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Bhavishy ka Bhojan

नालेज

प्रस्तुतिः शंभु सुमन

भविष्य का भोजन

तकनीक के लहर पर सवार तेजी से बदलती जीवनशैली में भोजन और खाद्य पदार्थों को लेकर भी कई बदलाव आए हैं। आज प्रसंस्कृत आहार के डिब्बाबंद पेय, भोजन, फास्ट फूड आदि के चलन से लेकर जीएम फसलें तक भोजन में शामिल हो चुकी हैं। न केवल भोजन की पौष्टिकता, उपयोगिता और उपलब्धता के लिए खाद्य सामग्रियों से संबंधित कृषि वैज्ञानिक और शोधकर्ता हमेशा से सक्रिय बने हुए हैं, बल्कि भविष्य के लिए आहार के विभिन्न स्रोतों की तलाश भी जारी रही है। यह कहें कि सजी-सजाई थाली में विभिन्न व्यंजनों का संतुलित आहार अब महज भूख मिटाने वाला भोजन भर नहीं रह गया है, बल्कि इसे वैज्ञानिक कसौटी पर भी कसा जाने लगा है कि इसमें कितनी और किस स्तर तक की पौष्टिकता है? सुपाच्यता के साथ इससे शरीर को कितनी क्षमता की ऊर्जा प्राप्त हो सकती है? शरीर की मांसपेशियों से लेकर रक्त, मज्जा आदि के लिए यह कितना उपयोगी साबित हो सकता है? इसे कितने समय तक खराब होने से बचाया जा सकता है?

भारत में भोजन का बदलाव भले ही ज्यादातर प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों से संबंधित आया हो और खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में फल, सब्जियां, मसाले, मांस, मछली, पोल्ट्री, दूध के उत्पाद, अनाज आदि की बहुलता बढ़ी हो। ये डाइनिंग टेबल पर आ धमके हों, लेकिन विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने भविष्य के भोजन की तलाश के दौरान कुछ नए आहार की खोज में सफलता पाई है। नए भोजन के तौर पर मांसाहार से लेकर शाकाहार तक के भोजन की खोज की जा चुकी है। उनके व्यंजन पारंपरिक व्यजनांे से भिन्न हो सकते हैं, लेकिन पौष्टिकता में उससे कहीं बढ़-चढ़कर हाते हैं। इनमें शैवाल, जेलीफिश, कीडे़-माकोड़े, प्रयोगशाला में तैयार होने वाले मांस, वीगन चीज, किण्वित काॅफी आदि मुख्य हैं। इसी माह सितंबर के दूसरे सप्ताह में भविष्य के भोजन और आहार को लेकर वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं, आहार विशेषज्ञों शेफों और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के उत्पादन करने वाली कंपनियों के उद्यमियों का अमेरिका मंे जमावड़ा लगा। भविष्य के भोजन सप्ताह मनाए जाने के दौरान पारंपरिक खाद्य पदार्थों की होने वाली भविष्य में कमी के विकल्प के तौर पर दूसरे खद्य पदार्थों की चर्चा हुई, तथा उनसे तैयार होने वाले विविध व्यंजनों से लेकर प्रसंस्कृत करने के वैज्ञानिक तरीके पर भी विचार-विमर्श किया गया।

यदि 450 ग्राम का पाउडर करीब डेढ़ लीटर पानी में मिलने के बाद आपके लिए सुबह का नाश्ता, दोपहर और रात के भोजन के बारबर बन जाए तो इसमंे आपको जरूर हैरत होगी। इसका दावा करने वाले अमेरिका के 28 वर्षीय उद्यमी राॅब राइनहार्ट हैं, जिसे उनकी कंपनी साॅयलेंट ने तैयार किया है। राॅब का कहना है कि बीते तीन सालों से यही पाउडर उनका मुख्य आहार रहा है, जिसे सही रख-रखाव से कई दशकों तक भंडारण और उपयोग किया जा सकता है। इसमें इंसानी शरीर के लिए जरूरी करीब 35 पोषक तत्वों का मिश्रण है। ऐसे कई भोजन के परिवर्तित रूप हैं, जो पेट भरने के साथ-साथ पौष्टिकता भी प्रदान करते हैं। आईए एक नजर कुछ वैसे आहार पर डालते हैं, जो भविष्य का भोजन बनने वाला है और रहन-सहन के मुताबिक खाने-पीने के तौर-तरीके के साथ सामायोजित हो जाने वाला है।

