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पीला दे गजल

पीला दे गज़ल

शायर : अशोक जानी ‘आनन्द’

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चांद की मानिन्द युं शब भर मैं बिख्ररा करता हुं,
और सहरा की तरहा कतरेको तरसा करता हुं.

रातभर इस जिस्मको एक याद कतरा करती है,
और सुबहा मैं हंमेशा खुदको ढुंढा करता हुं.

क्या करें हम बेवजह आहों के आदि हो गये,
बिन ये सावन हर घडी आंखोसे बरसा करता हुं.

एक मोती सी मिली है जिन्दगानी मुझको भी,
क्या पता मैं फिरभी उसको जांचा-परखा करता हुं.

बात सीधी है निहायत पर नजर आती कहां ?!
सुर्ख चहेरे पर मैं उसके नजरें बोया करता हुं.

- अशोक जानी ‘आनंद’

लगता था आसान लेकिन रास्ता दुस्वार है,
क्या करे लेकिन हमें भी पहुंचना उस पार है.

हाथमें लेकर तुम्हारा हाथ हम तो चल दिये,
रुक गये गर वो महोब्बतकी सरासर हार है.

ये जमाना दुश्मनी बेशक निभायेगा तो क्या ?
अपना किस्सा शामिल-ए-तारीखका आसार है.

हौंसला अफझाई की ख्वाहिश पाली थी मगर,
गुल के बदले रास्तेमें खार है तो खार है.

दिल मिले हैं लोग अपनी सांस मिलने ना भी दे,
जो मिला है वो गनीमत वो ही बस गुलझार है.

-अशोक जानी ‘आनंद’

जिन्दगी जख्म है अरे यारा,
है तो है इसका क्या करें यारा?

बात होनेकी हो तो बहेतर था,
करनी अपनी ही हम भरें यारा.

उसकी रहेमत या अपनी किस्मत है,
अपनी तो सोच से परे यारा.

वैसे हम कम नही धनी मन के,
ख्वाब अपने भी सुनहरे यारा.

यार तुं साथ जब मेरे है तो,
क्युं जमाने से हम डरें यारा!

-अशोक जानी ‘आनन्द’

कोई ऐसा जहान होता है,
हाथोमें आसमान होता है.

होता है कोई दौर ऐसा भी,
हर घडी इम्तेहान होता है.

जो भी होगा वही सही होगा,
दिलमें बस इत्मीनान होता है.

कोई कितना क़रीब आये पर,
कुछ न कुछ दरमियान होता है.

याद रखनेकी क्या जरूरत है ?!
दर्द तो मुँह जबान होता है.

-अशोक जानी ‘आनंद’

जख्म नासूर हो गये देखो,
तुम बड़े दूर हो गये देखो.

ख़्वाब आंखोमें जो सजाये थे,
टूट कर चूर हो गये देखो.

हम तो बदनाम हो गये ऐसे ,
तुम तो मशहूर हो गये देखो.

वो उफ़क़ पर घिरा है अंधियारा,
खुद ही बे-नूर हो गये देखो.

बेवफ़ा तारीफें बटोरें हैं
कैसे दस्तूर हो गये देखो.

-अशोक जानी ‘आनंद’

आप अपने ही बस ये चलता है,
वक्त है कब किसीका टलता है !

सूई की नोंक पर ये रहता है,
अच्छे अच्छों को ये निगलता है.

दुश्मनी उससे ना कभी अच्छी,
ये रीझे तो जहाँ बदलता है.

उसका अंदाज़ भी निराला है,
ये कभी जमता ये पिघलता है.

ज़िंदगी खुशनसिबी है उसकी
वक्तके साथ जो सम्भलता है.

जिसकी गाडी अगर छुटी इकबार,
ज़िंदगी भर वो हाथ मलता है.

वक्तको मुट्ठीमें किया जिसने,
उसके पीछे ज़माना चलता है.

- अशोक जानी ‘आनंद’

अब डसने लगी है तन्हाई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल,
आंखे अश्कोंसे भर आई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

हम तो आवाज़ लगाते रहे, वो मुंह फेर कर चले गये
अब कौन करेगा सुनवाई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

हम दीप जलानेकी कोशिश वो फूंक लगानेकी साजिश.
कैसे ढूंढे अब परछाई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

चल, सन्नाटेका हाथ पकड़ कर सुब्हा तक चलते ही चले,
इक आश हवामें लहराई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

वो दू..र उफक पर हलकीसी किरने अलसाती निकली हैं,
बादलकी आंखे शरमाई, अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

जब इन्द्रधनुषके रंगोमें ये भोर नहाके आई है,
इस बात पे कलियाँ इतराई अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

ये कलियोंके इतराने पर भंवरोंका दिल भी आया है,
बागोमें बहारें मुस्काई अय यार मुझे पिला दे ग़ज़ल.

