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Ek Subha Ka Mahabharat

9.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 65, शब्द-संख्या 21,981)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

एक सुबह का महाभारत

प्रकाश मनु

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545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

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जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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मेरी कहानियों के कई एक दर्जन से अधिक संग्रह छप चुके हैं और उन्हें पाठकों का बहुत प्यार और सराहना मिलती रही है। पर ई-बुक्स का क्षेत्र तो मेरे लिए एकदम अछूता ही था। ई-बुक्स के बारे में सुनता था तो उनके प्रति मन में एक विस्मय और कौतुक का-सा भाव रहता था। पर मेरी अपनी कहानियाँ भी ई-बुक्य के रूप में छपेंगी, यह तो कभी सोचा भी नहीं था। इसके लिए मुझे अपने छोटे भाई सरीखे, प्रिय मित्र और आत्मीय अनामीशरण बबल का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिसने बारबार आग्रह करके मेरा ध्यान इधर खींचा। और अब मैं बड़े रोमांच के साथ इस नए संसार में कदम रख रहा हूँ, जिसमें बहुत कुछ मेरे लिए नया-नया है और संभवतः पाठकों के बिलकुल नए वर्ग के बीच अब मेरी कहानियाँ पहुँच रही हैं। मेरे लिए इस सुख और रोमांच का वर्णन करना मुश्किल है। एकदम शब्दातीत...!!

यों तो मेरी कथा-यात्रा प्रारंभ से ही औरों से शायद कुछ भिन्न और रोमांच भरी रही है। इसलिए कि कविताओं से शुरुआत करने के बाद जब मेरी कहानियाँ सामने आईं तो बहुतों के लिए यह हैरानी की बात थी तो बहुत से मित्रों और पाठकों के लिए आनंद की भी। ऐसे बहुत पाठक भई मिले जो मेरी कहानियों को दीवानगी की हद तक प्यार करते थे और उन्होंने बातोंबातों में पिछली पढ़ी हुई बहुत सी कहानियों का जिक्र किया। उनका कहना था कि उन्हें मेरी हर नई कहानी की प्रतीक्षा रहती है। एक कथाकार के रूप में यह मेरे लिए एक विलक्षण अनुभव था, विलक्षण सुख भी।

याद आता है, जब ये कहानियाँ छपकर आईं—चाहे पत्र-पत्रिकाओं में या मित्रों विजयकिशोर मानव और देवेंद्रकुमार के साथ निकाले गए साझे संग्रह ‘दिलावर खड़ा है’ में, तो इन्हें सराहने वाले पाठक कहाँ-कहाँ मिले, उनकी अलग-अलग ढंग की उत्तेजक प्रतिक्रियाएँ कैसी थीं, इसकी चर्चा शायद खुद एक कहानी बन जाए। हाँ, इन प्रतिक्रियाओं में एक बात आश्चर्यजनक रूप से मिलती-जुलती और साझी थी कि इनमें से सभी को लगा था कि ये कहानियाँ एकदम सच्ची हैं। इन कहानियों के पात्र एकदम सच्चे हैं और ये कहानियाँ मेरी आत्मकथा के अनलिखे पन्नों में से चुपके-चुपके निकलकर आई हैं। बहुत-से मित्रों और पाठकों ने तो इन कहानियों को मेरे जीवन में सच-सच इसी रूप में घटित हुआ मानकर, उन पात्रों के बारे में और भी बहुत-सी बातें दरियाफ्त करनी चाहीं। मसलन, “मनु जी, अरुंधती क्या आपको फिर कभी मिली?... क्या वह अब भी उसी तरह दुख और अकेलेपन का बोझ ढो रही है?” और एक चंट पाठक ने तो बिलकुल बेलिहाज होकर, आँखें मटकाते हुए, साफ-साफ शब्दों में पूछ लिया था कि “देखिए, बुरा न मानिए मनु जी! मैं जानना चाहता हूँ कि क्या आप भी मिनी बस में उसी तरह ड्राइवर और कंडक्टर से झगड़ते हैं और पागलों की तरह लगातार चिल्लाना और भाषण देना शुरू कर देते हैं, जैसे ‘मिनी बस’ कहानी का नायक?”...

ऐसे और भी सवाल। कुछ बेहद तीखे भी, और कुछ बेहद दिलचस्प! इनमें से बहुतों के जवाब में सिर्फ हँसकर रह जाना ही काफी था, क्योंकि उन्होंने इन कहानियों के नायक को हटाकर पूरी तरह मुझे वहाँ फिट कर दिया था और अब वे हर चीज की कैफियत मुझसे चाहते थे। जबकि सच तो यह है कि वे आत्मकथात्मक कहानियाँ भले ही हों—और मेरी आत्मकथा के पन्ने किसी न किसी शक्ल में वहाँ जरूर फड़फड़ा रहे थे—पर ये कहानियाँ पूरी तरह आत्मकथा न थीं, हो भी नहीं सकती थीं। तो भी ये कहानियाँ पाठकों को एकदम सच्ची और जीवन में ठीक-ठीक ऐसे ही घटित होती हुई लगीं, इसे इन कहानियों की एक अलग खासियत तो मान ही सकते हैं। शायद यही चीज थी जो मेरी कहानियों को औरों से अलगाती थी। इनमें बहुत-सी कहानियों के पाठकों का कहना था, “आपकी कहानियाँ कहानी-कला के लिहाज से एकदम कटी-तराशी नहीं हैं। उनका यही अनौपचारिक अंदाजेबयाँ और खुरदरापन हमें रास आता है।”

मेरे कथा-गुरु दिग्गज कथाशिल्पी देवेंद्र सत्यार्थी ने शुरुआती दौर की लिखी मेरी ‘यात्रा’ कहानी सुनने के बाद जिस तरह मुग्ध और अभिभूत होकर आशीर्वाद दिया था और कहानियाँ लिखने की अपनी ही लीक पर चलते रहने का जो बल दिया था, उसे भूल पाना असंभव है। साथ ही उन्होंने कहानी को लेकर कबीर की उलटबाँसी की तरह जो मारक बात कही, वह मुझे आज भी कहानी के बड़े से बड़े शास्त्रीय सिद्धांतों से बड़ी लगती है कि—“याद रखो मनु, कहानी तुम नहीं लिखते, बल्कि कहानी तुम्हें लिखती है।” इसी तरह उन्होंने मुझे कहानी के एक और विराट सत्य का दर्शन कराते हुए कहा, “अगर तुममें कहानी को देखने की दृष्टि है, तो तुम देखोगे मनु, तुम्हारे सब ओर कहानियाँ ही कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। बस, उन्हें तुम्हारी कलम के स्पर्श की प्रतीक्षा है। तुम उन्हें प्यार से उठाओ और लिखना शुरू कर दो। वे देखते ही देखते तुम्हारे सामने हँसते-बोलते, चहचहाते या फिर उदास रंगों वाले जीवित संसार में बदल जाएँगी।”

‘एक सुबह का महाभारत’ पुस्तक में मेरी पाँच पसंदीदा कहानियाँ शामिल हैं। पाठकों की खुली और बेबाक प्रतिक्रियाओं की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

9 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

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कहानी-क्रम

1. अरुंधती उदास है

2. कुनु

3. मिनी बस

4. नंदू भैया की कहानी

5. एक सुबह का महाभारत

1

अरुंधती उदास है

प्रकाश मनु

*

स्टेशन पर रोज-रोज उसी गुम अँधेरे कोने में, उसी झाड़ के पास खड़ी दिखाई देगी कोई लड़की, गरदन एक खास भंगिमा में मोड़े हुए, तो उत्सुकता तो वह जगाएगी ही। और जाहिर है, कुछ न कुछ खास होगा ही उसमें।

जरूर होगा तभी तो बहुतों का ध्यान उधर रहता था। शाम की इस ई.एम.यू. में खासकर डेली पेसेंजर्स की ही भरमार रहती थी। सो लोग रोज-रोज देखते थे उसे गाड़ी का इंतजार करते। साथ-साथ या आगे-पीछे खड़े होकर खुद भी इंतजार-सा करने लगते थे। गाड़ी का। या शायद उसका—उस गरदन का जो एक खास कोण से मुड़ी होती थी और जहाँ देखती थी (देखकर भी नहीं देखती थी), वहाँ से इधर या उधर नहीं होती थी। मगर उस पर कोई खास नहीं पड़ता था। चेहरे पर खिंचाव तक नहीं। जैसे चेहरा न हो, चुप की एक झिल्ली-सी हो। भीतर और बाहर के बीच एक सख्त दीवार।

और तनाव तो उसके चेहरे पर तब भी नहीं आता था, तब बेवजह धक्का-मुक्की, धींगामुश्ती करते लोग उसी के साथ उसी कंपार्टमेंट में घुसने की कोशिश करते। और ऐन सामने बैठकर उसे घूर-घूरकर देखते।

“यह तनावहीनता किसी बड़े तनाव से आई है या फिर बड़े अभ्यास से।” मुझे लगा था। पहले-पहल इसी पर मेरा ध्यान अटका।

हालाँकि यह नहीं कि वह मुझे सुंदर नहीं लगी। उसकी सुंदरता से अप्रभावित रहना लगभग असंभव था। एक तरह की लयबद्ध लंबी, इकहरी काया—और उस अनुपात से थोड़ा और लंबी गरदन जो एक खास ढंग से मुड़ी रहती थी। (हंस-ग्रीवा शब्द से जबरन बच रहा हूँ!) लेकिन इससे भी अधिक सुंदर तो उसका खड़ा रहने का ढंग था। या फिर हलकी-हलकी उदासी जिसमें वह सिर से पैर तक लिपटी थी।

एकाध बार तो लगा, यह उदासी इसने सायास चिपका ली है—खुद को और बारीक और सुंदर दिखाने के लिए। ये सब भी चोंचले हैं अमीरों के। यों इसे क्या दुख हो सकता है भला? संपन्न घर की है। फिर खुद नौकरी करती है—आत्मनिर्भर! जीवन में कोई और भी दुख होता है क्या?

जो भी हो, मेरा ध्यान उसकी ओर गया, तो फिर कभी ढंग से लौटा नहीं। मैं एक दिलचस्प पहेली में कैद हो गया। कभी खोलता, कभी मन की किसी भीतरी परत में तह करके रख लेता। यानी जब भी थोड़ी फुर्सत में होता, मैं उसके बारे में सोच लेता। और यह सोचना मुझे अच्छा लगता।

स्टेशन पर उसके साथ खड़े होने वालों में मैं नहीं था। पर हाँ, झूठ क्यों बोलूँ! प्लेटफार्म पर आते ही मेरी आँखें पहलेपहल उसी कोने की ओर घूमती थीं। एक बार वह दिखाई दे जाए, बस। फिर मैं निश्चिंत होकर प्लेटफार्म पर चहलकदमी करने लगता। और जिस दिन भी वह न आए, दिन का समापन मुझे बड़ा फीका-फीका, रूखा-रूखा लगता। इसे चाहे तो कहें रिश्ता, जो उसमें और मुझमें अनजाने पनप गया था। या (ज्यादा सही तो यह था) मैंने ही जबरन पनपा डाला था।

2

कुछ दिनों बाद मेरे भीतर इच्छा होने लगी, इससे दो बात तो करूँ। और कुछ नहीं, तो नाम ही पूछ लूँ। और एक दिन तो वाकई मन हुआ, सीधे जाकर कुछ पूछ लूँ, “ऐसी क्या पहेली सुलझा रही हैं आप, जिसे सुलझाते-सुलझाते खुद पहेली बन गईं?”

तुरंत भीतर जो सही आदमी था, उसने चाँटा जड़ा, “यह तो सरासर बत्तमीजी है यार! कोई कैसे जिए न जिए, तुम्हें क्या? अजीब अहमक हो।” और उठते कदम रुक गए।

यों हैरानी इस बात की है कि उससे बोलने-बतियाने की बात दिमाग में आती, तो हिचक बिलकुल नहीं होती थी। जैसे जाऊँगा और सीधे बात कर लूँगा। ठीक से देखे, जाने बगैर भी, न जाने कैसा यह अंतरंग विश्वास था।

और अगर भय, संकोच था तो उस भीड़ का जो उसे आँखों में कैद किए रहती। मान लो मैंने कोई बात कही और उसने जवाब नहीं दिया, या फिर कुछ ज्यादा ही हँस पड़ी या एकदम खामोश हो गई—बर्फ की मानिंद! मान लो...मान लो—मैं एक भँवर की-सी गिरफ्त में आ गया।

लेकिन बाद में पता चला, जैसे मैं उसे जानता था, वह भी मुझे जानती जरूर थी, यह अलग बात है कि वह मेरे बारे में वैसे सोचती न हो। और दो-एक समानताएँ भी थीं। जैसा थैला वह लटकाए रहती थी, मेरे कंधों पर भी करीब-करीब वैसा ही थैला टँगा होता। यह दीगर बात है कि उसका थैला कुछ-कुछ रेशमी डिजाइनदार, हलका-फुल्का और खासा साफ-सुथरा होता। और मेरे खद्दर के बदरंग, मैले-कुचैले थैले में ठसाठस भरी किताबें किसी भीड़भरी डी.टी.सी. बस की याद दिलातीं! वह प्लेटफार्म पर एक तरफ, एक कोने में खड़ी रहती और मैं गाड़ी आने तक प्लेटफार्म के तीन-चार चक्कर लगा चुकता।

और मुझे लगता था, उसकी न घूमने वाली निगाह, कभी-कभी बहुत बेमालूम ढंग से, आहिस्ते से मेरे थैले को टटोल लेती है।

एक दिन इसका सबूत भी मिला। और उसी दिन परिचय की एक धीमी शुरुआत भी हुई।

उस दिन गाड़ी कुछ ज्यादा ही लेट थी। और मुझे घर पहुँचने की जल्दी। एक मित्र को समय दिया हुआ था। हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी प्लेटफार्म के चक्कर काट रहा था। करीब पौन घंटा देर से गाड़ी आई, तो भीड़ उसमें दाखिल होने के लिए बेकाबू हो चुकी थी। मैं भी भीड़ के बीच से रास्ता बना रहा था कि अचानक मेरा थैला उससे टकराया। भीड़ में वह भी थी। मैंने देखा ही नहीं।

“माफ कीजिए, आपको...!” मेरे मुँह से डरे-डरे, बदहवास-से दो-एक शब्द निकले। किताबें जिस तरह ठुँसी थीं, उससे लगा, चोट जरूर आई होगी। मुझे शर्म आ रही थी।

उसने मुझे देखा, तो हँस दी, “नहीं...नहीं, भई, किताबों का भी क्या लगना।”

एक क्षण के लिए मैं चौंका। मुसकराया। फिर भीतर जाने वाली भीड़ में शामिल हो गया। आज कोने वाली सीट नहीं मिलेगी, यह तय था। फिर भी मैं कोशिश कर देखना चाहता था। आखिर कोने वाली सीट नहीं मिली तो मैंने ऐसी सीट खोज निकाली, जहाँ से सीधा नहीं, तो थोड़ा-बहुत ही बाहर का कुछ दिखता रहता।

यह दिखना मेरी जरूरत थी। नहीं तो दम घुटता था—इसीलिए हर बार कोने वाली सीट की मुझे तलाश रहती थी।

मैं खीजा हुआ सा बैठा था। एक दोस्त की कविताओं की किताब निकालकर पढ़ने लगा। थोड़ी देर में देखा, तो वह चली आ रही है। होंठों पर हलकी चंचलता, जो अक्सर होती नहीं थी।

“आज तो आपकी सीट चली गई। मेरी वजह से...!” बगल की सीट पर टिकते हुए बोली।

“नहीं, किताबों की वजह से।” जाने क्यों मुझे उतनी हैरानी हुई नहीं, जितनी होनी चाहिए थी। एकदम सहज लगा उसका आना, कि जैसे उसे आना ही था।

“आप इतनी सारी किताबें...?” उसने निगाहों से मेरे थैले को टटोलते हुए पूछा।

“अ...हाँ, जाने किसकी जरूर पड़ जाए? बचपन में भी जितनी कापी-किताबें, रबर, पेन, पैंसिल होती थीं, सब बस्ते में ठूँसकर ले जाता था कि पता नहीं, कब किसकी जरूरत पड़ जाए।”

वह हँसी, “यानी टाइम टेबिल पर आपका यकीन नहीं?”

“नहीं, कतई नहीं। मुझे लगता है, कभी भी कुछ भी हो सकता है और हमें हर वक्त लैस रहना चाहिए।” मैं हँसा, तो साथ-साथ वह भी हँस दी, “और आपको नहीं लगता, इसके बावजूद जो होना है, वह तो होकर ही रहता है...?”

3

अब के मैं चौंका। कहाँ से बोल रही है यह? कहाँ से आती है इतनी छीलती हुई निर्ममता? मुझे तब लगा, उतनी तटस्थ कहाँ थी वह? उसका न देखना भी क्या एक तरह का देखना ही था।

थोड़ी देर बाद उसके चेहरे पर खिलंदड़ा-सा भाव आ गया, “आपको जब भी देखा, खिड़की से बाहर देखते देखा। क्या देखते हैं बाहर?”

“जो भीतर नहीं है।”

“मिला?”

“अभी तो नहीं।”

“कोशिश करते रहिए। कभी न कभी...!”

वह हँसी है। खूब खुलकर। मैं भी।

थोड़ी देर बाद सीरियस हुई, “आप लेखक हैं?”

“हूँ तो नहीं, बनना चाहता था। फिलहाल आप कह सकती हैं, लेखक की पैरोडी...!”

“और आप?”

“वैसे तो पत्रकार हूँ। लेकिन असल में पत्रकार की पैरोडी!”

“क्यों-क्यों...?” मैंने उत्सुकता जताई।

“औरतों की एक पत्रिका है। उसमें अचार, मुरब्बे, स्वेटर के डिजायन बनाने की विधियाँ समझाती हूँ। अगर यह पत्रकारिता है तो मैं पत्रकार हूँ।” हँसते-हँसते वह अचानक उदास हो गई।

फिर वह अपने काम और साथी लड़कियों, औरतों के बारे में बताती रही। हँसती रही। इस हँसी के भीतर का खालीपन कभी पकड़ में आता रहा। कभी हँसी के साथ बह जाता रहा।

स्टेशन आया, तो गाड़ी से उतरकर कुछ देर खड़ी रही। फिर चलते-चलते बोली, “अरुंधती है मेरा नाम। आप मेरे नाम से बुलाएँ, तो अच्छा लगेगा। जरा मुश्किल तो है!”

“उतना मुश्किल तो नहीं, जितनी आप हैं।” मैं हँसा। सही मौके पर एक बढ़िया डायलॉग मार पाने की खुशी।

वह भी हँसी। फिर उस हँसी पर ठंडी बर्फ-सी जम गई। फिर वह चली गई। उस दिन घर जाते हुए सोचता रहा—यह उतनी खुश तो नहीं, जितनी बातों से लग रही थी। उतनी उदास भी नहीं, लेकिन...

उदासी भी क्या कोई छूत रोग है? वह दिन है और आज का दिन, एक उदासी-सी मुझ पर लिपटती चली गई।

4

उस दिन के बाद अक्सर मिल जाती। जब कभी उसके पास से गुजरता, मुसकराकर नमस्ते कर लेती। दो-एक मिनट के लिए मैं रुक जाता। भीड़भरी निगाहों के बीच दो-एक मिनट कुछ गैर-जरूरी बातचीत होती। फिर मैं उसी तरह चहलकदमी करने लगता।

कभी-कभी वह मेरे पास या सामने वाली सीट पर आकर बैठ जाती। कुछ देर बात चलती, लेकिन फिर उखड़ने लगती। फिर वह कोई पत्रिका निकालकर पढ़ने बैठ जाती। मैं भी हाथ में कोई किताब लिए खिड़की के बाहर देखने लगता। वह कुछ याद करने की कोशिश करती, मैं भी। बाजी उसी के हाथ लगती। उसे किसी सहकर्मी की कोई मजेदार मूर्खता याद हो आती। बीच-बीच में सुना डालती। मैं खुश होने का नाटक कर लेता। और करता भी क्या? उसके पास तो फिर भी बातचीत का एक स्थायी विषय था, मेरे पास वह भी नहीं। सो पहले दिन वाली उमंग, उत्साह फिर कभी आया नहीं।

जाते-जाते, उठने से पहले वह एक खाली-खाली नजर डालती किसी आदत की तरह। उसके मुँह से निकलता, “अच्छा, नागेश जी...!”

“अच्छा!” मैं कहता, इससे पहले वह जा चुकी होती।

कभी-कभी उसका शायद अकेले रहने, कुछ भी बात न करने का मन होता। यों भी बात हो नहीं पाती, यह कठिनाई उसने भी भाँप ली थी। तब वह दूर किसी सीट पर बैठती। तो भी कभी-कभी दूर से ही दिखाई पड़ जाती। उसकी पीठ पर छितराए बाल, झुकी हुई गरदन, हथेली पर सधा चेहरा। कभी-कभी वह दोनों हाथों से आँखें पोंछने लगती। तब भ्रम होता, वह रो रही है या रुलाई रोकना चाह रही है! मैं हड़बड़ा जाता। फिर लगता—नहीं, यह उसका ढंग है, उदासी पोंछकर खुद को चैतन्य रखने का!

लेकिन यह जो बिना बात का ठहराव—बिना बात जमती जा रही बर्फ थी, उसका कारण? क्या किसी आगत क्षण की संभावना से भयभीत थे हम दोनों? मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था। और वह? किसी उलझाव में तो थी ही वह।

एक दिन वह ऐसे ही दूर किसी सीट पर बैठी थी और उसकी पीठ दिख रही थी। पीठ पर छितराए बाल और... और एक खास खम देकर मोड़ी हुई गरदन। मुझे उसकी पीठ बोलती हुई-सी लगी। (सच कहूँ कोई बोलती हुई पीठ जिंदगी में पहली बार दिखी!) और लंबी गरदन का खम, बेपरवाही से बिखरे बाल—सब कुछ! जैसे, जितना वह नहीं बोल पाती, उससे ज्यादा उसका मौन कह रहा हो, तब भी...!