शैवाल

अलगी यानि शैवाल की कई प्रजातियां हैं, जिन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में काई से भी जाना जाता है। समुद्री मछलियों का मुख्य आहार शैवाल अब इंसानी भोजन के लिए भी उपयोग में लाया जाने लगा है। इसे समुद्री भोजन के रूप में दूसरे व्यंजनों के साथ परोसा जाता है। शाकाहारियों के लिए यह काफी पसंदीदा आहार बन चुका है। इसकी उपयोगिता थायराइड व मोटापे से निजात पाने के संदर्भ मंे भी महत्वपूर्ण मानी गई है। बाजार में यह एक तरह की खुराक या पाउडर के रूप में उपलब्ध है। हालांकि इसका इस्तेमाल काफी पहले से समुद्र गोभी के नाम भी होता रहा है, लेकिन हाल के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया कि इसमें काफी मात्रा में लोहा, बिटामिन ए, सी, डी व ई और खनिज पदार्थ पाए जाते हैं, जो सेहत के दृष्टिकोण से फायदेमंद हैं। साथ ही कर्बोहाइड्रेट, अकार्बनिक पदार्थ भी प्रचूर मात्रा में पाया जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि शैवाल इंसानों और पशुओं के लिए भोजन मुहैया करवा सकता है तथा उसे समुद्र में उगाया जा सकता है। कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि शैवाल से जैव ईंधन भी प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही शैवाल की खेती दुनिया सबसे बड़ा फसल उद्योग बन सकता है, जो किसी जमाने में खासकर जापान जैसे देशों में इसके बड़े फार्म पाए जाते थे।

शैवाल आधारित पेय पदार्थ स्वास्थ्य फूड की दूकानों पर विभिन्न नामों से उपलब्ध है। फ्रेंच की एक कंपनी इसे अल्गमा नाम से बेचती है। हाल में ही स्प्रिंगवेव नाम का भी एक उत्पाद बाजार में उतारा गया है। वैसे शैवाल मुख्य भोजन में भी शामिल हो चुका है। सर्वाधिक उपयोग में आने वाला समुद्री शैवाल ही है, जिसमें क्लोरोफिल सामग्री प्राकृतिक रूप में पाई जाती है। इसके क्षारीय यौगिक भोजन से अम्लीय प्रभाव को निष्क्रिय करने में सक्षम है, जिससे शरीर का पीएच स्तर काफी संतुलित हो जाता हैै। इसके अतिरिक्त इसमें दूध मांस की तुलना में ज्यादा कैल्शियम पाया जाता है। इन दिनों फ्रैंच भोजन का यह एक अहम् हिस्सा बन चुका है। गेंहू का आटा हो या फिर चावल, उसके साथ मिलाकर विविध व्यंजन पकाए जाते हैं या फिर सलाद में मिश्रित कर खाया जाता है। नमक की जगह शैवाल का इस्तेमाल सेहत के लिए फायदेमंद साबत हो सकता है।

पिछले दिनों समुद्र शैवाल की उस सूक्ष्म प्रजाति की खोज पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के बायोसाइंस विभाग ने की, जो अभी तक ब्रिटेन और उत्तरी चीन के समुद्री तट पर पाई जाती रही है। वैसे मुख्य तौर पर शैवाल तीन वर्गों में लाल, भूरा और हरा शैवाल होता है, जिन्हें क्रमशः रोडोफाइटा, फियोफाइटा और क्लोरोफाइटा कहा जाता है। इसे जापान, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस के अतिरिक्त भारत में भी खाया जाता है। और तो और, शैवाल अंतरिक्ष यात्रियों के लिए भी उपयोगी है। क्लोरेला नामक शैवाल को अंतरिक्ष यात्री के केबिन के हौज में उगाकर इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इससे अंतरिक्षयात्री को प्रोटिनयुक्त भोजन, जल और आक्सिजन पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है। ब्रिटेन के ‘सीवीड हेल्थ फाउडेशन’ से जुड़े डाॅ. क्रेग रोस का कहना है कि समुद्री शैवाल के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि वे बड़ी तेजी से उगते हैं। यह पृथ्वी पर सबसे तेजी से बढ़ने वाला पौधा है। इसलिए इसकी खेती बहुत ही कामयाब हो सकती है। ब्रिटेन के शेफील्ड हमल विश्वविद्यालय में वैज्ञानिकों ने समुद्र में पैदा होने वाले पौधों के चूर्ण को ब्रेड और प्रसंस्कृत आहार में नमक की तरह इस्तेमाल किया। यह चूर्ण काफी स्वादिष्ट होने के साथ-साथ कम नमकीन होता है। जबकि सामान्य नमक उच्च रक्तचाप, पक्षाघात और समय से पहले होने वाली मौतों के लिए जिम्मेदार माना जाता है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि समुद्री पौधे के इस चूर्ण का इस्तेमाल जल्द ही बाजार में मिलने वाले तैयार खाने, साॅसेज और चीज में किया जा सकता है। शैवाल में शीघ्रता से प्रजनन करने की क्षमता होती है और कार्बन डाई-आॅक्साइड का प्रयोग कर भोजन बनाते हैं। कार्बन डाइ आॅक्साइड लेने के बाद आक्सीजन छोड़ते हैं। शैवाल की एक अन्य प्रजाति स्पुरुलिना भी भविष्य का भोजन बन सकती है। वैसे इसकी पहचान एक डायट्री फूड के रूप मंे है, जो टेबलेट और पाउडर के रूप मंे उपलब्ध है। इसमंे प्रोटीन के अतिरिक्त पोटाशियम, कैल्शियम, सिलेनियम, जिंक आदि की प्रचूर मात्रा पाई जाती है।

