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वह ट्रेन निरंजना को जाती थी

वह ट्रेन निरंजना को जाती थी

संजीव चंदन

गर्ल्स हाॅस्टल, ब्लू फ़िल्म और सियार बनाम जोड़ी जी का लुग्गा

एक प्राण दो देह। कुछ तो था सुनिधि में, जिसमें श्यामली अपना अक्स ढूँढ़ती। कुछ तो था श्यामली में जिसमें सुनिधि अपना स्वरूप खोजती। विश्वविद्यालय उनकी दोस्ती का निहितार्थ आंकता। हवा में जुमले तैरते ‘लेस्बियन’। उन दोनों को भी पता था यह संबंध, वे खूब हँसते इस आरोपित संबंध पर। श्यामली सिन्हा कहती, ‘तुम्हें देखकर तो मुझे भी तेरी रुचि पर ऐसा ही संदेह होता है। लड़कों से इतना रिजर्व भी रहा जाता है भला! मुझे देखो। हर दूसरे लड़के को देखकर मेरे भीतर कुछ-कुछ होता है। वैसे श्यामली के आउट अपीअरेंस को लेकर दूसरा जुमला भी लड़के उछालते, ‘किसी के हाथ न आएगी ये लड़की’

जिस दिन गर्ल्स ह़ास्टल में सियार ने घुसपैठ की, जिस दिन गर्ल्स हाॅस्टल के एक कमरे में लैपटाप पर और नाटक एवं फ़िल्म विभाग के निदेशक के स्टडी रूम में डेस्कटाॅप पर एक साथ ब्लू पिफल्म देखी गयी, उसके ठीक 40 साल पहले उसी दिन गल्र्स हाॅस्टल से 1400 कि.मी. दूर उसके जोड़ी जी ने

उसे लाल लुग्गा, एक डिबिया सिंदूर और कई कतरे आँसू भेंट किए। जिसे लुग्गा भेंट किया गया वह ‘गौरा’ थी, जिसने लुग्गा भेंट किया वह गिरिजा उपर्फ गौरा की जोड़ी जी, जिनके अलावा इस अवसर पर शामिल थीं, कुसुम उपर्फ इंगलिश और डोमन उपर्फ गुलाब जी। जब गर्ल्स हास्टल में सियार नमूदार हुआ तब तक समय को ईसा संवत की अंग्रेजी तारीखों में व्यक्त किया जाने लगा था, 15 अगस्त 2009, लेकिन जिस दिन गौरा की सहेलियाँ एक साथ इकट्ठा हुई थीं और निरंजना नदी के किनारे बसे जिस गाँव में इकट्ठा हुई थीं, उस दिन तक उस गाँव में पंडित कपिल देव समय को विक्रम संवत में मापते थे, यानी संवत 2026। वैसे गौरा और उसकी सहेलियाँ उस समय को कलियुग के किसी समय के रूप में जानती थीं, जिसके बारे में गौरा को पता था कि ‘‘रामचंद्र कह गए सिया से एक दिन कलयुग आयेगा, हंस चुगेगा दाना जूठा कौआ मोती खाएगा।’’ गौरा को हमेशा से यकीन रहा है कि वह कलियुग में अपने पूर्वजन्म का फल भोगने के लिए अभिशप्त है, जबकि उसकी सहेलियाँ राज भोग रही थीं राज। गौरा यानी मंगलवार, वृहस्पतिवार को नियमित व्रत करने वाली पंडित कपिलदेव की सुशील सुकन्या, जो शुक्रवार को ‘संतोषी माँ’ का व्रत भी रखती थीं। रोज खानदानी ठाकुरबाड़ी में पूजा पाठ के बाद ही अन्न ग्रहण करती थी। और क्या मजाल कि गाँव का कोई लुच्चा-लपफंगा उसे लेकर कोई ऐसा-वैसा कह दे या कोई घर घुस्सन कुटनी चाल-कुचाल का खुस्सर-पफुस्सर कर दे। सबके दिल में बस एक ही आस: भगवान सबको गौरा जैसी बेटी दें! अपनी बेटियों को घोड़ियों से नवाजते औरत-मर्द के लिए गौरा जैसी खूबसूरत, सुशील और सुलक्षण (सुलच्छन) बेटी की कामना होती। वही गौरा अभिशप्त जीवन जी रही थी, कम से कम वह तो ऐसा ही मानती थी और उसके अनुसार उसकी सहेलियाँ गया-पटना में अपने-अपने दूल्हों को अपने बटुए में रखकर राज कर रही थीं राज- ‘हंस चुगेगा दाना जूठा कौआ मोती खाएगा।’

लुग्गा यानी साड़ी, साड़ी के साथ टिकुली (बिंदी), आलता, सिंदूर आदि-आदि। यह सब गिरिजा ने गौरा को अपने ससुराल जाने से पहले भेंट किया था, क्योंकि गिरिजा के पीछे में ही दो महीने बाद गौरा का भी गौना होना था और गौरा भी परदेस की बेटी होने वाली थी। गौरा, गिरिजा, कुसुम और डोमन पंडित कपिल देव के गाँव में चार सहेलियाँ थीं। संवत् 2026 तक इस गाँव में मनोरंजन के बहुत कम साधन थे। लड़कियों के मामले में तो हाल और बुरा था। गौरा और उसकी सहेलियों ने बाइस्कोप, अपने गाँव के छठ के मेले के अवसर पर एक बार देखा था। तब वे बहुत छोटी थीं। इतनी छोटी कि हर साल उन्हें गौरी पूजन के अवसर पर कुमारी भोजन में आदर पूर्वक भोज दिया जाता था। वे कई घरों में आमंत्रित होती थीं। लेकिन गौरा को बड़ा दुःख होता, जब हर घर में गौरा को अलग पाँत में ब्राह्मण लड़कियों के साथ बैठाया जाता और उसकी सहेलियों को अलग। डोमन को तो किसी घर में बुलाया भी नहीं जाता था, सिवाय गौरा के अपने घर के।

लेकिन धीरे-धीरे गौरा को समझा दिया गया कि गौरा ब्रह्मा के मुख से पैदा होने वाले समूह से थी, गिरिजा बाँह से, कुसुम पेट से और डोमन पैर से- आज कोई गौरा से पूछे कि मुँह और दूसरे अन्य अंगों से कोई कैसे पैदा हो सकता है, तो वह उसे शास्त्र-पुराण के हवाले छोड़कर यह जरूर जोड़ देगी कि ‘बबुआ इ सब मरद लोग के खातिर विधान है। औरत के अइसन जनम के कोई दस्तान कहाँ। औरत तो गनौरा पर बिगल छुतहर घास नियन होव हे- हर हाल में फुजिया जायेवाला। वैसे धीरे-धीरे नन्हीं गौरा को भी उसकी माँ ने समझा दिया था कि सहेलियों के साथ खेलने तक तो ठीक है लेकिन साथ-साथ खाने या उनका छुआ खाने से भी परहेज करना है। खासकर डोमन के साथ एहतियात बरतना जरूरी था, डोमन कोइरिन जो थी। बाइस्कोप देखना, चरखी पर घूमना या घर के बाहर लड़कियों की झुंड में खेलना, सब जल्दी ही बंद हो गया- बारह-तेरह साल की गौरा को जल्दी ही बताया गया कि वह कुंआरी नहीं रही, वह रजस्वला हो गयी है, और खेल-कूद सब बंद। तब से ये चार सहेलियाँ अपनी-अपनी गुड़ियों की सगाई रचातीं या फिर घर में खेले जाने वाले खेल खेलती ‘गाना गोटी’। इन्हीं दिनों इन्होंने अपने-अपने रिश्तों को नाम भी दिया जोड़ी जी, इंग्लिश, गुलाब जी। जोड़ी जी, इंग्लिश गुलाब जी और गौरा इस लुग्गे वाली घटना तक ब्याह दी गयी थीं। इसके बाद इनका मिलना-जुलना खत्म होने वाला था- इसलिए कुछ जोड़ी जी की विदाई के कारण, कुछ दो ही महीने में गौरा के विदा हो जाने के कारण, चारों सखियाँ उस दिन उदास थीं, रो भी रही थीं। और लुग्गे वाली घटना, (गौरा की विदाई से दो माह पूर्व) यानी संवत 2026 के चालीस सालों बाद यानी संवत् 2066 में, यानी सन् 2009 में गौरा की बेटी उसी गर्ल्स हाॅस्टल में

रहती थी, जिसमें सियार ने घुसपैठ की थी, और जहाँ एक लैपटाप पर ब्लू पिफल्म देखी जा रही थी।

वाकया कुछ ऐसा था कि गल्र्स हाॅस्टल के कमरा नं. 6 में उस हाॅस्टल की, बल्कि उस विश्वविद्यालय की सबसे दबंग लड़की रहती थी। वह दबंग थी, इसलिए नहीं कि वह किसी दबंग कद-काठी की थी या किसी दबंग घराने से ताल्लुकात रखती थी। दबंग थी तो इसलिए कि वह विश्वविद्यालय की राजनीति में भाग लेती थी, किसी भी मुद्दे पर जोर-शोर से शिरकत करती थी, लड़कों के साथ बराबरी से व्यवहार करती थी। रात के दस बजे के बाद तक भी उस कस्बानुमा शहर में, जहाँ वह विश्वविद्यालय था, के बाहर घूम सकती थी और देर रात लौट कर हाॅस्टल वार्डन को ‘स्त्री स्वतंत्राता का पाठ’ भी पढ़ा सकती थी।

