The world of books is like heaven descending on earth. in Hindi Book Reviews by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | पुस्तकों की दुनिया मानो स्वर्ग धरा पर हो उतरा

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पुस्तकों की दुनिया मानो स्वर्ग धरा पर हो उतरा

पुस्तकों की दुनिया मानो स्वर्ग धरा पर हो उतरा 

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वह समाज और संस्कृति स्वस्थ मानी जाती है जिसमें पुस्तकें और उन्हें पढ़ने वालों में होड़ रहती है। पाठक रोचक, मनभावन आख्यान,काव्य,व्यंग्य पढ़ता जाता है और अगली की बाट जोहता जाता है। अगली पुस्तक उससे भी बेहतरीन और नई जमीन की होती है तो आनंद और बढ़ जाता है। पुस्तकें आनंद ही नहीं देती बल्कि जीवन में आगे बढ़ने के वह अदृश्य पंख देती हैं जो ईश्वर ने हम सभी के लिए भेजें हैं। पर उन्हें वहीं पाते हैं जो पुस्तकों और साहित्य की वैतरणी उतरने का जज्बा रखते हैं। 

  इस बार की  पुस्तकों में उपन्यास,कथा,काव्य संग्रह और तीन पत्रिकाएं भी हैं। आप सभी दिए फोन नंबर पर संपर्क कर रहे हैं और पुस्तकें खरीद रहे हैं यह वाकई सराहनीय है।

 

(1) बिन ड्योढी का घर, उपन्यास,उर्मिला शुकुल,9893294248,

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"खेत की ओर आते जाते भी और खेतों में काम करते हुए भी उनका आमना सामना होता और वह देर तक बतियाती रहती। गंगा भौजी जब भी मिलती उनके चेहरे पर घूंघट होता मगर जब वह बात करती तो घूंघट को अपनी दो उंगलियों से कुछ इस तरह थामती कि उनकी टिकुली झलकती रहती। सूरज की तरह लाल और वैसी ही  चमकदार मानो उनके माथे पर सूरज अस्त होते होते ठहर गया हो..."

 

ठेठ आदिवासी परिवेश में बुना गया यह आंचलिक उपन्यास आधी आबादी की बात,उनकी मर्जी,उनकी यातनाएं और तकलीफों को स्वर देता है। उर्मिला शुकुल आदिवासी बाहुल्य इलाके वाले राज्य छत्तीसगढ़ से हैं और स्त्रियों के मध्य निरंतर काम करती रहीं हैं। उनके यही अनुभव एक रोचक कथा को हमारे सामने रखते हैं। बिना शोरगुल और प्रोपेगंडा किए भी लेखक कितना जबरदस्त और लॉकेल से जुड़ा उपन्यास हिंदी जगत को दे सकता है यह कथा इसका प्रमाण है। एक स्त्री लेखक नहीं कहूंगा क्योंकि  साहित्य में स्त्री पुरुष का भेद नहीं होता है।हम साहित्य पढ़ते हैं उसके कथ्य,रोचकता, नई जमीन और भाषा के लिए। हम यह है नहीं  देखते की पुरुष या स्त्री लिख रही है,बल्कि यह की पठनीयता और ईमानदारी कितनी है? 

भाषा, पात्रों का आमना सामना और स्त्री की वाणी की मुखरता उपन्यास को समकालीनता प्रदान करती हैं।

इस दृश्य के साथ यह कथा आपके हवाले, "कात्यायनी ने देखा उसकी आंखों में एक दंभ उभर आया था और यह दंभ था एक असहाय औरत को स्वीकारने का दंभ।दूसरे समाज के बच्चे को अपना नाम देने का दंभ। जबकि अभी-अभी उसने कहा था कि इसके समाज में दोनों को समान अधिकार हैं। फिर इसकी आंखों में उभरा यह दंभ? ऐसा कैसे? उसने गौर से उसे दिखा वह दंभ अपने पूरे वजूद के साथ खड़ा नहीं था बल्कि अड़ा हुआ था। फिर क्या फर्क है?समाज चाहे कोई भी हो मगर पुरुष को औरत की दो ही चीज बांधती हैं एक उसकी देह और दूसरी उसकी बेचारगी। मैं इसकी,शिवा की, निगाह में बेचारी ही हूं।"

