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मुरारी कहुं की शकील

मुरारी कहूं कि शकील

कंधे पर नीला झोला, पैरों में टूटी चप्पलें, एक काली कम्बल, लम्बी दाड़ी, मैले—कुचैले कपड़े और कान में टंगी कलम वाले बंदे को मैं ‘मुरारी' कहता हूं। वैसे तो उसका कोई नाम ही नहीं है। उसका मन किया, तो आप मोहन कहेंगे तब भी बोल जाएगा और रफीक कहेंगे तब भी। अगर नहीं मन किया तो महाराणा प्रताप कहने पर भी नहीं बोलेगा। लेकिन पहले दिन से मैं उसे मुरारी ही कहता हूं और वह बोल जाता है। उसे देश—विदेश से लेकर गली—मोहल्ले तक की सब खबरें याद है, हरदम अखबार ही पढ़ता रहता है।

घर—बार मुरारियों के होते कहां हैं, होगा तो भी कभी उसने जिक्र नहीं किया। कलम से अखबार को इस कदर काला किये रखता है कि तीन—चार एडिशन ओर निकाले जा सकते हैं। हर खबर को अखबार के पन्ने पर ही कई एंगल से लिख देता है। उसका अखबार विज्ञापन रहित होता है क्योंकि वह विज्ञापन की जगह पर अपनी कोई एक खबर चस्पा देता है।

मुरारी आराम से बता सकता है कि कौन—सी खबर पहले छप चुकी है, कौन—सी फर्जी है और कौन—सी किसी राजनेता को खुश करने के लिए छापी गई है। वर्तनी के मामले में तो उसका कहना है, ‘‘कीड़े को स्याही में भिगोकर कागज पर रख दें, तो वह अखबार से ज्यादा शुद्ध लिख सकता है।''

हां, मेरी उससे मुलाकात जनवरी के महीने में सीकर शहर के रेलवे स्टेशन पर हुई थी। मैं ट्रेन के इंतजार में एक चाय की दुकान पर आग के सहारे सर्दी से निपटने की कोशिश कर रहा था। देवेंद्र और गौरव नामक दो नौजवानों से अभी—अभी मेरा परिचय हुआ था। परिचय भी इतनाभर कि— वे हरियाणा जा रहे हैं और सीकर के रहने वाले हैं। इधर—उधर से पुराने कागज, लकड़ी और गुटखा के खाली पावचों को चुनकर हम लोग आग की निरंतरता बरकरार रखने में जुटे हुए थे।

‘‘आग के लिए हमेशा जरूरी सामान पास रखना चाहिए।'' मुरारी ने आते ही कंबल से दो लकड़ी के टुकड़े निकाल कर कहा।

‘‘यह पागल है।'' चायवाले ने चुप्पी तोड़ी।

‘‘तेरा नाम क्या है ?'' देवेंद्र ने भी उसे पागल समझकर उपहास उड़ाया।

उसने लकड़ी के टुकड़ों से बेतरतीब आग को ठीक किया, जैसे आग से कोई पुराना याराना हो। आम पागलों की तरह वह ‘पागल' कहने पर भी नहीं भड़का। पास पड़े एक अखबार को पढ़ता हुआ गुनगुनाया—

‘‘हिरापति गुटका, बाजरे की रोटी..........जोधु मरा, खबर खोटी।''

‘‘ मुरारी, यह जोधु कौन था ?'' यहीं पर मैंने उसे ‘मुरारी' कहा था।

‘‘हां, मेरा नाम मुरारी है और मैंने कोई लॉन नहीं लिया है।'' उसने मेरी ओर मुखातिब होकर हाथ के इशारे से बीड़ी मांगी।

‘‘तुम्हें बीड़ी की जगह सिगरेट मिलेगी, अभी वाला गाना ओर सुना दो।'' गौरव ने बड़ी स्टाइल से बायें हाथ को पेंट की दांयी जेब में डालकर एक फोर स्कवायर का पैकेट मुरारी को दिखाया।

‘‘हिरापति गुटका, बाजरे की रोटी..........जोधु मरा, खबर खोटी।''