दबंगई, अर्थात् बोल्डनेस ही छोटे कद की उस लड़की को एक आकर्षक आभा भी प्रदान करता था। लड़के उसी आभा से उसकी ओर आकर्षित होते, लेकिन लड़की थी कि किसी के हाथ नहीं आने वाली थी। लेकिन नाटक और पिफल्म विभाग का निदेशक भी कोई कम खिलाड़ी नहीं था। फ्रेंच कट दाढ़ी के बाल उसने अपने नुक्कड़ नाटक मंडली की ऐसी कई तेज-तर्रार लड़कियों को दीक्षित करते हुए बढ़ाए थे- मार्डन, सेल्पफडिपेंडेंट और प्रोग्रेसिव होने के मंत्रा के साथ। निदेशक ने दबंग लड़की अर्थात् श्यामली सिन्हा को भी अपने इन मंत्रों से दीक्षित किया। शुरू में तो उस पर ये मंत्रा बे-असर ही रहे, लेकिन उच्च शिक्षा की पढ़ाई पूरी करते हुए, निदेशक के विभाग में खाली व्याख्याता के पद पर श्यामली सिन्हा के आवेदन करने तक इन मंत्रों ने प्रभाव बनाना शुरू कर दिया था। कुछ मंत्र बड़े सीधे, स्पष्ट और स्वतंत्रा होते हैं। लेकिन मार्डन, सेल्पफडिपेंडेंट और प्रोग्रेसिव होने के मंत्र कई पदबंधों से बनते थे। ये पदबंध थे- 1. भावुक मत बनो, भावुकता पराजय का पर्यायवाची है। 2. अव्वल तो विवाह आदि के लफड़े में पड़ना ठीक नहीं। देह की माँग लिव-टुगेदर से भी पूरी की जा सकती है। यदि विवाह करना भी पड़े तो किसी ऐसे लड़के का चुनावकरो जो तुम्हारे प्रभाव में रहे, तुम्हारी चाकरी कर सके। 3. अवसरों को पहचानो और अवसरों को किसी भी शर्त पर हासिल करो। 4. प्रतिब(ता एक सत्य है। इतना बड़ा सत्य कि इसके रास्ते से होकर ही सपफलता की सीढ़ियाँ खड़ी होती हैं। लेकिन प्रतिबद्धता सापेक्ष है, समय और अवसर सापेक्ष।

श्यामली सिन्हा के सामने प्रस्तुत ये चार सत्य थे, बु( के चार आर्य सत्य की तरह। ये ही आष्टांगिक मार्ग के प्रथम चार मार्ग भी थे। इसके लिए जरूरी थी देह से मुक्ति। इस विभाग में देह से मुक्ति का पाठ आरंभिक पाठों में से एक था। सफल अभिनेत्री के लिए देह मुक्ति जरूरी है। प्रारंभिक पाठों में स्त्राी अंगों पर केंद्रित एक फिल्म लड़के-लड़कियों के सामने सार्वजनिक तौर पर दिखायी गयी। उद्देश्य था स्त्राी अंगों पर आरोपित अश्लीलता से मुक्ति। यह बात दीगर थी कि इस फिल्म के देखने के दौरान और उसके बाद स्त्रियों के अंग अश्लीलता के पर्याय तो नहीं लेकिन लड़कों की निगाहों के भेद जरूर बन गये थे। श्यामली सिन्हा ने इस फिल्म के बाद दुपट्टा डालना तो बंद कर दिया था, लेकिन लड़कों की निगाहों में उत्सुकता, आश्चर्य और शृंगार की झलक देखने की इच्छा उसके भीतर तब भी जाग जाती थी। खैर, ब्लू पिफल्म भी उसी अश्लीलता विरोधी अभियान का हिस्सा थी, जो इस बार गल्र्स हाॅस्टल के कमरा नं. 06 में एक अध्ययन का हिस्सा थी, पाठ्यक्रम के एक अनिवार्य हिस्से के तौर पर। स्त्रियों पर हिंसा, और अपने ऊपर दैहिक हिंसा में उनकी स्वयं की भागीदारी का पोनोग्रापिफक पाठ थी। कमरा नं. 06 की दर्शक थीं श्यामली सिन्हा, गौरा की बेटी सुनिधि मिश्रा, जो श्यामली सिन्हा से दो साल जूनियर थी औ अंकिता बैरागी। उधर-निदेशक की स्टडी में अकेला दर्शक था निदेशक। इन तीनों ने जब फिल्म देखनी शुरू की थी तो देह, स्त्राी देह पर आरोपित निषेध और अश्लीलता, पुरुषों का भोगवादी वर्चस्व और हिंसा की बातें भी साथ-साथ होती रहीं लेकिन जल्दी ही सब उत्सुकता रोमांच और श्लील-अश्लील आवेग में तब्दील हो गयीं कि इसी बीच गर्ल्स हाॅस्टल में सियार होने की खबर पफैली, जिसके बाद तीनों ही अपने कमरे से बाहर निकलीं और अन्य लड़कियों के साथ सियार चर्चा में शामिल हो गयीं। उधर निदेशक की कल्पना लोक से श्यामली सिन्हा कम्प्यूटर के हार्ड डिस्क में जा बैठी, जहाँ से पोर्न हीरोइन के चेहरे का मास्क बन गयी। श्यामली सिन्हा यानी पोर्न हीरोइन, निदेशक यानी अधेड़ उम्र का हल्की दाढ़ी और गंजे सिर वाला पोर्न हीरो... जिसके बाद स्टडी के बंद कमरे में गूंजती आवाजें शयन कक्ष तक नहीं पहुँचीं और न ही निदेशक शयनकक्ष तक जाने को उत्सुक हुआ- पत्नी उसके शब्दों में डबल बेड पर आलू के बोरे सी लुढ़क रही होगी- पफूहड़! स्थूल काय! अरुचिकर!!

गर्ल्स हाॅस्टल में सियार! खबर पूरे विश्वविद्यालय में फैल गयी। सियार यानी विवाह से बाहर स्त्राी यौनता का आधार यानी हुंडार-स्त्री का कामी, बलात्कारी... ऐसे कई-कई अर्थबोध थे उसके, जो उस विश्वविद्यालय में हिन्दी पट्टी से आए विद्यार्थियों-शिक्षकों के लोकमानस से अर्थ लेते थे। लड़कियाँ अपने हाॅस्टल की सुरक्षा को लेकर प्रशासन तक गयीं। पास के जंगल से सुरक्षा। उधर प्रशासकों से लेकर विश्वविद्यालय कैंपस का हर व्यक्ति, स्त्राी-पुरुष, इस घटना का प्रकारांतर अर्थ लेते हुए खुस्सर-फुस्सर करने लगता या व्यंग्यात्मक भाव भंगिमा बनाता। उन्हीं दिनों लड़कियों ने छात्रावास में देर रात लौटने की मुहिम भी चला रखी थी- अपने घर की जकड़न से मुक्ति का आंशिक स्पेस जो मिला था उन्हें। सियार की घटना के बाद लड़कियों की मांगों के विरोधी समूहों ने अश्लील गप्पें भी छेड़ दी, मसलन सियार नहीं किसी लड़की का ‘यार’ आया था ‘छात्रावास में और ऐसे ही बहुत कुछ। विश्वविद्यालय में लड़कियों के बीच प्रगतिशीलता को लेकर भी कई-कई खेमे थे। कुछ परंपरा की नींव पर प्रगतिशीलता की हिमायती थीं, तो कुछ रेडिकल नारीवाद और ब्रा बर्निंग की प्रतिनिधि हिमायती। हालांकि घरों की चाहरदिवारी के बाद मुक्त आबो-हवा ने कमोवेश सबको प्रभावित किया था। कुछ तो घर के बाहर पहली बार प्रेम का साहस कर सकीं। भले ही सजातीय लड़कों से लेकिन कई लड़कियों ने प्रेम-विवाह भी किए थे। विश्वविद्यालय बनता हुआ था और हिन्दी पट्टी का प्रतिनिधि था, अधिकांश लड़के-लड़कियाँ उसी पट्टी के मध्यमवर्गीय घरों से थे- शायद यही कारण रहा हो कि किसी ब्राह्मण लड़की ने किसी दलित लड़के से या दलित लड़की ने ब्राह्मण लड़के से शादी की सपफलता नहीं पायी थी। ब्राह्मण लड़कियाँ तो प्रेम में चालाक जातिवादी थीं, लेकिन दलित लड़कियाँ ब्राह्मण लड़कों का प्रेमाधार जरूर बनी थीं, भले ही विवाह तक आते-आते ब्राह्मण लड़कों की क्रांति दम तोड़ देती।

