नोटिस दे रही हूं। छोटी अपनी बी.ए. वहीं अपने शहर में कर लेगी। इधर जब तक नोटिस का मेरा पीरियड पूरा होगा अपने प्रयास से ग्रुप इन्शुअरन्स तथा प्रोविडेंट फ़ड के अंतर्गत काटा गया अपना वह रुपया भी मैनेजमेंट से रिलीज़ करवा लूंगी।”

                  बताना न होगा तरसेम से हमारी भेंट फिर कभी न हो पायी।

                  जसपाल ने ज़रूर दो- एक बार बहन से मिलने की चेष्टा की लेकिन बहन टाल गई,  “मेरे मकान- मालिक को बेगाने लोगों का यहां आना गवारा नहीं…..”

                  कस्बापुर में बिताए गए हमारे उस अंतिम माह के दौरान हमारी बैठक भी हमारे मुलाकातियों के चेहरे देखने से वंचित रही।