बस, उसे एक सिगरेट मिल गई। गौरव और देवेंद्र को इस गाने की धुन बड़ी प्यारी लगी जो उसने इधर—उधर से मारने की बजाय जीवन के खांटी साज पर इजाद की थी।

‘‘मुरारी, यह खबर किस अखबार में आयी है?'' मेरा खबर के प्रति कौतुहल बढ़ा।

‘‘मुरारी एक्सप्रेस में, मुरारी सम्पादक, मुरारी प्रकाशक......।''

वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था, इतने में ही चाय की दुकान वाले ने उसे फिर से ‘पागल' करार दे दिया। उसे अपने बारे में की गई टिप्पणियों को शांत भाव से सुनने की आदत हो गई थी। उन लड़कों ने मुरारी से खूब ‘मजाक' किया लेकिन इतने में दोनों लकड़ियों के बचे—खुचे सीरे भी जल गये थे। चाय वाले के पास ऐसी चीज नहीं थी जिसको जलाने की मुशाफिरों को इजाजत हो, अब क्या करें......। गौरव ने कहा, ‘‘मुरारी, तेरे ये अखबार दे दे, कुछ देर तो चलेंगे।''

‘‘वे लॉन वाले कागज जला दो, सर्दी और झंझट दोनों मिट जायेंगे। मुरारी एक्सपे्रस को कोई नहीं जला पायेगा।'' वह अखबारों को तुरंत स्वेटर के नीचे छुपाकर तेज कदमों से चलने लगा।

‘‘यहां बैठे रहने से तो सर्दी ज्यादा लगेगी, चलो उस पागल के पीछे ही चलते हैं। अभी ट्रेन का टाइम है, कुछ दूर टहल ही लेंगे।'' गौरव का प्रस्ताव था।

देवेंद्र ने जब इसे स्वीकार कर लिया तो मुझे भी लगा कि यहां अकेले रहने से तो इनके साथ जाना ठीक है। हम तीनों इतने तेज चल पड़े, मुरारी तो सामने बीस कदम की दूरी पर ही जा रहा था, दौड़कर पकड़ लिया। मतलब, हाथ से नहीं पकड़ा, उसके साथ चलने लगे।

‘‘यह जोधु कौन था, कैसे मरा और लॉन वाला क्या मामला है?'' मेरे मुंह से निकली हुई भाप मुरारी के नाक से टकराई।

‘‘एक पागल से एक साथ इतने सवाली नहीं किये जाते। अब कर ही लिये, तो जवाब भी सबका साथ ही सुन लो। क्या नाम बताया था आपने मेरा.....हां, मुरारी। शहर बहुत छोटा था, यही जिसमें हम चल रहे हैं। कोई तीन बरस पहले की बात होगी, सर्दी थी या गर्मी थी, पता नहीं। अखबार में नौकरी करने के लिए आया था....। अबे, सुन रहे हो कि नहीं सुन रहे हो कहानी? कौन नौकरी करने आया था अखबार में?'' वह अचानक एक कम्पनी के नये लॉन प्लान को देखकर गुस्सा हो गया।

‘‘यह तो मैं कैसे बता सकता हूं, अभी तक तो तुमने कहानी में इसका जिक्र ही नहीं किया।''

उसके बाद वह कम से कम दस मिनट तक ‘जोधु मरा' वाला गाना गाता रहा और साथ में कुछ उटपटांग बातें भी। बोर होकर वे दोनों लड़के तो चले गये, बचा अकेला मैं।

‘‘आप का नाम क्या है?'' फिर से नॉर्मल होकर उसने मेरे से सवाल किया।

‘‘रामबक्स।''

सुनसान सड़क पर पुरानी दुकानों के नये दुकानदारों ने हार्टिंग और अन्य प्रचारक सामग्री से शहर को दबा रखा था। ऐसा लग रहा था कि पूरा शहर चिल्लाकर कहेगा— हटा दो सब पर्दे।