 

(2) सात देश में औरत ,राम प्रवेश रजक, 9800936139काव्य

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 पुरुष का समर्पण

 स्त्री का स्वाभिमान 

पुरुष का पलायन

 स्त्री की मौत ,(स्त्री,33)

 

पेड़ से पत्ता टूटा 

पेड़ का ना जड़ का 

ना तने का 

तुझसे अलग होकर

 मैं 

 खुद का ना दुनिया का 

सिर्फ मौत का

(प्रेम,64)

 

युवा कवि राम प्रवेश का पहला संग्रह है। कविताई से वास्ता काफी पहले से रहा।कई कवि अरुण होता,जितेंद्र श्रीवास्तव आदि से सीखने का उल्लेख है पर कविता की भाषा,लहक़ और तेवर इस युवा के ही हैं। प्रथम संग्रह में  जो अधिक भावुकता,विविध विषयों को एक साथ लेने की जल्दी, हिंदी इंग्लिश का प्रयोग सभी यहां भी हैं। लेकिन एक बात है जो कुछ कविताओं को मजबूती देती है ...वह है ईमानदारी, अपने पर भरोसा और एक भावपूर्ण भाषा।

सात देश घूमकर आई औरत जब कहती है कि हर जगह औरत को नोचा खाया जाता है तो बात गम्भीर हो उठती है।

ऐसे ही आक्रोश भरे शब्द कलकत्ता कविता में हैं,जो एक महानगर की निर्मम सच्चाई उघाड़ देती है,"...अगर स्त्री के रूप में / अगला जन्म लेना पड़े तो/ वह शहर/ कोलकाता न हो।"

यह आक्रोश बताता है कि हम लाचार,बेबस हो गए हैं। 

कवि की एक दिलचस्प कल्पना है कि, " ट्रेन की तरह / तमाम मुश्किलों से /बाहर आने के लिए/ जिंदगी में होती एक/आपातकालीन खिड़की ।"

      यह खिड़की या कहें दरवाजा  है तो पर उसी इंसान के पास जो हौंसले बुलंद रखता है और अंजाम की परवाह नहीं करता। कुछ जगह सिक्योर फील आदि शब्दों की जगह हिन्दी के उपर्युक्त शब्द आते तो प्रभाव और गहरा होता।उम्मीद है आगे ख्याल रखा जाएगा।

    पठनीय और स्वागत योग्य संग्रह है "सात देश में औरत " है।

  

(3) एक बात समझनी होगी, काव्य,लालित्य ललित, संपादन स्वाति चौधरी ,पंकज बुक्स,दिल्ली

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दिल्ली जैसे भावनाशून्य,राजनीति के केंद्र और चालबाजियों की ऊंची इमारतों के मध्य कोई युवा निरंतर अपनी रचनाधर्मिता को जिंदा रखे हुए है बल्कि  बढ़ा रहा है तो यह हिंदी भाषा और साहित्य की ताकत है।  लालित्य ललित व्यंग्यकार के रूप में चर्चित नाम है तो वहीं कवि के रूप में वह अधिक रमे और जमे हैं। 

" मैंने जिंदगी से कहा/आहिस्ता आहिस्ता देखेंगे/ सपनो के शहर को" से यह यात्रा प्रारंभ होती है। फिर आवाजों के शोर,संवेदनहीन समय,प्रेम,इश्क़ से होती हुई  मन की बात पर पूरी होती है।

     " जितना बोलना था /बोल लिए/ अब नहीं कहेंगे/ कुछ भी"...

 जिंदगी का फलसफा  युवा कवि लालित्य क्या खूब समझाते हैं ,"प्रकृति /क्या कह रही है /उसे सुनो,समझो /उसका इशारा...