कुछ लड़कियाँ खूब पैदल चलती थीं गर्ल्स हाॅस्टल से ब्वायज हाॅस्टल तक, ढाई दूना 5 कि.मी.। सुबह उनकी यात्रा शुरू होती पुरुष छात्रावास के लिए और शाम को खत्म होती गर्ल्स हाॅस्टल में। मध्यवर्गीय लड़कियों की इस यात्रा में बहते पसीनों से क्रांति का आभास होता, विश्वविद्यालय गरम प्रदेश में स्थित था। कुछ घोषित नारीवादी लड़कियाँ, प्रेमी बदलने में स्त्राी-स्वतंत्रता का पर्याय देखती थीं। वे अक्सर कहतीं, ‘हाउ कैन वन स्टीक टु अ बोरिंग मोनोगेमस टेंडंेसी’ लेकिन जब लड़के इस फार्मूले पर जाते तो ऐसी लड़कियों का या तो दिल तड़पता या वे महिला-उत्पीड़न का शोरगुल करतीं। सीमोन से खुद को नवाजती एक लड़की ने अपने एक बेरोजगार प्रेमी को एक विश्वविद्यालय के ही कुंआरे व्याख्याता के लिए छोड़ दिया।

गर्ल्स हाॅस्टल की दूसरी लड़कियों ने शीघ्र देखा कि वह लड़की एक दूसरी लड़की को ठेठ ग्रामीण अंदाज में गालियों से पीट रही थी और उसके हाथों ने दूसरी लड़के के बालों को जमींदोज कर रखे थे। दरअसल नारीवादी लड़की के ‘कपड़े’ बदलते ही लड़के ने अपने कपड़े की धूल गर्द झाड़ी और उसे ‘ठेंगा’। वैसे कुछ प्रेम और स्वतंत्राता के बीच कई किस्से भी थे। ब्लू पिफल्म देखते और सियार की लोक-प्रचलित धारणा के बीच जो आधुनिकता और पारंपरिक संकीर्णता की रेखा बनती है उस पर ही स्थित थे ये किस्से। जिसमें सब कुछ था-अवैध रिश्ते, उन्मुक्त प्रेम, समझौते और इनसेस्ट भी। कुछ के आधार थे कुछ निरा गप्प।

तो इसी परिवेश में, यानी सन् 2009 में यानी संवत् 2066 में, सुनिधि मिश्रा विश्वविद्यालय से फिल्म एवं नाटक का स्नातकोत्तर हो चुकी थी और अपने परीक्षाफल का इंतजार कर रही थी। उधर एन.एस.डी में ‘नाट्य निर्देशन डिप्लोमा’ के लिए उसका चयन भी हो गया था, जहाँ वह जल्दी ही शिफ्ट होने वाली थी। सुनिधि मिश्रा या गौरा की बेटी जद्दोजहद के बाद इस विधा में अपना करियर बनाने के लिए निरंजना के किनारे से 1400 कि.मी. दूर पढ़ने आयी थी या फिर अब वहाँ से भी 1000 कि.मी. दूर नेशनल स्कूल आॅपफ ड्रामा में ‘नाट्य-निर्देशन के डिप्लोमा’ के लिए दिल्ली जा रही थी। गौरा और उसकी सहेलियाँ अपने-अपने ससुरालों में बस गयीं। गौरा के लिए उसका ससुराल भयावह दुःस्वप्न सिद्ध हुआ। पंडित कपिलदेव ने अपनी सुकन्या का वर अपने हिसाब से सर्वोत्तम चुना था। मेधावी, पढ़ाई में कुशाग्र और स्मरण शक्ति का धनी। वह एक साथ गणित और कविता में समान गति रखता था- उससे रामचरित मानस सुनकर गौरा के पिता को लगा यही संस्कारवान दामाद उन्हें चाहिए। उन्हें लगता था कि मेधावी दामाद को बड़ा अफसर बनना ही है। उधर दामाद था कि काॅलेज की पढ़ाई तक पहुँचा, तब तक छात्रा राजनीति में दिलचस्पी लेने लगा। अब रामचरितमानस की पंक्तियाँ दिनकर की पंक्तियों में बदल गयीं ‘जाति-जाति रटते हैं जिनकी पूंजी केवल पाखंड।’ शीघ्र ही दामाद ने अपने यज्ञोपवीत का धागा होम कर डाला और गाँव के बिगहे पर, जहाँ दलितों की बस्ती थी आने-जाने लगा। पंडित कपिलदेव ने समझा दामाद संस्कारच्युत हुआ। उनके समधी अर्थात् दामाद के पिता ने समझा बेटा बिगड़ गया। दोनों अपने-अपने हिसाब से सही थे, संस्कारच्युत दामाद बड़ा अपफसर भी नहीं बन सका और बिगड़ा बेटा बेरोजगार रह गया।

गौरा का दिल तो बचपन से ही देवी-देवताओं में रमा था। पति के बहिर्मुखी होने से उसका यह लगाव और भी गहरा होता गया। शादी के कई सालों बाद तक, सुनिधि के पैदा होने तक, ससुराल वालों ने उसे बाँझ समझा- ‘गौरा और भी भाग्यवादी हो गयी, जिसका एकमात्रा आसरा थीं, देव मूर्तियाँ, शिवलिंग। ऐसा भी नहीं था कि वह देव-मूर्तियों की आराधना में अपने सास-ससुर के प्रति कर्तव्यों से विमुख थी। यहाँ भी ससुराल वालों से कोई पूछे तो गौरा जैसी बहू सबकी ख्वाहिश थी, लेकिन गौरा बहुत दिनों तक निःसंतान रही और जब कोई संतान हुई भी तो बेटी। प्रसूतिगृह में ही सास का चेहरा मुरझा गया। उन्होंने सबको फीकी हँसी से सूचना दी ‘लक्ष्मी’। आस-पड़ोस की औरतों ने कहा- धरती दो हाथ धँस गयी।

सुनिधि का जन्म और गौरा का पहाड़ सा दुःख एक साथ शुरू हुआ। यों तो बेटी के जन्म से गौरा के पति को खूब प्रसन्नता हुई, लेकिन तब तक वह बाहरी दुनिया का परास्त योदधा था-उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगार युवक। उसके स्वप्न भी ध्वस्त हो चुके थे- जय प्रकाश का अवसान हो गया। परिवर्तनकारी

सरकार प्रतिगामी हो गयी और बाद में अपने ही द्वंद्वों का शिकार हो गयी। स्थानीय राजनीति का चेहरा बदल गया। गौरा का पति पराजय और दुःस्वप्न के साथ घर लौटा, जहाँ बेटी की मुस्कान भी उसे कोई तृप्ति नहीं देती, कोई सांत्वना नहीं। गौरा को पता नहीं चलता कि वह क्या करे! कैसे अशांत-अस्थिर पति को संबल दे-‘कइसे के शिव के मनाइब हो शिव मानत नाहीं।’ पति अपनी हताशा और कुंठा से मुक्ति का आश्रय गौरा को मान बैठा। गौरा यानी बाॅक्सिंग बैग। बाॅक्सिंग बैग में तब्दील हो चुकी गौरा अपना बचाव, अपने दुःखों की साथी देव मूर्तियों में ढूँढ़ती। वह और धार्मिक होती चली गयी। नन्हीं सुनिधि, जो अब बड़ी हो रही थी, देखती थी कि पिता से बचने के लिए माँ घंटों पखाना रूम में बंद रहती या पूजा घर में। आज सुनिधि देव मूर्तियों से स्त्रिायों की आशिकी का यह अर्थ खूब समझती है- प्रति संसार में आश्रय, प्रतिसंसार की आशिकी। गौरा दुःखी थी। गौरा निराश नहीं थी। पता नहीं कब और कैसे अपने सपनों को उसने सुनिधि में स्थापित कर लिया। गौरा की सखियाँ मायके आने पर समृद्ध ससुराल का प्रदर्शन भी करतीं, तब उसे उनसे ईष्र्या होती। वह अपने भाग्य पर रोती। बड़ी होती सुनिधि माँ की वेदना से कराह उठती थी। उसका भी जी होता माँ का दुःख वह खुद सोख ले। पिता उससे स्नेह करते। पत्नी को पीटते हुए बेटी की कातर आँखों से परास्त हो जाते। पिफर कई-कई दिन बाहर चले जाते।

बड़ी होती सुनिधि ही माँ के शारीरिक संकटों का अवरोध बनी, लेकिन पिता और माँ के रिश्तों को वह कभी भी जोड़ नहीं पायी। पिता बेरोजगार थे। कुछ पुश्तैनी खेती थी और एक पुश्तैनी ठाकुरबाड़ी। सुनिधि ने देखा कि एक दिन पिता ने यज्ञोपवीत धारण कर लिया। दिनकर की पंक्तियाँ रामचरितमानस की पंक्तियों से स्थानापन्न हो गयीं। ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषानिबद्ध मतिमांजुलमाप्नोति’। पिता ने ठाकुरबाड़ी की राह ली, पिता के पिता ने राहत की साँस ली। सुनिधि अब बड़ी हो गयी थी, नवोदय विद्यालय की छात्रावासी हो गयी थी। पिता और माँ दोनों ने अब सुनिधि की आँखों से सपने देखने शुरू कर दिए। काॅलेज के दिनों में शहर की नाट्य मंडली के साथ उसकी सक्रियता को पिता का मौन समर्थन था, माँ बेटी के भविष्य से खौफ खाती थी।