‘लेकिन वह...वह असल में बोलती ही कब है? वह तो सिर्फ शब्दों की दीवार खड़ी करती है, जिससे मैं उस तक जा न पाऊँ। क्यों, क्यों करती है वह ऐसा?’ मैं बेचैन होकर सोचता रहा।

‘अच्छा, किसी दिन इससे बात करूँगा।’ घर जाते-जाते मैं सोच रहा था।

और उसके बाद कई रातें बड़ी मुश्किल से कटीं। सपनों में उसकी पीठ, (नहीं, उसकी बोलती हुई पीठ!) उसके बाल, उसकी गरदन बल्कि कहना चाहिए, उसकी मुड़ी हुई खूबसूरत गरदन और हथेली पर रखा चेहरा...एक-एक कर मेरे सामने आते, फिर गड्डमड्ड हो जाते। फिर सिर्फ गरदन रह जाती, मुड़ी हुई तिरछी, लंबी गरदन जो कुछ आगे झुकी होती और मेरे होंठ...! मैं खुद को बहुत लाचार पाता।

5

फिर एक दिन की बात है। सर्दियों की शाम। गाड़ी का इंतजार करने वालों की भीड़ कम थी। शायद कोई छुट्टी थी उस दिन। मैंने बेसब्री से उसी परिचित कोने पर निगाह घुमाई। वह नहीं थी। मैं निराश सा प्लेटफार्म पर चलकदमी कर रहा था कि अचानक वह दिखाई दी। एक बेंच पर बैठी थी। चेहरा फिल्मफेयर में छिपा था। मैं हौले से पास जाकर खड़ा हो गया।

सामने मुझे देखकर चौंकी, “आप...?”

मैं हँसा, “आज तुम्हें ढूँढ़ने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ी अरुंधती।”

वह भौंहों में हँसी, “क्यों भई?”

“इसलिए कि आज तुम अपनी परिचित जगह पर, परिचित अंदाज में नहीं!”

वह हँस पड़ी, “तो क्या में कोई अभिशप्त यक्षिणी हूँ, कवि जी!”

“वह तो यकीनन तुम हो अरुंधती। चाहे तुमने उस बारे में कुछ बताया नहीं, पर है यह सौ प्रतिशत सच...?”

“आप एक बात बताएँगे नागेश जी? पुरुष हर मामले में अपने आपको अफलातून क्यों समझता है?” उसने चिढक़र कहा।

“तुम्हारा मतलब है...मैं ठीक नहीं कह रहा?”

शायद इतने सीधे सवाल की उसे उम्मीद नहीं थी। “ठीक है, नहीं भी,” वह नीचे देखने लगी।

कुछ देर चुप्पी। अचानक कह बैठता हूँ, “अच्छा...बुरा न मानो अरुंधती, तो एक बात कहूँ। तुम्हें देखकर कुछ अजीब-अजीब लगता है।”

“क्या?”

“ठीक-ठीक बता तो नहीं सकता। लेकिन लगता है, अकेलेपन का एक वीरान जंगल है, जो हर वक्त तुम्हारे साथ-साथ चलता है। जहाँ-जहाँ तुम जाती हो, पीछा करता है। और उस जंगल में हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है। हर वक्त...”

“तो इसमें अजीब क्या है?” उसने उसी ठंडेपन से कहा, “वह तो हम सबके साथ है। क्या आपके भीतर नहीं? यह खिड़की के बाहर हर वक्त किसी की तलाश! और जो आपके पास बैठा है, वह कोई नहीं, कुछ नहीं...!”

“लेकिन अरुंधती, लेकिन...!” और तमाम लेकिन-वेकिन के बावजूद जवाब कुछ बना नहीं था मुझसे। शायद जरूरत थी भी नहीं।

लेकिन यह तय हो गया था, वह उतनी सरल, इकहरी है नहीं, जैसी ऊपर से दिखाई देती है।

फिर उस दिन कोई और बात नहीं हुई। चलते समय मैंने कहा, “माफ करना, तुम्हें बुरा लगा।”

“नहीं बुरा नहीं—बुरा क्यों लगेगा? आपको जो लगा, वही तो कहेंगे। इसमें गलत क्या?”

खाली, एकदम खाली नजरों से उसने मुझ देखा। फिर चली गई।

उस दिन मैं बुरी तरह खुद को धिक्कारता फिरा, “अजीब कूढ़मगज हो यार! तुम्हें क्या जरूरत थी किसी के भीतर खलल पैदा करने की? उसका अतीत, वर्तमान तकलीफें! जाने कोई कैसे-कैसे दुख ढोता फिर रहा है और तुम...?”

6

लग रहा था, अब उससे मिलना नहीं होगा। लेकिन हुआ उलटा ही।

इसके तीन-चार दिन बार मिली, तो खूब खुश दिखाई दे रही थी। खूब चहक भी रही थी, “नागेश जी, किसी दिन आपकी ढेर सारी कविताएँ सुनने का मन है, कभी सुनाइएगा? कभी क्यों, आज ही। मैं कवि न सही, पाठक बहुत अच्छी हूँ। अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर और नए से नए कवियों को पढ़ा है। आपको अचरज हुआ?”

“...मैंने बताया जो नहीं! अच्छा, एक बात बताइए, कैसे लिख लेते हैं आप लोग? मेरा मतलब है, कवि...”

मैं सुन रहा था। नहीं भी सुन रहा था। मैं असल में कुछ और सोच रहा था। वह इतनी खुश तो नहीं ही है। तो क्या यह कोई और परदा है? लेकिन किसलिए—किससे बचाव...कैसा छिपाव?

गाड़ी रुकी, तो उसने हाथ पकड़कर मुझे भी उठा लिया, “आज आप मेरे साथ चल रहे हैं, मेरे घर...!”

गाड़ी से उतरकर मैंने पूछा, “भई, किस खुशी में?”

“जन्मदिन है किसी का आज।”

“किसका?”

“जो कह रहा है।”

फिर अचानक सीरियस हो गई, “आपको दिक्कत तो नहीं होगी नागेश जी। शायद देर हो जाए!”

“नहीं...नहीं, कितने लोगों को बुलाया है? फिर मैं कोई प्रेजेंट...!”

“आप भी ऐसी लफड़ेबाजी करते हैं क्या?” उसने भरपूर खुली आँखों से मुझे देखा और हँस पड़ी। फिर बोली, “किसी को नहीं बुलाया। कोई और है भी नहीं इस शहर में...”

मैं तय कर लेता हूँ—चलूँगा। कोई पाँच मिनट पैदल चलने के बाद उसका कमरा।

जाते ही उसने दरवाजा खोला। मुझे बैठाया। पानी का गिलास दिया। कुछ ही देर बार कपड़े चेंज करके आई। शायद हलका आसमानी-सा गाउन...और चाय बनाने में व्यस्त हो गई। मैं अलमारी में रखी किताबें टटोलने लगा। वह चाय लेकर आई। एक प्लेट में मिल्क केक।

मैंने एक टुकड़ा उठाया, उसके मुँह में ठूँस दिया। उसने मुसकराने की कोशिश की तो चेहरा जरा व्रिदूप हो गया। साफ जाहिर है, वह सहज नहीं हो पा रही। निकटता और दूरी के बीच एक समीकरण जो कभी सही हो जाता है और अगले पल फिर गलत।

चुपचाप चाय खत्म की। ‘जन्मदिन मुबारक’ कहना मुझे दुनिया के सबसे कठिन कामों में से एक लगता है। तो यह नाटक भी नहीं ही हुआ।

फिर बात किताबों की ओर मुड़ी। वह उत्साह से उपन्यास, कविता, कहानी-संकलन दिखाती रही। बीच-बीच में इधर-उधर की बातें।

“अच्छा शौक है तुम्हारा। कुछ किताबें मेरे काम भी आएँगी, चुरा ले जाऊँगा।”

वह हँस पड़ी है। यह हँसी भी मुझे असली नहीं लगी है।

चलने से पहले फिर एक नजर कमरे पर डाली है। फिर अचानक मेरे मुँह से निकला, “भई, अपना एलबम तो तुमने दिखाया ही नहीं।”

“कैसा एलबम?” वह चौंकी।

“जैसा अमूमन हर लड़की के जीवन में एक होता है।”

“आपको कैसे पता?” उसने भयभीत नजरों से कमरे में इधर-उधर देखते हुए कहा।

“पता नहीं। तुम्हें पहली बार देखा था, तभी से...कुछ घटा है तुम्हारे साथ!”

गरदन झुक गई उसकी, “वह तो कहानी खत्म हो गई अब। कैसा एलबम?”

“अगर मुझे बताना ठीक नहीं लग रहा तो...छोड़ो, रहने ही दो।” मुझे कोफ्त हो रही थी अपने आप पर। गधा आखिर गधा रहेगा। क्यों यह मूर्खता का विषय छेड़ दिया?

“नहीं...नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।” उसकी आवाज एकदम सर्द, बर्फ से लिपटी हुई, “वह कोई एक था...मैंने तो सिर्फ उसे एक ही बार देखा, विवाह-मंडप में। शादी से पहले इतना ही पता था कि स्टेट्स में नौकरी करता है। अजय...अजय साहनी! मैं अभी पढ़ना चाहती थी। माँ के जोर देने पर मना नहीं कर पाई। वह तीन दिन रुका था शादी के बाद, कुल तीन दिन। फिर कहकर चला गया, ‘जल्दी ही तुम्हें भी स्टेट्स बुलवा लूँगा।’ और फिर कुछ पता ही नहीं। कुछ महीने ससुराल रही, फिर उस घुटन से छूटकर आ गई।”

“लेकिन...लड़के के माँ-बाप?” मैंने अटकते हए पूछा, “उन्होंने कुछ नहीं किया?”

“उन्हें क्या फर्क पड़ता है?” उसका चेहरा ठंडा था, बर्फ से ज्यादा ठंडा। “सामाजिक रीति निभानी थी, उन्होंने निभा दी। वह किसी और लड़की के साथ रहता है। बहुत जोर देने पर शादी के लिए मान गया। अब किसी की जिंदगी बर्बाद हो गई, तो उसे क्या?”

“लेकिन अरुंधती, तुम्हारे पेरेंट्स, भाई वगैरह...”

“परेशान तो सब थे। लेकिन अंदर-अंदर सब मुक्त हो चुके थे। अब उन्हें यह फालतू भार लग रहा था। माँ-बाप दोबारा भार ओढ़ना नहीं चाहते थे, ससुराल में रहने पर जोर दे रहे थे। भाइयों के लिए अपनी-अपनी गृहस्थी उनकी पूजा थी। मैंने एक होटल में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कर ली। शुरू-शुरू में घर वालों को बुरा लगा, फिर सब मान गए।”

कुछ रुककर बोली, “मान ही जाते हैं घर वाले—न भी मानते, तो भी बर्बाद हो चुकी लड़की का आखिर कुछ तो अधिकार होता ही है। मुझे जिंदा रहना था हर हाल, हर सूरत, हर बदसूरती में। मैं तय कर चुकी थी। और उस अधिकार का प्रयोग करने में मैं किसी भी हद तक जा सकती थी।” कहते-कहते उसका चेहरा किसी गहरी चोट खाए पत्थर की तरह फट गया।

एकाएक हिंसक लगने लगी वह, जैसे कोई और ही अरुंधती उसमें आकर बैठ गई हो। फिर कुछ देर बाद लौटी। कुछ सामान्य हुई, लेकिन इस विप्लव के निशान अब भी चेहरे से गए नहीं थे। पूरी तिलमिलाहट के साथ मौजूद थे, “और मेरा वर्तमान यह है कि तीन सालों से पत्रकारिता में हूँ। औरतों को अचार-मुरब्बे बनाने की विधियाँ और सुखी दांपत्य जीवन का रहस्य समझाती हूँ।”

उसने हँसते-हँसते कह तो दिया, लेकिन हँसी थमी तो मैंने नोट किया, एक कसैली मुसकान अब भी उसके होंठों से चिपकी रह गई थी। उसे देखकर कोई भी डर जाता।

मैं एकबारगी जैसे हिल गया। लगा, उसकी सीधी नजरों का सामना नहीं कर पाऊँगा। कुछ और पूछना भी बेमानी थी। मगर ऐसे ही बेसाख्ता निकल गया, “फिर कुछ और नहीं सोचा?”

“सोचा, लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है? दो-एक लोग आए जीवन में। एक बार शादी की बात भी हो गई थी, लेकिन वह कायर निकला, भाग खड़ा हुआ। दूसरा भी...!” उसका चेहरा फिर किसी गुफा की तरह वीरान, हिंसक हो गया।

“और धीरे-धीरे अब आदत पड़ गई है। अकेलापन अब काटता नहीं, बल्कि इस आदत मे विघ्न पड़े तो तकलीफ होती है। यों दफ्तर में कुछ दोस्त-सहेलियाँ हैं, आसपास लोगों का होना, लोगों का घूरना है। आप जैसे लोगों की संवेदना है! कुल मिलाकर यह सब एक मशीन का हिस्सा है, जो हर वक्त मुझे काटती रहती है। एक-एक अंग कटकर गिरता है और मैं खुश होती हूँ। मैंने...मैंने नागेश जी, ऐसा ही जीवन स्वीकार कर लिया है।

“और अब तो कुछ और सोच ही नहीं पाती। सबके अपने-अपने दुख, अपनी तकलीफें हैं। उन्हें लिए-लिए चलो, चलते रहो, किसी को भेदने न दो, अब तो यही जीवन की शैली बन चुकी है। किसी और तरह से जीने के बारे में सोच तक नहीं पाती। और यह भी मंजूर नहीं है कि कोई मेरा जीवन मुझसे छीनने की कोशिश करे!”

“अरुंधती...?” मेरे मुँह से एक हलकी चीखृ-सी निकली है।

मैं उससे कहना चाहता हूँ—मैं भी बहुत अकेला हूँ अरुंधती। उतना ही अकेला और उदास जितनी तुम हो। वैसा ही अकेलापन मुझे भी काटता है...और अगर तुम चाहती हो तो...

लेकिन अरुंधती के चेहरे पर एक साथ इतने रंग आ-जा रहे हैं कि कुछ कहना तो क्या, सहन करना तक...! हर रंग गहरी नफरत में उबल रहा है वहाँ।

अब और रुका नहीं जाता। घड़ी में देखा, साढे़ नौ। उसका हाथ मेरे हाथ में है—पसीने-पसीने।

बहुत धीमे से कहता हूँ, “चलूँगा अरुंधती।”

एकाएक वह कहीं ऊँचे, बहुत ऊँचे से उतरती है। बड़े ही तटस्थ, सहज स्वर में कहती है, “हाँ नागेश, अब तुम जाओ। बहुत समय हो गया...!”

7

अगले दो-तीन वह दिखाई नहीं दी। मेरे भीतर हर वक्त एक हाहाकार...! मैंने उसे क्यों दुखाया? क्यों? क्यों हलचल पैदा कर दी उसके अतीत में जिसे वह एक जड़ पत्थर की मानिंद ठुकरा चुकी थी!

कई तरह की बातें...कई तरह के विचार आते। मैं एक अजीब से ऊहापोह की गिरफ्त में। और एक नुकीले पत्थर-सा गिल्ट, “ससुरे, तुम भी उसके हालात का मजा लेने चले थे।” कोई अगर देख पाता तो देखता, मैं रात-दिन अपने गाल पर तमाचे मार रहा था। खून जम गया था।

फिर एक दिन वह दिखाई दी। मैं गाड़ी से उतरकर घर जाने के लिए मुड़ा था, तभी।

“नागेश जी!” वह पास आई थी। चेहरा थका-थका सा, जैसे कई रातों से सोई न हो। कोई आध-एक मिनट खड़ी रही। चुपचाप। फिर एक लिफाफा पकड़ाया। फीकी-सी मुसकराहट के साथ “नमस्ते” कहकर चली गई।

“नमस्ते...!” मेरे हाथ हवा में झूलते रह गए।

रिक्शा में बैठा हूँ। रास्ते भर एक भूचाल-सा मेरे भीतर फटता, शोर मचाता रहा। एक समंदर है और लहरें तड़प रही हैं—हा हा हा हा हा! एक जहाज है जो हाहाकार करती आँधियों के बीच थरथरा रहा है।

8

घर जाते ही हड़बड़ाकर लिफाफा खोला है। अंदर किसी कॉपी से, नहीं शायद डायरी से फाड़ा गया एक पीला-सा कागज है। नहीं, कागज नहीं, पत्र...

“नागेश जी,

आपमें एक दोस्त मिला था, लेकिन...मेरा दुर्भाग्य आड़े आ गया। रात देर तक सोचती रही। आपके आगे झूठ बोलना नामुमकिन है, मन का सब खुल पड़ता है। मैं मुश्किल में पड़ जाती हूँ। रात मैंने बरसों बाद अपने भीतर झाँका, तो लगा, वहाँ सब कुछ गड्डमड्ड है। सिर्फ लपटें हैं, लाल-पीली लपटें...शवदाह! उस सड़ाँध में एक साफ कोना तक नहीं बचा किसी के लिए। आपको कहाँ बिठाऊँ? आइंदा से मुझसे न मिलें। कर सकेंगे? मेरी खातिर। मैं जैसी भी हूँ सुखी-दुखी, अपने लिए हूँ। किसी को इजाजत नहीं देना चाहती कि मेरी उदासी में झाँके...कि लोग कहें, अरुंधती उदास है...!”

कागज मेरे हाथों में काँप रहा है और काँपते शब्दों में अरुंधती का पीला, उदास चेहरा, जो धीरे-धीरे एक तंग अँधेरी गुफा में बदलता जा रहा है।

**

2

कुनु

प्रकाश मनु

*

आज सुबह से फिर कुनु की याद। अपने उस लाड़ले बेटे का लड़ियाना याद आया आज फिर। आज फिर कुनु की मरती हुई आँखें याद आईं।

जाने क्या बात है, जब-जब बाहर की मार और घमासान से भीतर का कोई हिस्सा मरता है, भीतर का कोई बेशकीमती, मूल्यवान और अंतरंग हिस्सा...या फिर ऐसे ही किसी मरे हुए की, ऐसी ही अपनी किसी मौत की याद आती है, तो उस बेतरह छटपटाहट में कुनु पूँछ हिलाता हुआ सामने आ खड़ा होता है। फिर कुछ ऐसी अजब-सी प्यारभरी आँखों से देखता है कि मैं एक साथ हँसता हूँ, रोता हूँ। रोता हूँ, हँसता हूँ और उस पर निसार जाता हूँ।

कुनु! आखिर क्या था कुनु मेरे लिए? उसकी कहानी भी क्या किसी कहानी जैसी कहानी में आएगी? और मैं किसे सुना रहा हूँ उसकी कहानी...किसलिए? क्यों? लेकिन सुनाए बिना रह भी तो नहीं सकता।

कुनु—यही नाम दिया था शुभांगी की ममतालु पुचकार ने उसे। पता नहीं कहाँ से फूटा था यह उसके भीतर से। मिट्टी और चट्टानों को फोड़कर आए किसी शांत, भीतरी सोते की एक लहर की तरह, कुनु! जंगल में गूँजती किसी आकुल पुकार की तरह—कुनु! कुनु! कुनु! और हमें लगने लगा था, हम दोनों को—कि इससे शानदार नाम इस शानदार जीव का कोई और हो ही नहीं सकता।

आज फिर मेरी कलम उसके ‘होने’ और ‘न होने’ के बीच थरथरा रही है।

*

आखिर क्या था कुनु मेरे लिए, मेरे और शुभांगी के लिए? हमारे दांपत्य जीवन के पहले ही अध्याय में, जो धूल-धक्कड़ और आँधियों से सना हुआ था!...मगर आखिर यही समय क्यों तय किया था उसने हमारे घर, हमारी जिंदगी के उदास रंगमंच पर प्रवेश के लिए। और आया भी तो ऐसा क्यों, कैसे होता चला गया कि उसके बिना जीना हमें अपराध लगने लगा।

उफ! आज फिर कुनु के मरती हुई आँखें याद आ रही हैं। और उन आँखों में छलछलाता प्यार, मनुहार, जिदें—सभी कुछ।

एक छोटा-सा जीवन जिसने छह-आठ महीनों में मार तमाम ऊधम मचा के रख दिया था। कू-कू-कू से लेकर भौं-भौं-भौं तक। जब उसे नुकीली चोंचों से हलाल करने को तैयार, शैतान ‘काक मंडली’ से बचाया था, तब क्या पता था कि वह नन्हा-सा काला चमकीला पिल्ला इस कदर घर बना लेगा हमारे भीतर...कि हर वक्त होंठों पर ‘कुनु...कुनु!’ और कुनु यहाँ, कुनु वहाँ...कुनु कहाँ-कहाँ नहीं। हर जगह वह मौजूद था। हमारे पूरे घर में नटखट स्नेह और शरारतों की शक्ल में व्याप्त थी उसकी उपस्थिति। और वह इस कदर लाड़ला हो गया था कि जोर-जबरदस्ती से अपनी जिदें मनवाने लगा था। हमारे बाहर जाने पर वह रोता था। अकुलाकर पंजे मारता था दीवारों पर, खिड़कियों पर और सात तालों के बावजूद किसी जादूगर की तरह निकल आता था बाहर!