प्रेम कीजिए/आगे /किसी को दीजिए/ यह /जिंदगी का अनिवार्य पहलू है।" 

कवि बेकार के गूढ़ शब्दों और उनके बिंबों में नहीं उलझता और न पाठकों को उलझाना चाहता है। यह इस काव्य संग्रह की विशेष खूबी है। 

"मन यह कहता है/ तो दिल कहता है/ मेरी सुनो / और मैंने/ दोनों की बात मानली /अब ताजी हवा में / पार्क में/ पंछियों से /मिल रहा हूं।"

   संग्रह पर संपादक स्वाति चौधरी को थोड़ी मेहनत करनी चाहिए थी। क्योंकि कुछ कविताएं बहुत बेहतरीन हो सकती थीं यदि उनमें से कुछ शब्द कम कर दिए जाते।  पर अभी सीखना बाकी है।

लेखक  बोलने में मितव्ययी,संयमित हैं सोने में सुहागा। एक नई जमीन और सोच पर लिखी कविता की पंक्तियों के साथ इस संग्रह का स्वागत करें ,"वह कितना पढ़ता होगा/ सुबह से शाम तक/ कहानियों से लेकर/कवियों के अन्तर्द्वंद तक/  जान चुका है/ इनकी मन स्थितियां/ यह वे लोग हैं जिन्हें /छपास की भूख है/...

सोच समझ कर लिखिए/अगली सदी/आपके लेखन की /प्रतीक्षा अवश्य करेगी ( शब्दों में खोया कंपोजिटर)।

       

 

(4)टूटते इंद्रधनुष ,कथा संग्रह,अनीता सिंह चौहान,9836714443 ,इंद्र पब्लिशिंग हाउस,भोपाल 

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अच्छी कहानी वह होती है जो पाठकों के दिमाग के साथ खेलती चलती है। सीधी,बिना शब्दों के जाल के चलती जाती है और आखिरी पृष्ठ में वह पाठक की सोच के विपरीत जा खड़ी होती है। बहुत कम लोग इस तरह का लेखन कौशल रखते हैं। अनीता सिंह चौहान उन चुनिंदा लोगों में आती हैं।आसपास की सामान्य सी घटनाओं जैसे बाई के बेटे की मैकेनिक शॉप पर उसकी मां को कामवाली बोल दिया तो बेटे का स्वाभिमान और गुस्सा (छोटी सी बात), लड़कियों के हर आकर्षक और संपन्न युवक से आकर्षित होने की प्रवृत्ति पर चोट करती "आता जाता मन"।

अपेक्षा का बोझ कहानी बाल मनोविज्ञान को बड़ी मजबूती से उठाती है।बुद्धिमानी से एक सच सामने रखती है कि ",आप ,पिता,तो किसान के बेटे से  वैज्ञानिक बने तो पिता इसमें खुश थे।लेकिन आप वैज्ञानिक हो तो आप अपने बेटे को अपने बराबर या उससे बड़ा देखना चाहते हो तो वह इस अपेक्षा का बोझ कैसे उठाएगा? क्यों? एक जरूरी प्रश्न कहानी रखती है। संग्रह तीन सौ दस पृष्ठ का चालीस कहानियों को अपने में समेटे हैं।  अधिकांश कहानियां टूटते सपनो अथवा उम्मीदों की ही नहीं है बल्कि उनके मध्य में से रास्ता निकालने की आस जगाती हैं।

हालांकि कुछ , सात आठ कहानियां कथ्य,शिल्प की दृष्टि से कमजोर हैं। लेकिन शेष अपनी रोचक शैली,तेज रफ्तार घटनाक्रम, पात्रों के अनुकूल भाषा और एक नए मोड़ पर पहुंचकर खत्म होती हैं।

गोपाल राम गहमरी,जो प्रेमचंद से भी तीस वर्ष पूर्व करीब अस्सी उपन्यास लिख गए कहते थे, " जो रचना या कहानी पाठकों को बांधकर न रखे उसे लिखना नहीं बल्कि फाड़कर फेंक देना चाहिए।"

संग्रह अपनी नई परन्तु सही सोच और तेवरों के साथ प्रभाव छोड़ता है। बाकी ऐसी कहानी भी है जिसमें एक ईमानदार अफसर अपनी बीवी बच्चों के तानो से परेशान होकर आत्महत्या करता है। यह लिख जाता है कि ,"मेरे परिवार को कोई भी ग्रेच्युटी,लाभ और अनुकम्पा नियुक्ति न मिले।"। उद्देश्य मात्र यह होता है कि उसके बीवी बच्चों को उसकी महत्ता मालूम हो।

        कई जगह विद्रोह के स्वर इतने सहज होते हैं कि हमें लगता है कि यह तो हमारे आसपास हो रहा। और हम उसे नजरअंदाज करते रहे?