‘‘बेटी तुम कुछ भी करो तो यह सोचना कि तुम्हारी माँ की दो आँखें अदृश्य से भी तुम्हें देख रही हैं।’’ ऐसे हर अवसर पर सुनिधि आलोक धन्वा की ‘भागी हुई लड़कियाँ’ पढ़कर माँ को सुनाने लगती- माँ हमेशा की तरह अपना बचाव पूजा घर, रसोई घर या पखानाघर में छिपकर करती, ‘हे ठाकुर जी तू ही रक्षा करिह ’- ऐ.जी. कृष्ण राखो शरण अब तो जीवन हारे- गौरा दादी से, माँ से यह गीत सुनती आयी थी। फिर उसके डर पर उसका स्नेह, उसकी आशायें हावी हो जातीं और वह मुस्कुरा उठती। सोती सुनिधि के सिर पर हाथ रखकर एक दिन उसने पति से डरते-डरते कहा, ‘लड़की बाँस भर के हो गेल हे, कब तक घर पर पड़ल रहत।’ इसके पहले कि पिता का प्रच्युत्तर आता। सुनिधि उठ बैठी और माँ के गले में बाँहें डाल कर अपना निर्णय उसने सुना डाला, ‘बस माँ एक बार और मुझे मौका दो। मैं एम.ए. करूँगी और अपना करियर बनाऊँगी। उसके बाद तुम्हारे पास वापस। फिर जिसे चाहो ब्याह देना। वादा, कहीं भागूँगी नहीं। और तुम्हारी अदृश्य आँखों को भी साथ-साथ ले जाऊँगी।’ पिता, जो माँ को बाॅक्सिंग बैग मानते थे, बेटी की हर इच्छा के आगे नत थे- सुनिधि को पता था कि यह उनकी पराजय नहीं, मौन चुनाव है।

तो सुनिधि मिश्रा, वाया नाटक एवं फिल्म अध्ययन विभाग, अपनी माँ की दो अदृश्य आँखों और पिता का मौन विश्वास लेकर गल्र्स हाॅस्टल के कमरा नं. 5 में पहुँची। श्यामली सिन्हा के पड़ोस में। तो, विश्वविद्यालय के परिवेश में, अपने विभाग के निदेशक के सान्निध्य में, सुनिधि मिश्रा ने भी वही चार आर्य सत्य और आष्टांगिक मार्ग के प्रथम चार मार्ग सीखे। लेकिन माँ की अदृश्य आँखें, जो उसके कमरे की खूंटी पर टंगी थीं या पिता का मौन विश्वास, जो उसकी तकिये के नीचे था, वह सब इन चार आर्य सत्यों और चार मार्गों पर हावी थे। सुनिधि नाटक की अध्येता थी, सुनिधि अच्छी कलाकार थी। सुनिधि ‘आषाढ़ के एक दिन’ की मल्लिका का अद्भुत अभिनय करती थी, लेकिन कोई नंद नहीं था उसके जीवन में, या उसके सपने में।

सुनिधि ने कुमार संभवम् की नायिका को जिया था- लेकिन नायिका उसके भीतर उतरती नहीं थी। ऐसा भी नहीं था कि नीरस था उसका मन, सुप्त थीं उसकी इच्छाएँ। एक योग्य नायिका की तरह देह के बंधनों से मुक्त थी वह, तो देह के भीतर उसकी जड़ों ने उतनी ही गहराई तक अपनी सोइयाँ फैला रखीं थीं। मंच पर सुनिधि, कालिदास की नायिका, कुमार संभवम् की पार्वती... ‘स्थिताः क्षण पक्ष्मसु ताडिता धराः

पयोधरोत्से धनिपातचुर्णिता।

वलीषु तस्याः स्खलिताः प्रमेदिरे

चिरेण नाभि प्रथमोदबिन्दवः।’

स्नान करती सुनिधि और दीवाल से लगा आईना! सुनिधि यानी पार्वती। पानी की बूंदें पार्वती की बरौनियों पर क्षण भर रुकती हैं, वहाँ से वे होठों पर टकराती हैं। होठों से टकराती हुई कठोर स्तनों पर पहुँचकर टुकड़े-टुकड़े होकर छिन्न-भिन्न हो गयीं। इसके पश्चात वहाँ से खिसककर उनके उदर पर स्थित त्रिवली से होती हुई, लड़खड़ाती हुई, बहुत देर के बाद नाभि में पहुँचकर विलीन हो गयी। दो अदृश्य आँखें हावी थीं सुनिधि मिश्रा पर। निदेशक ने आश्चर्य व्यक्त किया था पूरे क्लास में ‘इतनी ‘शुष्क’ लड़की और प्रेम का इतना जीवंत अनुभव! कबीर की शुष्कता और बिहारी का शृंगार-अद्भुत काव्य है सुनिधि! लेकिन भविष्य नहीं।’ प्रतिबद्धता कैसी भी हो अवसर और समय सापेक्ष होना जरूरी है, ऐसा मानना था निदेशक का। निदेशक निष्प्रभावी हुआ था सुनिधि के सामने या उसकी माँ की अदृश्य आँखों के सामने। श्यामली सिन्हा उसकी आदर्श शिष्या थी, संभावनाशील। सुनिधि और श्यामली- एक प्राण दो देह। कुछ तो था सुनिधि में, जिसमें श्यामली अपना अक्स ढूँढ़ती।

कुछ तो था, श्यामली में जिसमें सुनिधि अपना स्वरूप खोजती। विश्वविद्यालय उनकी दोस्ती का निहितार्थ आंकता। हवा में जुमले तैरते ‘लेस्बियन’। उन दोनों को भी पता था यह संबंध, वे खूब हँसते इस आरोपित संबंध पर। श्यामली सिन्हा कहती, ‘तुम्हें देखकर तो मुझे भी तेरी रुचि पर ऐसा ही संदेह होता है। लड़कों से इतना रिजर्व भी रहा जाता है भला! मुझे देखो। हर दूसरे लड़के को देखकर मेरे भीतर कुछ-कुछ होता है। वैसे श्यामली के आउट अपीअरेंस को लेकर दूसरा जुमला भी लड़के उछालते, ‘किसी के हाथ न आएगी ये लड़की।’ तो सुनिधि सवंत् 2026, सन् 2009 में, इस परिवेश में, अपनी माँ की दो अदृश्य आँखों और पिता का विश्वास लेकर, अपने ही भीतर एक खौप़फ लेकर, स्त्राी अंगों पर आरोपित अश्लीलता विरोधी डाक्यूमेंट्री देखती रही, ब्लू पिफल्म देखती रही, लेकिन समय सापेक्षता और अवसर सापेक्षता का मंत्र नहीं सीख सकी। नाटक के पात्रों में सुनिधि देह-मुक्त थी, नाटक के बाहर देह में फूटती, देह में सिमटी भी। तो सुनिधि मिश्रा, अपने सपनों के साथ, अदृश्य आँखें, विश्वास और खौफ लिए दिल्ली चली गयी नेशनल स्कूल आॅपफ ड्रामा। श्यामली ने अपना हासिल पा लिया। 2009 में ही श्यामली सिन्हा नाटक एवं फिल्म विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त हो गयी।

रुकावट के लिए खेद है। परंतु ऐसा करने के लिए मैं बाध्य हूँ। आप निर्बाध कहानी सुने जा रहे हैं और कथा वाचक को भूल ही बैठे हैं। आपको याद होगा कि मेरी पिछली कहानियों में मैं, यानी कथा वाचक, हमेशा आप के दरवाजे पर दस्तक देता रहा हूँ। मैं भी और कई बार मेरी नानी भी। आखिर मुझे कहानियाँ तो नानी ही सुनाती रही हैं- किस्सागोई की बिरासत है मेरे पास। तो रुकावट के लिए खेद है। इसके पहले कि आप सुनिधि मिश्रा के साथ दिल्ली पहुँचें मैं आप तक दिल्ली की आवो-हवा पहुँचा दूँ। लेकिन थोड़ी रुकावट और। मुझे आपको नानी के गुल्लक की कहानी सुनानी है। दो नानियों के दो गुल्लक। गौरा की दादी ने गौरा को एक गुल्लक भेंट की थी, और कहा था कि इसे सुनिधि की शादी के वक्त फोड़ना। मेरी नानी ने भी मेरी माँ को ऐसी ही एक गुल्लक भेंट की थी। दोनों गुल्लकों के सौंपे जाने का एक ही वक्त था। संवत् 2041। दोनों ही नानियों को विश्वास था कि आगे भी समय का मापक यूनिट संवत् ही होगा। लेकिन उनके इस दुनिया से विदा होते ही समय का यूनिट बदल गया था। समय का रोड मैप और मील का पत्थर भी। उनके विदा होने के साल ही ‘रामलला’ का कपाट खोल दिया गया। तीन सालों बाद ‘रामलला’ का देश भी ग्लोबल विलेज का अंग बन गया- इसके दरवाजे, इसकी खिड़कियाँ खुल गयीं। 5 सालों बाद ही ‘रामलला का कपाट’ उर्फ ‘बाबरी मस्जिद’ उपर्फ ‘विवादित ढाँचा’, उर्फ नानी का अयोध्या, उर्फ नानी की सेहली रसूलन नानी का विश्वास ध्वस्त हो गया। दुनिया 21वीं सदी के दरवाजे पर खड़ी हो गयी। अपना देश भी। सब कुछ बदल गया। बहुत कुछ खत्म हो गया। गौरा ने अपनी दादी का गुल्लक बचा रखा है सुनिधि के लौटने तक के लिए, जब वह उसके हाथ पीले करेगी। लेकिन मुझे पता है उस गुल्लक में क्या है? क्योंकि मैंने अपनी नानी का गुल्लक पफोड़ डाला है। गुल्लक में रेजगारियाँ हैं- एक पैसा, दो पैसा और पाँच पैसा- नानी को लगता था कि समय संवत् में ही होगा, नानी को पता था कि रेजगारियाँ सदियों तक अस्तित्व में रहेंगी। न संवत् रहा न रेजगारियाँ बची हैं। रेजगारियाँ न तो नानी के घर अस्तित्व में बचीं, न दिल्ली में। दिल्ली में बहुत कुछ नहीं बचा है। तब का वित्तमंत्री अब का प्रधानमंत्राी हो चुका है, जो अपने लाव-लश्कर के साथ काॅमनवेल्थ गेम आयोजित करने में लगा है। मेरी और सुनिधि की नानियों का स्वप्न अर्थहीन हो गया है- भोला विश्वास टूट गया है। नानी के जमाने का नत्थू काका अब अंजुरी भर धान के बदले मुठ्ठी भर टाफियाँ नहीं देता। भोला दरजी के बूटेदार लहँगे का जमाना नहीं रहा। सुनिधि जिस दिल्ली को जा रही है, वह काॅमनवेल्थ की आयोजक दिल्ली है- गौरा के बाइस्कोप की दिल्ली नहीं- जिसे दिखाने वाला गाता था- दिल्ली का कुतुब मीनार देखो।