‘‘शकील आया था नौकरी करने। अखबार की नौकरी थी और नया शहर। अरे...हां, वह पढ़ाई पूरी करके आया था तो अपने पुराने शहर के बदलावों को समझना चाहता था। कॉलेज के लगभग यार—दोस्त शहर से बाहर जा चुके थे। तबेला गेट के पास वाले दुकानदारों में से बहुत से मर चुके थे जिनसे वह कभी चंदा लिया करता था और वे अपनी गरीबी का रोना रो बैठते। चांदपोल के आगे बड़े—बड़े शॉपिंग मॉल खुल गये थे, जहां कभी चुड़ी वालों के ठेले लगते थे। कॉलेज के सामने एसटीडी और पीसीओ की तमाम दुकानें गायब हो गई थी और उनकी जगह रेस्टोरेंट आ टपके थे।''

‘‘मुरारी यार, यह सब तो मुझे भी दिख रहा है लेकिन तुम मुद्‌दे पर आ जाओ, जोधु मरा क्यों था?'' मैं थोड़ा असहज हो रहा था।

‘‘देख! तेरे को कहानी सुननी है तो जैसे मैं सुनाऊं, वैसे सुना। पागलों से बहस नहीं की जाती।'' बेतरतीब दाड़ी में उसकी हंसी अजीब डर पैदा कर रही थी।

‘‘ठीक भई! तू सुना तो सही।'' मेरे पास कोई चारा नहीं था।

‘‘शहर के बारे में बता रहा था मैं तेरे को। इधर जो चार नई कालॉनियां बनी हैं, सब किसानों को डरा धमकाकर हड़पी हुई जमीन है। पुलिस व कानून...पूछो। यह सब उन्हीं के साथ थे। एक कम्पनी आयी थी — सूरमा। बड़े — बड़े सपने दिखाकर किसानों को लॉन दिया। ‘ब्याज बिल्कुल नहीं लेंगे' जैसी बात सुनते ही लाईन लग गई लोगों की। अनपढ़ किसानों से अंग्रेजी में एग्रीमेंट पर साइन करावा लिये, पंद्रह प्रतिशत ब्याज की दर। लोग बड़े खुश थे। यह भी तो पूछ लो ना कि जो पढ़े लिखे लोग थे, उनको तो पता होगा ही। उन्होंने किसानों को क्यों नहीं बताया? पूछो...। तब मैं ‘मुरारी' कहुंगा कि यह सब दिखावटी में ही किसान हितैषी बने हुए हैं, सब उनके साथ थे, कम से कम इस शहर के तो। किसानों पर कर्ज बढ़ता गया और उसी दर से शहर में मॉल भी।

उन्हीं में था जोधु, और खूब था जिद्‌दी। कहता था — ‘मर जायेंगे, जमीन नहीं देंगे। झूठ बोलकर हमें फंसाया गया है।'

तीसरी कॉलोनी बन रही थी। वही ‘शांति नगर' और जोधु जमीन को लेकर अशांत हो गया। हद देखो, कोर्ट चला गया और स्टे ले आया। अब क्या करें कम्पनी वाले। कॉलोनी बननी बहुत जरूरी थी क्योंकि इससे शहर के बहुत से लोगों को घर मिलने वाला था क्योंकि उन लोगों ने कम्पनी को पहले से पैसा देकर घर फिक्स करवा लिया था क्योंकि उनके पास दौलत की कमी नहीं थी क्योंकि वे देश का विकास कर रहे थे क्योंकि वे देश के नागरिक थे। और नागरिक तो जोधु भी था .........।

शकील रिपोर्टिंग में लगाया गया था और शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ कृषि की बीट उसी के पास थी। रोज खबरों का झंझट, जो लाये वह लगे नहीं और फिर ऑडर मिलता कि दफ्तर में बैठकर प्रेस रिलीज की खबर बनाये। औद्योगिक क्षेत्र में बने उनके अखबार के दफ्तर के सामने एक पंडित जी की चाय की दुकान थी, चुंकि इस दुकान से चाय सिर्फ उसी दफ्तर में सफ्लाई होती थी, इसलिए दुकानदार की जातिय पवित्रता बहुत जरूरी मानी गई, ऐसा शकिल को छोड़ तमाम कर्मचारियों का मानना था। हालांकि वह इसका विरोध किया लेकिन वह संख्या और मजहब दोनों के हिसाब से अल्पसंख्यक ......। सुबह सभी रिपोर्टरों की मिटिंग के दौरान चाय की दुकान पर जोधु अपना दुखड़ा लेकर पहुंचा रहता —