ओह, जिस क्षण बिजली की तरह दौड़ता और खुद को विशालकाय शेरनुमा जबर कुत्तों से बचाता हुआ, वह सड़क पर आकर हमारे पैरों पर लोट जाता था, उस क्षण का गुस्सा, प्यार, गर्व, रोमांच...! वह सब, अब क्यों कहें, कैसे! अलबत्ता सब कुछ भूलकर उस क्षण हम उसे सारे रास्ते भीमकाय कुत्तों से बचाने और सुरक्षित घर ले आने की पारिवारिक किस्म की चिंताओं से घिर जाते थे। हालाँकि कुनु के गर्वोद्धत चेहरे पर जरा भी डर तो क्या, एक शिकन तक नजर नहीं आती थी। जैसे इन बड़े-बड़े झबरीले कुत्तों को चरका देना उसके बाएँ हाथ का खेल हो। और घर में तो वह शेर होता ही था। चाहे बगल वाली सड़क पर हाथी आए या ऊँट या विशाखनंदन या शूकर, कुनु की भौं-भौं वाली गुर्राहट से बचकर जाना मुश्किल था। पट्ठा पूरा दम लगाकर भौंकता था। और उसकी उम्र के लिहाज से वह इतना ज्यादा होता था कि कभी-कभी कोई पक्की उम्र का बंदा या पग्गड़धारी राहगीर मुसकराकर टोक भी देता था, “बस कर...हुण बस कर, थक गया होएँगा।”

कुनु की सबसे खास बात यह थी कि वह कुनु था। महज एक पिल्ला नहीं, वह कुनु था। उसकी अपनी एक शख्सियत थी और इसे वह हर तरह से साबित करता था। मसलन रसोईघर के एकदम द्वार पर बैठकर गरम फुल्का खाना उसे प्रिय था और साथ में गुड़ भी हो, तो क्या कहने! ऐसे क्षणों में उसकी आँखों से आनंद, अनहद आनंद बरस रहा होता और जरा छेड़ते ही उसकी ‘गुर्र-गुर्र’ चालू हो जाती। जैसे वह जता देना चाहता हो कि इन क्षणों में छेड़ना या डिस्टर्ब किया जाना उसे सख्त नागवार है।

कभी सुबह की रोटी दोपहर या दोपहर की रात को मिल जाए, तो न सिर्फ उसकी भूख-हड़ताल चालू हो जाती, बल्कि उसके चेहरे पर एकदम सत्याग्रहियों वाला भाव नजर आने लगता। शांत और मौन प्रतिरोध...! वह उठता, रोटी के पास जाकर अनमने ढंग से उसे सूँघता और फिर इस तरह अपनी बोरी पर आकर बैठ जाता, जैसे कि वह रोटी उसके लिए नहीं थी। या वह रोटी जैसी चीज के अस्तित्व से पूरी तरह बेखबर हो। कभी घर में उसकी पसंद की कोई चीज बने, खासकर गाजर का हलवा, जो कि सर्दियों में दस-पंद्रह दिन में एकाध बार बनता था, तब देखो उसकी बसब्री। ऐसे वक्त में उसे दूसरे कमरे में बंद करके रखना पड़ता था, वरना न जाने क्या कर डाले। और हलवा बनते ही गरम-गरम गपक जाने की कोशिश में अक्सर वह जीभ जला बैठता।

उफ, बावला। एकदम बावला...!

*

सच तो यह है हमने उसे बिलकुल अपना बेटा ही मान लिया था।

हमारे वे दुखभरे दिन थे। कुछ अजीब-सी आत्महीनता और अर्ध-बेरोजगारी के दिन। और हम कुछ तो समय और कुछ अपने आदर्शों के मारे थे। हालाँकि इसी आदर्शवाद ने हमें जिलाया भी था। इसी आदर्शवाद ने हमें, यानी मुझे और शुभांगी को मिलाया भी था और एक-दूसरे के लिए जरूरी बना दिया था। तपती हुई सड़कों पर साथ चलते-चलते हम एक छोटे-से घर तक आ पहुँचे थे।...

हाउसिंग बोर्ड का किराए का वह छोटा-सा मकान हमारे सुख-स्वप्नों का आशियाना था, जहाँ हमें अपनी बिखरी हुई दुनिया के तिनके समेटने थे और एक अदृश्य भविष्य को आकार देना था। वहीं हमें कुनु मिला था। और कुछ इस कदर आत्मीयता से गदबदाया हुआ-सा वह मासूम जीव शुभांगी की गोद में आ टपका था, मानो शादी के फौरन बाद ही उसकी गोद भर गई हो।

लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, वे सख्त, बहुत सख्त दिन थे और हम तिल-तिल जल रहे थे। हमारे आदर्शवाद ने हमें उन्हीं ‘महान जी’ के खिलाफ खड़ा कर दिया था जिनके निर्देशन में हम रिसर्च कर रहे थे।...हेड ऑफ द डिपार्टमेंट!

हेड साहब के दिमाग में न जाने कैसे यह बात बैठ गई थी या बैठा दी गई थी कि शुभांगी और मैंने यह जो खुद अपनी मर्जी से विवाह किया है, इसमें जरूर कोई भारी गड़बड़ है। और इससे यूनिवर्सिटी की मर्यादा की नींव हिल गई है, जिसे जमाए रखना उनका महान कर्तव्य है।

तो मर्यादा की उस हिलती हुई नींव को फिर से सधाने के लिए उन्होंने हमें कानूनी फर्रा पकड़ा दिया कि आप लोगों के खिलाफ क्यों न अनुशासनहीनता की कार्रवाई की जाए और क्यों न आपका स्कॉलरशिप रोक दिया जाए?...यह साँसों की उस डोर को काट देने की कोशिश थी, जिसके सहारे हम जिंदा थे। लिहाजा हमें भड़कना ही था। और हमारे भड़कने का सीधा नतीजा यह हुआ कि शादी के तुरंत बाद हमें हेड साहब की ओर से यह तोहफा मिला कि शुभांगी का स्कॉलरशिप बंद कर दिया गया।

अब हमारे घर का जो बुनियादी गणित था, वह यह कि चार सौ जमा तीन सौ बराबर सात सौ...यानी घर! घर की शांति। घर की सुरक्षा। शुभांगी का स्कॉलरशिप बंद होने से हमारे घर की जो दो मुख्य कडिय़ाँ थीं, उनमें से एक टूट गई। सात सौ में से तीन सौ रुपए निकल गए, तो नतीजा एकाएक देखने को मिला। घर की दीवारें डगमगाने लगीं, छत हिलने लगी और हवा में अपकशुन होने लगे।

यह हमारा दुख से सहमा हुआ दांपत्य जीवन था, जिसकी शुरुआत ही एक ‘निजी प्रलय’ से हुई थी और एक तीखा भय हमारे भीतर उतर गया था। अक्सर मुझे लगता, कोई अनजान छाया हमारा पीछा कर रही है और हमें मार डालेगी। हमें इस बात की सजा मिलेगी कि हमने अपनी मर्जी से विवाह क्यों किया? मैं खाना खाने बैठता तो लगता, अभी हेड साहब का लंबा और शक्तिशाली हाथ आगे आएगा और मेरे सामने रखी खाने की थाली उठाकर भाग जाएगा। मेरे हाथ का कौर हाथ में रह जाता और आँखों से आँसू टपकने लगते। खाना खाना मुश्किल हो जाता।

*

यही वे दिन थे, जब कुनु हमें मिला था। और उसका मिलना भी कुछ ऐसा था, मानो वह किसी महानाटक का ऐसा अध्याय हो जो खासकर हमारे लिए ही लिखा गया है।

हम एक दिन सुबह-सुबह घूमकर आए और सदा की तरह किताबों की चर्चा और दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में व्यस्त थे, कि दूर से ही देखा—वह है। एक छोटा-सा, बेचारा-सा काला जीव। मुश्किल से दस-पंद्रह दिन का रहा होगा। वह काक-मंडली का भोजन बना हुआ था और मूक आँखों से गुहार कर रहा था। शायद कौओं की कुछ चोंचें भी उसके शरीर में गड़ी थीं और वह मारे पीड़ा के तिलमिला रहा था। लेकिन हलकी, बहुत हलकी और अस्पष्ट ‘गुर्र-गुर्र’ के सिवा उसके मँुह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था।

शुभांगी ने उसे देखते ही, बगैर वक्त खोए झपटकर उठा लिया और माँ जैसी ममता से भरकर छाती से लगा लिया।

उफ! उस क्षण किस कदर सिंदूरी आभापूरित था शुभांगी का चेहरा। किसी स्त्री का जिसे आप प्यार करते हैं, माँ बन जाना क्या होता है, शायद पहलेपहल उसी क्षण मैंने जाना था।

और हमारा जीवन तनाव के जिन दो मोटे लौह-शिकंजों में कसा हुआ था, पहली बार उनकी जकड़न से छूटकर एक कदम आगे बढ़ा। बहुत दिनों से रुकी हुई मुसकान फिर से हमारे होंठों पर थी और मैंने शुभांगी को और शुभांगी ने मुझे एक नई ही पुलकभरी दीठ से देखा।

और वह घर जिसमें किताबें थीं और ज्यादातर किताबों पर ही बातचीत होती थी, धीरे-धीरे एक बच्चे की उपस्थिति से गुलजार होने लगा।

हमारा वह बच्चा कुनु था, जो कभी बाहर लॉन में मेरी कुर्सी के चारों ओर दौड़ता, कलामुंडियाँ खाता और नाचता फिरता, कभी दूर बैठा पूँछ हिलाता अपनी उपस्थिति जतलाता रहता। जरा सा पुचकारो तो उछलकर गोद में बैठता। मैं और शुभांगी गंभीर शोध-विषयक चर्चा में लगे होते, तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा करता कि हमारी गंभीरता की ऐसी-तैसी हो जाती ओर अक्सर कुनु और उसकी खरमस्तियाँ ही हमारी बातचीत का केंद्रीय विषय हो जातीं। ऐसे में अक्सर शुभांगी ही उसे बढ़ावा देती और तब उसकी सर्कसबाजी, जोकरबाजी, नाचना और कभी-कभी पीठ के बल लेटकर पंजे हिलाना और लड़ियाना ऐसे तमाम खेल-तमाशे शुरू हो जाते। और उफ! आँखें किस कदर चमक उठती थीं उसकी।...शैतान! महाशैतान!!

कभी-कभी वह ज्यादा छूट ले लेता और जिस चारपाई पर मैं पढ़ रहा होता, उसी पर आकर एकदम मासूम बच्चे की तरह लेट जाता और अत्यंत तरल और आग्रहयुक्त आँखों से मुझे देखता रहता। असल में उसे यह बेहद प्रिय था कि मैं एक हाथ में किताब पकड़े पढ़ता रहूँ और दूसरे हाथ से उसे चुपचाप सहलाता रहूँ। ऐसे क्षणों में एक घरेलू अपनापन और अधिकार उसके व्यवहार में नजर आता। और यही अपनेपन का अधिकार उसमें तब भी नजर आता, जब शुभांगी रसोई में खाना बना रही होती। ऐसे में वह दौड़कर आता और एक सभ्य बच्चे की तरह मूक आँखों से खाना माँगता और रसोई की चौखट पर बैठ, चुपचाप खाना खाने लगता।

फिर थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसने एक विचित्र चाल यह निकाली कि रोटी खाने की इच्छा न होती, तो अपने हिस्से की रोटी लेकर दौड़कर बाहर चला जाता और थोड़ी ही देर बाद खरामाँ-खरामाँ टहलता हुआ लौट जाता। काफी दिन बाद हमें इस ‘रहस्य’ का पता चला कि वह रोटी कहीं छिपाकर आता है, ताकि ज्यादा भूख लगने पर यह आपात-काल में काम आ सके।

यानी अपने भविष्य के लिए ऐसी दुर्दम्य चिंता! शायद अपने मित्र कुत्तों से उसने यह सीखा था।...लेकिन हमें हँसी आती। एक असुरक्षित घर में भला कैसे उसने भविष्य की सुरक्षा की जरूरत भाँप ली थी।

*

सोने के रात और दिन के कुछेक घंटों को छोड़ दें, तो कुनु ज्यादातर सक्रिय रहता था। यानी कुनु का मतलब था, गति...छलाँग! वह दिन भर घर के दोनों कमरों और बरांडे में इधर से उधर घूमता रहता और कहीं जरा भी खड़का होते ही दौड़कर वहाँ पहुँच जाता। खासकर दरवाजे पर किसी के आते ही उसकी गर्व से लबालब ‘भौं-भौं’ शुरू हो जाती।

लौटकर आता तो पूँछ उठी हुई और आँखें शाबाशी का भाव लेने को उत्सुक। मानो कोई वीर बाँका युद्ध के मैदान से लौटा हो!

कभी ज्यादा मूड में होता तो वह घर भर की चीजें छेड़ता फिरता। खासकर जूते, चप्पलें, किताबें...! हालाँकि जूते या चप्पलें उसने चाहे भले ही काटे हों, यह गनीमत थी कि किताबें कभी नहीं फाड़ीं।

हाँ, मेरी ही तरह उसे भी लगभग रोज आने वाली चिट्ठियों की तलब रहती थी। कोई चिट्ठी आती और मेरे ध्यान से छूट जाती तो दौड़कर आता। मेरे और दरवाजे के बीच उसके कई चक्कर लग जाते, जब तक कि मैं दरवाजे तक आकर वह चिट्ठी, अखबार या पत्रिका उठा न लेता।...

लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब मैं गंभीरता से कुछ लिख या पढ़ रहा होता, तो वह अक्सर शोर मचाने या छेडख़ानी से परहेज करता और दूर बैठा, टकटकी लगाए देखता रहता। इतना सतर्क, चौकन्ना कि अगर मक्खी भी उड़कर मेरे माथे या नाक तक आए, तो उसे पीस डाले।

मैं हैरान था कि ऐसी यह ‘महान शुभचिंतक आत्मा’ किस दुनिया से चलकर मेरे इतने निकट आ गई है! न जाने किस जन्म का पुण्य था, जो इस जन्म में कई गुना होकर प्रतिदान के रूप में मिल रहा था। और मैं चकित था, मुग्ध!

शायद मेरा और शुभांगी का यही भाव रहा होगा, जिसके कारण बाज दफा हमें अजब-से हालात का सामना करना पड़ता था। मसलन जब भी हमारे मेहमान, खासकर रब्बी भाई सपरिवार आते, अपनी पत्नी सविता और बिटिया अंजू के साथ, और कुनु को देखकर दूर-दूर से पैर बचाते हुए निकलते, “अरे भई, इस कुत्ते को देखना!” टाइप वाक्य उच्चारते हुए, तो हमें बड़ा अजीब लगता। मानो हमें अपने कानों पर विश्वास ही न हो रहा हो! इसलिए कि हमारा ख्याल था, यह तो कुनु है, इसे भला कुत्ता कैसे कहा जा सकता है?

हमारी दीवानगी की हालत तो यह थी कि जब कोई मेहमान हमारे घर आकर अपने बच्चों और उसकी चंचल शरारतों का जिक्र करता, तो हम तत्काल दोगुने गर्व से भरकर कुनु की प्रशंसा का पुराण ले बैठते। सामने वाले के माथे पर बल पड़ जाते, भला हमारे बच्चों की मनमोहक अदाओं की तुलना में कुनु—एक कुत्ता कैसे सामने ला खड़ा किया जा सकता है!

पर हम जिस दीवानगी में थे, उसमें ऐसी छोटी-छोटी बातों पर भला ध्यान कैसे जा सकता था। आज जाता है, तो जाने क्यों, बुरी तरह हमारी हँसी छूट निकलती है!

*

लेकिन उस दुष्ट ने हमें तंग भी कम नहीं किया।

एक दिन देखा, पूरे घर में से एक बेहद सड़ी हुई गंध उठ रही है। उस नागवार गंध से दिमाग भन्ना गया।

दौड़कर इधर-उधर देखा, तो लॉन में एक किनारे पर ढेर-सा सड़ा हुआ मांस पड़ा था। थोड़ी देर के लिए तो हम भौचक्के ही रह गए। यह क्या! बदबू के मारे नाक सड़ी जा रही थी। शायद सामने वाले मैदान में कोई कुत्ता या सूअर मरा था और आसपास के सब कुत्तों की जमकर दावत हुई थी। तब अपना यह नन्हा कुनु भी शौर्य प्रदर्शन करके अपने हिस्से का मांस ले आया था। और उसे कोई और छीन-झपट न ले, इसलिए लॉन के एक कोने में...

इससे पहले भी उसे उस मौसम में कूड़े के ढेर पर कुछ तलाशते हुए, घूमते-भटकते देखा था। पर उसकी तलाश इस चीज के लिए है, यह हमें पता न था।

थोड़ी देर बाद कुनु मेरे पास आया, तो मैंने देखा, वही सड़े हुए मांस की गंध उसके मुँह से भी आ रही है। मैंने गुस्से में आकर उसे डाँटा, ‘जा, भाग जा...!’ और वह कू-कू-कू करता भाग गया।

बड़ी मुश्किल से पड़ोसी से फावड़ा माँगकर और नाक जबरन बंद करके उस सड़े हुए मांस से मुक्ति पाई गई।

वह दिन मेरे और शुभांगी के लिए यातनाभरा दिन था। हमें एक साथ दुख भी था, गुस्सा भी! हालाँकि कुनु बेचारा यह सब क्या जाने! अगर मांस हमने उसे नहीं खिलाया, तो क्या मांस खाने की अपनी जैविक प्रवृत्ति ही भूल जाएगा?

हम यह जानते थे, पर अपने गुस्से के आगे लाचार थे।

थोड़ी देर बाद वह आया, तो मेरा गुस्सा एकाएक भड़क गया। मैंने एक के बाद एक, तड़ातड़ कई चाँटे उसे लगाए और गुस्से में चिल्लाकर कहा, “जा, भाग जा...अब कभी यहाँ मत आना।”

हमारे शब्दों का मतलब वह जानता हो या न जानता हो, पर गुस्से का मतलब तो जानता ही था। एक छोटे बच्चे की तरह वह सिर झुकाए चुपचाप मार खाता रहा। और उसे जी भर पीटने के बाद मैं दुखी होकर अपनी आरामकुर्सी पर ढह गया। कुनु चुपचाप लॉन के एक कोने में जाकर लेट गया और दिन भर वहीं लेटा रहा।

इसके बाद कम से कम घर में तो वह मांस कभी नहीं लाया। लेकिन मांस खाने का उसका शौक बना रहा। और उसके लिए सामने मैदान में कूड़े के ढेर पर उसकी खोज जारी रहती। खराब मांस खाने के कारण ही शायद यह रोग उसमें पनपा कि उसे भूख लगनी बंद हो गई और वह जब-तब उलटी कर देता। फिर एक दुखी या उदास सा चेहरा लिए हुए एक तरफ बैठा रहता और उसकी प्रिय चीज, मसलन गुड़ या चीनी-रोटी उसके आगे रखी जाती, तो भी वह अपनी जगह से न उठता। सिर्फ गरदन उठाकर देखता और निढाल-सा पड़ जाता।

कुछ दिनों बाद थोड़ी ठीक और सामान्य हालत में होता, तो हमें खुशी होती, पर जल्दी ही वह फिर रोग की चपेट में आ जाता।

इसी के साथ एक रोग ने उस पर और जोर-शोर से आक्रमण किया—खुजली। और उसके बाल गिरने शुरू हो गए। लिहाजा उसे पानी में डिटॉल डालकर नियमित रूप से हर इतवार को नहलाने का क्रम जारी हो गया।

इससे उसे निस्संदेह फायदा हुआ। पर कुनु को नहलाना एक बड़ी तपस्या और धैर्य की माँग करता था। क्योंकि नहाना उसे एकदम नापसंद था और हमें उसके लिए तैयारियाँ करते देख, अक्सर वह हमें चकमा देकर भाग निकलता था। और फिर बड़ी देर तक काबू में नहीं आता था। नहाते समय भी तमाम उछल-कूद, पर आखिर वह समर्पण कर देता था। डिटॉल से शायद उसे खुजली से कुछ राहत मिलती हो।

नहाने के बाद उसकी शक्ल बहुत बुरी निकल आती थी और वह एक पतली हड्डीनुमा विचित्र आकार ग्रहण कर लेता था। पर थोड़ी देर की भाग-दौड़ के बाद, फिर उसमें धीरे-ध्ीारे वही पुराना ‘कुनु’ लौट आता था, जो हमारा रोज का जाना-पहचाना था। और फिर वह वैसी ही जिंदादिल शरारतों और छेड़छाड़ पर उतर आता था।

*

कुनु का एक दिलचस्प किस्सा तब का भी है, जब हम मकान बदल रहे थे।...

हाउसिंग बोर्ड के अपने किराए के मकान को खाली करके, हमें एक दूसरे मकान में जाना था। लिहाजा बड़ी तत्परता से हम किताबको बाँध रहे थे। बरतन बाँध रहे थे। कपड़ों की छोड़ी-बड़ी पोटलियाँ बाँधी जा रही थीं। गरज यह कि घर का सब सामान इधर से उधर हो रहा था। और यह कुनु को बेहद नागवार लग रहा था। हर बार सामान खिसकाने पर वह भौंक-भौंककर अपना गुस्सा और नाराजगी जताता। शायद उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या उखाड़-पछाड़ हो रही है, किसलिए? हो सकता है कि इसमें उसे किसी भावी अनर्थ की भी छाया दिखाई दी हो।

यही हालत उसकी तब भी थी, जब ये गठरियाँ उठा-उठाकर ताँगे पर रखी जा रही थी। उसने भौंक-भौंककर हमारी नाक में दम कर दिया। लेकिन जब ताँगा चला, और आगे राह दिखाने के लिए साइकिल पर दो-एक थैले टाँग, मैं आगे-आगे हो लिया, तो कुनु भी दौड़कर आ गया और ताँगे के आगे-आगे मेरी साइकिल के समांतर दौड़ने लगा, मानो घर का खास प्राणी होने के कारण उसे भी ताँगे का मार्गदर्शन करने का हक हो। यह दीगर बात है कि जब तक घर नहीं आ गया, मेरी जान साँसत में फँसी रही कि कहीं यह नन्हा जीव मेरी साइकिल या फिर ताँगे के पहिए या घोड़े की टापों के नीचे न आ जाए!

लेकिन कुनु के दुस्साहस की एक घटना तो ऐसी है कि आज भी मन रोमांचित हो उठता है।

हुआ यह कि एक दिन हमें शहर जाना था, शुभांगी के माता-पिता से मिलने। रास्ते में कुत्तों से बचाते हुए कुनु को साथ ले जाना सचमुच किसी आफत से कम नहीं था। लिहाजा कुनु को चुपके से कमरे में बंद किया और हम बाहर आ गए। हालाँकि दूर तक और देर तक उसका हृदयद्रावक क्रंदन हमारा पीछा करता रहा।

शहर में सास जी के हाथ की बनी बेहद मीठी, नायाब चाय पीते हुए भी, कानों में कुनु की कू-कू-कू ही बसी हुई थी। यहाँ तक कि हमारी उदासी भाँपकर उन्होंने पूछ लिया कि क्या बात है, तुम लोग कुछ परेशान से हो। और हमारे बताने पर द्रवित होकर बोलीं, “अरे, तो तुम लोग ले आते उसे! लाए क्यों नहीं उस नटखट को?”

