Aprasangit in Hindi Short Stories by Manish Kumar Singh books and stories PDF | अप्रासंगिक

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अप्रासंगिक

अप्रासंगिक

हम भले ही यह कहे कि हर इंसान की एक कहानी होती है परंतु सभी पर या सभी की कहानी नहीं लिखी जा सकती। राजू के ऊपर कहानी लिखने का औचित्‍य समझना थोड़ा मुश्किल था। ऐसे औसत दर्जे के निरक्षर व विदूषकीय प्रवृति वाले मनुष्‍य में धीरोदात्‍त नायक के गुण व लालित्‍य ढूढ़ना व्‍यर्थ था। आज मैं जीवन के जिस मुकाम पर हू वहॉ ऐसी बातें स्‍मरण करने की वजह बस यही है कि रिटायरमेंट के बाद काफी अवकाश होता है। उसमें मनुष्‍य अतीत की स्‍मृतियों में गोते लगाता है। किसी भी पल चंचल खरहे की भॉति वह फुदकता हुआ हमारे सामने आ जाता है।

राजू को चूकि मैं बचपन से जानता था इसलिए वह स्‍मृतियों के कोठार में पुराने अनाज की तरह अपनी महक लिए मौजूद था। वरना जिंदगी में नाना प्रकार के लोगों से पाला है। कौन किसे याद करता है। गॉव का जीवन नगरीय सभ्‍यता से भिन्‍न होता है। लोग फिजूलखर्च नहीं होते। पाई-पाई जोड़ने में विश्‍वास करते हैं। काम धन्‍धों की वास्‍तव में कमी होती है। लोगों का मानसिक क्षितिज सीमित होता है। परंतु रिश्‍तों का आपसी ताना-बाना बेहद मजबूत होता है। तभी तो राजू सद्दश्‍य मंदबुद्वि का बालक अपने परिवार में ही नहीं बल्कि पूरे गॉव में प्‍यार से पल रहा था। यहॉ वृद्व विधवा बुआ भी अनाश्रित नहीं होती और न ही परिवार के बेरोजगार सदस्‍य बोझ माने जाते थे। तुतलाता तो वह शुरु से ही था। लोगों की बातें भी कम समझ में आती थीं। जैसा कि अक्‍सर होता है ऐसे प्राणी लोगों की हॅसी-ठिठोली का केन्‍द्र बन जाते हैं। राजू तेरे घर की बकरी को कौआ ले गया। हत्..मुझे सब पता है..। वह इस खामखाह के मजाक पर बिगड़ता। आमतौर पर मस्‍त रहने वाले राजू को सबसे बुरा तब लगता जब कोई व्‍यक्ति उसे मेम्‍बर कहता। पता नहीं किसने इस शब्‍द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था परंतु शीघ्र ही यह प्रचलित हो गया। अब हर तीसरा-चौथा आदमी उसे मेम्‍बर कहता जोकि उसे सबसे बुरा लगता। मैं मेम्‍बर-शेम्‍बर नहीं हू समझे आप लोग। उसका गुस्‍सा देखने लायक होता। भीड़ की एक भिन्‍न मानसिकता होती है। वह कमजोर एवं मंदबुद्वि के साथ हॅसी-मजाक उत्‍पीड़न की सीमा तक करती है। इसलिए कहा गया है कि भीड़ की आत्‍मा नहीं होती। यही लोग जब व्‍यक्तिगत स्‍तर पर राजू को मदद पहुचाते तो उनकी वृत्ति पृथक होती। उसके खाने और पहनने में मदद के लिए लोग हमेशा आगे रहते। इसके पीछे दान की भावना कम तथा अपनापन अधिक होता।

हमलोग भी उसे सताने में पीछे नहीं थे। गॉव में लड़के-मर्द घर के बाहर खाट डालकर सोते थे। एक बार की बात है। हम चार दोस्‍त रात में राजू को खाट सहित उठाकर गॉव के पास श्‍मशान में ले गए। वह बेखबर खर्राटा लेता रहा। इतनी शराफत हमने जरुर बरती कि आसपास ही मौजूद रहे ताकि उसके घबराने पर सामने आ जाए। फिर तो पूछिए मत। वह जागते ही बदहवास सा चिल्‍लाने लगा। ''अरे मैं कहॉ आ गया..? यह कौन सी जगह है?'' हम सब दोस्‍त हॅसते हुए सामने आए। वह चारों को अलग-अलग कहॉ तक दौड़ाता। हमने उसके घर आकर माफी मॉग ली। इस घटना के कई दिनों बाद भी वह मेरे घर में आकर मॉ से कहता,''अम्‍मा तेरा हरिया भी कम नहीं है। देखना एक दिन इसकी खुराफात गॉव में बवाल करेगी।'' दरअसल मेरे नाम हरिमोहन को बिगाड़कर उसने हरिया कर दिया था। प्रतिकार का कोई और जरिया नजर नहीं आया तो यही सही।

