Grey Shade in Hindi Short Stories by Vipin Choudhary books and stories PDF | Grey Shade

Featured Books
Categories
Share

Grey Shade

ग्रे-शेड

विपिन चौधरी

मैंने अपनी घड़ी पर नजर डाली, जिसकी सुई बारह बजा रही थी. एक लम्बी सांस लेते हुए मैंने हमेशा की तरह अपनी गर्दन को पीछे सीट पर टिका दिया। मन के भीतर की छोटी-बड़ी तकलीफों से लड़ने के बाद घायल हो ऊपर आकाश की और टकटकी लगा कर देखती तब एक उम्मीद यह भी होती कि शायद मेरे दुःख से इस आकाश का तादातम्य होगा। हमेशा यही लगता कि दुविधा की तमाम दुःख तकलीफों के गुरुत्वाकर्षण से बहुत ऊपर, आसमान के बेहद करीब सब कुछ खुशगवार होता होगा। लेकिन आज की बात कुछ और है,आज जब पृथ्वी से पैंतीस हजार कि. मी. की ऊंचाई पर भी अवसाद में डूबी हुई काली परछाईयाँ मेरे पीछे-पीछे चली आई हैं, तो ऐसा लगने लगा है जैसे मेरे जीवन के चारों कोनों में दुःख ही दुःख है। मेरे जीवन का यही पहाड़ा है शायद, दो जमा दो भी दुःख और दो दूनी दो भी दुख।

हैण्डबैग से ऊनी शाल निकाल कर मैंने उसे अपने इर्द-गिर्द लपेट लिया। मेरी सबसे प्यारी सहेली सुनंदा ने गहरे नीले रंग की ऊन से मेरे लिए यह शाल और रविन्द्र के लिए स्वेटर बुनी थी और इस शाल को मेरे ऊपर डालते हुए कहा था, जब तुम रविन्द्र दोनों एक जैसी स्वेटर पहन कर साथ-साथ निकलोगे तो गोरे लोग अपनी गोल-गोल आँखों से हम दोनों को घूरेंगे उसने अपनी आँखे नाचते हुए अभिनय के साथ जब यह वाक्य बोला, तो मैं देर तक उसपर हंसती रही.

सुनंदा के इस वाक्य के साथ मैंने भी अनायास कई सपने बुन डाले । हम दोनों एक साथ जब साथ घूमने जाएंगे, खूब बातें करेंगे, खूब खिलखिलाएंगे, पूरा देश घूमेंगे। खुली आँखों से देखे गए अपने उन्हीं सपनों को तिलांजली देकर आज मैं अपने देश भारत वापिस लौट रही हूँ। मन के भीतर भयंकर उठापटक चल रही है, उसी के चलते नींद आनी मुश्किल लग रही है।

भारत से रवाना होते वक़्त हवाई अड्डे पर मुझे छोड़ने के लिए रिश्तेदारों की लम्बी- चौड़ी टोली आई थी। मेरी विदाई की इस वेला में कुछ रिश्तेदार तो वाकई खुशी से चहक रहे थे और कुछ खुश होने का असफल अभिनय कर रहे थे। विवाह की इस प्रथा ने इन सभी लोगों के सीने पर घावों के अलग-अलग मानचित्र बना रखे थे, फिर भी वे विवाह की रस्मों का गवाह बन कर खुश थे। मेरी विनिता बुआ अपनी बेटी के लिए एन. आर. आई. दूल्हा तलाशते - तलाशते थक चुकी थी। मनोज मामा की बेटी अपने पति की मार-पीट से दुखी होकर अपने मायके आ गयी थी। पड़ोस की कांता आंटी, दहेज़ की आग में अपनी अकेली बेटी को गँवा चुकी थी।