महीनों पहले जब कुनु एकदम छोटा था, हम उसे गोदी में लेकर आए थे और गली के कुत्तों ने हमारी आफत कर दी थी। और अब तो उसे गोदी में लाना ही मुश्किल था। पैरों पर चलकर आता, तो क्या यहाँ पहुँच सकता था? रास्ते में धड़धड़ाती गाडिय़ों वाले स्टेशन को पार करना होता था। और फिर मोटरें, गाडिय़ाँ, ट्रकों और ताँगों की रेल-पेल और पों-पों, पैं-पैं वाली खतरनाक सड़क। वहाँ लोगों का चलना ही मुश्किल था, तो फिर यह नन्हा जीव...!

अभी हम यह सब सोच ही रहे थे कि अचानक सास जी का ध्यान गेट पर गया। चौंककर बोलीं, “अरे वो तो रहा कुनु! वो...देखना, कुनु ही है न।”

और अभी हम कुछ सोच पाते, इससे पहले ही कुनु बारी-बारी से मेरे, शुभांगी के, सास जी के, ससुर जी के...और घर में जितने भी छोटे-बड़े थे, सबके आगे लोट-लोटकर प्यार जता रहा है। और कुछ ऐसी आवाज निकाल रहा है, जैसे वह एक साथ रो रहा हो। और उल्लास और खुशी के नशे में भी हो।

बड़ी देर तक हमारी समझ में ही नहीं आया कि यह हुआ क्या! कुनु वहाँ से आ गया—कैसे? और जब समझ में आया तो एक अविश्वसनीय आनंद के धक्के से हमारी ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे! शुभांगी तो उसे गोद में लेकर बाकायदा रोने ही लग गई थी, “मूर्ख!...पागल!! कैसे आया तू? सड़क पर कुत्ते नहीं पड़े तेरे पीछे? और किसी बस के, ट्रक के पहिए से कुचल जाता तो?”

और वह शुभांगी की छाती से लगा, पूँछ हिला रहा था, किलक रहा था और उसकी आँखें खुशी और आनंद से चमक रही थीं।

छोटा-सा कुनु उस दिन से हमारा बच्चा ही नहीं, हमारे परिवार का ‘हीरो’ भी बन गया था।

*

एक बार, बस, एक बार—याद पड़ता है, उसे पीटा था मैंने, जब उसने मेरी हवाई चप्पल दाँतों से चबा डाली थी। पूरे पचीस रुपए का खून!...देखकर मेरी आँखों में खून उतर आया था और फिर हाथ में जो भी चीज आई, उससे मैंने उसे पीटा, बल्कि धुन दिया। तब शुभांगी का बड़ा गुस्सा मुझे झेलना पड़ा था। तीन दिन तक शुभांगी मुझसे बोली नहीं थी और तीन दिन तक एक ‘गिल्ट’ मुझे खाता रहा था। तब हमारे बच्चे नहीं थे और कुनु ही हमारा बेटा था। हम बोलचाल में उसे ‘बेटा’ कहकर ही बुलाते थे और इस बारे में खुशी-खुशी दोस्तों का मजाक भी सह लेते थे। पर शुभांगी ने उसे सच में बेटा मान लिया था, मुझे क्या मालूम?...अलबत्ता उसे पीटने के बाद दो-तीन दिन जो कुछ मैंने सहा, जो संताप मैंने झेला, उस सबको याद करके अभी रुलाई आती है। कुनु भी मुझसे रूठा-रूठा रहा दो-चार रोज, लेकिन फिर मेरे पुचकारने पर गोदी में आ गया। और बड़ी अजीब निगाहों से मुझे देखने लगा था, जिनमें ‘जा, माफ किया...!’ वाला फटकारता भाव भी था।

हाँ, एक आखिरी बात और। कुनु की बात करता हूँ जब भी, तो विनी की बड़ी याद आती है। हमारे पड़ोस की एक चंचल, खिलंदड़ी लड़की विनी। बिलकुल गुलाबी-गुलाबी, गुलाब के फूल की तरह। तब होगी कोई छह-सात बरस की। दिन भर हमारे घर रहती थी। दिन भर खेलती, दिन भर बातें करती कुनु से। कभी अपने घर जाएगी तो थोड़ी ही देर में फिर दौड़ी चली आएगी ‘कुनु...कुनु’ पुकारती। मानो कुनु ही एकमात्र उसका सखा हो। अंतत: हमारे बहुत कहने और माँ-बाप का डर दिखाने पर शाम को वह जाती थी।

जाते-जाते (सर्दियों के दिन थे)...उसे कुनु को सर्दी लग जाने का भय सताता था। वह एक बड़ी-सी बोरी की ओर इशारा करके कहती थी, “कुनु को इसमें बड़ा दूँ अंकल?” और आखिर कुछ हिंदी, कुछ पंजाबी में कुनु को बडे़ आराम से और आहिस्ता से बोरी में ‘बड़ाकर’ (घुसाकर) ही वह घर जाती थी।

विनी की गुलाबी देह और ‘गुलाबी सेहत’ वाली अल्ट्रा माडर्न मम्मी को बड़ा अजीब लगता था विनी का दिन-दिन भर हमारे घर रहना। पर न विनी को कुनु के बगैर चैन था और न कुनु को...

*

ओह, समय किस तरह से आता है, किस तरह से जाता। और कैसे साबित करता है कि अंतत: वही बादशाह है, हम सब उसकी सूइयों से बँधे हुए हैं।

गुलाम! पूरी तरह गुलाम और अदने जीव।

याद आता है फिल्म ‘वक्त’ का गाना, ‘वक्त के दिन और रात...’ और उसी गाने की एक और पंक्ति, ‘आदमी को चाहिए वक्त से डरकर रहे!’ अच्छे वक्तों में अपने पुट्ठों पर ताल ठोंकता बलराज साहनी, ‘ओ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ...!’ और बुरे वक्तों में भूख-प्यास से बेहाल, सड़क पर चलता हुआ, आफत का मारा बलराज साहनी। आँखें में भयावह खालीपन, किसी रोते हुए खँडहर जैसा—

‘आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे!’

संगीत थम गया है। संगीत अब विलाप है।

वही वक्त एक दिन ले गया कुनु को, जिसने कभी एक दिन शुभांगी की वत्सल गोदी में उसे टपका दिया था दूध की, अमृत की एक बूँद की तरह!

धीरे-धीरे ठंडी होती आग। और आग के बगैर जीवन मिट्टी! मिट्टी होने से पहले उसने जो एक लाचार नजर मुझ पर डाली, उसमें क्या था? सामने के मैदान में, पेड़ के नीचे मिट्टी होने से पहले एक कमजोर-सा आग्रह कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए। शायद हाँ। शायद...

आ-खि-री-स-ला-म...!! ओ नन्हे से फरिश्ते...नन्हे से फरिश्ते...नन्हे से फरिश्ते...!

*

कुनु की वे मरती हुई आँखें मेरे भीतर से कभी नहीं गईं। ठीक वैसे ही...जैसे कभी नहीं गई माँ की मिट्टी हुई देह मेरे भीतर से, जिसे आग को सौंपना था। माँ भी यों ही देखते ही देखते चली गई थीं। अभी तीन दिन पहले मैं उनसे मिलकर चला आया था। लौट रहा था तो उन्होंने टोका, “फिर मैं तैनूँ नहीं मिलना पुत्तर!”

हँसकर मैंने कहा था, “नहीं माँ, जल्दी आऊँगा!” और सचमुच जल्दी ही तो आया मैं, सिर्फ तीन दिन बाद। और मुझे मिली माँ की मिट्टी हुई देह जो कह रही थी, “पुत्तर, मैं तैनूँ कहया सी न!” मिट्टी हुई माँ, जिस पर मैं पछाड़ें खा रहा था, हा-हा-हा-हा...हा-हा-कार।

ओह, मिट्टी हुई माँ और मिट्टी हुआ कुनु दोनों एक साथ दफन हैं मेरे भीतर। एकांत में कभी-कभी दोनों मिलकर रोते हैं। और अगले ही क्षण दोनों मिलकर खेलने लगते हैं। माँ देखते ही देखते बच्ची बन जाती है, विनी...!

दोनों की करुण आँखें मिलाकर एक करुणा भरा विश्वास। मेरे जीवन का भावुक स्पेक्ट्रम! जहाँ आज भी मैं अवाक, व्यथित, मौन सिर झुका देता हूँ।

*

आज तक किसी कथाघाट पर नहीं समा पाई कुनु की कहानी...और न माँ, माँ जो मेरे लिए ईश्वर से कहीं बढक़र है। जी हाँ, मैं मानता हँू ईश्वर को! मैं मानता हूँ कि ईश्वर है, इसलिए कि जिसने मेरी माँ जैसी माँ को बनाया, वह कुछ न कुछ तो जरूर होगा...यानी ईश्वर है, क्योंकि माँ है!

ठीक इसी तरह, ईश्वर है क्योंकि कुनु है—और मरकर भी है!

ताज्जुब है, कुनु और माँ की आँखों में एक जैसा तारल्य था। सारी दुनिया पर एक साथ करुणा बरसाता तारल्य, मानो वे आँखें एक साथ बनाई गई हों। माँ को तो खैर, बचपन से ही देखता आ रहा हूँ और उनके आशीर्वाद भरे हाथ ने कभी टूटकर गिरने नहीं दिया। पर कुनु! उसे तो शायद मेरे टूटे, थके, दुखी दिनों में मुझे गड्ढे से बाहर निकालने और जीवन के समतल पर लाने के लिए ही भेजा गया था। मानो उसने अपना काम किया और जैसे ही उसकी भूमिका खत्म हुई, मंच से उतरकर चुपचाप नेपथ्य में चला गया।

संगीत फिर उठ रहा है। दिशा-दिशा में फैलता धीमा मगर भर्राया हुआ संगीत। और उसमें एक बाप का अपने बेटे को खो चुके अभागे बाप का रोना भी शामिल है।

“आखिरी सलाम...!! ओ नन्हे-से फरिश्ते, नन्हे-से फरिश्ते...नन्हे-से फरिश्ते...!”

**

3

मिनी बस

प्रकाश मनु

*

“लो आ गई वह!” उसने जैसे अपने आपको बताया। आध-पौन घंटे से बस स्टॉप पर खड़े-खड़े हालत यह हो गई थी, जैसे टाँगों में खून ही न हो। जैसे टाँगें टाँगें नहीं, दो बाँस की खपचियाँ हों, बेवजह शरीर का बोझा ढोती दो खपचियाँ।

‘आफिस टाइम...!’ वह हमेशा इस शब्द को टाइम बम से कन्फ्यूज कर जाता है। और गलत भी क्या है? भीतर ही भीतर बुदबुदाता है वह, यही वक्त है जब रोज दिल्ली में विस्फोट होता है, जनसंख्या विस्फोट! और पूरा शहर चेहराहीन चेहरों के हुजूम में बदल जाता है। लोग घरों से ऐसे छूट पड़ते हैं, जैसे कबूतरखाने से कबूतर।’

और एक कबूतर वह है—वह...दीपक वासवानी।

था नहीं, है। हो गया है। दिल्ली आने से पहले नहीं था। मरता-जीता, चीखता-चिल्लाता जो भी था, था तो आदमी। यहाँ तो होंठों पर सेलो टेप, हाँफती साँसें और टाँगें चकरघिन्नी। फिर भी सेलो टेप कभी-कभी उखड़ जाता है। खास तौर से जब टाँगों पर ज्यादा जोर पड़ता है या दिल-दिमाग पर...! नहीं, दिल तो रहा नहीं, सिर्फ दिमाग पर! उसने खुद को करेक्ट किया और हँसा। बेवजह। बेमतलब।

मिनी बस के रुकते ही कंडक्टर ने ‘भोगल, निजामुद्दीन, चिड़ियाघर...’ का चिरपरिचित गीत दु्रत-विलंबित लय में गाना शुरू किया और उसने भीतर जाना।

लेकिन उसे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। वह दरवाजे पर आया ही था कि भीड़ के एक रेले ने उसे भीतर दे पटका। हालाँकि पैर अभी हवा में हैं, हाथ भी। थैला वहीं किसी के कंधे से अटक गया है...

भीतर अजीब सी घुटन है। साँस लेना तक मुश्किल।

बाहर से अंदाज नहीं था, भीड़ वाकई इतनी ज्यादा है। नहीं तो यह बस छोड़ देता। नहीं, छोड़ कैसे देता? आखिर दफ्तर भी तो पहुँचना है। पहले ही लेट...!

पैर जमाते ही उसने पहला काम यह किया कि थैला जो अभी तक हवा में झूल रहा था, खींचकर साथ चिपका लिया। टटोला है—कि सब कुछ ठीक-ठाक है, कहीं कोई किताब गिरी-गिराई तो नहीं। दूसरा हाथ अदृश्य दिशा में बढ़ा दिया है। शायद कोई छड़। कोई सहारा! जैसे वक्त के कुएँ में गहरे धँसे-धँसे, कोई नियति की डोर तलाश रहा हो।

उनके पीछे उसी की तरह, बल्कि उससे भी अधिक बेसबरे पाँच-सात लोग और हैं। बुरी तरह धक्का दिए जा रहे हैं। खड़ा रह पाना मुश्किल।

उसने समझदारी यह की कि ड्राइवर की सीट के पीछे वाला डंडा कसकर पकड़ लिया। लेकिन पीछे से दबाव इतना पड़ रहा है कि लगता है, हाथ अब छूटा...अब छूटा। गिरफ्त ढीली पड़ती जा रही है।

उसने एक और टैक्टिस अपनाई है—कूल्हे थोड़ा पीछे खिसकाए हैं, हाथ आगे। कसकर और...और कसकर डंडा पकड़ा है। वह धनुषाकार हो गया है—एकदम।

लेकिन कोई भी उपाय अंतिम नहीं होता। खासकर जब एक छोटे दस्ताने में लोग भेड़ों की तरह ठुँसे हों और वह फटने-फटने को हो रहा हो। बचपन में पढ़ी, बल्कि चित्रों में देखी यह कहानी उसे बेतरह याद आ रही थी—कि एक आदमी जंगल में दस्ताना भूल गया। जानवरों ने उसे देखा और एक-एक कर उसमें घुसते चले गए। और फिर हुआ वही जो हाना था...दस्ताना फट गया। ओह, फट गया!

मिनी बस चली, तो जो दरवाजे पर खड़े थे, उन्होंने पूरा दम लगाकर भीतर धक्का दिया। लोग जो थोड़ा बहुत एडजस्ट हुए थे, फिर लड़खड़ाए। फिर धक्का-मुक्की बुरी तरह। वह गिरते-गिरते बचा।

गिर जाता तो सामने मडगार्ड पर सिर से सिर मिलाकर बतियाती लड़कियों पर गिरता। इतनी भीड़ में भी जो निश्चिंत भाव से स्वेटर के फंदे डाल-उतार रही थीं। उनमें से एक जिसकी नाक तोते की-सी है और दाँत बड़े-बड़े, उसे घूरकर देखा है। देखा दूसरी ने भी है, लेकिन जरा मीठी नजरों से। वह लगती भी ऐसी है—शांत, मृदुल। बालों में सुर्ख गुलाब का फूल।

उसने गौर से देखा है। चौंका है। बात करते-करते हौले से मुसकराती है, तो वह फूल भी हँसता है—लाल, सुर्ख हँसी। लड़की का चेहरा तब बिलकुल गुलाब का फूल लगने लगता है।

तो यानी कि इतनी भीड़ में धँसे-धँसे भी मरा नहीं वह। जड़ नही हुआ सौंदर्य-बोध उसका? उसने जैसे खुद से कहा। उसे हँसी आने को हुई। उसने जबरन रोका है।

बस रुकी है। शायद भोगल आ गया। कंडक्टर की फिर वही सुपरिचित लय—“निजामुद्दीन, चिड़ियाघर, कनॉटप्लेस...!”

“अब कहाँ बैठाओगे सवारियाँ? हद है भई!”

“अब चलाओ भी यार।”

दो-एक मरी-मरी आवाजें उभरती हैं। डूब जाती हैं। जैसे खास बात नहीं, यह भी एक अपनी आदत-सी हो। लोग कह देते हैं। ड्राइवर सुन लेता है। और असल में कोई नहीं कहता, कोई नहीं सुनता।

“अब चला भी दीजिए सरदार जी।” उसने पनीली आवाज में ड्राइवर से याचना की है। पैंतीस-चालीस बरस के सरदार जी हैं। नीली पगड़ी वाले। चेहरा एकदम सख्त। आबनूसी। एक नजर उसे देखा, फिर बाहर की ओर देखने लगे।

पाँच-सात, सवारियाँ और चढ़ी हैं और पहले से ‘लबालब’ भरी बस में ठुँस गई हैं।

बस्स! अब तो बस्स!!...नहीं तो मर जाएँगे सबके सब यहीं। उलट जाएगी बस...या साँस घुटेगी या कुछ और! उसने सारी ताकत खुद को बचाने में लगा दी। और फिर चीखा। पूरा दम लगाकर चीखा है वह।

“अरे, कहाँ बैठाओगे भाई? साँस तक नहीं आ रही।”

सहसा उसे लगा, वाकई साँस रुक जागी। नहीं! साँस तो गई! वह चिल्लाया, “साँस...साँस नहीं आ रही। मेरी साँस रुक रही है।”

इसका एक फायदा हुआ। लोग थोड़ा इधर-उधर हुए हैं। करुणाद्र्र भाव उभर आया है चेहरों पर। वह थोड़ा खिड़की के पास खिसका है।

2

खिड़की के पास वाली सीट एक टाई बाबू के कब्जे में है—सलेटी सूट, टाई, चिकना चेहरा।

“प्लीज...थोड़ी खिड़की और खोल लीजिए।” उसने गिड़गिड़ाकर कहा है।

टाई बाबू ने ऐसे देखा, जैसे वह कोई चिड़ियाघर से छूटा जानवर हो। “हवा आती है—ठंडी हवा।” उसने तटस्थ भाव से कहा।

“हवा ही तो चाहिए। देखिए, कितनी भीड़ है—साँस तक नहीं!” उसकी आवाज लड़खड़ा रही है। लेकिन गुस्सा छिपता नहीं है।

“ऐसा तो रोज होता है...!”

“रोज होता है—क्या मानी इसका? रोज होने से कोई बात ठीक हो गई।” गुस्से में उसके दाँत भिंच गए हैं, होंठ विकृत। अजीब मुल्क है यह! कितने लोग कितना कुछ देखते, सहते हैं—क्योंकि रोज होता है, इसलिए होना ठीक है। अजीब उलटबाँसी है ससुरी। यह बाबू भी खड़ा होता तो साले के चेहरे से इतनी निश्चिंतता न टपकती, न बेशर्मी। तब समझ में आता कि साँस चाहिए! जब दम घुट रहा हो, तो साँस चाहिए, साँस...! गुस्से में दाँत किटकिटाएँ हैं।

“पर याद दीपक वासवानी, जो वह बोल रहा है वह उसका सच है और जो तुम कह रहे हो वह तुम्हारा सच। भँवर में फँसे आदमी और किनारे पर खड़े आदमी का सच एक नहीं होता। बड़ा फर्क है भाई!” उसके भीतर किसी ने कहा है।

पर नहीं—उसे स्वीकार नहीं। “क्या वह भी सच है? किनारे पर खड़े आदमी का सच भी सच है? नहीं, मैं इतना उदार नहीं, न हिप्पोक्रेट!” यानी कि वह खुद से भी लड़ने की मुद्रा में आ गया।

जोश ही जोश में उसने थोड़ा और जोर लगाया। खिसककर खिड़की के और पास आ गया है। नाक कुछ और ऊपर उठा दी है—खिड़की की ओर। पतली-सी झिरी से थोड़ी हवा आ रही है।

अब ठीक है, काफी ठीक...लेकिन पैर हवा में उठ गए हैं।

वह भी देखेंगे, लेकिन...? लेकिन पीछे वाला आदमी उसके कूल्हों पर...!

छि:! वह एक तरफ हुआ है। पैर अब जमीन को छू रहे हैं।

निजामुद्दीन पर जब कुछ और सवारियाँ ठूँसी जाने लगीं, तो उसका धैर्य जवाब दे गया। चीखा है पूरे जोर से, “आदमी और जानवरों में कोई फर्क नहीं! अजीब शहर है। अच्छा-खासा आदमी दिल्ली में जानवर हो जाता है।”

किसी ने सुना है, किसी ने नहीं। किसी ने जान-बूझकर नहीं सुना। कोई एकाध हँस रहा है।

टाई बाबू के हाथ उसकी टाई पर चले गए हैं।

लड़कियों ने ध्यान से देखा है—अकल्पनीय आश्चर्य से! कोई यों चीखे सरेआम दिल्ली में? इस पर शायद उन्हें हैरानी हुई है। उनके हाथों की सलाइयाँ क्षण भर के लिए रुकी है। आँखों की पुतलियाँ भी। बातें भी। वे उसके चेहरे को देख रही है। नहीं, चेहरे में देख रही हैं। जाने क्या? वह नर्वस हो गया।

पागल? नहीं, पागल तो नहीं वह।

लड़कियाँ फिर बातों में लग गई है। सलाइयाँ चल पड़ी हैं। पुतलियाँ भी।...क्या मिल गया उन्हें वह, जो वे ढँूढ़ रही थी? उसे हैरानी हुई।

“अच्छा, क्या बातें कर रही हैं लड़कियाँ?” भीड़ में फँसे-धँसे इस ओर कान लगाना उसे अच्छा लगा।

गुलाब जैसे चेहरे वाली लड़की कह रही है, “वह चोपड़ा है न...सुनील चोपड़ा। जानती है तोशी? अच्छा नहीं लगता, बार-बार आकर बैठ जाता है मेरे पास। मैंने तो मना किया...!”