‘‘भाई! एक खबर तो म्हारी ही छाप दो। बड़ा अन्याय हुवै है।''

लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई। शकील को समझाया गया कि यह पागल है और वैसे भी इसकी खबर है ना, जनता से जुड़ी हुई नहीं है। और तुम तो जानते ही हो कि हम जनता की पत्रकारिता करते हैं, एकदम खांटी।

आज सुबह तीन बजे फोन पर एक सूचना मिली। शकील ने बाइक उठाई और सीधी हर्ष रोड पकड़ ली, ठंडी हवा के थपेड़े और खबर के जूनून ने उसके बदन में सरसराहट पैदा कर दी। सकड़ इस बकत सूनी ही रहती है, बिल्कुल नेतागिरी में ईमान की तरह। यदाकदा किसी दुध वाले का साईकिल मिल जाये तो कौन—सा ट्रैफिक जाम होता है। मुश्किल से दो किलोमीटर चला होगा कि दूर एक टे्रक्टर खड़ा हुआ दिखाई दिया। पास पहुंचा तो खबर थी, बिल्कुल ताजा। सड़क के किनारे बाइक खड़ी करके पास पहुंचा तो टे्रक्टर के नीचे एक आदमी दबा पड़ा था, शायद ऐक्सीडेंट होगा।

अरे.....यह तो जोधु..........। लेकिन यहां क्योें आया था। फटाफट दो तीन फोटो ले मारे। इतने में पुलिस आ गई। मौका मुआयना करके, लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गये।

दफ्तर का बकत शाम के पांच बजे होता है, शकील को गेट पर ब्यूरो चीप शास्त्री जी मिल गये — ‘‘मियां जी, दिनभर खाक ही छान रहे थे कि कुछ खबर—तबर लायें हैं ?''

वह बस सलाम करके अंदर चला गया। खबर बनाई और फिर डाली शास्त्री जी के लॉग—इन में। थोड़ी देर बाद शास्त्री जी ने उसे अपने केबिन में बुलाया।

‘‘यह झूठी खबरें करेंगे, तो दुकान बंद हो जायेगी। एक्सीडेंट को मर्डर बता रहे हैं।''

शकील ने बड़ी तमीज से कहा, ‘‘सर, यह रियली मर्डर है। मेरे पास सबूत हैं।''

‘‘मियां जी, सबूत का काम पुलिस का होता है हमारा नहीं। इस खबर को छाप देंगे तो पता है अखबार का कितना नुकसान होगा और आप किस पर संदेह जाहिर कर रहे हैं, अखबार के कमाऊ पूत हैं वे। यह तो झूठी खबर है, पुलिस ने भी एक्सीडेंट का केस बनाया। अगर सच्ची खबर होगी तो भी राजेंद्र जी के खिलाफ खबर छापने की हिम्मत किसी भी अखबार के संपादक तक में नहीं है। जाइये...अपना बोरिया बिस्तर बांध लिजिये।' शास्त्री जी तमतमा उठे।

‘‘कहां जाऊं सर ?'' शकील को कुछ समझ में नहीं आ रहा।

‘‘घर जाइये अपने, मेरे सर पर चढ़ेंगे क्या? आपने जो अनुशासनहीनता की है, उसके लिए आपको नौकरी से निकाला जा रहा है। कल नोटिस मिल जायेगा.....ऐ, चपरासी! इसे बाहर निकाल। सब कुछ अपवित्र कर दिया।'' शास्त्री जी दहाड़ रहे थे।

इतने में ट्रेन की सीटी बज जाती है।

‘मेरी गाड़ी आ गई मुरारी, फिर कभी मिलते हैं।' इतना कहकर मैं स्टेशन की तरफ दौड़ा, पीछे से आवाज सुनाई दी —

‘‘मुरारी नहीं, शकील।''