काॅमनवेल्थ के पहले दिल्ली ‘इंडिया शायनिंग’ की राजधानी बन चुकी थी। ‘भारत माता’ अब इंडिया शायनिंग थीं, जिसके इर्द-गिर्द ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय हो’ चिल्लाती, नाचती गाती एक हुजूम खड़ी थी, जिसके शोर में टूटती झुग्गियाँ, उखड़ते कुनबे, बिखरते लोगों की चीख घुट चुकी है। फ्लाईओवरों से पटी दिल्ली के गाँवों में शहर उग आये हैं। कुंडली, कल्याणपुरी, मुनरिका, नांगलोई अब गाँव नहीं रहे, फ्लाईओवरों और मेट्रो के रास्ते शहरों ने यहाँ डेरा जमा लिया है। गाँवों के लड़कों की आँखें शहरों की चकाचैंध से चुधियाँ गयीं हैं, लड़कियों की आँखों में रोशनी के रास्ते घुप्प अंधेरा उतर आया है। दिल्ली सरकार काॅमनवेल्थ गेम के पहले तहजीब की पाठशाला चला रही थी। शिष्टाचार सिखाए जा रहे थे। बात-बात पर गाली देने वाले पुलिसवालों को सड़कों पर प्रेमी युगलों से पेश आने की तमीज सिखायी जा रही थी। साथ ही यह भी कि वह उन युगलों में प्रेम तलाशने की कोशिश भी न करें। उनके बीच प्रेम हो या पैसा, प्यार हो या पण्य- टेक इट इजी। पूरी दिल्ली में नया माहौल तैयार किया जा रहा था- टेक इट इजी। क्योंकि दुनिया भर के मेहमानों की मेहमाननवाजी में कोई कमी न रह जाए। लड़कियों के लिए खासकर संदेश था, ‘टेक इट इजी।’

इसी माहौल में सुनिधि मिश्रा दिल्ली पहुँची- कल का गाँव आज का शहर- गाँव और शहर के बीच झूलता कटवारिया सराय। सुनिधि सीधे तो कटवारिया सराय नहीं आयी थी लेकिन एन.एस.डी. डिप्लोमा को आवासीय सुविधा न होने के कारण दिल्ली में एक-दो ठौर ठिकाने बदलते हुए वहाँ पहुँची। दक्षिण दिल्ली के इस गाँव में कामकाजी स्त्राी-पुरुष और छात्रा-छात्राएँ रहते हैं। दक्षिण दिल्ली के ऐसे ही दूसरे गाँव बेर सराय, यूसुपफ सराय, लाडो सराय या कटवारिया सराय में सामान्य मध्यम वर्ग के हिसाब से किराया का दर काफी महंगा है। इस समस्या का समाधान वहाँ लगी तख्तियों में दिख जाता है। मसलन ‘एक रूम पार्टनर चाहिए- लड़का, या पिफर वाटेंड ए गर्ल रूम पार्टनर। सुनिधि ऐसी ही किसी तख्ती के सहारे गर्ल रूम पार्टनर के तौर पर पहुँची कटवारिया सराय। सुनिधि को प्राप्त जानकारी के अनुसार उसकी रूम पार्टनर काल सेंटर की कर्मी थी। हालांकि दोनों रूम पार्टनर थे, लेकिन दोनों वीक एण्ड के अलावा शायद ही कभी एक साथ हो पाते साथ होते भी तो एक अजनबियत सी रही दोनों में कई दिनों तक।

दिल्ली एक बड़ा शहर है, जहाँ होने भर से सपने बड़े होते हैं। एन.एस.डी. में रहते हुए सुनिधि के सपनों ने भी करवटें लेनी शुरू की। वह एक कुशल अभिनेत्री थी, ऐसा नुक्कड़ के दिनों में उसके साथी मानते थे, विश्वविद्यालय के दिनों में विश्वविद्यालय और अब एन.एस.डी.। मंडी हाउस सपने परोसता है, सपनों को पोसता है। सपनों को लय और गंभीरता देता है। सुनिधि मल्लिका और पार्वती की जीवंत प्रस्तुति करती थी- उसके सपनों ने आकार लेना शुरू किया। वह मिथकीय पात्रों का अभिनय और निर्देशन करना चाहती थी, वह पूरे देश में एक तहलका कर देना चाहती थी, वह मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री का अपने प्रयोगों से, अपने अभिनय से पाट देना चाहती थी यानी निरंजना नदी के किनारे की लड़की के अरमान अंगड़ाई लेने लगे, चाँद छूने की अभिलाषाएँ जागीं। लेकिन पिता...! किसी तरह संसाधन मुहैया करा रहे थे, उसकी पढ़ाई के लिए। सुनिधि के पास अब नये परिवेश में माँ की दो आँखें, पिता का विश्वास, अपना खौफ और करिअर के सपने थे। दिल्ली में कला के विकास के लिए कई संस्थाएँ थीं और कई कला प्रेमी लोग- राजनेता, व्यापारी, साहित्यकार। सुनिधि राजनेताओं या व्यापारियों के द्वारा लड़कियों के शोषण और उनकी हत्याओं की खबर पढ़ती आयी थ यानी सबसे मुफीद थे साहित्यकार- ‘सज्जन, सरोकारों से संपन्न, उच्च मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित।’

वह ट्रेन निरंजना को जाती थी

मंडी हाउस कला और साहित्य का संगम केंद्र है। कुछ ही दिनों में सुनिधि कुछ साहित्यकारों के संपर्क में आ चुकी थी। सबके सब उसके रूप-गुण के प्रशंसक थे, कायल, तो कुछ रसिक भी, उसकी प्रशंसा में कहने को उनके पास सैकड़ों शब्द थे, न थे तो सिर्फ रुपये, जो सुनिधि के अरमानों की सीढ़ियाँ बनते। एन. एस.डी. का एक मंचन। सुनिधि फिर से पार्वती बनी- कालिदास की पार्वती। मंचन के बाद एक कार्ड आया उसके पास, लिखा था ‘अद्भुत’। किसी साहित्यकार का कार्ड था। उसने मिलने की इच्छा जताई। एन.एस.डी. के काॅर्नर पर चाय पीते हुए साहित्यकार ने उसे अपने कई कहानी संग्रह, नाटक, उपन्यास और अपने पफार्म हाउस तथा अकूत संपत्ति का ब्यौरा दिया। बात ही बात में उसने कला और साहित्य के नामचीनों से अपनी दोस्ती बतलायी तथा फार्म हाउस पर एक कथा गोष्ठी में शिरकत का आमंत्रण भी दिया- “तुम मेरी कहानियों पर मोनोलाॅग भी कर सकती हो।“

सुनिधि की कामनाओं में मिथकीय और पौराणिक स्त्राी-चरित्रों का अभिनय बसा था-पार्वती का नख-शिख, शकंुतला का विरह, सीता की तपस्या, यशोधरा की वेदना, सुजाता का स्नेह। साहित्यकार, पिता के उम्र का पुरुष/पितृवत् स्नेह से लवरेज उसकी बातें, और उसका आमंत्राण। उसको लगा कि उसके नाटकों को भी एक ठौर मिल गया। वह कथा-गोष्ठियों में गयी- जहाँ कई नामचीन साहित्यकारों से मिलकर उसे अच्छा लगा। साहित्यकार ने उसे दूसरे अन्य साहित्यकारों से भी मिलवाया। कार्यक्रम के बाद काॅकटेल। उसने इनकार कर दिया और शालीनता से विदाई लेकर चल पड़ी- माँ की आँखें, पिता का विश्वास और अपना भय साथ लिये! साहित्यकारों ने उसकी अनिच्छा को आदर देते हुए उसे विदा दी-सुनिधि उनकी सदाशयता पर फ़िदा हुई! फिर दिल्ली के ही एक उपनगर में रहने वाले उस साहित्यकार के यहाँ सुनिधि ने आना-जाना शुरू किया। एक दिन उसने अपने दिल की बात भी उससे कह दी- पौराणिक चरित्र और फंड। साहित्यकार ने उससे बजट पूछा ‘कोई एक लाख है’, बजट। साहित्यकार का ‘बस इतना ही’ सुनकर सुनिधि को अपने सपने साकार होते नजर आए। ‘प्रपोजल बना लो, भी प्रोफेशनल’, साहित्यकार ने कहा।