“देखना, एक दिन...तेरी ही बदनामी होगी, उसका क्या जाएगा?”

“अभी परसों...क्या हुआ कि मैं खाना खा रही थी लंच में। आया और मेरे लंच बॉक्स में से खाने लगा। साथ ही बोलता जा रहा था, बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ—वाह, मटर-पनीर क्या बढ़िया बना है, और पराँठे क्या खूब!...गोभी के पराँठे थे, अच्छे ही थे। मगर मुझे बड़ा खराब लगा। शर्म भी आई, पर इतने लोगों के बीच क्या कहती...?”

“कह देती, मुझे यह पसंद नहीं है।”

“नहीं कहा जाता तोशी...नहीं कहा जाता, आखिर एटीकेट्स...!”

लेकिन तभी चिड़चिड़ी, कर्कश आवाजों के एक धक्के से, प्रेम-अप्रेम के तारों के बीच फँसी यह कहानी बिखर गई।

“ठीक से खड़े रहो, ठीक से। जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं दिल्ली में!”

“मैं ठीक से हूँ—और बीस बरस से हूँ दिल्ली में। अपनी देख...”

पहले वाले ने स्वर बदला, “हद है, लोगों को मैनर्स तक नहीं आते।”

“देख, मैनर-फैनर तो बोल नहीं, नहीं तो काढ़ दूँगा इब्बी। ज्यादा मैनर आते हों तो स्कूटर में चला कर।” दूसरा जो हरियाणवी था, ठीक महाभारत के भीम वाली मुद्रा में आ गया।

यह मौका था। वह अचानक कृष्ण बन गया (और अर्जुन भी)—“सुनो दीपक वासवानी, सुनो! यह शायद रोज की बातचीत है...रोज के झगड़े। शब्द बदल जाते हैं, उन्हें उच्चारित करने वाले होंठ भी। मगर हालात वही होते हैं, मिनी बस भी वही और उन हालात में होंठों पर खुद-ब-खुद चिपक जाती है झगड़ालू कटुता, कड़वाहट! हमें ऐसे हालात में जीने के लिए विवश कर दिया जाता है। ऊपर से ‘सत्यमेव जयते’ और ‘अहिंसा’! बड़े बड़े नारे। यह साजिश है, साजिश...!”

3

अगले स्टॉप पर दो-एक लोग उतरे, मगर चार-छै और चढ़े हैं। फिर धक्का-मुक्की। हलचल, विप्लव। जो पहले ही सहमे, सिकुड़े खड़े थे, कुछ और सिकुड़ने की कोशिश में लग जाते हैं। गरज यह कि आदमियों के बीच कहीं कोई स्पेस नहीं। जितने चिपक सकते हैं, चिपके हुए हैं।

वह एकदम धनुषाकार खड़ा है और आगे को ओर झुकता जा रहा है। सीधा खड़ा होना चाहता है, लेकिन हो नहीं पा रहा। कंधों पर बोझ बढ़ता जा रहा है। पीछे का पैर उठ गया, आगे के पैर पर ही सारा वजन है। उसने ध्यान से देखा, दूसरे भी ऐसे ही हैं—शुतुरमुर्ग।

इतने सारे शुतुरमुर्ग—एक साथ!

(हो-हो-हो-हो...हा-हा—मजा आ गया, सच!)

एक मूँछों वाला लाला टाइप मोटा आदमी है। एक दफ्तर का गोरा अधेड़ बाबू। चार-छै नौकरीपेशा युवक हैं। सबके हाथ में चमड़े का बैग, उसमें लंच बाक्स। दो-तीन कालेज के छोकरे हैं। कुछ मजदूर (मजबूर?)...इनमें से कोई भी बोलता क्या नहीं है? उसे हैरानी हुई। और फिर इससे भी बढक़र हैरानी इस बात पर—कि देखो, लोग किस कदर एडिक्ट हो जाते हैं। एक ही चीज को रोज-रोज देखकर भावशून्य, प्रतिक्रियाविहीन। जैसे यह तो होना ही है—होगा ही। जैसे अफीम की आदत पड़ जाती है, स्मैक की, वैसे ही मुश्किलों की भी। और...और फिर बड़ी से बड़ी हाय-हत्या आदमी बिना विचलित हुए सह जाता है।

उसे झुँझलाहट हुई है। बहुत कड़वा मुँह बनाकर पास वाले आदमी से कहा है, “ऐसे ही बढ़ती रही दिल्ली की आबादी तो देखना, इक्कीसवीं सदी में दुनिया का सबसे बड़ा नरक होगा दिल्ली, सबसे बड़ा नरक!”

और लोगों ने भी सुना है। सुनें। सबको सुनाने के लिए ही उछाली है चेतावनी उसने। साथ में यह और जोड़ दिया, “और फिर—फिर क्या होगा, जानते हो? गिनीज बुक आफ रिकॉड्र्स में नाम आ जाएगा दिल्ली का। दुनिया का सबसे बड़ा नरक कहाँ है—दिल्ली में।”

पीछे से एक दुबली-पतली आवाज आई है, “चलो, कहीं कुछ तो नाम होगा। अच्छों में नहीं, तो बुरों में सही।”

“नाम ही करना है, तो काहे का टोटा है भई? आगे बढ़ो, तुम भी कर लो नाम! लाओ एक बम, उड़ा दो इसे। उड़ा दो यह मिनी बस जो लोगों को जानवरों की तरह ठूँसती है, नाम तुम्हारा भी हो जाएगा।” वह जैसे आपे में नहीं है। कुछ न कुछ तोड़ने, लड़ने-मरने को आमादा।

ड्राइवर ने नुकीली नजरों से घूरकर देखा है। कहा कुछ नहीं। साफ जाहिर है, चेहरे के भीतर कहीं कुछ...बहुत-कुछ कड़वाहट पी गया है। उसके चेहरे पर हलका-सा विचलन का भाव अच्छा लगा दीपक वासवानी को।

कंडक्टर अब भी चीख रहा है, “जल्दी...जल्दी, चिड़ियाघर, कनॉटप्लेस, करोलबाग...!”

पीछे एक ने कहा, “कहाँ बिठाएगा भाई?”

“ऊपर बालकनी में—पूरी की पूरी खाली है।” फिर वह चिल्लाने लगा, “जिस-जिस को बालकनी में बैठना हो, जल्दी आगे आ जाओ।”

चार-छै लोग आगे आए हैं—तेजी से। भीड़ भरी बस को देख रहे हैं, रुक गए हैं। आँखों में लाचारी उग आई है। लालच और लाचारी एक साथ गड्डमड्ड। जैसे बराबर-बराबर आकर्षण और विकर्षण। लोग अपनी-अपनी जगह पर ठिठक गए हैं। न आगे, न पीछे। अजीब से चाबी के खिलौने।

“यह सरकार डबल डेकर मिनी बसें क्यों नहीं चलाती? डबल डेकर मिनी बस! फिर बालकनी की जरूरत नहीं रहेगी। देखने में भी अच्छा लगेगा, मजेदार...!”

“आइडिया अच्छा है—किसी को सूझा ही नहीं!”

“सिवा आपके।”

लोग हँस रहे हैं।

इतने में चिड़ियाघर आ गया।

“किसी को उतरना है चिड़ियाघर? कोई नहीं है चिड़ियाघर वाला? उतरो जल्दी!”

“सबको उतार दे भाई, सबको। सभी चिड़ियाघर के जानवर हैं, पालतू बबुआ।” कहते-कहते उसे खुद ही शर्म आई है। गुस्सा उतरा है।

उसने ठंडी साँस ली है। भीड़ और आदमी। आदमी और भीड़, आदमियों की भीड़ में कहाँ रह जाता है आदमी?

ड्राइवर की मूँछें थोड़ी-सी फड़फड़ाई हैं। होंठों पर बड़ी ही छिपी, शातिर मुसकान भी है—कई अर्थ वाली। क्या सोच रहा होगा वह? कुछ अंदाज नहीं लग पा रहा।

4

और अंदाजा तो वह उस उथल-पुथल का भी नहीं लगा पा रहा, जो उसके भीतर चल रही है। कई चीजें कई कोणों पर टकरा रही हैं। टकराकर फिर टकराती हैं, चिनगारियाँ। अचानक चिल्ला पड़ा वह, “दिल्ली की मुश्किलों का कोई इलाज नहीं, सिवाय एक बम...! एक बम गिरेगा और सब ठीक हो जाएगा। या फिर भूकंप। रूस में आ सकता है भूकंप तो हिंदुस्तान में क्यों नहीं! दिल्ली में क्यों नहीं?”

लोगों के चेहरे पर अब खीज है। या फिर गुस्सा, परेशानी। यह भाषणबाजी वे झेल नहीं पा रहे। एक तो मुश्किलें जो हैं सो हैं, ऊपर से यह आदमी...!

गुलाबी चेहरे वाली लड़की की आँखों में कातरता है। पर कुछ कह नहीं रही। कुछ कह नहीं पा रही। एकदम हक्की-बक्की है। बड़े दाँतों वाली ही बोली है, “ऐसा मत कहिए। घर पर हो सकता है, आपकी बीवी, बच्चे इंतजार कर रहे हों।”

लोग हँसे हैं। ठहाका मारकर। टाई बाबू मुसकरा रहा है।

वह और चिढ़ गया है। वैसे वह भी शायद मुसकरा देता या चुप लगा जाता, मगर यह साला टाई बच्चा...शुतुरमुर्ग की दुम। लालीपॉप कम निरोध सभ्यता की नाजायज औलाद! इस उजबक को बताओ इसकी औकात—कि साले, जैसे मैं चूहा हूँ वैसे ही तू भी चूहा है...! लेकिन फर्क क्या पड़ता है? वह चीखा है, “जैसे मैं मरूँ गा वैसे ही वे, बीवी-बच्चे जो भी हों! मुझे यह मिनी बस मार डालेगी तो उन्हें कोई और, क्या फर्क पड़ता है? दिल्ली में मिनी बसों की कोई कमी तो है नहीं। और फिर डी.टी.सी. की अनंत बेलगाम बसें हैं। मैं, तुम, ये सब, साले मरने के लिए ही पैदा होते हैं। जैसे मैं मरूँगा, वैसे मेरा बेटा, बेटे का बेटा...!”

इस पर एक ठहाका लगा। नाटक का सबसे बेहतरीन पार्ट लगा लोगों को। जैसे ‘मेरा नाम जोकर’ का सीन—वाह, भई वाह! एकदम चटख। गरमागरम।

उसकी आँखों में आँसू हैं। शायद। उसने चुपके से आँखें पोंछी हैं।

“ऐसा न बोलिए, ऐसा न बोलिए भाईसाहब...शुभ-शुभ बोलिए!” बड़े दाँतों वाली लड़की ने टोका है। झट भर के लिए उसका चेहरा सहानुभूति से आद्र्र हो आया है। कर्कशता दब गई है।

गुलाब जैसे चेहरे वाली देख रही है, देखे जा रही है। बस, एकटक! समझ नहीं पा रही, क्या जीवन सचमुच इतना कठोर है या कि वाकई बन रहा है यह आदमी?

और उसने आँखें बंद कर ली हैं। थोड़ी देर के लिए, “चुप हो जाओ दीपक वासवानी, चुप हो जाओ। बहुत हो चुका!” उसने अपने आपसे कहा है।

“सरकार चालान क्यों नहीं करती इन कंबख्तों का? क्या इनके लिए कोई कानून नहीं है? कितने ही लोगों को ठूँस-ठाँस लें। आखिर एक हद होती।” कॉलेज स्टूडेंट बोला है।

“लेकिन लोगों को जल्दी होती है। ऐसी ही बात है तो लोग चढ़ते ही क्यों हैं, कोई जबरदस्ती तो नहीं बैठाता?”

“मैं तो ठीक समय पर घर से निकलता हूँ। सिर्फ आधा घंटा पहले—लाजपत नगर। वहीं से बस चलती है, कभी लेट नहीं होता।” टाई बाबू ने अपनी समझदारी बयान की है।

उसका मन हुआ, मुक्का मारकर थोबड़ा फोड़ दे साले का, “कुत्ते, हरामी के पिल्ले...! साले मैं क्या करूँ, अगर मेरा घर बस टर्मिनल की बगल में नहीं? तेरे को मालूम है, मैं पौन घंटे से एक टाँग पर खड़ा इंतजार कर रहा था बस का? साले बन रहा है, सीट मिल गई है इसी से! तेरे जैसों को तो भिगो-भिगोकर जूते...!”

“लेकिन सरकार भी क्या कर रही सकती है? या तो वो ज्यादा बसें चलाए, नहीं तो ये तो मनमानी करेंगे ही। लोगों को तो आखिर आफिस पहुँचना ही है, चाहे बैठकर, खड़े होकर या लटककर...?”

“और एक दिन नहीं, रोज...!”

रोज यही क्रम।

उसकी आँखें फट रही हैं। सोचता है तो सोचता चला जाता है।

छुट्टियाँ भी कहाँ हैं? प्राइवेट दफ्तरों में तो लोग लोग नहीं, पिल्ले होते हैं। जुटे रहो, पिले रहो। सुबह से शाम तक जलाओ खून...और खाने को जूठन, मैला, मल।

और फिर अपना दफ्तर याद आया उसे जहाँ 15 अगस्त को भी छुट्टी नहीं। बदले में फिर कभी ले लो। और वह ‘फिर कभी’ आए ना आए, बॉस की मर्जी। सारे देश को आजादी है, लेकिन तुम साले पिले रहो क्योंकि पत्रकार हो तुम! अभिव्यक्ति की आजादी, देश की आजादी के रखवाले! अजीब आजादी है यह ससुरी, जो आदमी को आदमी के हाथों चिरवाती है, मरवाती है। हत्याओं की कतार लगा देती है। और फिर जय तिरंगा, जय भारत—बोलो बोलो पिस्सुओ, जय तिरंगा, जय भारत! मिनी बस में घुटे-घुटे, पिसे-पिसे, कहीं भी किसी भी मिनी बस में टँगे, घुटी-घुुटी साँसों में बोलो—जय तिरंगा जय भारत, जय हे जय हे जय...!

“सच तो यह है कि यह पूरा महादेश देश नहीं, एक मिनी बस है, जिसमें जानवरों की तरह लोग ठुँसे हैं। लोगों के ऊपर लोग बैठे हैं, लोगों के पैरों के नीचे लोग लेटे हैं। कुछ हैं जो ऐश कर रहे हैं, आसमान में हैं, कुछ हैं जो हवा-पानी के लिए भी तरस रहे हैं।” टाई कालर वाले आदमी की ओर इंगित करते हुए उसने कहा है।

“क्यों भाईसाहब, अभी आपको हवा नहीं मिली? क्या हाल हैं अब आपके?” पीछे से आवाज आई है।

“इतनी तो मिल रही है भइए, कि जिंदा रहें। जिंदा है!” उसने टाई कॉलर वाले की ओर देखकर मुँह बिचका दिया है। टाई कॉलर परेशान। समझ नहीं पा रहा कि इस गँवार का क्या करे?

5

स्टॉप आया तो लड़कियाँ उतरी हैं। वह उचककर खिड़की के पास खिसक आया। खिड़की खोल दी है—एकदम पूरी। यह एक चुनौती है।

टाई कॉलर फड़कता है, फड़फड़ाता है—मगर कुछ बोल नहीं पाता।

अब हवा आ रही है। खुल्लम-खुल्ला हवा आ रही है। वह चैन से है, चाहे दबा फँसा खड़ा है, तब भी।

अब वह सोच पा रहा है। दफ्तर। लोग। दफ्तर के काम। बॉस—चिड़ीमार।

घड़ी में देखा। साढ़े ग्यारह, आधा घंटा लेट। अभी तो तिलक ब्रिज भी नहीं आया। दस मिनट तो और आगे लगेंगे ही—कम से कम।

ससुरा गंजा फिर आज देखेगा कंजी नजरों से। उससे बर्दाश्त नहीं होगा। जी में आएगा, जबड़ा तोड़ दे साले का। लेकिन फिर...

फिर सब्र कर जाएगा दीपक वासवानी। सोचेगा—थोड़े दिन हैं, फिर जाएँगे। मगर क्या सचमुच...?

“भई, कितनी देर में आएगा कनॉटप्लेस?” अकुलाहट से पूछता है वह।

“यही कोई पंद्रह मिनट।”

“तब तो आज की तारीख में आ जाएगा।” उसकी खीज व्यंग्य में बदल गई है।

6

कनॉट प्लेस!

कभी कनॉटप्लेस एक खूबसूरत नाम, एक खूबसूरत जगह हुआ करती थी उसके जेहन में। ख्याल आते ही एक ताजगी-सी तिर आती थी। और अब...? एक कसैला धुआँ है वह। उबकाई भर आती है। और मन होता है जैसे थूक दे, थूक दे सब कुछ पर—पिच्च! मगर वह जबरन थूक गुटकता है। जी खराब हो जाता है, जैसे अभी उलटी आएगी।

ड्राइवर, कंडक्टर दोनों समझ गए हैं, इस आदमी का स्कू्र थोड़ा ढीला है। बगावत का पाठ पढ़ाता रहेगा लोगों को, जब तक नहीं उतरेगा। सो इससे छुट्टी पाना बेहतर है।

मिनी बस की स्पीड बढ़ी है—और तेज, और तेज। बीच में दो-एक स्टॉप आए हैं, लेकिन आवाज लगाना बंद हो गया है। और फिर आखिर बाराखंभा रोड...।

7

मिनी बस से उतरा तो थोड़ी राहत मिली। उसने दो-तीन लंबी-लंबी साँसें ली हैं। पहली अनुभूति यह हुई—साँस आ रही है। यानी वह जिंदा है। सब-कुछ के बावजूद जिंदा, कहीं कुछ नहीं बिगड़ा। जैसे रेप के बाद की औरत जिसे बलात्कारी जीवित सड़क पर छोड़ गए हैं।

लेकिन एक क्षण—यह सिर्फ एक क्षण का एहसास था। फिर दफ्तर याद आया और सिर भारी होने लगा।

पौन घंटा लेट। साला गंजा घूरेगा आज फिर! वह हाँफता हुआ तेज-तज चलने लगा।

लेकिन दिमाग है कि घूम रहा है, खोपड़ा है कि फटा जा रहा है। और वह सोच रहा है, बहुत ही बुरी शुरुआत हुई आज के दिन की। लगता है, दिन भर परेशानियाँ, मुसीबतें ही झेलनी पडे़ंगी।

दफ्तर!...अचानक उसे लगा, दफ्तर भी तो मिनी बस है। एक मिनी बस से उतरने के बाद दूसरी में जा रहा है वह खुद-ब-खुद अपने पैरों से चलकर।

और बीच की जो चिंता, उद्वेग, खिंचा हुआ माथा? अब भी तो मिनी बस में है वह!

तो यानी कि पूरा देश ही मिनी बस है! उतरते हुए चढ़ते हुए, जीते हुए, मरते हुए। कहीं भी छूट पाना मुश्किल। और अजीब है यह मिनी बस, जहाँ चमगादड़ और शुतुरमुर्ग और कबूतरों की फड़फड़ाहट...पिल्लों की चिल्ल-पों!

‘छिर्र...!’ तभी कीचड़ के छींटे उस पर पड़े हैं। कोई डी.टी.सी. की बस, नहीं, मिनी बस ही गुजरी है। पैंट गंदी हो गई है—एकदम।

“कुत्ता, साला...!”

वह चीखा है। रुककर घूरता रहा मिनी बस को। पिच्च से थूका है और तेज-तेज कदमों से दफ्तर की और बढ़ चला है।

**

4

नंदू भैया की कहानी

प्रकाश मनु

*

नंदू भैया की कहानी भी कभी लिखूँगा या लिखनी पड़ेगी, कब सोचा था।

नंदू भैया थे तो बस, थे। हवा, पानी, आकाश की तरह मुझे चारों ओर से घेरे हुए। हवा को ढूँढ़ने कहीं जाना नहीं होता। वह है तो बस है, इसलिए कि हम उसे अपने आसपास सब जगह महसूस करते हैं। और महसूस करते हैं, इसलिए है—हवा है—पानी है, आकाश है। और हम सोच भी नहीं पाते कि एक दिन ऐसा भी होगा ऐसा कि...

इसलिए नंदू भैया का जाना इस कदर तोड़ गया कि वह एक रिसता हुआ घाव है मेरी जिंदगी का। मैं उस दोनों बाँहों में कसकर भींचे इस कदर छिपाए घूमता हूँ दोस्तों से, परिचितों से जैसे...जैसे कि मैं अपराधी हूँ—एक खतरनाक अपराधी! और मेरा पाप जाने-अनजाने कभी इधर, कभी उधर से खुलता-सा है। सब ओर से गाँठें लगाने के बावजूद! इस पाप की दुर्गंध छिपाए छिपती नहीं।

दुनिया के लिए मैं एक अच्छा-भला, पाक साफ आदमी हूँ। पर मैं खुद से यह बात कैसे छिपाऊँ...कि मैं हत्यारा हूँ नंदू भैया का!

हाँ नंदू भैया, हाँ! मैं कनफेस करता हूँ कि हत्यारा हूँ...कि मैं चाहता तो तुम्हें बचा सकता था। अगर थोड़ा-सा भी मैं खुद से बाहर आ पाया होता तो!

तुमने तो अपना मन परत-दर-परत मेरे आगे खोल देना चाहा था नंदू भैया! पर मैं था कि कुछ झूठे शब्दों का दिलासा दे-देकर उन पर ताले जड़ता रहा कि नहीं, नंदू भैया, यह सब तो चलता है जिंदगी में! हौसला रखो, सब ठीक है! आखिर तो सब ठीक हो जाता है एक दिन...