पिताजी, रिश्तेदारों की भीड़ से दूर खड़े होकर डबडबाई आँखों से मेरी और देख रहे थे। मुझे अपनी तरफ देखते हुए देख कर पिताजी मेरे नज़दीक आए। जैसे ही उन्होंने अपना स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर रखा, अब तक जबरन रोक कर रखे हुए आाँसू मेरी आँखों से गंगा-जमुना की तरह लगातार बहते चले गए। एक ही चिंता बार-बार मुझे परेशान कर रही थी कि मेरे चले जाने के बाद पिताजी बेहद अकेले पड़ जाएंगे, भाइयों- भाभियों और पोते - पोतियों के भारी जमावड़े के बावजूद उनकी सुध लेने वाला कोई न होगा।

माँ के स्वर्गवासी हो जाने पर पिताजी ने अपने आप को पूजा-पाठ में ही सीमित कर लिया था।इसका कारण घर का माहौल भी था, पाँचों भाइयों ने अपनी-अपनी जमीन ठेके पर दे दी थी और खुद दिन भर बैठ कर शराब पीते, चारपाईयां तोड़ते और भाभियाँ इधर -उधर चुगलियाँ कर घरों में फूट डलवातीं।

माँ के चले जाने पर ही हमारे विशालकाय घर के कई टुकड़े हो गए थे। जब कभी किसी भाई की शादी होती, उसके तुरंत बाद ही वह अपने पिता के घर से अपना अलग हिस्सा चाहने लगता ।

पिता के हाथ किसी संत की तरह हमेशा तथास्तु की अवस्था में रहते। पिता की शान्ति इस कदर अभेद्य थी कि उसे घर की अशांति कभी भेद न सकी। कई बार तो पिताजी को देर तक एक ही अवस्था में बैठा देख कर मैं बुरी तरह डर जाती और उन्हें झकझोर डालती। जब मेरी इस हरकत पर पिताजी मेरी ओर भौचंके हो कर देखते तो मुझे बेहद शर्म महसूस होने लगती।

मैं चुपचाप आंसू बहाती रहती, माँ जिन्दा होती तो पिता के दुःख-दर्द में बराबर का हिस्सा बनती। फिर दूसरे ही पल लगने लगता कि ठीक ही हुआ जो माँ अपने बेटों की करतूतों को देखने के लिए नहीं रही। भाई जो अब भाई नहीं रहे, किसी के पिता और किसी के बाप बन गए हैं, वो कहाँ तक हमारा सहारा बनते।

भाइयों ने तो मानो पिता की नाक में दम लेने के लिए ही जन्म लिया था। तीसरे नंबर के भाई ने अपनी साली का मकान बनवाने के लिए अपने बैंक में पंद्रह लाख का घोटाला कर दिया था। पिताजी ने ही उसके पैसे भरे और जब उसे नौकरी से निकाल दिया तो वही भाई बाबा बन कर कई महीनों तक अपने खेत में गुफा बना कर साधने करने का दिखावा करने लगा. आस-पास के गांवों के अशिक्षित लोग अपनी मन्नतें लेकर उस स्वयंभू बाबा के चरणों में लोट-पोट होने लगे। बाक़ी के भाई दुकानों से सामान ले लेकर कर्जदार हो गए तो उन्हें भी पिता ही नजर आये। भाइयों की करतूतों का सारा विष नीलकंठ हो चुके पिता को ही पीना पड़ता।

इस पर भी भाभियाँ पिता को लक्ष्य कर न जाने क्या- क्या कहती। जब पिता अपनी आदत के अनुसार अपने दोनों हाथ बाँधे-बाँधे घूमते तो भाभियाँ उन्हें सुना-सुनाकर कहती,'बूढ़े का दिमाग चल गया है,' और कभी भाई पिता को इस तरह घूर-घूर कर देखते तो पिता झेंप जाते और चुपचाप आकर गलियारे में बैठकर अखबार पढ़ने लगते।

कभी- कभी मुझे अपने पिता और अपनी स्थिति शाहजहाँ और जहाँआरा जैसी लगती। जिस शाहजहाँ के पास बेशुमार सपनों का अम्बार तो था पर उन सपनों की नींव सिरे से ही नदारद थी। जहाँआरा की बेबसी अपने पिता की बेबसी में ही शामिल थी।