कुछ दिनों बाद साहित्यकार के फार्म हाउस पर पहुँची वह, प्रपोजल के साथ। वह बैठा ‘डिंªक’ ले रहा था। बहुत ही शालीनता से उसने सुनिधि को आमंत्रित किया। ‘प्रपोजल बन गया।’ ‘जी स्क्रिप्ट तैयार है बजट एक लाख का ही है।’

‘तो तुम्हें मेरी कहानियों के मोनोलाॅग का प्रस्ताव उचित नहीं जँचा।’

‘जी... जी ऐसा नहीं है। बल्कि मैं तो...।’

‘तो फिर मुझे क्यों फंड करना चाहिए’, उसने खाली

ग्लास में थोड़ी रम डाली और पानी उड़ेल लिया।

‘सुनिधि ने सपनों का महल भरभरा पड़ा।’

‘पूरे एक लाख।’

वह अवाक् थी।

‘लिव इट सुनिधि, उदास मत हो। मेरे पास एक फार्मूला है।’’

‘.............................’

‘मेरा एक लाख और तुम्हारी दस रातें’।

यानी प्रति रात दस हजार। सुनिधि को लगा कि किसी ने एक बड़े सीरिंज से उसका खून निकाल लिया। उसने कुछ कहा नहीं और अपना पर्स उठाकर चलती बनी।

साहित्यकार पीछे से ठहाके लगा रहा था। ‘‘सुनिधि भागो मत! सुनो। मैं तो यूँ ही मजाक कर रहा था। यार हम लोग शालीन और सज्जन लोग हैं। जबरदस्ती नहीं करते। आई मीन रेप।’ ‘तुम्हें प्रस्ताव नहीं मंजूर तो कोई बात नहीं, हम दोस्त तो हो ही सकते हैं।’ वह पीछे-पीछे आ रहा था। सुनिधि ने अपनी चाल तेज कर दी। उसने सुना कि साहित्यकार कह रहा है, ‘मेरे दरवाजे हमेशा खुले रहेंगे तुम्हारे लिए। जब चाहो, आ जाना।’

कटवारिया सराय तक आॅटो में सुनिधि बुत सी बनी बैठी रही। पिता के द्वारा माँ पर हमले, माँ का रसोई घर, पाखाने या पूजाघर में शरण। नन्हीं सुनिधि के मन पर पुरुष आतंक सा बैठ गया था, यद्यपि बाद के दिनों में पिता ही उससे सर्वाधिक स्नेह करते थे। और आज। पिता की उम्र का साहित्यकार निर्लज्ज पुरुषत्व के साथ दाँत निपोर रहा था। शाम हो गयी थी। कटवारिया में लोग लौट रहे थे। कामकाजी स्त्राी-पुरुष, पढ़ने वाले छात्रा-छात्राएँ, मुंबई लोकल के प्लेटपफार्म जैसी भीड़-सा, सुबह-शाम उमड़ आते थे। गदहे, जो कि कटवारिया सराय में लगातार बन रहे मकानों के एक मात्र माल-वाहक थे, काम खत्म कर अपना चेहरा लटकाए वापस जा रहे थे। सुनिधि अपने कमरे में जाकर अपने बेड पर निढाल लेट गयी। लेटते ही रुलाई का आवेग बाहर आया। रूम पार्टनर, जो कि काम पर नहीं गयी थी, उसके इस व्यवहार से हतप्रभ थी। उसके सिरहाने बैठकर उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा उसने। सुनिधि कुछ बोली नहीं सुबकती रही।

सुबकते-सुबकते वह उसी हाल में सो गयी। सोने के पहले उसने कुछ अस्पष्ट सा कहा, ‘हमें सपने देखने का हक नहीं है।’ रूम पार्टनर इसी एक वाक्य के सहारे उसकी हताशा भांप चुकी थी। लेकिन उसका आज और भी असाइनमेंट’ था, वह सोती सुनिधि को छोड़कर काम पर चली गयी। सोकर वह आधी रात के बाद उठी। उसका मन अब भी अस्थिर था। उसने श्यामली सिन्हा को फोन किया। वह आजकल उसी विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी।

‘तू यहाँ चली आ, कुछ दिनों के लिए’, सब कुछ सुनने के बाद श्यामली सिन्हा ने उससे कहा। वह उस वक्त नींद में थी।

‘‘मेरा भी तो मन ऐसा ही कर रहा है कि काश, तुम यहाँ होती।’ सुनिधि फिर रो पड़ी, ‘लेकिन मैं यूँ ही हार नहीं मानूँगी।’ “समझौतों के लिए भी तैयार रहो। सिर्फ समझौते तो कई बार चल जाएँगे। लेकिन बिना बैक ग्राउंड के हम लड़कियों का काम सिर्फ प्रतिभा पर नहीं चलता।’

‘यार हमारे संस्कारों का क्या?’ ‘उन्हें छोड़ा तो नहीं जा सकता।’ हम इन्हें सबक सिखाएँगे।’

‘तो सिखाओ सबक, रखो संस्कार। कुछ दिनों तक लोग तुम्हारी मदद का स्वांग रचेंगे फिर वह बुड्ढा दाँत निपोरता किसी दूसरी-तीसरी लड़की को प्रस्ताव दे रहा होगा। क्या तुम्हारे जैसे संस्कार मेरे नहीं थे।’

‘मतलब’

‘मतलब वही जो तुम समझ कर भी नहीं समझना चाहती हो। ‘तुम्हें क्या लगता है, निदेशक ने मेरी थैली में नौकरी का सौगात परोस दिया। विश्वविद्यालयों में संबंध, पैसे, पैरवी के बिना नौकरी नहीं लगती। प्रतिभा लेकर झोंकती रहो किसी के घर चूल्हा, डाॅ. श्यामली सिन्हा बनकर।’

‘तो क्या तुमने भी?... और तुम्हारा पति।

‘लल्लू है, मैंने ही तो चुना है। वही ले गया था मुझे इंटरव्यू के दो दिन पहले।’

‘सर से टिप्स लेने की नसीहत देकर मुझे छोड़ कर चला गया था। फिर –फिर तो जनाब निदेशक ज्योतिष के अवतार में अवतरित हुए। मेरे हाथ में नौकरी की रेखाएँ देखते हुए, नाड़ी विज्ञान का सहारा लिया और फिर धड़कनों की ओर बढ़े।’

‘मैंने लगभग आवेश में हाथ झटक दिया, तो जनाब बोले कि ‘सोच लो इंटरव्यू के सवालों के जवाब देने से अधिक महत्वपूर्ण है बाॅस का समर्थन हासिल करना।’

‘मैं उसी कमीने की अवसर-सापेक्षता का सिद्धांत पढ़ चुकी थी। सबकुछ झेल लिया यूँ ही, देह रगड़कर वह शांत हो गया। बिलबिला पड़ा कि ‘वह एक कामुक व्यक्ति नहीं है, कि उसे भी मर्यादाओं का पता है, कि वह मुझसे प्रेम कर रहा था, कि उसकी पत्नी स्थूल और अरुचिकर है।’

‘मेरा लल्लू आया और मैं आगत नौकरी का सौगत पोटली में बाँधे घर आ गयी।’ मुझे कोई पश्चाताप नहीं होता। मैंने पुरुषों की कमजोरी का फायदा उठाया है, बस। अब तो मैं लंदन जा रही हूँ, विश्वविद्यालय का कुलपति और मैं। एक कथा सम्मान में। लल्लू, छोड़ने आएगा मुझे एयरपोर्ट तक। हाँ, लंदन से आकर मैं विश्वविद्यालय के माॅरीशस केंद्र का निदेशक हो जाऊँगी।’’

‘सुनिधि अब दूसरी बार मर रही थी। श्यामली जैसी बोल्ड लड़की का यह समर्पण और स्वीकृति, वह डर गयी।’

‘तो सोच ले। चुनाव तुम्हारे पास है। आ जाओ यहाँ और आगे पढ़ो, डाॅ. सुनिधि बनो। या फिर हालातों को भाँपो और एक बड़ी अभिनेत्राी बनो। छुट्टियों में मैं इस बार तुम्हारे पास आती हूँ। फिर देखती हूँ, बुड्ढे की बत्तीसी झाड़ देंगे, दोनों मिलकर उसकी... ।’ श्यामली ने माहौल को हल्का करने के लिए कहा।

रात सुनिधि ने आँखों में जागकर ही बिता दी। वह चक्रीय घूर्णन में बैठी महसूस करती रही।

माँ की, दो आँखें-हालातों को भाँपो और एक बड़ी अभिनेत्राी बनो।.... पिता का विश्वास.... ‘मैंने पुरुषों की कमजोरी का पफायदा उठाया है, बस’।..... सुबह झपकी लग गयी।

उसकी नींद रूम पार्टनर के आने पर खुली। आँखें भारी-भारी सी थीं, सर में दर्द भी था। रूम पार्टनर उसके सर के पास आकर बैठ गयी। ‘क्या हो गया था तुम्हें। किसी ने कुछ...’