पठनीय,रोमांचक और नई जमीन की कहानियों को पसंद करने वालों को यह संग्रह अवश्य खरीदना चाहिए।

 

 

 5. सखी तथा अन्य कहानियां, अखिलेश पालरिया,(9610540526)  हिंदी साहित्य निकेतन,बिजनौर, यूपी 

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 समय के साथ बदलाव जरूरी हैं तो वहीं जीवन मूल्य,निष्ठा और आस्था भी जरूरी है। जो अप्रासंगिक या कहें स्वत ही रूपांतरित हो गया है , हट गया। लेकिन बहुत कुछ ऐसा है जो शाश्वत है और मनुष्यता के लिए जरूरी है। आधुनिक समय  और पूंजीवाद के साथ संस्कृति,जीवन मूल्यों, परिवार के टकराव की यह कहानियां हैं। 

  अनेक कहानियों  खेल,सखी, का केंद्रीय विषय समय के साथ कदमताल करती स्त्री और उसका संसार है। लेखक की यह बड़ी विशेषता है कि वह छोटे दृश्यों और सहज संवादों के साथ बड़ी बात कह जाते हैं।

सखी कहानी दो शिक्षकों की स्वस्थ मित्रता की बात करती है।कहानी के माध्यम से छोटे शहरों के सरोकार और गली मोहल्लों,बाजार के बहुत रोचक दृश्य प्रस्तुत किए हैं।

 प्रशांत आर्थोपेडिक होम,दो सहेलियां, मेडिक्लेम, शुभचिंतक आदि कहानियां हमारे आसपास की दुनिया को रखती हैं।वह दुनिया जो वास्तविक है परंतु आभासी संसार की चमक में धुंधली होती जा रही है।

बुरे मन वाली पड़ोसन पढ़ते हुए मुझे इस वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म पार्किंग याद आ गई। इसमें भी पड़ोसी की खाली जमीन पर एक तेज तर्रार दंपत्ति अपनी कार खड़ी करना चाहते हैं। पर पड़ोसी के मना करने पर वह उसे ही बुरा भला कहते हैं। दरअसल व्यक्ति की हां अथवा न का हम सम्मान करना ही भूल गए हैं। यदि कोई अपनी चीज के उपयोग के लिए मना कर रहा है तो हमें उसके निर्णय को स्वीकार्य करना चाहिए बजाय उसकी आलोचना के।

    संग्रह पठनीय है पर उम्मीद की जाएगी कि आगामी कहानियों में लेखक कुछ नए विषय उठाए।

 

 

 

6.जिंदगी की तलाश में, कथा संग्रह,राजेश भटनागर, (8949415256),राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर।

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राजेश कलाओं को समर्पित व्यक्तित्व के धनी हैं। संगीत गायन,काव्य पाठ,कथा लेखन में डूबे रहने वाले इंसान। यह इनका छठा कथा संग्रह,इस अर्थ में अलग है कि इसमें वंचित तबके,जीवन की गुत्थियों और आधुनिक समय की विसंगतियों से उत्पन्न विषयों को लिया गया है।  तेज रफ्तार जिंदगी में सुकून के कुछ खोए हुए लम्हों को पकड़ने की कोशिश की है।

जन्म दिन कहानी किशोर बाई बनी लड़की की बात करती है जो अपनी छोटी बहनों की देखभाल करती है। एक बहन अविवाहित मां बन जाती है तो वह उसे खूब भला बुरा कहती है। " साहब,बड़ी हो जाती तो खूब धूमधाम से शादी करती।पर इसने तो नाक कटा दी।"

यह कहने वाली सत्रह साल की लड़की कब खुद भी पड़ोस के युवक के झूठे प्यार में पड़कर बिन ब्याही मां बन जाती है।

 घर न ठिकाना कहानी बताती है किस तरह मजदूरों से ठेकेदार काम लेते हैं ,उन्हें अपने बच्चों के इलाज तक के लिए छुट्टी नहीं देते। 

जबकि मुझे माफ करना कहानी में दादी बनी पत्नी पर शक करता पति है। आखिर में पत्नी का मोबाइल चेक करके ही संतुष्ट होता है। पर फिर पति को भी मोबाइल पत्नी को देना नहीं चाहिए? 