बाहर से सबकुछ व्यवस्थित और हरा-भरा दिखाई देता था पर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था जिसके भरोसे आने वाले कल की रूपरेखा बनाई जा सके रात के शामियाने में कुछ जुगनू जरूर अटके हुए दिखाई पड़ते थे, जो कुछ देर के लिए जलते, बुझते और फिर अँधेरे के झुरमुट में कहीं लोप हो जाते।

घर के बेहद दमघोटू माहौल में सिलाई टीचर की नौकरी जीवन में कुछ रोशनी भरती। गाँव की लड़कियाँ जिस उत्साह और उमंग से सिलाई सीखती, उसे देखकर और उनके जीवन के खट्टे-मिट्ठे अनुभव सुनकर हर दिन जीवन की नई और अलग परिभाषा का साक्षात्कार होता। गाँव से लौटते हुए जब कभी बस नहीं मिलती तो किसी जीप या मेटाडोर से घर आना पड़ता तो भाभियां मुझे लक्ष्य कर दुनिया भर की गालियां दे डालती, फिर भाईयों के कान भरे जाते और कान के कच्चे भाई कान भरते पिता जी के घर के बेहद दमघोटू माहौल में सिलाई टीचर की नौकरी जीवन में कुछ रोशनी भरती। गाँव की लड़कियाँ जिस उत्साह और उमंग से सिलाई सीखती, उसे देखकर और उनके जीवन के खट्टे-मिट्ठे अनुभव सुनकर हर दिन जीवन की नई और अलग परिभाषा का साक्षात्कार होता। गाँव से लौटते हुए जब कभी बस नहीं मिलती तो किसी जीप या मेटाडोर से घर आना पड़ता तो भाभियां मुझे लक्ष्य कर दुनिया भर की गालियाँ दे डालती, फिर भाईयों के कान भरे जाते और कान के कच्चे भाई कान भरते पिता जी के।

पिता की तटस्थता आग में घी का काम करती, तब उन लोगों का गुस्सा और भी बढ़ जाता। इसी बीच मैंने अपनी बहनों के लिए अपने गाँव की जान-पहचान के बुते रिश्ते ढूंढे। शादी कर वे भी अपनी ससुराल चली गईं।

उस दिन भी बस के न मिल पाने से बहुत देर हो गई थी। पिता भूखे- प्यासे बैठे होंगे, यह सोचते-सोचते मैं घर के भीतर घुसी तो देखा, पिता सामने चारपाई पर खाना खा रहे थे। बगल में कुर्सी पर नीना बुआ बैठी हुई थी। मन को कुछ तसल्ली हुई और इतने दिनों बाद बुआ को घर में देख कर सुखद आश्चर्य भी हुआ. अपने कमरे में जाकर सोने की तैयारी कर रही थी, उसी वक्त पिता मुझे आवाज देते हुए कमरे में आए और अपनी शांत आवाज में बोले, 'नेहा बेटी, तुमसे कुछ बात करनी है।'

इस तरह पिताजी ने कभी नहीं कहा था। और फिर पिताजी बोले,'तुम्हारी नीना बुआ रिश्ता लेकर आई है, लड़के का पूरा परिवार लन्दन में रह रहा है। वहां उनका गारमेंट्स का बिजनेस है।'

थोड़ा रूककर वे बोले, 'पर लड़का दुहाजू है, तुम अच्छी तरह सोच समझ कर फैसला करना,' आखिरी शब्द तक आते-आते पिताजी की आवाज बुरी तरह लड़खड़ाने लगी थी। पिताजी की आँखों में सिमटे हुए दर्द को देखकर मैं यह नहीं जान सकी थी कि पिताजी को मेरे चले जाने का दुःख था या दुहाजू रिश्ते के आने का। निश्चित दिन लड़का अपनी मौसी के साथ भारत आया। सगाई की रस्में निभाते हुए ऐसा लग रहा था मानो किसी और नेहा की सगाई हो रही है। उसके बाद पासपोर्ट ऑफिस के चक्कर काटना, दफ्तर से छुट्टी लेने की सभी औपचारिकताओं को पूरा करना, पिता की दवाईयों और उनकी देखभाल की सारी व्यवस्था करना जैसे ढेरों काम उस छोटे से अंतराल में ही पूरे करने थे, आखिरकार वह दिन भी आ पहुंचा जब मैं सात समुन्दर पार परदेश पहुँच गई, जहां का सारा का सारा परिवेश मेरे लिए नितांत अजनबी था।