‘नहीं, बस यूँ ही’,

‘छोड़ो भी यार, शेयर करने से बहुत कुछ हल्का होता है’

उसने रूम पार्टनर की आँखों में देखा। वहाँ प्यार और सहानुभूति के कतरे थे, ‘रुचि मुझे वापस जाना होगा’

‘कहाँ’

‘या तो विश्वविद्यालय से डाक्टरेट करूँगी। या घर, बच्चों को अभिनय सीखाने का स्कूल खोल लूँगी- टाइमपास और आजीविका भी। कुछ नहीं हुआ तो किसी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर लूँगी।’

‘और तुम्हारा अभिनेत्री बननेका सपना’

‘हम जैसे घरों की लड़कियाँ सपने नहीं देखतीं। सपनों के पूरे होने के रास्ते पथरीले हैं- डेढ़े-मेढ़े।’

‘खुलकर बताओ कल क्या हुआ था? ’

सुनिधि से सबकुछ सुनकर रुचि ने बहुत ही सामान्यता बोध में कहा बस इतनी सी बात।

“यार, हम लड़कियाँ तो अपने जन्म के साथ ही ऐसी घटनाओं की आशंका लेकर पैदा होती है- घटी तो आश्चर्य नहीं। नहीं घटी तो आश्चर्य जरूर होना चाहिए- ‘टेक इट इजी’। अभी मैं सोती हूँ। शाम को घूमने चलेंगे। मेरा आॅपफ भी है।’

अब तक सुनिधि का आवेग शांत होने लगा था। कटवारिया सराय से आॅटो पर बैठते हुए रुचि ने कहा, ‘चलो इंडिया गेटपर पानी-पुरी खाते हैं’।

उसने रुचि को गौर से देखा- ‘यह भी श्यामली जैसी बोल्ड है’।

आॅटो आॅल इंडिया मेडिकल साइंस से आई.एन.एस. की

तरफ बढ़ी।

‘दिल्ली के कई गोश्त ठिकानों में से एक ठिकाना यहाँ पर भी है।’

‘गोश्त...।’

‘अरे यार दिमाग भी तो चलाओ। स्त्राी-पुरुष दोनों के रात्रि-मनोरंजन के साधन मिलते हैं यहाँ। लड़के-लड़कियाँ दोनों’ सुनिधि उसे देखती रही।

‘ऐसे मत देख मेरी जान। उसने लाड़ से उसके गले में हाथ डालकर पेशानी चूम लिया। ‘तब तो कुछ ही ठिकाने थे। आईटी. ओ., लीमेरीडियन का एरिया, कनाॅट प्लेस, धौला कुंआ, बुद्धागार्डन का एरिया। दिल्ली बदल चुकी है- काॅमनवेल्थ सामने है- सरकार से लेकर जनता तक टेक इट इजी के भाव में है।’

‘तुम मुझे क्यों सुना रही हो!’ सुनिधि चैकन्नी हो गयी।

‘तुम्हारे सामान्य-ज्ञानवर्धन के लिए। और यह लो इंडिया गेट।’ आॅटो वाले को पेमेंट कर रुचि ने उसके हाथों में हाथ डालकर लगभग दौड़ लगा दी। रुचि पूरे मूड में थी। उसने गुब्बारे वाले को बुलाया और उसके गुब्बारे खरीदे। भेल-पूरी और गोल-गप्पे खाए। गुब्बारे से खेलते घूमते-टहलते उन्हें एक घंटा हो गया। अब तक सुनिधि भी सहज हो चुकी थी। दोनों एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ गए।

‘सुनिधि दुनिया में बड़े-बड़े घनचक्कर हैं। हम लड़कियों के लिए तो और भी मुश्किल है। इन घनचक्करों

से ताल-मेल बिठाना। अब देखो न तुम्हारे चारों ओर कंडोमांें के विज्ञापन का संजाल बिछा है, यानी सुरक्षित सेक्स। एकनिष्ठता का कोई अर्थ नहीं। दूसरी ओर हिन्दू लाॅ एक से ज्यादा शादी की इजाजत नहीं देता या फिर ऐसे ही यौन-व्यवहारों को नियंत्रित करते कानून हैं- यानी हम लड़कियाँ यदि इस खेल में ‘एन्जाॅय’ नहीं करती हैं तो एक सेक्स डाॅल भर रह जाएँगी, कंडोमों की सी हैसियत हो गयी हमारी- यूज एंड थ्रो।’

सुनिधि फिर से छेड़ दिए गए इस बेसुरे राग को सुनने के मूड में नहीं थी।

‘यार, तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। माॅरेल्टी को नये सिरे से समझने की जरूरत है। तुम नैतिक बने रहो, नैतिकता अपना पुराना चोला कब की छोड़ चुकी है।’

सुनिधि को नीम के पेड़ पर माँ की दो आँखें टंगी दिखीं।

‘‘जिसे हमारी कमजोरी बना दिया गया है, उसे ही हमें अपनी ताकत बनानी होगी। तुम पढ़ी-लिखी हो। तुमने सुना होगा, पढ़ा भी होगा- अखबारों में आया था ‘महिला-अध्ययन’ पढ़ने वाली लड़कियाँ अपनी ‘वर्जिनिटी’ कई डालर में नीलाम कर रही हैं, उद्देश्य है आगे पढ़ने का।’

सामने के लैम्प पोस्ट पर पिता का विश्वास लटक रहा था।

‘उस बुढ्ढे साहित्यकार को ही देखो, क्या जान होगी उसमें। नैतिकता का छद्म लिखता-बेचता भी होगा। लेकिन अपनी बेटी-पोती की उम्र की लड़की के साथ सोना चाहता है। सोता नहीं देह रगड़ लेता। और बदले में तुम्हारे सपनों की सीढ़ी बनता।’

सुनिधि के भीतर का खौफ पूरे वातावरण में फैल गया, उसने रुचि को बहुत ही कातर दृष्टि से देखा।

‘जिसे बुढ्ढा अपनी बहादुरी समझ रहा है, वह उसकी कमजोरी है और तुम पर आरोपित कमजोरियाँ तुम्हारी ताकत।’

‘तुम्हारे सारे तर्क अंततः पुरुष वर्चस्व को खाद-पानी दे रहे हैं रुचि। इन अंधेरे रास्तों का क्या कोई अंत है! कोई विराम है!!’ माँ की दो आँखें।

‘है न, तुम्हारा अपना निर्णय। तुम अदृश्य डंडे से संचालित हो रही हो- उस भय से मुक्त हो जाओ। महानगर है, कौन किसे जानता है। तुम इतने दिनों में अपने रूम पार्टनर तक को नहीं जान पायी।’

सुनिधि ने आश्चर्य से रुचि को देखा।

‘हाँ, मैं एक काल गर्ल हूँ, पार्ट टाइम। और मुझे यही सब कुछ करते भी नहीं जाना है- जल्दी ही शादी करूँगी, घर बसाऊँगी- तब तक थोड़ा पैसा जमा कर लेती हूँ।’

पूरी चाँदनी में फैला पिता का विश्वास!

‘पूरा माहौल हमारे काम के पक्ष में बनाया जा रहा है। तुम्हें क्या लगता है काॅमनवेल्थ गेम में सिर्फ गेम होगा। दिल्ली पुलिस को ‘टेक इट इजी’ सिखाया जा रहा है। हर खेल के आयोजन के साथ सेक्स का बाजार भी बढ़ा है। दुनिया ऐसी ही है।’

‘चलो चलते हैं’ सुनिधि खौफजदा थी।

‘सोच लो विकल्प तुम्हारे पास है, बुड्ढे की जेब से एक लाख उड़ा ला। मोल भाव कर। तुम अभिनेत्राी हो। थोड़ी अलग हट के, लड़कियों की अपील ज्यादा होती है। 10 रात को 5 रात बना।’

रात भर सुनिधि करवटें लेती रही।

...माँ की पिटाई, माँ का शरणस्थल- पूजाघर, पाखाना घर या रसोईघर, माँ यानी गौरा की दोनों आँखों में कातर फरियाद दिखाई पड़ी- निगरानी करती मजबूत आँखों के भीतर से अपने लिए बिलखती कातर फरियाद।

...पिता का विश्वास, पराजित पिता अपने सपनों का दंश झेलता दूसरी आजादी से मोहभंग-ग्रस्त कुंठित युवक। परास्त पिता का विश्वास छीजता नजर आया।

...घर, घर का पूजाघर, पखाना घर, रसोई घर, हर जगह दुबकी माँ, यानी गौरा और कमरे के दरवाजे पर बैठा पिता... सुनिधि के भीतर एक नए खौफ ने जगह बना ली। लोहा-लोहे से काटता है। खौफ ने खौफ को काटा और सुबह एक नयी सुबह थी।

‘रुचि, बुड्ढे की जेब काट कर आती हूँ। मेरे अगले शो के लिए तैयार रह।’

