बेमिसाल यारी
लेखक: विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या: लगभग १५००
१
गाँव का नाम था कल्याणपुर। गंगा किनारे बसा यह गाँव आज भी वही पुराना है, जहाँ बिजली कभी-कभी आती है और रात में तारे इतने साफ दिखते हैं कि लगता है हाथ बढ़ाओ तो छू लोगे।
साल था उन्नीस सौ छियासी।
राकेश और सोनू एक ही दिन पैदा हुए थे। राकेश की माँ ने उसे गोद में लिया तो सोनू की माँ ने भी अपने बच्चे को सीने से लगाया। दोनों घर पास-पास थे, सिर्फ़ एक आम का पेड़ बीच में। उसी पेड़ के नीचे दोनों ने पहली बार एक-दूसरे को देखा और हँस दिए। उस दिन से दोस्ती शुरू हुई, जो ज़िंदगी भर नहीं टूटी।
२
बचपन में दोनों एक ही स्कूल जाते थे। राकेश पढ़ने में तेज़ था, सोनू खेलने में। राकेश होमवर्क करता तो सोनू उसकी कॉपी चुरा कर भागता और कहता, “पढ़ाई बाद में, पहले गिल्ली-डंडा!”
राकेश चश्मा ठीक करता और दौड़ता, “सोनू, आज तुझे हरा दूँगा!”
सोनू हँसता, “तेरे चश्मे की स्पीड कितनी है भाई?”
फिर दोनों हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।
३
दसवीं की परीक्षा के बाद राकेश शहर चला गया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। सोनू गाँव में ही रहा; खेती संभाली, बाप की बीमारी के कारण।
राकेश हर छुट्टी में आता। ट्रेन से उतरते ही सीधा सोनू के घर। सोनू दूर से दौड़ता हुआ आता, गले लग जाता।
“अबे इंजीनियर साहब, शहर में कोई गर्लफ्रेंड बना ली?”
“हाँ रे, तेरा ही इंतज़ार कर रही है!”
फिर दोनों नदी किनारे बैठते, घंटों बातें करते।
४
राकेश को नौकरी लग गई। दिल्ली में अच्छी कंपनी। तनख्वाह अच्छी। उसने सोनू को फ़ोन किया, “चल, यहाँ आ जा। कुछ न कुछ कर लेंगे।”
सोनू ने मना कर दिया।
“यहाँ माँ-बाप हैं, खेत हैं, गाँव है। मैं यहाँ खुश हूँ राकेश। तू खुश रहे, बस यही काफी है।”
राकेश चुप हो गया। उस रात वह पहली बार रोया था बड़े होकर।
५
साल दर साल बीतते गए।
राकेश की शादी हो गई। शहर में फ्लैट ले लिया। दो बच्चे हुए।
सोनू की शादी गाँव में ही हुई। एक बेटी हुई, नाम रखा राखी।
राकेश हर साल दशहरे पर गाँव आता। सोनू उसका इंतज़ार करता। दोनों पुराने आम के पेड़ के नीचे बैठते। अब पेड़ बूढ़ा हो चुका था, पर छाँव अभी भी वैसी ही थी।
६
फिर एक साल राकेश नहीं आया।
फ़ोन पर बोला, “बच्चों की परीक्षा है, प्रमोशन का प्रेशर है। अगले साल पक्का।”
सोनू ने हँस कर कहा, “कोई बात नहीं भाई। तू व्यस्त है, मैं समझता हूँ।”
उस साल सोनू को कैंसर हो गया। चौथी स्टेज। डॉक्टर ने कहा, “अब बस दो-तीन महीने।”
सोनू ने किसी को नहीं बताया। न माँ-बाप को, न बीवी को, न राखी को।
राकेश को भी नहीं।
७
दशहरे से एक दिन पहले राकेश का फ़ोन आया।
“कल आ रहा हूँ। बच्चों को छुट्टी करवा ली। इस बार दस दिन रुकूँगा।”
सोनू की आँखें भर आईं। वह बस बोला, “जल्दी आ जा। बहुत दिन हो गए।”
८
राकेश जब स्टेशन से उतरा तो सोनू उसे लेने आया था। पुरानी साइकिल पर।
राकेश ने उसे देखा; दुबला हो गया था, आँखें धँसी हुई थीं, पर मुस्कान वही थी।
राकेश ने गले लगाया तो सोनू का कंधा हड्डी का लग रहा था।
घर पहुँचे तो राकेश ने पूछा, “क्या हुआ है तुझे?”
सोनू ने हँस कर टाल दिया, “कुछ नहीं, बस थोड़ा कमज़ोर हो गया हूँ। खेती का काम ज़्यादा हो गया।”
९
रात में दोनों छत पर सोने गए। पुराने दिन।
तारों भरी आकाशगंगा।
राकेश ने कहा, “यार, मुझे लग रहा है तू मुझसे कुछ छुपा रहा है।”
सोनू चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “राकेश… मुझे कैंसर है। अब ज़्यादा दिन नहीं हैं।”
राकेश का हाथ ठंडा पड़ गया। वह कुछ बोल नहीं पाया। बस सोनू का हाथ कस कर पकड़ लिया।
सोनू बोला, “डर नहीं लगता मुझे मरने का। बस एक दुख है… कि तेरे साथ और वक़्त नहीं बिता पाया। बचपन से जो सपने देखे थे न, गाँव में बड़ा सा स्कूल खोलेंगे, दोनों मिल कर पढ़ाएँगे… वो अधूरे रह गए।”
राकेश की आँखों से आँसू बह रहे थे। वह बोला, “चुप कर। कुछ नहीं होगा तुझे। मैं तुझे दिल्ली ले जा रहा हूँ। बेस्ट डॉक्टर, बेस्ट हॉस्पिटल। पैसा कुछ भी लगे…”
सोनू ने उसका मुँह हाथ से बंद कर दिया।
“अब बहुत देर हो चुकी है भाई। अब बस एक आखिरी इच्छा है।”
“बोल।”
“मेरे बाद राखी की शादी… तू देखना। उसे कभी ये न लगे कि उसका बाप नहीं है। और… मेरे हिस्से का आम का पेड़… उसकी जड़ में मेरी अस्थियाँ दबा देना। ताकि मैं हमेशा तेरे साथ रहूँ।”
राकेश कुछ नहीं बोला। बस सोनू से लिपट कर रोने लगा।
१०
तीन महीने बाद सोनू चला गया।
राकेश ने सारी नौकरी छोड़ दी। दिल्ली का फ्लैट बेच दिया। गाँव आकर बस गया। उसी आम के पेड़ के नीचे एक छोटा सा स्कूल खोला। नाम रखा – “सोनू-राकेश पाठशाला”।
राखी आज उसी स्कूल की हेडमिस्ट्रेस है।
हर दशहरे को राकेश स्कूल की छत पर चला जाता है। तारों को देखता है।
और उसे लगता है, कोई दूर से हँस रहा है।
वही पुरानी आवाज़…
“अबे इंजीनियर साहब, चश्मा ठीक कर! तारे गिन रहा है या मुझे देख रहा है?”
राकेश मुस्कुराता है। आँखें नम होती हैं, पर होंठों पर मुस्कान रहती है।
क्योंकि उसे पता है –
दोस्ती कभी मरती नहीं।
वो बस रूप बदल लेती है।
कभी आम के पेड़ की छाँव बन जाती है,
कभी स्कूल की घंटी बन जाती है,
कभी राखी की हँसी बन जाती है।
और कभी…
रात के तारों में चमकती रहती है।
बेमिसाल दोस्ती।
जो न कभी शुरू हुई थी, न कभी खत्म होगी।