तय यह हुआ कि जब तक शादी की तारीख निश्चित नहीं हो जाती, मैं अपनी बुआ के लड़के प्रदीप के पास रहूंगी। वहां पहुँच कर जब एक भयंकर रूप से मोटे आदमी के रूप में प्रदीप को देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कभी बेहद पतले प्रदीप की आज यह हालत थी कि अपने मोटापे की वजह से कभी भी वह मोटापे का विश्व रिकार्ड होल्डर सिद्ध किया जा सकता था। प्रदीप की घरवाली, ऋतू भाभी जो भारत आने पर अपनी ऐंठ दिखाने के लिए प्रसिद्ध थी, वह यहां लन्दन में एक सफाई कर्मचारी थी। उसे देख कर अपने देश में काम करने वाले नौकर याद आते तो यही लगता कि सारी असमानताएं गरीबी में ही जन्म लेती हैं। घर में बच्चे कब आते, कब जाते पता ही नहीं चलता। अपने माँ-बाप से बातें करते तो मैंने उन्हें कभी देखा ही नहीं। अपने शुद्ध शाकाहारी होने की वजह से अपना खाना भी मैं हमेशा अलग ही पकाती।

पिता की तटस्थता आग में घी का काम करती, तब उन लोगों का गुस्सा सुर भी बढ़ जाता।isii बीच मैंने अपनी बहनों के लिए अपने गाँव की जान-पहचान के बुते रिश्ते ढूंढे। शादी कर वे भी अपनी ससुराल चली गईं.

उस दिन भी बस के न मिल पाने से बहुत देर हो गई थी. पिता भूखे- प्यासे बैठे होंगे, यह सोचते-सोचते मैं घर के भीतर घुसी तो देखा, पिता सामने चारपाई पर खाना खा रहे ठे. बगल में कुर्सी पर नीना बुआ बैठी हुई थी.man को कुछ तसल्ली हुई और इतने दिनों बाद बुआ को घर में देख के सुखद आश्चर्य भी हुआ. अपने कमरे में जाकर सोने की तैयारी कर रही थी, उसी वक्त पिता मुझे आवाज देते हुए कमरे में आए और अपनी शांत आवाज में बोले,'नेहा बेटी, तुमसे कुछ बात करनी है.' इस तरह पिताजी ने कभी नहीं कहा था. तुम्हारी नीना बुआ रिश्ता लेकर आई है लड़के का पूरा परिवार लन्दन में रह रहा है. वहां उनका गारमेंट्स का बिजनेस है.

थोड़ा रूककर वे बोले पर लड़का दुहाजू है. तुम अच्छी तरह सोच समझ कर फैसला करना, आखिरी शब्द तक आते-आते पिताजी की आवाज बुरी तरह लड़खड़ाने लगी थी. पिताजी की आँखों में सिमटे हुए दर्द को देखकर मैं यह नहीं जान सकी थी कि पिताजी को मेरे चले जाने का दुःख था या दुहाजू रिश्ते के आने का। निश्चित दिन लड़का अपनी मौसी के साथ भारत आया. सगाई की रस्में निभाते हुए ऐसा लग रहा था मानो किसी और नेहा की सगाई हो रही है. उसके बाद पासपोर्ट ऑफिस के चक्कर काटना, दफ्तर से छुट्टी लेने की सभी औपचारिकताओं को पूरा करना, पिता की दवाईयों और उनकी देखभाल की सारी व्यवस्था करना जैसे ढेरों काम उस छोटे से अंतराल में ही पूरे करने थे, आखिरकार वह दिन भी आ पहुंचा जब मैं सात समुन्दर पार परदेश पहुँच गई, जहां का सारा का सारा परिवेश मेरे लिए नितांत अजनबी था.