ये गधे भी कटवारिया सराय के मूल चरित्र हैं- गाँव से शहर में तब्दील होता कटवारिया सराय। लड़कियों के चेहरों पर आत्मविश्वास है, आर्थिक आत्मनिर्भरता का आत्मविश्वास। सुनिधि के डग लंबे थे, जो सीधे साहित्यकार के घर जाकर रुके।

‘ओ नो, माई गुडनेस। मेरा दरवाजा आज भी खुला है।’ तो 10 रात की जगह 3 दिन और 3 रात सुनिधि साहित्यकार के साथ रही। साहित्यकार ने उन तीन दिनों में अपने कई साहित्यकार मित्रों, गोष्ठियों और काॅपफी हाउस को गुलजार कर आया। सुनिधि उसके पौरुष का प्राकट्य थी। तीन रात वह फार्म हाउस की बेड पर निढाल सोता रहा, दिन की थकान और तुष्टि के बाद की नींद। सुनिधि ने अपने पहले शोका इंतजाम कर लिया था।

कुमार संभवम् का भव्य मंचन। भरे आॅडिटोरियम में तालियों की गड़गड़ाहट। बरौनियों से पानी की बूदें आज भी सुरक्षित वर्जिनिटी का उपहार दे रही थीं- पुनर्नवा।

‘श्यामली की अवसर सापेक्षता के सिद्धांत से मैं भी सहमत हो गयी हूँ। बुड्ढे की जेब को तालियों की गड़गड़ाहट में बदल दी मैंने।’

काॅमनवेल्थ सामने था। दिल्ली में मेट्रो ने अपना काम पूरा कर लिया था। जिंदगी की रफ़्तार और बढ़ चुकी थी। सुनिधि ने सपफल मंचन और सपफल डिप्लोमा संपन्न कर लिया था। शेष थी आसमानों को छूने की आशा।

‘पूरे काॅमनवेल्थ गेम तक रहेगा वह। बड़ा आसामी है, फिल्मों में पैसे लगाता है। जाकर कर ले चाँद को मुठ्ठी में कैद’, रुचि ने सुनिधि के सामने प्रस्ताव रखा।

‘सुनिधि मैं तो अब शादी करने जा रही हूँ, पिता ने अच्छा लड़का देखा है, नो मोर बिजनेस। तू भी जल्दी ही अपना हासिल पा ले फिर तुम्हारी मर्जी।’

‘और हाँ, हैंडल विद् केयर, भला इंसान लगा। मैंने तुम्हारी सारी बातें उसके सामने रख दी है। और हाँ याद रखो यह तुम्हारा प्रथम अभिसार है, तुम वर्जिन हो। तुम्हारी वर्जिनिनिटी के बदले वो तुम्हारे सारे सपनों पर इन्वेस्ट करेगा।’

सुनिधि के लिए काॅमनवेल्थ गेम का यह प्रस्ताव नये अनुभवों से समृद्ध करने वाला प्रस्ताव था। पाँच सितारा जीवन और अत्यंत प्रोफेशनल साथी। उसने पूरे समय तक यह ख्याल रखा कि सुनिधि को किसी तरह से चोट नहीं पहुँचे वह पूरी तरह से विद केयर हैंडल कर रहा था। सुनिधि को हैंडल विद केयर की नौबत ही नहीं आयी। सब कुछ प्रथम अभिसार और हनीमून जैसा था।

जाते हुए उसने अपना कार्ड देते हुए कहा, ‘कम ऐज अरलिएट’ वी विल सून वर्क आॅन अ प्रोजोक्ट’। तब तक मैं तुम्हारे रहने का इंतजाम करता हूँ।’

‘और हाँ, यह कास्टिंग काउच नहीं था। मैं तुम्हें चाहने भी लगा हूँ। सो लिव द विजनस टू लिव विद मी।’ उसके चेहरे पर दृढ़ता थी।’

‘तो तुम्हारी पत्नी और बच्चे।’

‘वो मेरे होंगे और तुम भी। तुम्हारे लिए सब कुछ अलग होगा जहाँ तुम रहोगी और तुम्हारे सपने।’

‘यानी केप्ट’

‘डोंट वी सो इम्प्रोपफेशनल’ वह सख्त था। उसके मोबाइल की घंटी बजी। ‘माई वाइपफ’। तो तुम जल्दी ही तशरीफ ला रही हो, मुंबई से-‘हाउ आर यू बेब’ मैं बस चलने ही वाला हूँ। कुछ ही घंटों में मैं तुम्हारे साथ होऊँगा। माई स्वीट लव।’

फोन पर बात करता हुआ वह होटल के लाॅन की तरफ बढ़ा।

मतलब साफ था, अब तुम जा सकती हो। सुनिधि टैक्सी में भागती जा रही थी और उसका मन पीछे छूटता जा रहा था। मतलब सापफ था कि पीछे की कुछ तस्वीरें उसे खींच रही थीं। दिल-विल का कोई मामला नहीं था।

‘हाउ आर यू बेब’ ऐसा भी नहीं था कि उसने इसे पहली बार सुना था। वह पिछले दिनों उसके साथ रहते हुए कई बार सुन चुकी थी। तब भी जब उसके दाँत, सुनिधि के कानों से खेल रहे होते थे, या उसकी उँगलियाँ सुनिधि के नाभि पर अठखेलियाँ कर रही होती थीं।

लेकिन आज वही ‘हाउ आर यू बेब’ और ‘केप्ट’ के साहचर्य से कुछ अर्थबोध बने थे, जो कि सुनिधि की स्मृतियों में हाॅन्ट करने लगे। साहित्यकार ने भी अपनी पोती को बड़े प्यार से उससे मिलाकर कहा था, आंटी को नमस्कार करो। पिफर पोती की चंचलता से शुरू होकर अपने बेटे-बहू से लेकर पूरे परिवार का महिमामंडन करता रहा।

सुनिधि जिस वक्त कटवारिया सराय के अपने कमरे पर वापस जा रही थी उस वक्त दिन अपने ढलान पर था और रात दस्तक देने को थी। गधे अपने काम से वापस जा रहे थे। चुपचाप सिर लटकाए। कटवारिया में रहने वाले लोग, लड़के-लड़कियाँ, जो प्रायः अचानक से खड़ी बहुमंजली इमारतों के किरायेदार थे, काम से वापस लौट रहे थे- दिन भर की थकान से सराबोर। बड़ी इमारतों की मालकिन, बूढ़ियाँ और बूढ़े खाट पर बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। उनकी आँखों में गाँवों की आखिरी पहचान बची थी। रुचि घर गयी थी, शादी बनाने। जल्दी ही वह अपना कमरा छोड़ देगी। सुनिधि को भी आगे के करिअर के लिए मुंबई जाना था। इस कमरे में फिर दो लड़कियाँ रहेंगी या फिर लड़के। कमरे में आते ही पलंग पर बिछ सी गयी

सुनिधि की आँखें कमरे की छत पर टिकी थीं। उसे लगा छत से माँ की दो आँखें आ लगीं हैं। आँखों की कातरता लोप होती जा रही है और उनमें आँसू छलछला रहे हैं।

पिता का विश्वास पूरे कमरे में बिखरा पड़ा है, जो हताशा में बदल गया है।

माँ, यानी गौरा, गा रही है, ‘एजी कृष्ण राखो शरण अब तो जीवन हारे।’

उसके सामने अब खुला आकाश था। चाँद मुठ्ठी में था। मुंबई में तहलका मचाने के लिए प्लेटफार्म

तैयार था।

पिता की हताशा ने ग्लानि की शक्ल ले ली है, वे मंदिर में घंटिया बजा रहे हैं। माँ पूजाघर, पाखाना घर और रसोई घर की जगह तुलसी चौरे पर धूप सेंक रही है।

सुनिधि नींद में थी, सुनिधि जाग रही थी।

‘डोन्ट वी सिली, तुम गौरा की दुनिया पीछे छोड़ आयी हो। अब दुनिया तुम्हारी है, तुम्हारे सपनों की दुनिया।’ श्यामली सिन्हा की आवाज-

‘मैं अब लंदन जा रही हूँ’, ‘हाँ’, श्यामली प्रसन्न थी।

‘मेरा पति बहुत भोला है, प्यार करता है, मुझसे। मेरे अतीत से उसे कोई लेना देना नहीं। न वो कुरेदता है, न मैं बताती हूँ।’ रुचि की आवाज।

‘तुम, सुनिधि तुम्हें चाँद मुठ्ठी में कैद करना है, फैलाओ अपने हाथ और चुन लो उसकी सारी चाँदनी अपनी हथेली पर’ रुचि मुस्कुरा रही थी।

सुनिधि ने कटवारिया सराय छोड़ दिया है। उसने ट्रेन पकड़ ली है। नहीं, नहीं, मुंबई के लिए नहीं, वह ट्रेन तो निरंजना नदी को जाती है। यदि आप भी उसी ट्रेन में हैं, तो मेरा एक संदेश है उसके लिए। उसे जरूर बताना। अपनी नानी की गुल्लक वह न पफोड़े। गुल्लक में रेजगारियाँ कैद हैं, समय कैद है, नानी का विश्वास कैद है। मैंने अपनी गुल्लक फोड़ दी है।