संग्रह की अधिकतर कहानियां कलेवर में लघु,तीन पृष्ठों की, हैं पर कथ्य बड़ा है। 

संग्रह का मुख्य स्वर दुख,निराशा और टूटना है,जो आज की जिंदगी की हकीकत है। ऊपर से मित्रता,बड़ों के पास बैठने जैसे लम्हे हम गंवाते जा रहे हैं।

       क्या ही अच्छा हो कि हम रोज दो से तीन घंटे फोन से दूर रहे? कुछ समय मित्रों से मिलने जाने और बड़ों से बात करने में बिताए? मुझे तमाम बड़े लेखक,राजेंद्र यादव,नामवर जी,प्रभाकर शोत्रिय, कालिया दंपत्ति,ज्ञानेंद्रपति, आलोक धनवा की बातें याद आती हैं, "हमेशा लोगों से ऐसे मिलो जैसे कोई किताब आपके सामने खुलने जा रही हो।" भले ही मुलाकात पांच मिनट की हो या तीन दिनों की ।आपकी रुचि ,आपकी बातें आत्मीयता बढ़ाने वाली हो,जो खुद आपके लिए अच्छा है।"

 

7.अकथ गाथा नारी की, आलोचना, प्रिया शर्मा,निशा शर्मा,सुनीता अवस्थी, राज पब्लिशिंग हाउस ,जयपुर 

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इंसान को सामान्य से विशेष उसके कार्य,हौंसला,सोच और हिम्मत बनाती है।  आलोचनात्मक पुस्तक में प्राचीन भारत से आज तक की ऐसी चंद स्त्रियों की बात की गई है जिन्होंने भारतीय परिवेश को समृद्ध किया है। इसमें झलकारी बाई,प्रतिभा पाटिल,सुधा मूर्ति, लिज्जत पापड़ समूह की स्त्रियां भी हैं तो सानिया मिर्जा,माधुरी दीक्षित भी हैं।  उल्लेखनीय बात यह भी है कि इसमें इक्कीस स्त्रियों के संघर्ष,पीड़ा और रास्ते बनाने के हौंसले को भी दिखाया गया है। पुस्तक पढ़ते हुए खास बात उभरकर सामने आई,जो इत्तफाक भी हो सकता है, कि इन स्त्रियों की मेहनत, संघर्ष और पत्थरों से टकराकर राह बनाने की मुहिम में पुरुष कहीं नहीं आए। जो भी किया,मदद की वह इन्हीं के जैसी अन्य स्त्रियों ने।  पुस्तक में रोचक ढंग से इन स्त्रियों की गाथा है जिसे पढ़कर निःसंदेह काफी लोग प्रेरित होंगे। प्रकाशक ने बहुत आकर्षक ग्लांस पेपर पर हार्ड बाउंड में इसे छापा है। विशेष छूट के तहत  हजार रूपये मूल्य  की पुस्तक मात्र चार सौ में रजिस्टर्ड डाक से दी जा रही है।

( 8279272900)

 

8. प्रवासी साहित्यकार दिव्या माथुर ,एक अंतरंग वार्ता,डॉ अरुणा अजीतसरिया, आईसेक्ट प्रकाशन, भोपाल 

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हर स्त्री की तीन कहानियां/सच्चाई/हकीकत होती है। पहली सबसे खूबसूरत,परियों जैसी जब वह मम्मी पापा,दादा दादी  के साथ  पलती बड़ी होती,चीजों को कुछ समझती कुछ सीखती है। दूसरी विवाह के बाद की जब मोहभंग होता है,बहुत से सपने ,बल्कि मैं कहूंगा सारे सपने टूटते हैं। कठोर धरातल से चोट लगती है।कांच की किरचे ज़ख्म देती हैं। औरत समझ जाती है और फिर चुपचाप या तो जिंदगी काट लेती या फिर तीसरी स्टेज में आती है। जहां अपने बूते कुछ करने,कम से कम अपना पेट पालने की जद्दोजहद प्रारंभ करती है। यहां जब तब वह अपने बचपन, मम्मी पापा को याद कर अकेले में रो भी लेती है।