और यह सारा ‘ड्रामा’ इसलिए कि जब मैं छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए घर आया हूँ, तो तुम कहीं अपने असली दुखों का पिटारा मेरे आगे खोलकर न बैठ जाओ। और चाय-पकौड़ों के लुत्फ और हँसी-कहकहों के साथ सस्ते भावुक शब्दों का पारिवारिक व्यापार चालू रहे।

मैं लेखक-फेखक जो भी था, मगर भीतर से एक स्वार्थी आदमी ही निकला नंदू भैया! मन में तुरत-फुरत लिखकर बड़े लेखकों की कतार में बैठ जाने की वासना ऐसी थी कि जीवन के असली दुखों के लिए वहाँ स्थान ही कहाँ था। मेरी दुनिया में हाड़-मांस के लोग कहाँ थे नंदू भैया? फिर भला तुम भी कहाँ रह जाते! और तुम मुझसे...एक ऐसे घटिया आदमी से संवेदना की अपेक्षा कर रहे थे नंदू भैया?

यों सच तो यह है, इतने बड़े हादसे की कल्पना मैंने भी नहीं की थी। मैं खुद भ्रम में था नंदू भैया, कि घरों में चलता है यह सब। थोड़ी सी उठक-पटक, थोड़ी-सी तड़-तड़ातड़, खींचातानी, ऊँच-नीच। कोई छोटा-मोटा ठंडा या गरम महाभारत! कि फिर सब ठीक हो जाता है। चीजें ‘सम’ पर आ जाती हैं...कि बाहर से चार दिन के लिए आया हुआ आदमी तो अपने ‘हस्तक्षेप’ से इस संतुलन को बिगाड़ेगा ही। लिहाजा चुप ही रहूँ!

यों मैं अपने आपको, अपनी निष्क्रियता को, कर्तव्यहीनता और स्वार्थपरता को न्यायोचित ठहराता रहा और जीवन आगे बढ़ता रहा, अपने पेट में अशांति का एक पूरा ज्वालामुखी समाए हुए। और जब वह फटा तो पूरा घर एकबारगी नंगा, लहूलुहान और क्षत-विक्षत हो चुका था।

शायद इसीलिए तुम्हारा जाना, जाना नहीं लगता नंदू भैया, बल्कि वह मेरे वजूद में एक घाव का होना है। एक इतना बड़ा घाव कि समय के साथ-साथ वह लगातार बढ़ता ही जाता है और उसका रिसाव आज तक रुका नहीं। गोकि दस बरस, पूरे दस बरस हो चुके हैं उस हादसे को...और आज भी अकेले में मैं रोता हूँ, छटपटाता हूँ। समय-असमय मेरी आत्मा कूकरी की तरह कू-कू करके क्रंदन करती है और मन होता है कि मैं दीवारों पर सिर पटक-पटककर जान दे दूँ!...तलाश! मेरी तलाश में तुम सदा-सदा के लिए समा गए हो नंदू भैया! पर तुम नहीं हो, तो नहीं ही हो।

हालाँकि कभी-कभी हैरत होती है कि तुम कहाँ नहीं हो नंदू भैया? अपने चौगिर्द देखता हूँ तो लगता है, मैं वही सब तो देख रहा हूँ, जो तुम अपनी बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखों से दिखाना चाहते थे। और...और सच तो यह है कि मेरे रक्त में तुम बह रहे हो, नंदू भैया! गुस्से, प्यार और उत्तेजना की एक तीखी कसक के साथ, मेरे रक्त में इतने साफ...कि एक नहीं, कई दफा मैंने तुम्हें साफ-साफ पहचानकर चीखना चाहा है। कि यह मैं नहीं, मेरे भीतर से तुम बोल रहे हो, नंदू भैया! तुम बोल रहे हो, तुम...तुम...तुम कि यह तो मेरी नहीं, तुम्हारी आवाज है नंदू भैया!

और कभी-कभी जब मैं एक अलमस्त फक्कड़ हँसी हँसते अपने आपको पाता हूँ, तो फिर वही टेक शुरू हो जाती है कि यह तो मेरी नहीं, उधार की हँसी है नंदू भैया! इसलिए कि यह तो तुम हो, तुम! तुम्हीं ने मुझे सिखाया था कि जीवन दिलेरी से, शान से, मस्ती से हँसकर गुजारने का नाम है। और सच्ची कहूँ, गुस्सा क्या चीज है, यह मैंने तुमसे सीखा था नंदू भैया, तो हँसना क्या होता है, यह भी मैंने तुम्हीं से जाना। और ताज्जुब है, आज तुम याद आते हो नंदू भैया, तो या तो बच्चों जैसी भोली, गोलमटोल सूरत में बेफिक्र फुर-फुर हँसी हँसते हुए...या फिर बिलकुल उलट छोर पर गुस्से में तमतमाए हुए। ऐसा गुस्सा जिससे पूरा घर थरथराता था। घर की एक-एक ईंट काँप जाती थी। तुम घर के किसी कोने में गुस्से से थरथराते बैठे हो, तो उस गुस्से की ज्वाला और तपन घर के हर कोने, हर दिशा में, हर जगह महसूस की जा सकती है।...

शायद इसलिए कि तुम अपने वजूद को जानते थे और जिसे स्वीकार करने लायक नहीं समझते थे, उसे ‘न’ कहना भी तुम्हें आता था। फिर चाहे घर भर की जिदें और आग्रह ही क्यों न तुम्हारे पीछे लगे रहें! शायद इसलिए तुम मुझे बड़े लगते थे, बहुत बड़े कि जैसे पहाड़! तुम इतने बड़े थे कि तुम्हारे होते मैं सनाथ था और तुम्हारे जाते ही अनाथ हो गया।

आज सोचता हूँ तो हैरानी होती है, हँसी भी आती है। कितने बड़े थे तुम मुझसे नंदू भैया? यही कोई साढ़े तीन-चार बरस! इतनी बड़ी जिंदगी में क्या होते हैं तीन-चार बरस? मगर तुम बड़े इसलिए थे कि तुम बड़प्पन को धारण करना जानते थे और उस बड़प्पन को निभाना भी जानते थे। और मेरे बड़े होने, खाने-कमाने लायक होने पर भी तुम उसे निभाते रहे! छुट्टियों में मेरे घर पहुँचते ही तुम मुझे खुद में ऐसे समेट लेते थे, जैसे मैं तुम्हारा छोटा भाई नहीं, तुम्हारा पुत्र होऊँ! इतना बड़ा दिल जो एक पहाड़ का ही दिल हो सकता है!

यह क्या चीज है नंदू भैया, जो लेखक न हो हुए भी तुममें थी और लेखक होने के अहंकार वाले मुझ जैसे अदने आदमी में सिरे से गायब। तो फिर झूठ ही है न यह बात कि लेखक संवेदनशील होते हैं, ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं...वगैरह-वगैरह। अगर ऐसा ही होता तो तुम कैसे इस खुदगर्ज दुनिया में अपना बस्ता इतनी जल्दी समेटकर गायब हो जाते? और मैं...! ढो रहा हूँ सिर्फ खुद को...ढो रहा हूँ सिर्फ अपनी उम्र! और भला क्या कर सका हूँ मैं?

2

अभी उस दिन अपने एक अभिन्न मित्र को सुना रहा था मैं बचपन का किस्सा। उसमें नंदू भैया, तुम बार-बार आते थे, जाते थे। मेरे मित्र वह सुन रहे थे और मुसकरा रहे थे।

वह लगातार सुनते रहे और मुसकराते रहे। किस्सा खत्म हुआ तो खिलखिलाकर हँसे। पान का बीड़ा मुँह में ठूँसा और थोड़ी पीक थूकने के बाद बोले, “अब मैं समझा कि तुम्हारे लेखन में ये जो बहुत आता है—क्या नाम है तंज, गुस्सा, खीज या कभी-कभी जरूरत से ज्यादा बोल्ड एक्सप्रेशंस, तो इसकी वजह क्या है?”

“क्यों? क्यों? कैसे...मैं समझा नहीं!” मैंने गोल-गोल चक्करदानी से बाहर निकलने की कोशिश की।

“तुम खुद सोच लो।” एक रंजित हँसी जिसमें पान का स्वाद हौले-हौले घुल रहा था। आँखें जरूरत से ज्यादा चमकदार, नुकीली।

“ओह!” अगले ही पल मेरी समझ में आ गया माजरा और यह भी कि उनका तीर किधर चल गया।

...अभी-अभी अपने मित्र को जो किस्सा सुना रहा था, वह मेरे झेंपूपन का किस्सा था। तब मैं अकेला-अकेला, सबसे डरा-डरा, सहमा-सहमा रहता था। किसी से दो बातें करनी होतीं तो मेरी जान निकल जाती। मुझे थोड़ा-बहुत दुनियादार बनाया मेरे नंदू भैया ने। (‘दुनियादार’ इस अर्थ में कि उन्होंने मुझे दुनिया के कुछ सच्ची-मुच्ची के रंग दिखाए, वरना तो तब भावुक था और अब बोहेमियन!) उनकी बाकायदा एक मित्र-मंडली थी। वे सब मिलकर दिन भर कुछ न कुछ करने, आजमाने, छेड़छाड़ और शरारतें करने के उपाय सोचा करते थे। और जीवन उनका मनोरंजक और दुस्साहसी कामों को समर्पित था।

नंदू भैया अनोखे इंसान थे। और यह बात छिपाऊँगा नहीं कि मुझे वे बहुत ज्यादा प्यार करते और मारते भी थे। कुछ लोग कहते हैं जो ज्यादा मारता है, वही ज्यादा प्यार भी कर सकता है। मैं ठीक-ठीक कह नहीं सकता, यह बात कितनी सच है, लेकन नंदू भैया के बारे में तो यह पूरी तरह सच है। घर में बल्कि पूरी दुनिया में उन्हीं से मैं सबसे अधिक डरता था, उन्हीं को सबसे अधिक चाहता भी था।

उन्होंने मुझे पतंग उड़ाना सिखाना चाहा। मैं जो नालायक था, सीख न सका। हाँ, हुचकी पकड़ने की मेरी ड्यूटी परमानेंट थी। तो चाहते न चाहते मैं बहुत से किस्से-कहानियों का गवाह हो गया। उन्होंने दोस्तों के साथ जो सात पतंगें एक साथ एक डोर में बाँधकर उड़ाने की योजना बनाई थी, उसकी मुझे अच्छी तरह याद है। कोई हफ्ते भर इस योजना पर बड़ी सीरियसली काम होता रहा। फिर इतवार को जब सात पतंगें एक साथ उड़ाई गईं, तो थोड़ी दूर जाने पर ही कैसे डोर कट गई और क्या-क्या झमेला हुआ, इस सबका प्रत्यक्षदर्शी मैं हूँ।

नंदू भैया ने ‘भाभी’ पिक्चर से यह आयडिया लिया था। यह दोस्तों से उनकी बातचीत से मुझे पता चल गया था। बाद में उन्होंने मुझे यह पिक्चर दिखाई भी। इसी के साथ उन्होंने एक और पिक्चर बड़े आग्रह से दिखाई थी—‘छोटी बहन’। अब ये दोनों पिक्चरें मेरे भीतर गड्डमड्ड हो गई हैं। हाँ, ‘भैया मेरे, छोटी बहन को ना भुलाना...’ गाने के बारे में जरूर कह सकता हूँ कि यह ‘छोटी बहन’ का ही रहा होगा। यह इसलिए कि मुझे आज तक याद है, इस गाने को सुनकर मेरी बुरी तरह रुलाई छूट गई थी और नाक बहने लगी थी, जिसे मैंने कमीज की आस्तीन से पोंछा था। इस पर गुस्साए हुए नंदू भैया ने वहीं टॉकीज में चपत लगाकर मुझे डाँटा था।

नंदू भैया पिक्चरों के बड़े शौकीन थे। लेकिन मजे के लिए पिक्चरें देखते थे, आँसू-वाँसू बहाने के लिए नहीं। और ज्यादातर वे अकेले नहीं, दोस्तों के साथ ही पिक्चर देखने जाते थे। यह अजीब बात है और मुझे आज तक इसकी वजह समझ में नहीं आई कि जब गाने आते थे और जितनी बार गाने आते थे, वे उठकर बाहर क्यों चले जाया करते थे?

घर में उन दिनों उनकी खासी पिटाई होती थी। वे डाँट खाते, इम्तिहान में फेल होते, मगर मजाल है जो उनकी शरारतें छूट जाएँ। वे शरारतें, जिन्हें बड़े भाई और पिता जी आवारागर्दी कहा करते थे। फिर भी नंदू भैया किसी न किसी तरह आँख बचाकर अपने ‘लक्ष्य’ तक पहुँच ही जाते। इस मामले में उनकी योग्यता और रहस्यात्मक शक्तियों का तो जवाब नहीं था। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि आधी पिक्चर आज देख ली, बाकी की बची हुई कल। गेटकीपर उन्हें जानते थे और मजाल है कि नंदू भैया से कोई कुछ कह सके।

दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि इंटरवल में वे घर चले आए। घर में पानी पिया, इधर-उधर घूमकर सूँघा कि कहीं कोई खतरा तो नहीं? और सब ठीक-ठाक होने पर दौड़कर फिर पिक्चर हॉल में पधार गए। पिक्चर खत्म होने पर घर आए तो कहते, “मैं तो यहीं था। चंदर से पूछ लो। दो बजे मैंने इसके पास बैठकर अमरूद खाया और पानी पिया था। अंग्रेजी का एक लेसन भी याद किया था।...पूछो इससे!”

जाहिर है, मुझे ‘हाँ’ ही कहना पड़ता था (वरना उनका गुस्सा क्या मैं जानता न था!) और नंदू भैया की जीत हो जाती! ऐसे क्षणों में उनका चेहरा और अधिक लुभावना और गोलमटोल नजर आने लगता।

3

एक-दो बार नंदू भैया ने मुझे भी इस रपटीले रास्ते पर चलाने की हलकी-सी कोशिश की। लेकिन मेरा रुझान किताबों की ओर देखकर और कुछ शायद बड़े भाई की जिम्मेदारी का ख्याल करके छोड़ दिया। इस बारे में एक घटना मुझे अब भी याद है।

...उस दिन नंदू भैया पिक्चर देखकर इंटरवल में घर आए थे। अब राम जाने कौन सी पिक्चर थी, बिलकुल दिमाग से नाम उतर गया! पर...इस बीच घर पर उनकी बुरी तरह ढूँढ़ मची थी। उन्हें दुकान पर किसी जरूरी काम से जाना था और वहाँ से जल्दी मुक्ति असंभव थी। उनके पास पिक्चर की आधी टिकट थी जो उनकी सफेद मक्खन जीन की पेंट में सुरसुरा रही थी। चोरी से उसे मेरे हाथ में थमाते हुए बोले, “जा, जल्दी से चला जा। गेटकीपर को दे दियो, अंदर बिठा देगा। कह दियो नंदू भैया, मेरे भैया हैं—सगे भाई।”

“मगर...!” मैंने प्रतिवाद करना चाहा। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, माजरा क्या है? बल्कि मेरी हालत उस बिल्ली जैसी हो रही थी, जिसे जबरदस्ती किसी हँड़िया में सिर फँसाने के लिए कहा जाए!

“मैंने आधी पिक्चर देख ली है। यह टिकट ले जा, बाकी आधी तू देख लेना। रात को मुझे स्टोरी सुना देना, शुरू की स्टोरी मैं तुझे सुना दूँगा। बस, पूरी पिक्चर तेरी भी हो जाएगी, मेरी भी।” नंदू भैया ने फिर उकसाया।

“मगर मुझे इंग्लिश ग्रामर की तैयारी करनी है, कल टैस्ट है।” मैंने झूठ बोला।

“तो क्या फर्क पड़ता है? कोई डेढ़ घंटे की बात है, बल्कि पंद्रह मिनट तो निकल ही गए।...जा, दौड़ जा।”

“मगर...वहाँ दिक्कत तो नहीं आएगी? गेटकीपर...!” मैंने अब ‘अगर-मगर’ की शरण लेनी चाही। लेकिन नंदू भैया के पास मेरी हर समस्या का समाधान था, “अरे, जा तो! तू कहियो, मैं नंदू का भाई!”

मैं बड़े भारी मन से उठा। बड़ी कातर आँखों से नंदू भैया की ओर देखता हुआ कि शायद अब भी मुझ पर तरस खाएँ। आखिर उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से डरता हुआ बाहर आ गया। घूमता-घूमता प्रकाश टॉकीज में पहुँचा। स्कूल से आते हुए दूर-दूर से देखा था और शायद तब तक एकाध पिक्चर भी नंदू भैया के साथ देखी थी, मगर...ऐसे!

इधर से घुसकर देखा, डर लगा...गेटकीपर! (वह कोई मुच्छड़ सा बंदा था, चेहरे पर भरपूर गुंडापन!) उधर से घुसकर देखा, डर लगा—यहाँ से देखा, डर लगा...वहाँ से देखा, डर लगा। पहले तो यह अंदर घुसने ही नहीं देगा और घुस भी गया तो भीतर अँधेरे में सीट तक कैसे पहुँचूँगा?

अँधेरा मेरे मन में डर बनकर घुस गया और मैं दुम दबाकर भागा। शाम को नंदू भैया ने पूछा, “पिक्चर देखी थी...?”

“हाँ।”

“कैसी लगी...?”

“अच्छी।”

“वाकई कि ऐसे ही बोल रहा है...?”

“नहीं, वाकई...!”

मगर जाने क्या चोर था मेरे बोलने में कि वो समझ गए। मुझ पर आँखें गड़ाकर पूछा, “अच्छा! बता, क्या था उस पिक्चर में?”

अब मैं घबराया। सीधे-सीधे बता दिया, “नहीं देखी।”

“फिर...?”

“मैं गया तो था, लौट आया।”

“क्यों?”

“अंदर जाने का दिल नहीं किया।” कहते-कहते मेरी आवाज भर्रा गई।

“हूँ! बेकार करा दिए न पैसे। तू किसी काम का नहीं है चंदर, क्या करेगा जीवन में?”

मुझे डर लगा, अब जरूर पिटाई होगी। मगर नंदू भैया थोड़ी देर मुझे कड़ी निगाहों से देखते रहे, फिर सॉफ्ट-सॉफ्ट हो गए।

“तुझे पिक्चरें अच्छी नहीं लगतीं?” बालों में कंघी करते हुए अचानक उन्होंने रुककर पूछा। मैं चौंका, अरे! यह मेरे ही नंदू भैया की आवाज है? इतना बहता हुआ स्नेह!

“नहीं!” जाने क्या हुआ कि मैं रो पड़ा।

“पढ़ना अच्छा लगता है?” मेरी ठोड़ी पकड़कर उठा दी है उन्होंने।

“हाँ।” मैंने कहना चाहा, मगर सिर्फ एक मरी हुई फुसफुस निकली मेरे होंठों से।

“ठीक है, मैं किताबें ला दूँगा।” और मेरी पीठ थपथपाकर चले गए।

4

पता नहीं कब तक मैं बैठा रहा, क्या-क्या सोचता रहा। शायद यह कि मेरे नंदू भैया क्या हमेशा ऐसे ही नहीं बने रह सकते, जैसे कि आज...! लेकिन नंदू भैया बदले, थोड़े से तो जरूर ही बदल गए।

इसके बाद वे न सिर्फ मेरे लिए किताबें लाते, दोस्तों के बीच भी जमकर तारीफ करते और कम से कम उन्हें मेरा मजाक तो नहीं उड़ाने देते। उन्होंने जो किताबें लाकर दीं, उनमें चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और विवेकानंद की जीवनियों की मुझे अब भी याद है। ये किताबें वर्षों तक मेरे पास रहीं! नंदू भैया उनके बारे में पूछते और दोस्तों के बीच गर्व से कहते, “देखना, चंदर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा!” मुझे अच्छा लगता, लेकिन अगले ही पल मैं झेंप जाता। कुछ भी हो, नंदू भैया के दोस्त जो उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, अब मेरा सम्मान करने लगे थे। और इस बात से मैं दूनी झेंप महसूस करता था और कन्नी काटने लगा था।

मजे की बात यह है कि नंदू भैया ने ही मुझे प्रेमचंद से पहली दफा मिलवाया था। उन्होंने ‘प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ’ किताब लाकर दी थी। सारी कहानियाँ मैं कोई डेढ़-दो दिनों में चाट गया था और जब ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी पढ़ी थी, तो मेरी हालत यह कि ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। अरे! यह तो मेरी और मेरे नंदू भैया की कहानी है! प्रेमचंद ने कैसे लिख ली? मेरा मन हुआ कि दौड़कर नंदू भैया के पास जाऊँऔर उन्हें बताऊँ कि देखिए-देखिए, यह जो प्रेमचंद के ‘बड़े भाईसाहब’ हैं न, बिलकुल...बिलकुल...जैसे आप!

पर उत्तेजना में, एकांत में खुशी से हाँफते हुए यह सोचना जितना आसान था, नंदू भैया के पास जाकर उसे कहना उतना ही मुश्किल! अगर खुदा न खास्ता उन्हें गुस्सा आ गया तो? मेरी हड्डी-पसली एक नहीं रहेगी।

...तो भी नंदू भैया जो थे, सो थे। उनसे डर और संकोच के बावजूद एक अंदरूनी गहरा-गहरा-सा प्यार था और मेरी जिंदगी मजे में चल रही थी। मन में कहीं एक गहरी आश्वस्ति-सी थी कि कहीं कुछ भी हो, नंदू भैया सब सँभाल लेंगे। वे परम समर्थ हैं, उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

बचपन में मेरे ‘हीमैन’ थे नंदू भैया। और ‘हीमैन’ ही नहीं, सच्ची कहूँ तो गॉडफादर भी। हालाँकि उन्होंने होना चाहा नहीं था, यह मैं ही था जो प्रेम और आतंक से भरकर उनकी पूजा-सी करता था।

नंदू भैया थे ही ऐसे ग्रेट...!

5

फिर एक आँधी चली, एक काली आँधी। और उस हादसे ने हमारे घर की सुख-शांति को तिनका-तिनका कर बिखेर दिया।

बिलकुल अनपेक्षित दुर्घटना। बड़े भाईसाहब प्राणनाथ जी का हार्ट अटैक!

सिर्फ पैंतीस बरस की उम्र में वे गए। यह एक जवान, हरे पेड़ की मौत थी। पूरा घर स्तब्ध!