-अशोक जानी ‘आनंद’

उनका चहेरा जरा नज़र आया,
जैसे कोई चाँद ही उतर आया.

थक गया हूँ ये जिन्दगी से अब
कितने लम्हात से गुजर आया.

रातभर मैं जराभी सो न शका,
याद वो मुझको इस कदर आया.

उनको छेड़ूँ बुलाके ख्वाबोमें,
ख्याल ये मुझको रात भर आया.

आप मंज़िलको पा कर बैठे है,
मेरे हिस्सेमें बस सफ़र आया

-अशोक जानी ‘आनंद’

आँख सपने बिछाके बैठी है तुम भी एक याद ले चले आओ ,
धुप पिघली नहीं है जख्मोकी कोई महेताब ले चले आओ.

देख नासमजी मेरी कैसी है मुंह में उंगली दबा के बैठी है,
कोई आके उसे तो समजाओ, दिलकी आवाज ले चले आओ.

देखो संगीत लहलहाता है मनका पंछी अभी भी गाता है,
सूर बरसा रहा है हर एक पल अब कोई साज ले चले आओ.

बातो बातोमें बात निकली है मनचली हो चली ये फितरत है,
थोडा ठहराव मनमें बोनेको अधखिली छाँव ले चले आओ.

चुपके से दर्द आज सोया है, तुम अभी शोर गुल मत करना,
सिसकियाँ सांस में ही खोई है लम्बी एक रात ले चले आओ.

-अशोक जानी ‘आनंद’

जिन्दगीकी वो हकिकत ना बदल पायें कभी,
आइना था सामने खुदको ना छल पायें कभी |

एक सुखा लम्हा तेरी याद का ऐसा भी है,
ना उगल पाये कभी हम, ना निगल पायें कभी |

वो अलग किस्सा है जब हम आसमां तकते रहे,
धुप ले कर के सूरजकी ना पिघल पायें कभी |

याद है ? वो दिन अचानक मुस्कराके तुम मिले,
तबसे लेकर आज तक खुद ना सम्हल पायें कभी |

हम जले तो इस तरह बस राखका एक ढेर हो,
बनके बारिश गिर सके, ना यूँ उबल पायें कभी |

-अशोक जानी ‘आनंद’

नशीली चांदनी में हाथ तेरा थाम कर बैठे,
जरा सी बात पर सब लोग यूँ कोहराम कर बैठे ।

उठा कर हाथ ये दोनों दुआ मांगे तो अब कैसे..!
बगावत हम ख़ुदा के सामने नाकाम कर बैठे ।

गिला करते हो तुम नाख़ुश हो कर बातो बातोमें,
यहाँ हम उम्र सारी बस तुम्हारे नाम कर बैठे ।

अभी तन्हाई की रातें अगर काटे तो हम कैसे..?
तुम्हारे प्यारको हरदिन सुबह और शाम कर बैठे ।

तसल्ली है हमें उस बातकी ये जिंदगी हमदम,
तुम्हारी आशिकीमें इक सुरीला जाम कर बैठे ।

-अशोक जानी ‘आनंद’

हाथ भर की ये दूरी जब मील सी लगने लगे,
थम गई हो वह घडी बोझिल सी लगने लगे.

हो अगर नफरत दिलोमें, कोई अनजानी नज़र-
प्यारसे लथबथ हो पर कातिल सी लगने लगे.

रातभर तन्हाईके गुजरें हो लम्हें इस तरहा,
आफताबी रोशनी कंदील सी लगने लगे.

शाम सन्नाटेकी जब मुझको पुकारे नामसे,
बस तेरी मौजूदगी महेफिल सी लगने लगे.

जब तेरी आंखोमें आँखे डाल कर देखूं सनम,
डुबनेका गम न हो वो झील सी लगने लगे.

-अशोक जानी ‘आनंद’

रातभर सपने जलाये रोशनी के वास्ते,
और सुबह बोये नये कुछ जिन्दगीके वास्ते.