     यह अतिशयोक्ति लगे पर हर औरत को इससे गुजरना ही होता है। दिव्या जी की आत्मकथात्मक यह कृति हमारे सामने ऐसी साहसी स्त्री को सामने लाती है जो बराबर अपने संघर्ष,जिजीविषा और होंसले से आगे बढ़ती जाती है। खूबसूरत बात यह है कि वह किसी से लड़ती नहीं,किसी को दोषी नहीं ठहराती ।फिर भले ही अपने बूते बच्चे को पाल रही उनकी महीने की सेलरी वो ले जाता हो ,नियम से।उनके घुट घुट के जीने पर भी पाबंदी हो । फिर एक साहसी कदम  उठाकर अपनी सहेली जगजीत के सहयोग से उन्नीस सौ चौरासी में पांच साल के बेटे को लेकर डैनमार्क आना हो, बेटी ननिहाल में छोड़कर। एक टूटे पंखों वाली स्त्री की अकेली यात्रा भर नहीं है यह बातचीत। बल्कि यह उन हजारों औरतों को खामोशी से रास्ता दिखाती हैं कि अपनी हिम्मत,ईमानदारी और संघर्ष के द्वारा धीरे धीरे ही सही,आप अपना मुकाम बना सकते हैं।

आज की सक्रिय,जोश से भरी और मृदु भाषिणी दिव्या जी को देख  यही लगता कि इनकी जिंदगी में कोई गम नहीं,क्या जिंदगी दी है। 

परन्तु यह संवाद कम बेहद रोमांचक बायोग्राफी पढ़ते हुए लगा कि हर स्त्री को इस जौहर ज्वाला से गुजरना ही पड़ता है।

अच्छी बात यह रही कि बचपन से जो बाबा दादी के द्वारा दिए पढ़ने के संस्कार,बरकरार रहे।उनकी कई चर्चित कहानियों   वह काली,आत्महत्या के पहले,आक्रोश,संजीवन,आशा, पंगा और चर्चित उपन्यास शाम भर बातें का उल्लेख इस लंबी, करीब सवा सौ पृष्ठों की बातचीत को नई ऊंचाई प्रदान करता है।

"जब एम्स में नेत्र विभाग में नौकरी के दौरान मेरी दो कहानियां नवभारत टाइम्स आदि में प्रकाशित हुई तो मेरी ससुराल में हंगामा मच गया। इसने हमारी इज्जत बाहर उछाल दी। हालांकि वह कहानियां काल्पनिक थीं परंतु उन लोगों के अंदर की अपराध बोध की भावना ने उन्हें यह अहसास करवाया।" 

दिव्या जी ने बेबाकी से अपने साथ घटी हर घटना को छुआ है।किस तरह लंदन में बेरोजगारी झेली,बेटे को पढ़ाया तो किस तरह लोगों ने बेवकूफ बनाया,छला भी (उनके नाम भी देतीं तो लोग सावधान रहते),फिर छोटी छोटी नौकरी करके वह आगे बढ़ी। वास्तव में एक जीवट वाली स्त्री की यात्रा,जो हर व्यक्ति को पढ़नी चाहिए। पुरुषों को इसलिए भी की वह ऐसा अमानवीय व्यवहार न करें और जो कर रहे हो उन्हें रोकें। किसी को धोखा न दें।

अभी अभी विश्वृंग, भोपाल, अंतरराष्ट्रीय लिट फेस्ट, रविंद्र नाथ टैगोर और आईसेक्ट विश्विद्यालय द्वारा आयोजित ,कार्यक्रम में दिव्या जी के साथ यह पुस्तक साथी लेखक पंकज मित्र,पंकज सुबीर,शशांक और मेरे द्वारा लोकार्पित की गई।  उसी वक्त इसे पढ़ नहीं सका अन्यथा साहित्य प्रेमियों से भरे उस हॉल में जरूर इस पर बोलता।

 

 

               अब बारी कुछ बेहतरीन पत्रिकाओं के नए अंक की

1 बिपाशा,द्विमासिक साहित्यिक पत्रिका, हिमाचल प्रदेश साहित्य अकादमी,शिमला, वार्षिक शुल्क 220,त्रिवार्षिक 550।