तय यह हुआ कि जब तक शादी की तारीख निश्चित नहीं हो जाती, मैं अपनी बुआ के लड़के प्रदीप के पास रहूंगी। वहां पहुँच कर जब एक भयंकर रूप से मोटे आदमी के रूप में प्रदीप को देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कभी बेहद पतले प्रदीप की आज यह हालत थी कि अपने मोटापे की वजह से कभी भी वह मोटापे का विश्व रिकार्ड होल्डर सिद्ध किया जा सकता था. ऋतू भाभी जो भारत आने पर अपनी ऐंठ दिखाने के लिए प्रसिद्ध थी, वह यहां लन्दन में एक सफाई कर्मचारी थी. उसे देख कर अपने देश में काम करने वाले नौकर याद आते तो यही लगता कि सारी असमानताएं गरीबी में ही जन्म लेती हैं. घर में बच्चे कब आते, कब जाते पता ही नहीं चलता। अपने माँ-बाप से बातें करते तो मैंने उन्हें कभी देखा ही नहीं। अपने शुद्ध शाकाहारी होने की वजह से अपना खाना भी मैं हमेशा अलग ही पकाती।

यहां आकर लगता था कि सभी अपने लिए अपनी अलग ही दुनिया में जी रहे हैं, जहां किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं है. एक दिन जब में चाय बना कर भाभी के ऊपर वाले कमरे में पहुंची तो भाभी ने चाय का कप पकड़ते हुए बेहद हिकारत भरेलहजे में कहा, 'आईन्दा मेरे कमरे में मत आना. मुझे किसी का अपने बैड रुम में आना बिलकुल पसंद नहीं है.' इतना सुनते ही मैं नीचे आ गई और घंटों रोटी रही. ऐसा लग रहा था मानो कुंए से निकल कर मैं खाई में आ गिरी हूँ.

महीने बाद जिस दिन शादी होनी थी, उसी दिन दो वयस्क बच्चे अचानक से आकर मेरे पांव में गिर कर जोर-जोर से रोने लगे और कहने लगे, 'आंटी आप ही हमें बचा सकती हैं.' बड़ी देर तक मैं उन्हें चुप कराती रही. उन्होंने जो बताया, उसे सुन कर मेरेपैरों तले की जमीन खिसक गई. वे उसी शख्स के बच्चे थे जिससे मेरी शादी होनी थी. उनकी माँ ने अपने पति के हाथों रोज-रोज की पिटाई से तंग आकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी थी जिसके कारण रविन्द्र को जेल में रहना पड़ा था। इसी वजह सेउसने अपनी पत्नी से अलग होने का फैसला ले लिया था।

मैंने अपने आप को जैसे- तैसे संभाला और उन बच्चों को आश्वासन दे कर विदा किया। उसी रात मैंने सारे विकल्प सोच डाले और फिर एम्लॉयमेंट एक्सचेंज में नाम लिखवा दिया। लगभग एक हफ्ते बाद ही मुझे एक गारमेंट फैक्ट्री में पैकिंग का काममिल गया.

इस सारे हादसे को भूलने के लिए मैंने अपनेआप को पूरी तरह से काम में झोंक दिया. शुरू में अजनबी माहौल के साथ सामंजस्य बिठाने में तकलीफ़ हुई. बर्फ पर चलना मेरे लिए बेहद मुश्किल साबित हुआ। भारी-भरकम कोट को संभालते-संभालतेअक्सर मैं बर्फ पर फिसल जाती।

रास्ते भर पैदल चलती तो बेहद अजीब लगता. सिवाय मेरे कोई पैदल यात्री वहां नजर ही नहीं आता. बाद में पैदल चलने वाले यात्रियों के लिए अलग रास्ते का पता चला. धीरे-धीरे वहां के वातावरण से थोड़ा परिचय होने लगा। लन्दन के भागमभागौर भौतिकवादी परिवेश और लोगों की जीवन शैली को नजदीक से देखने-परखने का मौक़ा मिला। यहाँ का खोखला जीवन कहीं से भी मेरे सादगीपूर्ण जीवन से मेल नहीं खाता था।

जब कभी मन ज़्यादा भारी हो उठता तो साउथऑल में खरीददारी करने निकल जाती. वहां से कुछ खाने-पीने का सामान और कुछ किताबें लेकर अपने उस एकांत कमरे में लौट आती.