घर में सब रोए थे। फूट-फूटकर रोए थे। माँ छाती पीट रही थीं, पिता दीवारों से सिर मार रहे थे। अगर कोई नहीं रोया था, तो सिर्फ नंदू भैया! उनके आँसू एकदम सूख गए थे, आँखें पत्थर हो गई थीं। मानो वे कुछ देख ही नहीं पा रहे थे, समझ ही नहीं पा रहे थे।

माँ बार-बार उन्हें छाती से लगाकर कहती थीं, “तू रो ले पुत्तर, रो ले...अंदर का दुख निकल जाएगा।” पर नंदू भैया को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा था। वे हमारे देखते ही देखते पत्थर हो चुके थे।

माँ आखिर माँ थीं, सब समझ गईं। उन्होंने घर के लोगों से पुकार-पुकारकर कहा, “मेरा नंदू रो नईं रिया, उन्नू रुआओ। नईं ताँ कुज्झ हो जाएगा।”

और सचमुच वह हादसा ऐसा बैठा नंदू भैया के भीतर कि फिर वे कभी पहले जैसे नंदू भैया नहीं रहे। एक हादसा जो एक और बड़े हादसे की जमीन तैयार कर रहा था। उसे कोई और नहीं समझा, बस माँ समझीं।

अलबत्ता उस दिन के बाद से नंदू भैया कभी सहज नहीं रहे। वे खुश होते तो बहुत-बहुत ज्यादा खुश और नाराज होते तो बहुत-बहुत ज्यादा नाराज। हालाँकि खुश अक्सर कम ही होते, नाराज ज्यादा। अक्सर गुस्से से उनकी आँखें चढ़ी रहतीं और लाल-लाल नजर आतीं।...दुखी हम सभी थे, पर नंदू भैया की हालत घर के दुख को और बढ़ा रही थी।

‘नंदू भैया का गुस्सा आखिर किस पर है?’ डरा-डरा सा मैं सोचता था। ‘क्या उस विधाता पर जिसने बड़े भाईसाहब को छीनकर हम सब लोगों के साथ भारी अन्याय किया है? पर विधाता के अन्याय का कोई विरोध कर सका है? आखिर किससे लड़ने चले थे नंदू भैया...? पागल! एकदम पागल!!’

पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था और इस घटना के बाद तो और भी उचट गया। रात-रात भर वे जागते और छत पर अकेले टहलते रहते। उनके पैरों की आवाज आती थी और मैं सहमा-सा अपने बिस्तर में दुबका रहता था। मन ही ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ, ‘हे भगवान, मेरे नंदू भैया को शांति दे।...उन्हें शांति दो भगवान!!’

मन होता, जाऊँ और प्यार से उनका हाथ पकड़कर ले आऊँ, ‘आओ नंदू भैया, बैठो मेरे पास। कुछ बात करो।’ और फिर ढेर-ढेर-सी उनसे बातें करता। पर नहीं, मैं हिम्मत ही कब कर पाया? नंदू भैया से अब ज्यादा डर लगने लगा था। पहले वाला नहीं, यह कुछ अलग-सा डर था। मुझे लगता था, कहीं कुछ ऐसा न कर बैठूँ कि नंदू भैया के भीतर सोया हुआ ज्वालामुखी जाग जाए और उनके भीतर ध्वंस शुरू हो जाए। इसलिए उन्हें जरा भी छेड़ते मुझे डर लगता था। मैं अक्सर सामने होने पर उनसे कन्नी काटता और बचता था। फिर आखिर सोचा यही गया कि नंदू भैया पढ़ाई छोड़ें, कपड़े वाली दुकान पर ही बैठें। इससे कम से कम उनका मन तो लगा रहेगा।

और थोड़े दिनों के अनमनेपन के बाद सचमुच नंदू भैया अपनी रौ में आ गए। दुकान में सचमुच उनका मन लगने लगा था। उनका व्यवहार और उनका बोलना-चालना ग्राहकों को प्रभावित करता था। हाँ, लेकिन उनके स्वभाव में एक विसंगति आकर बैठ गई। कभी वे उत्साह में आते, तो एकदम हवा में उड़ते हुए नजर आते और कभी सुस्त होते तो इस कदर कि अपनी जगह से थोड़ा हिलने में भी मानो उनके प्राण निकलते हों। वे हमेशा छोरों पर रहते थे और बीच में बहुत कम नजर आते थे। कभी-कभी किसी ग्राहक की उजड्डता या असभ्य व्यवहार पर उनका गुस्सा उबल पड़ता और तब उन्हें कोई होश नहीं रहता था। पिता जी समझाते, “देखो बेटा, दुकानदार को विनम्र होना चाहिए!”

पर भीतर गुस्सा उबल रहा हो और बाहर विनम्रता का महीन कवच धारण किए रहें, नंदू भैया को यह दुनियादारी कभी नहीं आई। अंत तक नहीं आई...! आती तो क्या वे इस तरह जाते, इतनी जल्दी चले जाते?

6

पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में अपना शहर छोड़कर मुझे बनारस जाना पड़ा, तो मन में हमेशा यही खटका लगा रहता कि नंदू भैया कैसे होंगे? अब कुछ ‘सम’ पर आए होंगे या नहीं? मन ही मन यही प्रार्थना करता कि वे ठीक रहें, प्रसन्न रहें, क्योंकि उनकी प्रसन्नता से ही घर की प्रसन्नता लौट सकती थी। घर में हर हफ्ते चिट्ठी डालकर एक ही सवाल पूछता—नंदू भैया कैसे हैं? घर से कोई मिलने आता, तो भी मेरा पहला सवाल यही होता, नंदू भैया कैसे हैं? नंदू भैया का स्वस्थ होना ही मेरे लिए घर का स्वस्थ होना था। दोनों मानो एक-दूसरे के पर्याय हो चुके थे।

फिर मन बार-बार उनकी तरफ इसलिए भी दौड़ता था कि मैं जानता था कि घर में नंदू भैया के कद का कोई और नहीं है। नंदू भैया तो बस, नंदू भैया ही हैं। नंदू भैया ने खुद को खाक कर मुझे मेरे होने का अर्थ दिया था।

और सच तो यह है कि नंदू भैया ने एक तरह से खुद को खाद बना डाला था, जिस पर मैं गुलाब की तरह फूला, इतरा रहा था। कैपीटलिस्ट! एक सभ्य दुनिया का बाशिंदा—नफीस साहित्यकार!!

7

साल में एक-दो दफा छुट्टियों में मैं कुछ दिन के लिए घर आता, तो सभी खुश होते, लेकिन नंदू भैया तो जैसे दिल का खजाना ही खोल देते। इतनी बातें, इतनी आवभगत, इतना स्वागत! मानो उल्लास से भरकर फूले-फूले-से सभी दिशाआों को सुना देना चाहते हों, ‘मेरा भाई...मेरा भाई!’ जैसे उनका भाई न हुआ, दुनिया का अनमोल हीरा हो गया।

बाद में विवाह हुआ तो गौरी भाभी ने भी बहुत जल्दी नंदू भैया की आदतें जान लीं और उन्हें रिझाने के गुर भी। नंदू भैया सचमुच विवाह के बाद एक नए रूप में ढल से गए। उनके इस नए रूप में गुस्सा कम, मस्ती कुछ ज्यादा थी और एक खानदानी किस्म का ऊँचा-ऊँचा, उन्नत आत्मगौरव तो था ही। कपड़ों में, चाल-ढाल में अजब-सी शान। सफेद कुरता-पाजामा, यही उनकी पसंदीदा पोशाक थी। पर शायद ही कभी किसी ने उनके इस्तिरी किए हुए झकाझक सफेद कुरते-पाजामे पर कोई दाग देखा हो। उनके विवाह के साल पीछे मुन्नू आ गया और उसके कोई डेढ़-दो साल बाद मीना। और सचमुच नंदू भैया गौरी भाभी के स्नेह और मुन्नू-मीना की जोड़ी के किल्लोल से बँध-से गए।

लिहाजा अब जब भी मैं मिलता, हँसने-गुदगुदाने वाले प्रसंग उनके मुँह से ज्यादा सुनाई पड़ते। कभी-कभी मस्ती में कोई तान भी छेड़ देते। एक छोटी-सी ढोलकी हमारे घर में थी, उसे गले में लटकाकर जब वे गौरी भाभी को रिझाने के लिए तरंग में आकर ताल देते, तो क्या खूब फबते थे! और ऐसे क्षणों में मेरे मुँह से निकलता कि नंदू भैया तो बस, नंदू भैया ही हो सकते हैं!

हालाँकि बीच-बीच में कभी-कभार उनका दुख भी प्रकट होता, जिसे कभी वे बहने देते, कभी बचा ले जाते। यह व्यापार-बुद्धि वाले एक बड़े खानदानी घर में उनके कुछ-कुछ ‘मिसफिट’ होने का दर्द था।

मजे की बात यह है कि नंदू भैया दुकान पर बैठते थे, दुकान का हिसाब-किताब भी देखते थे, लेकिन तबीयत से हिसाबी-किताबी बिलकुल नहीं थे। एक व्यापारी परिवार में जहाँ पैसे से बढक़र कुछ और नहीं होता, इस तरह बगैर हिसाब के जीने के अपने खतरे थे। मगर नंदू भैया थे कि अपनी मस्ती बचाए हुए थे।

वे एक मजबूत चट्टान की तरह थे, जिसके चारों ओर पानी था। पानी ही पानी! लगता था, उस विशाल चट्टान का हिल पाना मुश्किल है। लेकिन फिर बरस-दर-बरस बीते, अगली पीढ़ी आई, जो कहीं ज्यादा ‘कैलकुलेटिव’ थी। ऊपर से शांत लेकिन भीतर असंवेदनशील और दुनियादार। छोटे भाई-भतीजों ने आ-आकर व्यापार सँभाला और उसके मुख्य-मुख्य चक्कों पर कब्जा कर लिया। वे सफल थे, क्योंकि वे संपर्कों और फायदे का ‘गुर’ जानते थे और नंदू भैया के पास उनके घनघोर फायदे के तर्कों का कोई जवाब नहीं था।

नंदू भैया अब भी इन तर्कों के जवाब में क्रोध से गरजकर अपने होने का परिचय दे सकते थे। यही वे करते भी थे। और जब वे गुस्से से थरथराते हुए चिल्लाकर कहते, “खामोश, अब एक शब्द भी आगे कहा तो...!” तो उस समय आसपास के लोग ही नहीं, दीवारें तक थरथरा जाती थीं। तब किसी बड़े से बड़े सूरमा की हिम्मत नहीं थी कि कोई उनके आगे जरा ‘चुसक’ जाए।...

लेकिन नई पीढ़ी को आना होता ही है। वह आती ही है, और अपने पूरे तौर-तरीकों के साथ, बड़े रहस्यात्मक बल्कि हिंसक ढंग से अपने से पुरानी पीढ़ी को खारिज करके आती है। नंदू भैया ने बदलना नहीं सीखा था, लिहाजा व्यापार में उनका ‘बदल’ सोच लिया गया। ज्यादातर मामलों में उन्हें अब कुछ बताया ही न जाता, बल्कि उनसे जान-बूझकर छिपाया जाता। यह उन्हें दरकिनार करने की चाल थी, जिसमें पिता, छोटे भाई-भतीजे सब शामिल थे।

अब नंदू भैया अपना दुख कभी-कभार मुझे बताते थे और कई बार तो बहुत ज्यादा विचलित होकर बताते थे। एक-दो बार तो उन्होंने ऊबकर कहा, ‘तू अपने शहर में ही मेरे लिए कोई नौकरी ढूँढ़ना। अगर डेढ़-दो हजार की भी हुई, तो मैं चला लूँगा। कहीं भी किसी तरह की भी हो। कुछ और नहीं तो किसी बनिए के यहाँ हिसाब-किताब की ही सही। मुनीमगीरी तो मैं कर ही सकता हूँ!”

सुनकर मैं मर्माहत हो गया। जिस आदमी ने जिंदगी भर कभी हिसाब-किताब नहीं किया, वह कहीं हिसाब-किताब देखने की नौकरी कर पाएगा ही नहीं। जानता था, यह उनसे नहीं होगा। नौकरी उनके बस की नहीं। क्योंकि नौकरी का अर्थ किसी न किसी रूप में तो गुलामी है। उन जैसे शाही अंदाज वाले परम स्वाधीन आदमी के बस की यह बात नहीं, जिसने कभी झुकना सीखा ही नहीं! और फिर हजार-डेढ़ हजार की नौकरी में तो नंदू भैया और उनके परिवार की सूखी रोटी भी नहीं चल सकती थी। यहाँ तक कि खाली उनके और बच्चों के कपड़ों-लत्तों का खर्च हजार-डेढ़ हजार से कम न होगा। पर यह बात उनसे कहे कौन?

मैं सिर्फ झूठे शब्दों का झूठा दिलासा देकर दुख पर राख डालता रहा और कहता, “भैया, जैसे ही किसी नौकरी की खबर लगेगी, मैं चिट्ठी लिख दूँगा। वैसे घर में सब आपकी इतनी इज्जत करते हैं। थोड़ा-सा एडजस्ट करना सीख लीजिए, चीजें आपसे आप हल हो जाएँगी।”

लेकिन यह जो ‘थोड़ा-सा एडजस्ट करना’ था, यही उन्होंने नहीं सीखा। सीख नहीं पाए जीवन भर। जानता था कि मुझसे ये सारी बातें वे इस अपेक्षा के साथ ही करते हैं कि कहीं न कहीं एक नैतिक दबाव धन की ‘माया’ से अंधे हुए घर के लोगों पर डालूँ, ताकि हालात कुछ बदलें। नंदू भैया की हालत यह थी कि प्राण चाहे चले जाएँ, लेकिन आन-बान नहीं जानी चाहिए। वे मेरे सिवा किसी और से अपने दुख और अभाव की कथा कह ही नहीं सकते थे। और मैं इतना भीरु, इतना कायर था कि सोचता था, क्यों सबके आगे ये बखेड़े खोलकर घर का माहौल खराब करूँ? घर के हालात तो आज नहीं तो कल जैसे-तैसे सुलझ ही जाएँगेे। तो मैं जो महीनों बाद घर आया हूँ, क्यों न चार दिन सुख से बिताकर ही लौटँू!

ऐसा नहीं कि नंदू भैया यह बात समझते न हों। वे खुद भी अपनी सारी ‘भाप’ निकालने के बाद उदासी भूलकर अपनी सदाबहार अदा में हँसने-गाने और अपने निहायत मौलिक किस्म के चुटकुले सुनाने में लीन हो जाते।

माँ खुश थीं। घर के और लोग भी खुश होते कि मेरे आने से नंदू भैया खुश हो जाते हैं। लेकिन मैं भीतर-भीतर रोता था। नंदू भैया की कही हुई बातें भीतर ही भीतर दस्तक देती थीं। और मन कच्ची दीवार की तरह भीतर ही भीतर ढहता, भुरभुराता रहता। मैं चाहकर भी नंदू भैया के मुतल्लिक कभी कुछ कह नहीं पाता था। या कभी थोड़ी-बहुत हिम्मत की भी, तो परिवार का व्यापारिक गणित इतना सख्त और जड़ था कि मैं आगे बात बढ़ा नहीं पाया। ऐसे तर्कों-कुतर्कों से मेरा मुँह बंद कर दिया गया कि आगे कुछ कहने का मतलब ही था, सीधे-सीधे लड़ाई छेड़ना!

फिर जैसी कि आशंका थी, एक फौरी बँटवारे के तहत नंदू भैया को अलग कर दिया गया। जो कुछ उनके हिस्से में आया था, उससे उनका खर्च मुश्किल से चल पाता था। उन्हें यह इतना अन्यायपूर्ण लगता था कि भीतर ही भीतर सुलगते थे। एक ज्वालामुखी था जो सोया पड़ा था। बहुत दिनों से वह गरजा नहीं था और लोगों ने सोच लिया था कि अब ज्वालामुखी, ज्वालामुखी नहीं रहा।

लेकिन ज्वालामुखी कभी सोया करते हैं? वे सिर्फ अपने लिए मौका तलाशते हैं।

8

नंदू भैया से आखिरी मुलाकात भी ऐसी ही एक सीझी हुई मुलाकात थी जिसमें दुख और खुशी के मिले-जुले गाढ़े रंग थे। अपने दुख उन्होंने सुनाए थे और अपनी विपद-कथा सुनाकर कहा था, नौकरी नहीं तो कोई छोटी-मोटी दुकान ही उनके लिए मैं देखूँ। बाहर वे कोई भी छोटा-मोटा काम कर सकते हैं, मगर इस शहर में उन जैसे खानदानी आदमी के लिए कोई छोटा काम करना भी हतक होगी।...

मैंने हमेशा की तरह उन्हें एक झूठा उत्साहपूर्ण दिलासा दिया था। फिर मेरे दोस्त आ गए तो उनके साथ हलके-फुल्के मजाक और चुटकुलेबाजी में वे ऐसे रमे कि अपना सारा गम भूल गए। उन्हें इतने जोरों से अट्टहास करते देखकर कोई अंदाज भी नहीं लगा सकता था कि इस अट्टहास का कोई रिश्ता उस दुख से भी है, जो उनके भीतर ही भीतर जमकर पहाड़ हुआ जाता था।

दोपहर को मुझे गाड़ी पकड़नी थी, लेकिन दोस्त थे कि मुझे कुछ देर के लिए खींचकर बाजार ले जाना चाहते थे। तब देर तक और दूर तक नंदू भैया की आवाज मेरा पीछा करती रही, “जरा जल्दी लौट आइयो चंदर। मैंने खुद अपने हाथ से तेरे लिए बेल का शर्बत बनाया है—स्पेशल!”

लेकिन मैं लौटकर आया तो ऐन गाड़ी के टाइम पर। नंदू भैया लपककर गए, रिक्शा ले आए। मैं हड़बड़ी में सामान के साथ बैठा और उनसे दूर होता चला गया। लगातार दूर होता चला गया।

गाड़ी में याद आया—अरे! नंदू भैया ने मेरे लिए बेल का शर्बत बनाया था। कितने प्यार से आग्रह किया था, लेकिन मेरी हड़बड़ी के कारण वह तो छूट ही गया। न उन्हें याद आया, न मुझे। छोटी-सी बात थी लेकिन किसी ‘अशुभ’ की तरह मन में गड़ गई!

लौटकर बनारस आया, तो उदास था। रात अचानक एक दु:स्वप्न की चीख के साथ आँख खुल गई। नंदू भैया रेल की पटरियों पर दौड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं...दौड़ते जा रहे हैं और पीछे आँधी की तरह तेज भागती राजधानी एक्सप्रेस...कि अचानक खत्म, सब खत्म! नंदू भैया का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया।

वह पूरी रात जागकर काटी। सुबह उठते ही घर चिट्ठी लिखी, ‘नंदू भैया की बड़ी याद आती है। कल एक बुरा सपना देखा। घर में सब खैरियत तो है?’

पर चिट्ठी का जवाब आए, इससे पहले ही घबराया हुआ भतीजा आ गया, “चलिए चाचा, नंदू चाचा की तबीयत ठीक नहीं...हार्ट अटैक!”

मैं पत्नी और बच्चों के साथ हड़बड़ाया हुआ घर गया तो अंतिम संस्कार हो चुका था।

मैं कुछ समझ पाऊँ, इससे पहले छोटा भाई हाथ पकड़कर मुझे एक ओर ले गया। बोला, ‘चलिए मेरे साथ...!’

थोड़ी देर में मैं नंदू भैया की जलती हुई चिता के सामने था और मन को यह विश्वास दिलाने की असफल-सी कोशिश कर रहा था कि यहाँ जो जल रहा है, वही नंदू भैया हैं।

“कल रात की बात...! उन्होंने कीड़े मारने वाली दवा की गोलियाँ खा ली थीं। पुलिस केस बनता, इसलिए जल्दी करना जरूरी था। शहर में दुश्मन भी तो कम नहीं हैं, हालाँकि किसी की हिम्मत नहीं पड़ी। असल में...पुलिस अफसर अपने गुप्ता जी का खास दोस्त...!” छोटा भाई समझा रहा था।

चिता जल रही है, जिसमें नंदू भैया की विशाल काया के साथ-साथ उनके भीतर के दुखों का पूरा पहाड़ भी धू-धू धधक रहा है।

“नंदू भैया, तुम इतने धोखेबाज निकलोगे, इतने धोखेबाज? मैंने नहीं सोचा था। तुम मुझे क्यों छोड़कर चले गए? क्यों! मुझे तो तुम्हारा ही सहारा था।” मैं फूट-फूटकर रो रहा था।

“चलो भैया, अब तो सब खत्म हो गया।” छोटा भाई बाँह पकड़कर मुझे सांत्वना दे रहा है।

“क्या गोलियाँ खाते ही तत्काल हो गई थी मृत्यु? तुम्हें पता कैसे चला?”

“वे आधी रात को बुरी तरह दरवाजा भड़भड़ा रहे थे। हम लोग दौड़कर पहुँचे, तो एकाएक जमीन पर लोट गए। उनके आखिरी शब्द थे, ‘मुझे बचा लो भाई...मुझे बचा लो, मैं जीना चाहता हूँ।”

“हम उन्हें बचा नहीं सके। हम गाड़ी में डालकर अस्पताल ले गए थे, लेकिन...” छोटा भाई हिलक-हिलककर रोने लगा।

“क्या कुछ दिनों से कुछ खास परेशानी में थे?”

“सुना है, कुछ कर्जा ले लिया था, दस-पंद्रह हजार। वह भी अपने लिए नहीं अपने किसी दोस्त के लिए! उसे चुका नहीं पा रहे थे। हमें बताया ही नहीं, नहीं तो...”