समय व्‍यतीत होता गया। नौकरी के बाद मेरा गॉव आना शनै:शनै: घटता गया। चुनावी जोड़-तोड़ ने वहॉ का माहौल बदल कर रख दिया। राजू भी काम धन्‍धे के सिलसिले में शहर आ गया था। वहॉ गॉव के ही एक आदमी की दूकान पर दर्जी का काम सीख कर सिलाई करने लगा।

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पाषर्द का चुनाव निकट आ गया था। लोगों के जहन में न जाने कहॉ से ख्‍याल आया कि इस बार पाषर्द के चुनाव में राजू को उम्‍मीदवार बना दिया जाए। मेम्‍बर तुम खड़े हो जाओ। प्रभावशाली लोगों ने कहा। ''ना भाई मुझे चुनाव-वुनाव नहीं लड़ना। मैं ऐसे ही ठीक हू।'' महत्‍वाकांक्षाहीन व मूर्खता की हद तक सीधे राजू ने हाथ हिलाकर जोरदार शब्‍दों में ना कर दिया। लेकिन जो लोग उसके पास गए थे वे किसी निश्चित उद्देश्‍य से आए थे। विरोधी काफी ताकतवर था। उसके विरुद्व कोई मिल नहीं रहा था। उसका विरोध करने वाले आपस में बॅटे हुए थे। इसलिए एक सर्वसम्‍मत प्रत्‍याशी की आवश्‍यकता थी जो जीतने पर भी उनकी मुठ्ठी में रहे। राजू इन मानदंडों पर खरा उतरता था। काफी मान-मनौवल के बाद वह इस शर्त पर तैयार हो गया कि जीत-हार किसी भी स्थिति में अपना काम जारी रखेगा। लोग मुह फेर कर हॅसे। ठीक है जैसी मर्जी हो करना। वैसे भी उसे पाषर्द के रुप में स्‍वतंत्रतापूर्वक कौन काम करने देता।

इसे संयोग नहीं कह सकते हैं। सोची-समझी रणनीति का सफल क्रियान्‍वयन ही माना जाएगा कि राजू पाषर्द के चुनाव में विजयी हुआ। जब उसे कन्‍धों पर लाद कर विजय जुलूस निकाला जा रहा था तब भी अपनी नयी स्थिति का कोई खास अंदाजा नहीं था। इस अवसर पर उसे एक तरह से जबरन नेताओं वाला खद्दर का कोट पहनाया गया था जोकि अनाज के बोरे की तरह कस कर बॅधा हुआ लगता था। देखा जाए तो निर्वासन के बाद भी उसकी दिनचर्या अपरिवर्तित रही। वह पूर्व की भॉति दूकान पर सिलाई करता रहा। बोलता-बतियाता और तुतलाता वह किसी भी द्दष्टि से एक जन प्रतिनिधि प्रतीत नहीं होता था।

एक बार मेम्‍बर अन्‍दर घुस गया तो फिर सत्‍ता-रहस्‍यों को जानने की लोभजनित जिज्ञासा से स्‍चयं को बचा नहीं पाएगा और खुद को उसके अनुकूल बनाने का प्रयत्‍न करेगा। इस प्रक्रिया में हमलोग स्‍वाभाविक रुप से लाभान्वित होगें। ऐसी धारणा उसके पीछे खड़ी शक्तियों के मध्‍य व्‍याप्‍त थी। ''देखो भई वह वैसा आदमी नहीं है।'' एक ने शंका प्रकट की।

''अजी तो हम कौन से वैसे आदमी हैं।'' एक अपेक्षाकृत पढ़े-लिखे व्‍यक्ति ने प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त की। ''टी बैग की तरह हम जब गर्म पानी में डूबते हैं तभी असर दिखाते हैं। अब वह घुस गया है तो अपना रंग दिखाएगा।'' इस उक्ति पर न केवल सभी हॅसे बल्कि पूर्णतया सहमत भी दिखे। हम मेम्‍बर के जरिए मिल-बॉट कर खाएगें। ऐसी आम सहमति अलिखित रुप से बन गयी। मंथन में सभी सम्मिलित थे। फिर रत्‍नों का भण्‍डार एकाध के पास ही क्‍यों रहे? अच्‍छा आदमी है। मानता हू। साधु का समाज आदर करता है परंतु संपूर्ण समाज साधु नहीं बन सकता है। इस प्रकार की राजनीतिक उपलब्धियॉ प्राप्‍त करने के लिए विशाल पैमाने पर धन,बाहुबल एवं मेधा के निवेश की आवश्‍यकता पड़ती है। अतएव इसका प्रतिफल भी चाहिए।

लोगबाग स्‍थानीय समस्‍याऍ लेकर राजू के पास पहुचते। मेम्‍बर साहब हमारी मदद कीजिए। अब वह बचपन की तरह इस शब्‍द से इतना चिढ़ता नहीं था। ज्‍यादा समझदार न होते हुए भी राजू हर बात ध्‍यान से सुनता और यथासंभव प्रयास भी करता।