कोई अपने आप पर ना इस तरहा होता गुमाँ,
फक्र हमको जिस तरहा है दोस्ती के वास्ते.

गमको चाहा, गमको बेचा गमसे करली दोस्ती,
आपके दिलमे छुपी हर एक ख़ुशी के वास्ते.

यूँ नहीं अक्सर पनपती है दिलोमें शायरी,
चाहिए बेचैनी थोड़ी गालिबीके वास्ते.

उफ़ मै अब उबता गया हूँ जिन्दगी के नामसे,
चाहिए तन्हाँ सफ़र बस ख़ामोशी के वास्ते.

-अशोक जानी ‘आनन्द’

खुद ही बन बैठा खुदा हूँ क्या करूँ ?!
और अब खुदसे खफा हूँ क्या करूँ ?!

जिन्दगी बाकी अभी थोड़ी सी है,
दो तरफ जलती शमाँ हूँ क्या करूँ ?!

आप ले कर आ गए थे आइना,
पर मैं खुदसे गुमशुदा हूँ क्या करूँ ?!

थी कहाँ कस्ती डूबोनेकी वजह,
पर मैं आंधीकी हवा हूँ क्या करूँ ?!

टुकडोंमें है बंट गया मेरा वजूद,
एक टूटा आइना हूँ क्या करूँ ?!

-अशोक जानी ‘आनंद’

तु जरा तो सब्र कर इक रात की तो बात है,
कहे भी पायेगा उसे, उस बात की तो बात है।

ना कोइ सिकवा गिला है ना कोइ फरियाद है,
हम समज़ते हैं, तेरे हालात की तो बात है।

हम तुम्हारे सामने जाहिर करें या ना करें,
जान लोगी तुम कि ये जज़बात की तो बात है।

एक नासुर सा मिला है ज़ख्म तेरे नाम का,
मान लेता हुँ इसे सौगात की तो बात है।

आज तक हारे नहीं है हम कोइ भी खेल में,
जो मिली तकदीर से वो म्हात की तो बात है।

  • अशोक जानी ‘आनंद ’
  • चल जरा साथ साथ चलते हैं ।
    ख्वाहिशों की तरहा मचलते हैं ।

    आज दिलको जरा बहेकने दो,
    थोडा गिरते हैं फिर सम्हलते हैं ।

    इम्तहाँ है हमारी हस्ती का,
    चल ज़माने को हम बदलते हैं ।

    जब जरुरत हो ठहेरे रहेते हैं,
    फिर कोई मौजसा उछलते हैं ।

    आपकी आँख देख लगता है,
    आइने आँखमें भी पलते हैं ।

    रात हमने गुजारी आँखों में,
    सुब्हके पल युँ ही पिघलते हैं ।

    अपना तो काम है खुश रहेने का,
    जिसको जलना है वो तो जलते हैं ।

    -अशोक जानी ‘आनंद ’

    ये खुशी और ये हसीं ये अश्क भी है ज़िंदगी,
    चैन भी है ज़िंदगी और दर्द भी है ज़िंदगी I

    ये जो महेकायें गुलिस्ताँ वो सुहाने गुल सभी,
    खूश्बु फैलाये जो छुपके मुस्क भी है ज़िंदगी I

    है कहीं मातम सा छाया हरतरफ माहौल में,
    और कहीं खुशियाँ बिखेरे जश्न भी है ज़िंदगी I

    जुही के फूलों की मानिन्द है बडी नाजुक सी वो,
    तो कभी चट्टान जैसी सख्त भी है ज़िंदगी I

    पालते हैं हम जिसे नफरत वो नासुर सी सही,
    आँखमें बसता हमेशा इश्क भी है ज़िंदगी I

    हाथ में लेकर किसी का हाथ युँ चलते चलो,
    ये गुज़रता और बीता वक्त भी है ज़िंदगी I

    राह है, राही भी है और होंसला चलने का है…
    एक दिन मंज़िल मिलेगी सब्र भी है ज़िंदगी I

    -अशोक जानी ‘आनंद’

    मुकरते नहीं.

    इंतजारीके पल गुजरते नहीं,
    क्या करें ख्वाब है के मरते नहीं.

    किस तरहा हम निभायें ख्वाहिश ये,
    वक्तसे गम सुलाह करते नहीं.