—तुमने क्या सचमुच कभी जानना चाहा, वे किस दुख-परेशानी मे थे? बड़े भाई होकर छोटे से कुछ माँगना उनके लिए हतक थी। मरते-मरते भी उन्होंने साबित कर दिया...कि वे झुकने के लिए नहीं पैदा हुए थे। तुमने उन्हें समझा नहीं!—कहना चाहता था, कहा नहीं गया।

9

छोटा भाई अब सीझा-सा खड़ा था और मेरे भीतर नंदू भैया के आखिरी शब्द गूँज रहे थे, ‘कोई छोटी-मोटी नौकरी मेरे लिए देखना चंदर! मैं इस घर में बहुत दूर चला जाना चाहता हूँ।...’

और सचमुच वे दूर, बहुत चले गए।

उन्होंने तो अपनी आन की रक्षा कर ली। लेकिन मैंने...? मैंने क्या किया उनके लिए, उनके सारे प्यार और विश्वास के बावजूद!...

अपने ही शब्दों की गूँज लौट-लौटकर फिर मुझ तक आती है। मन के भीतर कोई और मन है। वह सीधे-सीधे आँखों में आँखें डाल, मुझसे पूछ रहा है, “धोखेबाज कौन था चंदर? कौन था कृतघ्न? नंदू भैया...या...या...या?”

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5

एक सुबह का महाभारत

प्रकाश मनु

*

सच्ची कहता हूँ, मेरी कहानी के सुनने वालो! आपसे जरा भी झूठ नहीं बोलूँगा। इस सबके लिए मैं जिम्मेदार हूँ। मैं—सिर्फ मैं। और मेरे सिवा कोई नहीं। मैंने खुद ही खुद को चौपट कर लिया। बीच राह में, गले में कालिदास की परंपरा का पट्टा लटकाकर बैठ गया कि हाँ जी, हाँ, मैं हूँ लेखक—मैं हूँ साहित्यकार महान! जबकि साहित्य-फाहित्य से होता क्या है आज के जमाने में? सिर्फ यही कि घड़ी की सूइयाँ बेतुकी चाल चलने लगती हैं। कभी समय से थोड़ा आगे, कभी समय से थोड़ा पीछे। और फिर...

और फिर यह रोग कोई आज का थोड़े ही है, बचपन तक इसकी जड़ें जाती हैं। बचपन में खाट पर बैठा-बैठा ‘महाभारत’ पढ़ता था, तो अक्सर साँझ का अँधेरा घिर आता था। और मेरी समाधि टूटने में नहीं आती थी। माँ टोकती थीं, “अब रहने भी दे, बेटा!” पर मुझे इतना रस आता था, इतना कि...एक दिन मैंने कर्ण पर खंड-काव्य लिखने का इरादा कर लिया। और कुछ आगे चलकर तूफानी गति से सौ-डेढ़ सौ कच्चे-पक्के छंद लिखे भी गए!

तब क्या जानता था कि एक दिन...! एक दिन यह महाभारत मेरी जिंदगी से होकर मेरी कहानी तक चला आएगा, कुछ ऐसी ही तूफानी चाल से...कि सब कुछ दरहम-बरहम।

जैसे कि आज का दिन।...आज की कटी-पिटी चिथड़ा सुबह, जो असंभव नहीं कि मेरे पीले चेहरे और मेरी गीली आँखों की कोरों से झाँक रही हो!

2

खैर! क्या आप जानना चाहते हैं कि आज सुबह घर में क्या हुआ! एकदम सुबह-सुबह मुझ चंद्रकांत विनायक के घर पर अशुभ...अशांति, अमंगल—यानी महाभारत!

अब मैं समझता हूँ, मुझे तफसील से और साफ-साफ सब कुछ बताना चाहिए। सुधा और अपनी भूमिकाएँ भी, बगैर पहेलियाँ बुझाए हुए।...असल में बड़े दिनों से घर में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और भीतर-भीतर ‘गृहस्थी की उच्छल तरंग’ के अलावा यह आशंका मुझे खाए जा रही थी कि इतने दिन बीते, अब होगा...कुछ होगा! और वह आज सुबह-सुबह हो गया! अपने पूरे भौंडेपन और भड़-भड़-भड़ के साथ।

झगड़ा! झगड़ा ही कहेंगे उसे? खैर, जो भी वह हो और जो भी नाम दें आप उसे, मगर असल में वह तो हमारे भीतर ही सो रहा होता है। और जब एक झटके से चारपाई से उठकर खड़ा हो जाता है तो हम कहते हैं—झगड़ा!...कि साब, दो दिल झगड़ पड़े। मैं कहता हूँ, क्यों झगड़ पड़े—क्यों? क्या यह झगड़ा उसी वक्त हुआ जब ये झगड़ रहे थे? जी नहीं जनाब, इसका जो बीज होता है, बीज...! (आप नहीं समझोगे। कोई नहीं समझता!)

खैर, बात कुछ खास न थी। यह मैं ही था, मेरा उखड़ा मूड जो झगड़े का कारण था। कई दिनों से मैं कुछ लिखना चाह रहा था और लिख नहीं पा रहा था तो मेरे पैर टेढ़े-टेढ़े पड़ रहे थे। साँस टेढ़ी-टेढ़ी चल रही थी और सब कुछ गड़बड़ हो गया था।

दफ्तर में दफ्तर के काम थे, घर में घर की चिंताएँ। ट्रेन में ट्रेन की भब्भड़! दोस्तों में दोस्तों की हड़बड़! रात में थके-टूटे जिस्म और नींद की गड़बड़। तो फिर लिखता कब? मगर इस खोपड़े में जो धम-धम कर रहा था राक्षस, रात-दिन...रात-दिन, उससे निजात तो नहीं पा सकता था न! लगता था, अपने कथानायक बैरिस्टर कामता बाबू को यों दिखाएँ, वो दिखाएँ, वो-वों दिखाएँ, तो बात बन जाए।

कामता बाबू मेरी नई कहानी के खासमखास कैरेक्टर थे। कामता बाबू के धाँसू कैरेक्टर के जरिए असल में मैं बहुत-कुछ कह डालना चाहता था। और जो कह डालना चाहता था, उसका नक्शा दिमाग में करीब-करीब बन चुका था। मगर सिर्फ दिमाग में बनने से तो बात नहीं बनती न! कागज पर...! असल बात तो यह है कि कागज पर कब उतारें उसे—कैसे?

3

सुबह चाय पीकर एक हलकी अँगड़ाई ही ली थी—कि पता नहीं चाय का असर था या मौसम का या कुछ और...वह जिन्न फिर एकाएक बोतल से निकलकर खड़ा हो गया जिसे बमुश्किल बोतल में डाला था। और वह लगा चीखने, ‘लिखना चाहिए—लिखना, कुछ लिखना चाहिए!’ अब हार तय थी। बड़ी मुश्किल से रद्दी के ढेर में हाथ-पैर मारकर कुछ कागज ढूँढ़े, जिन पर एक तरफ बच्चों ने कुछ नीला-पीला किया हुआ था, दूसरी तरफ खाली। टैग लगाकर ऐसे पच्चीस-तीस पन्नों को बाँधा और गला खँखारकर लिखने की भूमिका बनाने लगा।

कुछ देर बाद मैंने पेन उठाया और शीर्षक ठोंक दिया—‘कामता बाबू की अनोखी आत्मकथा’। यह तरीका, झूठ क्यों बोलूँ, मैंने अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से सीखा था। उनके उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्मकथा’ से। अब आगे...? शुरुआत कहाँ से की जाए? लगा, कुछ मुश्किल आ रही है।

आखिर मैं झटके से उठा और कमरे में टहलने लगा। सुना है, टॉलस्टाय हों, दोस्तोवस्की, चेखव या पुश्किन, इन सबको कमरे में टहलने की बीमारी थी। ये सब कमरे में खूब-खूब टहलते और खूब-खूब लिखते थे। और मजे की बात तो यह है कि ये सबके सब मेरे नायक हैं, सबके सब!

‘अरे व्वाह...!’ मैं बाँहें कसे हुए कमरे में टहल रहा था। मन ही मन गौरवान्वित भी हो रहा था। ‘आखिर हम भी किसी से कम नहीं’ वाली महानायकी मुद्रा! और सच्ची कहूँ, कहानी लिखने से ज्यादा मुझे पुलकित कर रहा था अपना यह सोचना कि पूरी होते ही कहानी ‘इक्कीसवीं सदी’ के संपादक को भेजूँगा। कंबख्त इतवारीलाल ‘अलबेला’ भी याद करेगा कि कोई चीज है! छापे न छापे, मगर चीं बोल जाएगा, चीं! इतवारीलाल ‘अलबेला’ ने अभी लेखक नहीं देखे। बौने लेखकों की जमात के बल पर राजा बना हुआ है। मैं ससुर को फिर से बौना बना दूँगा, बौना! पुनर्मूषको भव!...

4

अभी यह सब धाराप्रवाह चल ही रहा था कि अचानक किसी ने पानी में कंकड़ फेंका। सुधा के जोर-जोर से बोलने, बच्चों के ‘पापा...पापा’ कहकर रोने-चिल्लाने और चाँटों की चट-चटाक की आवाज आई, तो मामला धडड़ड़़...धड़ा..म हो गया।

बच्चे काफी पिट गए थे शायद। इस मामले में सुधा का सिद्धांत है (और वह कभी मेरी समझ में नहीं आया) कि या तो पीटो नहीं, या फिर इतना कड़काओ कि किसी एकाध बच्चे की एकाध हड्डी-वड्डी तो चटकनी ही चाहिए।

बहरहाल, मैं जो लेखन की दुनिया में काफी अंदर तक चला गया था, एकाएक शीर्षासन करता हुआ दूसरी दुनिया तक आया!...मैं दरअसल, जैसा कि शायद पहले भी बताया है, कामता बाबू पर एक उपन्यासनुमा लंबी कहानी लिखने की सोच रहा था। और सोच रहा था कि कहानी में उनकी उपस्थिति किस रूप में हो और उनके साथ क्या-क्या ड्रामेबाजी हो, जो भँप जाए? फिर यह भी कि उनके चेहरे में और कौन-कौन से चेहरे शामिल किए जाएँ? तमाम चेहरे मेरे जेहन में थे, जिनके बीच से कामता बाबू का चेहरा बनना था। एक सुदर्शन, मगर खुर्राट चेहरा। ऐसे सत्तापुरुष का, जो सत्ता के ऊँचे सिंहासन पर भी काबिज है और संस्कृति की आत्मा भी है। हर क्षण मुसकराता हुआ सम्मोहक चेहरा, जो न दुख जानता है, न उदासी। और मेरे-आपके हर सवाल का जवाब उसका यही अमोघ अस्त्र, यानी मोहिनी मुसकान है।...

कहानी में असल कामता बाबू के गंजेपन को मैं हलके-फुल्के बालों से भर देना चाहता था। इसके अलावा मैं उन्हें, जैसे वे हैं, उससे थोड़ा अधिक तंदुरुस्त दिखाना चाहता था। हाँ, आवाज और गरदन को बारी-बारी दाएँ-बाएँ हिलाकर बोलने का अंदाज नहीं बदलना चाहता था और यह सचमुच मुझे प्यारा लगता है। मेरा ख्याल है, आप भी इसकी ताईद करेंगे।...जरूर करेंगे!

5

तो अब आप ही सोचिए, जब मैं ऐसी महाधाराओं में बह रहा था, तब सुधा का चिल्लाना मुझे कैसे लगा होगा?

“सुधा...!” गुस्से से बेकाबू होकर मैं चीखा। लग रहा था, मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।

कोई जवाब नहीं मिला, तो धम-धम पैर पटकता बच्चों के पिटे हुए गालों और चीख में बदल चुके रुदन के एकाएक सामने आ पहुँचा। “क्या हो गया? तुम भी कभी-कभी सुधा, हद्द है भई...!” गुस्से में बिलबिलाते हुए भी मैंने बीच के कुछ ‘गैप्स’ जानबूझकर रहने दिए दिए थे, ताकि मामला एक हद से ज्यादा न बढ़े। या बढ़े तो सँभाला जा सके!

“चीख क्यों रहे हो? मैं तुमसे ज्यादा जोर से चीख सकती हूँ।” सुधा की धीमी मगर तनी हुई आवाज मेरे कानों को चाकू की तरह काटती चली गई।

मैं जानता हूँ, सुधा जब अपनी पर आ जाए तो जीतना मुश्किल है। वह वही दृश्य था। हू-ब-हू वही। एकदम मैंने हाथ में लिए धनुष-बाण जमीन पर डाल दिए, “क्या हुआ सुधा, बताओ तो?”

“तुम्हारे जिम्मे था न, बच्चों को उठाना। फिर क्या हुआ अब?...घड़ी देखो जरा, कितने बजे हैं?” सुधा की तल्खी अभी कायम है, “मैं रसोई में थी। मुझे क्या पता था कि तुम...अम् हवाई किले बना रहे हो? पौने सात हो गए। अब बच्चे कब नहाएँगे, कब तैयार होंगे! कैसे बस पकड़ेंगे?”

“ओह सॉरी...मैं करता हूँ जल्दी से। बस, इतनी सी बात!” मेरे क्रोध ने झट कलाबाजी खाई। मैंने कामता बाबू और लंबी कहानी दोनों को मन ही मन गोली मारी और जोर-शोर से बच्चों से मुखाबित हुआ, “ऐ बच्चो, नहाने की जरूरत नहीं। फौरन मुँह-हाथ धोकर कपड़े पहनो और पाँच मिनट में मामला तैयार!...ठीक है?’

“नहीं, नहाना है।” सुधा के उसी तने हुए चेहरे ने कहा, “ये नहाएँगे और नहाकर तैयार होंगे। खाना खाएँगे। और देर हो गई, बस छूट गई तो...तुम इन्हें छोड़कर आओगे।”

“सुधा, इतनी दूर रिक्शे में आना-जाना!” मेरी आँखों में निरीहता की हलकी-हलकी घास उग आई है। समझौते की मुद्रा में मैं अब जमीन पर पूँछ पटपटा रहा हूँ।

“मैं कुछ नहीं जानती। सुबह की चाय पिए इतनी देर हो गई, तब से क्या कर रहे थे?”

“सुधा, एक जरूरी चीज थी, मैं लिखना चाहता था। मैं दरअसल लिखना चाहता था, मैं सोच रहा था कि...” मैं सफाई देने वाली मुद्रा में आ जाता हूँ।

गुस्से में कुछ ज्यादा ही लावण्यवती हो आई साँवली सलोनी सुधा पर इसका असर तो पड़ा होगा, पर ऊपरी दबंगी कायम रहती है। (फिल्मों की निरूपा राय? नहीं—अपर्णा सेन! थोड़ी उम्र कम करनी होगी।)

“ठीक है, तुम जानो, तुम्हारा काम। पर ऐसे घर नहीं चल सकता।” वह भुनभुनाती हुई रसोई में घुस गई। और थोड़ी देर में वहाँ से भुनते हुए जीरे की सोंधी महक बाहर आने लगी।

मगर बाहर जो तनाव था, उसका क्या किया जाए? मैंने बच्चों की ओर अनुरोधभरी निगाह से देखा। बच्चे इसका मतलब जानते हैं कि प्यारे बच्चो, पापा की लाज रखनी है। सो उन्होंने दो-चार मग जल्दी-जल्दी पानी डाला। उलटे-सीधे कपड़े गले में अटकाए। जूते डाले। खाना खाया। (इस बीच मैंने कंघियाँ कर दीं।)...बैग लगाया और हाँफते-हाँफते दौड़ लगा दी। बस मुश्किल से मिली। वह निकलने ही वाली थी कि मैंने मोड़ पर हाथ देकर रोक लिया—ओह, वह रुकी—हाय, रुकी! छोटी वाली और बड़ी दोनों बेटियाँ उसमें चढ़ गई हैं और अब हाथ हिला रही हैं।

बस के जाने के बाद भी मेरा ऊपर वाला हिस्सा देर तक धड़धड़ाता रहा। अब संतुष्ट लौट रहा हूँ। सोचते हुए कि बस न मिलती तो रिक्शा के पंद्रह रुपए जाते हुए और पंद्रह रुपए आते हुए, यानी तीस रुपए का फालतू खर्च। तीस रुपए का मतलब तीन या शायद चार दिन की सब्जी—मतलब...?

लेकिन मतलब कुछ भी हो, भीतर की भब्भड़ अभी गई नहीं है।

6

अलबत्ता लौटकर आया तो नहाने के लिए गुसलखाने में घुस गया। अभी कपड़े-वपड़े आधे-अधूरे पहन ही पाया था कि खाने की थाली मेज पर पटक दी गई।

“सुनो, तुम भी ले आओ, साथ-साथ खा लेंगे।” आवाज में जितनी नरमाई घोलकर कह सकता था, मैंने कहा। मैं दरअसल झगड़े का ‘सुखद समारोप’ करना चाहता था, मुंबइया पारिवारिक फिल्मों वाले अंदाज में!

“अभी मुझे और भी बहुत से काम करने हैं।” सुधा का वही रूखा-सूखा संक्षिप्त उत्तर।

मेरा माथा फिर गया, सुधा क्या बिलकुल नहीं समझना चाहती चीजों को? बिलकुल एडजस्ट नहीं कर सकती। उसे क्या पता, मेरे भीतर मेरी अनलिखी लंबी कहानी के कथानायक बैरिस्टर कामता बाबू कैसी उथल-पुथल मचा रहे हैं! बल्कि उथल-पुथल तो क्या, मारकाट...एकदम मारकाट—नादिरशाही ढंग से!! क्या सुधा बिलकुल नहीं समझ सकती एक लेखक का मूड, एक लेखक की भावना, उसकी दुनिया...जो कामता बाबू से बनती है, जो सैकड़ों कामता बाबुओं से बनती है...जो उसके भीतर लगातार घुसते ही चले आते हैं, घुसते ही...!

सुधा को क्यों नहीं नजर आता यह सब? तो ठीक है, मुझे भी नहीं खाना। ऐसा खाना किस काम का, जो यों अपमान से ला पटका जाए? जिसमें जरा भी...अम् जरा भी स्नेह की चिकनाई न हो। वो...वो कवि ने कहा है न कि रहिमन रहिला (चना) की भली, जो परसे चित्त लाय। लेकिन रहिला की कौन सस्ती है? महँगाई, उफ महँगाई! यही जड़ है झगड़े की। मगर सुधा, यह कौन कम है?...इससे तो दफ्तर ही भला! उठाऊँ साइकिल...निकलूँ?

“सुनो चंदर!” सुधा की लरजती आवाज सुनाई पड़ती है, जब साइकिल बाहर सड़क पर आ जाती है। पर मैं गुस्से में अनसुना कर देता हूँ। मुझे करना ही चाहिए।

“सुनो!” मुझे फिर सुनाई पड़ता है, जब मैं साइकिल पर बैठकर पैडल मारना शुरू करता हूँ।

“सुनो...!” फिर वही आवाज, नहीं—आवाज की गूँज पीछा कर रही है। पर मुझे अब परवाह नहीं है। मुझे अब जाना ही है...जाना है दूर, बहुत दूर।

मैं पीछे मुड़कर देखना चाहता हूँ, पर नहीं देखता और तमतमाता हुआ साइकिल दौड़ाए लिए जाता हूँ। पर...

...पर गली के मोड़ तक आते-आते जाने क्या होता है कि साइकिल खुद-ब-खुद धीमी पड़नी शुरू हो जाती है और मेरे भीतर उलटी रेल चलनी शुरू हो जाती है—ओह! सुधा कितनी परेशान रहेगी दिन भर! मैं रात आठ बजे लौटूँगा। तब तक कितना खून फुँकेगा इस बेचारी का। घड़ी देखता हूँ—सवा आठ। अगर अभी लौट जाऊँ तो खाना खाकर, चाय पीकर साढ़े बजे निकला जा सकता है—यानी दस बजे वाली ट्रेन। थोड़ा लेट हो जाऊँगा, मगर...सुधा का एक दिन, पूरा एक दिन बरबाद होने से बच जाएगा।

मैं लौट पड़ा हूँ और अब मुझे यह ‘गिल्ट’ खाए जा रहा है कि सुबह-सुबह मुझे भाव-समाधि लगाने की क्या जरूरत थी। भाड़ में गई लंबी कहानी...! महाशय कामता बाबू कहीं भागे तो न जा रहे थे। और फिर रोज-रोज के काम, बच्चों की हड़बड़, व्यस्तताएँ! सुधा अकेली कैसे सँभाले? वह खुद भी तो दुखी और चिड़चिड़ी रहती है। इन दिनों तबीयत भी ठीक नहीं। एड़ी में और घुटनों में ऐसा दर्द रहता है जैसे पका हुआ फोड़ा हो। कभी-कभी तो जमीन पर पैर रखते ही चीख निकलती है। उसे भी थोड़ा सहारा, थोड़ी सहानुभूति चाहिए कि नहीं!

सबके अपने काम, अपनी जरूरतें हैं, मगर वह...? वह जो इस पूरे घर की ‘अंतरात्मा’ है, अकेले सहती है सबको!

7

घर आया, तो मैंने चुपके से किसी शातिर चोर की तरह दरवाजा खोला, चुपके से साइकिल एक ओर रखी। झोला मेज पर पटका और देखते ही देखते मेरी आरामकुर्सी ने मुझ जज्ब कर लिया। पंखे की ठंडी हवा के नीचे मेरी आँखें बंद हो चली हैं। जाने कब सुधा आती है, जाने कब और गीले, अवश शब्दों में लपेटने लगती है, “मुझे पता था, मुझे पता था—तुम आओगे।”

खुशी का एक आँसू उसकी आँखों में चमक रहा है। मैं उसे चूम लेता हूँ और खींचकर बाँहों में भर लेता हूँ, “सुधा...सुधा...मेरी प्यारी रानी, तुम्हारे बगैर मैं कुछ नहीं हूँ। मगर तुम...तुम मेरी मुश्किलें समझो न!”

“समझती हूँ।” मुसकराती हुई सुधा खाना लेने चली गई।

दोबारा गरम किए जाने के बावजूद कितने गिले-शिकवों से गीला हुआ खाना।

अब शब्द मेरा साथ छोड़ रहे हैं मेरी कहानी के सुनने वालो!

“ला-लला-ला-ला!” कोई आधे घंटे बाद मेरी साइकिल लपकती हुई चाल से स्टेशन की ओर भागी जा रही थी।

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प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

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