चेयरमैन के चुनाव के लिए जोड़-तोड़ की प्रक्रिया चल रही थी। दो मुख्‍य दावेदार अपने समर्थन में अधिकाधिक पाषर्दो को जुटाने में प्रयासरत थे। खुलेआम पाषर्दो की खरीद-फरोख्‍त चल रही थी। हर कोई अवसर का लाभ उठाकर स्‍वयं को अधिकतम कीमत पर बेचने को उद्यत था। प्रत्‍येक वोट कीमती था। खरीदार राजू के पास पहुचे। तुम हमारे नेता को सर्पोट करो। जो मॉगोगे मिलेगा। खुला प्रस्‍ताव मिला।

''ना-ना मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं किसी को सर्पोट-वर्पोट नहीं करुगॉ।'' इस प्रस्‍ताव का उसपर किसी वृश्चिक के दंश लगने जैसा प्रभाव हुआ। वह एकाएक विक्षिप्‍त सद्दश्‍य चिल्‍लाने लगा। जैसे उसका

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बचपन लौट आया हो। उसके स्‍वभाव से परिचित जनों ने इस विचित्र प्रतिक्रिया को नजरअंदाज करते हुए पुन: प्रयास किया। मेम्‍बर भाई मान जाओ। लाइफ सुधर जाएगी।.. .लाइफ स्‍टाइल बदल जाएगी।

''हमें नहीं बदली लाइफ-वाइफ। हम ऐसे ही ठीक हैं। बस आप लोग मुझसे ऐसी बातें मत कीजिए।''

लोग पेशोपेश में पड़े। लो हो गया काम। वह चाहे लाख अनपढ़ हो लेकिन गोल पत्‍थर की तरह उनके पीछे नहीं लुढ़केगा। उसे दोस्‍ती-प्‍यार जैसे कच्‍चे धागों से बॉधकर काम करवाना पड़ेगा। उनमें से एक ने कहा,''अरे इसमें बुरा क्‍या है? तुम कौन सी चोरी करने जा रहे हो। किसी को तुम्‍हारे वोट की जरुरत है। उसकी कीमत दे रहा है।''

''नहीं करना मुझे यह काम।'' वह तमक कर बोला। ऐसे जाहिल-गॅवार से कोई क्‍या बहस करे। आज के जमाने में कबूतर भी शांतिप्रिय नहीं होते न ही हंस नीर-क्षीर का विवेचन करते हैं। और एक यह है कि..। मेम्‍बर तुम्‍हारी इस जिद् से क्‍या फायदा होगा? इस नितान्‍त विपणन केन्द्रित प्रश्‍न का उस जैसा व्‍यक्ति कोई सुसंगत उत्‍तर क्‍या दे सकता था। जो पण्‍य नहीं है वह नगण्‍य है। सहजीवियों की मृत्‍यु से दुखी होने से अधिक स्‍वहानि से आशंकित होने वाले लोग क्षुब्‍ध होकर चले गए। हमारी कृपा से भैंस की पूछ हाथ से छूटी तो अब कैंची थाम ली। लोगों के मन में उसकी मूर्खता के साथ कृतघ्‍नता का भी खेद था। करोड़ों का दाव लगाया था। जो जितना ऊचा दॉव लगाने वाला था वह अपने चक्रव्‍यूह के नागपाश में बॅधकर उतना ही चेतनाशून्‍य हो गया था। एक गॅवार इंसान वक्र राजनीति के मार्ग में रोड़ा बन गया था।

जैसा कि राजू को जानने वालों को आशंका थी वैसा ही हुआ। वह पाषर्द के रुप में सफल नहीं हुआ। जल्‍द ही सब कुछ छोड़-छाड़ कर वही पुराने ढ़र्रे पर बना रहा। दर्जीगिरी का काम पूरे जतन से करता रहा। फुलटाइम। उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। वैसे ही तुतलाकर बोलता। सभी को अब यह स्‍पष्‍ट हो गया था कि मेम्‍बर काफी हद तक असामान्‍य है। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि विद्वता,शक्‍ल-सूरत और वक्‍तव्‍य शैली हमारे व्‍यक्तिव को आभा दे सकती है परंतु चारित्रिक द्दढ़ता इन सबसे ऊपर है। अल्‍पबुद्वि व विपन्‍न प्राकृतिक जीवन व्‍यतीत करते हैं। राजू पेड़ की छाल लपेट कर जंगल में घूमने वाला प्राणी नहीं था पर इतना सभ्‍य भी नहीं कि एक समझदार इंसान माना जाए। दैहिक विलास में लिप्‍त कभी नहीं पाया गया परंतु कोई बौद्विक चेतना भी नहीं दिखी थी। ऐसा आदमी ही इस तरह का कार्य कर सकता है। बाकी लोग तो बस..। वह किसी की अनुकृति नहीं था बल्कि न जाने माटी की किस अज्ञात परम्‍परा का सार्थवाह था।

(मनीष कुमार सिंह)

लेखक परिचय

मनीष कुमार सिंह। भारत सरकार,सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्‍य,साक्षात्‍कार,पाखी,दैनिक भास्‍कर,नयी दुनिया, नवनीत,शुभ तारिका,लमही इत्‍यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह-'आखिरकार','धर्मसंकट','अतीतजीवी' और ‘वामन अवतार’ और ‘आत्‍मविश्‍वास’ प्रकाशित।

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