लन्दन के परिवर्तनशील मौसम की आँख मिचौली लगातार चलती रहती। अचानक से कभी तेज धूप निकल आती तो कभी बारिश की झड़ी लग जाती. घर से लाये गरम कपड़े नाकाफ़ी हो गए थे तो ढ़ेर सारे गर्म कोट खरीदने पड़े.

इधर भाभी को मेरा घर रहना अखरने लगा तो फोन पर उसने भाइयों को मेरे खिलाफ कई झूठे किस्से सुना डाले तो भाइयों के धमकी भरे फोन आने लगे कि किसी भी तरह से शादी करो. तुंम्हारी सगाई हो चुकी है, यदि तुम बिना शादी किये भारत आईतो हमारी जगहंसाई होगी, हम कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे।

एक दिन सुनंदा का फोन आया वह घबराई हुई बोल रही थी. उसने जो कुछ बताया उसे सुन कर मैं भी हिल गई थी. उसने बताया, तेरे भाइयों ने तुझे जान से मार डालने की योजना बना रखी है। तू भारत मत आना.

इधर वीज़ा की अवधी समाप्त हो रही थी, रविन्द्र की वजह से ही गलत प्रमाणपत्र बनाकर किसी तरह कुछ मोहलत मिल पाई थी. अभी भारत लौटने का मेरा मन भी नहीं था, पर भारत बेहद याद आता.

मेरा वजन पच्चीस किलो घट गया था, आँखों के नीचे गहरे काले धब्बे हो गए थे। प्रदीप भैया और भाभी के तानों ने अलग जीना मुश्किल कर दिया था।

बारिश के दिनों में जब घनघोर बर्फ गिरती तो charon और सफ़ेद ही सफेद दिखाई पड़ता. रोशनदान, छत, खिड़की, सड़कें, चारों और सफेदी ही सफेदी. कभी तो ऐसा लगा कि क्या यह दूर तक फैली हुई बर्फ मेरे भारत जाने के लिए रूकावट तो नहीं बनजाएगी. यह सोचकर अजीब तरह की घबराहट मुझे घेर लेती।

कभी ऐसा सपना आता कि भारत में अपने घर के सभी लोग चले गए हैं, केवल पिताजी ही घर पर हैं और वे अपने आसन पर बैठ कर 'ऊँ नमः शिवाय,' का उच्चारण करते हुए माला जप रहे हैं और कभी जाग्रत अवस्था में भी अपना घर टूटा हुआ दिखाईपड़ता और पिताजी घर के मलबे में दबे हुए जोर-जोर से चिल्लाते हुए दिखाई पड़ते. ऐसी चीजें सोचकर मन की बैचेनी बढ़ जाती. मैं जीवन के साथ तेजी से बही जा रही थी.

आज 547 दिनों के बाद भारत लौट रही हूँ, जहां की मिटटी अपनी है, हवा अपनी है और हर अपरिचित चेहरा भी अपना ही है. मन में शान्ति भर गई है. ऐसा लग रहा है, मानों मीलों के सफ़र के बाद ऊपजी जिस थकान को मैं ढ़ो रही थी, वह अचानककाफूर हो गई है. फुर्ती से जैसे ही कदम आगे बढ़ा रही थी, उसी वक्त पाँचों भाई और पिताजी आँखों में अंगारे लिए आगे बढ़ते दिखाई पड़े, मैंने भी अपने कदम मज़बूती से रखे और गहरे आत्मविश्वास से चलती रही।