    जिन्दगी बस यूँ ही रुलाती है,
    जख्म नासूरसे ये भरते नहीं.

    कोई कितना सजा ले हर पल को,
    गमके रिश्ते यूँ ही सँवरते नहीं.

    वक्त से हम किये थे वादे कुछ,
    अपने वादेसे यूँ मुकरते नहीं.

  • - अशोक जानी 'आनंद'

    तिशनगी की राह में कोई झील सा मिल जाये तो।
    थक गया हुँ तैरते साहिल सा मिल जाये तो।

    क्या करुँ खामोशियाँ, तन्हाइयाँ, ये रास्ते,
    यार कोई ऐसे में महेफिल सा मिल जाये तो।

    हर तरफ नाकामियाँ, नाकामियाँ, नाकामियाँ,
    एक पल के भी लिये हासिल सा मिल जाये तो।

    बेसबब चलता रहा हुँ ज़िन्दगीभर, अब कहीं,
    सामने चलकर कोई मंझील सा मिल जाये तो।

    है कहाँ तकदीर में महेताब अपनी, दोस्तों…
    रात काली में मुज़े कंदील सा मिल जाये तो।

    जो मलाले शामको खुशहाल कर दे बस युँ ही,
    दर्द का ऐसा कोई कातिल सा मिल जाये तो।

    -अशोक जानी ‘आनंद’

    हार गया मैं

    लड़ते लड़ते हार गया मैं,
    लड़नेको बेकार गया मैं.

    कैसे पहुंचु उस मंज़िल पर ?
    राह बड़ी दुस्वार गया मैं.

    अब तो बचना मुश्किल है कि,
    बिन कश्ती मझधार गया मैं.

    मैं बैठा इस पार कभीसे,
    वो समझे उस पार गया मैं.

    कब तक हारते रहेते यारों,
    आखिर बाज़ी मार गया मैं.

    -अशोक जानी 'आनंद'

    न कर.

    अश्क बनकर आँखसे बरसा न कर,
    इस तरह मुझको सनम रुसवा न कर.

    हाँ अगर कहेना है तो कह दे सनम,
    कश्मकश का ये सबब पैदा न कर.

    मैं कहाँ परवाना कोई बन सका,
    तू शमाँ मानिन्द यूँ सुलगा न कर.

    नाखुदाने हार ना मानी कभी,
    तू भी सागरसे ये मन मैला न कर,

    वक्तने हमको सिखाई है ये बात,
    तीर जो छूटा उसे रोका न कर.

    है अगर सोना तो चमकेगा जरुर
    ह़र समय जांचा न कर परखा न कर.

    आग लगनेकी वजह शोला ही है,
    तू हवाके नाम पर शिकवा न कर.

    बात सीधी हो समज जाये सभी,
    टेढ़े मेंढे रास्ते उलझा न कर.

    चल अभी चलते है मंज़िलकी तरफ,
    बैठ कर अब सिर्फ तुं सोचा न कर.

    - अशोक जानी 'आनंद'

    फिर भी.

    राहमें बैठे है मगर फिर भी,

    हो गये हम युं बेअसर फिर भी.

    रात बाकी जो है तो क्या गम है ?

    एक नयी आयेगी शहर फिर भी.

    आपका इन्तझार करते हैं

    आंख चाहे हो बे-नजर फिर भी.

    काफिला रुक गया है कब से पर,

    रास्ता कर रहा सफर फिर भी.

    कितना चाहे छुपा ले तुं खुशियां,

    फैल जाती है बस खबर फिर भी.

    - अशोक जानी 'आनंद'

    क्या करें

    क्या करें इस दर्दका जडसे कभी जाता नहीं,

    और मरहम भी लगाना आपको आता नही

    नब्ज मेरी तु पकड कर देख मैं जिन्दा तो हु..!

    सांसमें अटका है मेरा दम अभी जाता नहीं.

    कब तलक जुठी उम्मीदें तु बंधायेगा चारागर..?

    हाल मेरा देख कर तु भी तरस खाता नहीं.!

    दूर तक दिखती अगर जो मौत तो बतलाना तु,

    हाथ पकडे जाऊंगा बिलकुल मैं धबराता नहीं.

    एक बेचारे पर इतना जुल्म क्युं मेरे खुदा..!!

    इस कदर परेशान करते तुं भी शरमाता नहीं ?

    - अशोक जानी 'आनंद'