  यह पत्रिका अपने नियमित प्रकाशन और साहित्यिक जागरूकता के लिए जानी जाती है। हर अंक में बेहतरीन कविताएं,लघु कथाएं,व्यंग्य,कहानियां और एक उपहार ,आर्ट पेपर पर आकर्षक कांगड़ा शैली तो कभी राधा कृष्ण जी का चित्र, होता है। जिसे फ्रेम करवाकर आप ड्राइंग रूम की शान और बढ़ा सकते हैं।

सरोजना नरवाल ,उप संपादक ,7876452778

से संपर्क कर आप यह बहुमूल्य पत्रिका घर बैठे डाक से मंगवा सकते हैं।

 

2.प्रेरणा, संपादक अरुण तिवारी,(9826282750) भोपाल ,वार्षिक शुल्क 300 रूपए, 

 

लगातार दो दशक से नियमित निकल रही यह डेढ़ सौ पृष्ठ की त्रैमासिक  पत्रिका हर बार अपने कथ्य,तेवर और सोच से पाठकों को बांधती है। इसमें कहानी, कविताएं,आलेख,पुस्तक समीक्षा,फिल्म संबंधी लेख आते हैं। हिन्दी जगत की यह प्रतिष्ठित पत्रिका है। 

 

3. किस्सा, संपादक अनामिका शिव, भागलपुर,7488141730

 

मूलतः कथा साहित्य को समर्पित यह पत्रिका विगत दस वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रही है। सुप्रसिद्घ कथाकार शिव कुमार शिव ने इसे राजेंद्र यादव जी के प्रोत्साहन से प्रारंभ किया था। उद्देश्य था छोटे शहरों के बिना गुटबाजी वाले लेखक,लेखिकाओं को बिना भेदभाव के प्रकाशित करना।  वह इसे कथा विधा में देश की टॉप तीन पत्रिकाओं में शुमार कराके खामोशी से पंचतत्व में विलीन हो गए। पत्रिका बंद हो जाती यदि इस विरासत को उनकी पुत्री अनामिका शिव आगे आकर नहीं संभालतीं। विगत चार वर्षों में किस्सा ने और ऊंचाइयां प्राप्त की हैं। खासकर इसके बिहार,राजस्थान,बंगाल के लेखन पर केंद्रित विशेषांक बहुत सराहे गए। ऐसे उद्धरण हिंदी जगत में बहुत कम मिलते हैं जहां लेखक पिता की सन्तान भी सम्पादन और लेखन से जुड़ी हो। मुझे लेखक पिता प्रेमचंद,अश्क,नागार्जुन,(यदि शोभाकांत के संपादन को लेखन माने) भगवंत रावत, जगन्नाथ प्रसाद बनमाली ही याद आते हैं।किस्सा पठनीय तो है ही साथ ही अपने फलक का विस्तार भी कर रही। बस कमी यह है कि स्थापित वही दो पांच नाम जिन्हें देश की हर पत्रिका प्रकाशित कर रही,से किस्सा जैसे जनवादी पत्रिका को बचना चाहिए। 

 

4.विश्वरंगसंवाद :_,त्रैमासिक,

प्रधान संपादक संतोष चौबे,वार्षिक शुल्क 700रुपए,रजिस्टर्ड डाक से --------------

जुलाई सितंबर 2025 अंक मेरी मेज पर है और यह संस्मरण विशेषांक हैं। अंक के संपादक लीलाधर मंडलोई की संतुलित संपादन शैली ने अंक को रोचकता और ऊंचाइयां प्रदान की हैं।मुक्तिबोध,त्रिलोचन, कृष्णा सोबती, शेखर जोशी, ओमप्रकाश वाल्मीकि से लेकर शिवाजी सांवत तक पर नए ढंग के संस्मरण हैं। इनमें उनकी खूबी तो कमियां भी रेखांकित की गई हैं। साथ ही कुछ शहरों को भी जाने माने रचनाकारों ने याद किया है।कला,रंगमंच पर भी भरपूर सामग्री इस दो सौ पृष्ठ की पत्रिका में दी गई है। एक अच्छी पत्रिका साहित्य जगत को  आईसेक्ट प्रकाशन ने दी है।

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी ,कुछ किताबें,फिल्म लेखन,देश विदेश से पुरस्कृत 

804,विजय सरिता एनक्लेव, बी ब्लॉक, पंचशील,अजमेर ,305004

मो 7737407061)