जेली फिश

समुद्री खाद्य पदार्थ की प्रजातियों में इन दिनों जेली फिश भी काफी चर्चा मंे है। वास्तव मंे यह मछली नहीं है, बल्कि यह एक छद्म नाम है, जो मछली होने जैसा एहसास करवाता है। यह समुद्र में सतह से लेकर गहराई तक पाया जाता है। इसे मांसाहार के व्यंजनों में शामिल किया जा चुका है। ब्रिटेन के समुद्री क्षेत्रों में यह बहुतायत में पाया जाने वाला काफी लचीला, चमकदार और आकर्षक रूपरंग का होता है। इस बारे में शोध करने वाले आहार विशेषज्ञ लेखक और टीवी प्रस्तोता स्टीफन गेट्स बताते हैं कि चीन समेत दुनिया के अन्य भागों के समुद्र पानी में यह बड़े पैमाने पर फूल-फल रहा है तथा हमारे व्यंजनों में आकर्षण का केंद्र बन सकता है। वे समुद्र के उन संसधानों मंे से एक है, जिनका इस्तेमाल नही ंके बाराबर हुआ है। इसमें पाई जाने वाली कम कैलोरी और असमान्य संरचना के कारण दूसरे व्यंजनों के साथ शामिल किया जा सकता है। यह दिखने में एक अजीब तरह की बनावट का लगता है, जो थोड़ा लचीला और रबड़ की तरह है। माना कि यह स्वाद में बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन यह स्वाद का अच्छा वाहक बन सकता है।

इसका स्वाद लेने वालों का कहना है कि भले ही यह एक असामान्य खाद्य पदार्थ है, फिर भी इसे अपनाने से परहेज नहीं किया जा सकता है। गेट्स कहते हैं कि हम कब तक एक जैसे खाद्य पदार्थों से चिपके रहेंगे हमें खुले दिमाग और मन से वैसे खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल करना चाहिए, जिसमंे पौष्टिकता के गुण हैं। इस बारे में हमें साहसिक कदम उठाना चाहिए। वैसे जेली फिश की केवल राइजोस्टोमे वर्ग का रसोई में इस्तेमाल किया जाता है, जिसकी 85 प्रजातियों में से करीब 12 को एकत्रित कर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचे जाते हैं। एकत्रित करने की मुख्य जगहों में चीन, अमेरिका, इंग्लैंड के समुद्री इलाके मुख्य हैं। इसे व्यंजनों के लिए इस्तेमाल करने से पहले कई दिनों तक अच्छी तरह से प्रसंस्कृत किया जाता है, जिसमें जननग्रंथियों झिल्लियों को निकालने के बाद कठोर छतरी और दूसरे हिस्से में बाहों आदि को नमक और फिटकरी के मिश्रण मंे संसाधित किया जाता है। ताकि दुर्गंधरहित बन जाए। इसे कुरकुरा और खास्ता भी बनाया जा सकता है। अच्छी तरह से प्रसंस्कृत जेलीफिश में 94 प्रतिशत पानी और 6 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है। ताजा जेलीफिश सफेद मलाईदार रंग का होता है, जबकि लंबे समय तक भंडारण से यह पीला या भूरे रंग का हो जाता है। चीन में संसाधित जेलीफिश को पकाकर खाने या कच्चा इस्तेमाल करने से पहले रात भर पानी में भिगोकर रखा जाता है। व्यंजन को अक्सर काटकर तेल, सोया साॅसा, सिरका और चीनी से तैयार किया जाता है, या फिर इसे सब्जियों के साथ सलाद के रूप मंे परोसा जाता है।

कीड़े-मकोड़े

खाद्य पदार्थों की श्रेणी में नया नाम कीड़े-मकोड़ों के व्यंजनों का भी जुड़ चुका है। नीदरलैंड के वागेनिनगेन विश्विद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार कीड़े-मकोड़ों मंे भी आम गोश्त के जितने पोषक तत्व पाए जाते हैं, जबकि उन पर मवेशियों की तुलना मंे लागत काफी कम आती है। शोध के अनुसार दुनिया मंे कीड़े-मकोड़ों की 1400 ऐसी प्रजातियां हैं, जिन्हें इंसान खा सकता है। और तो और, दुनिया के कई हिस्सों मंे कीड़े-मकोड़े खाए भी जा रहे हैं। अफ्रीका मंे कैटरपिलर और टिड्डी को शौक से खाया जाता है, तो जापानी ततैयों को चाव से खाते हैं। वैसे इस संबंध में अभी तक आम धारणा नहीं बन पाई है। कारण भारत के लोगों में इसके प्रति घृणा के भाव भरे हैं। खाने मंे कोई भी कीड़ा गिर जाने पर उसे फेंक दिया जाता है। जबकि डिब्बाबंद कई खाद्य पदार्थों मंे कीड़े मिले होते हैं। जैसे पीनट बटर, फ्रीज्ड ब्रोकली और पास्ता आदि।

अब यदि अमेजन डाॅट काॅम पर इन्सेक्टस के के चीजों में आटे की लिस्ट देखें तो इसकी गुणवत्ता का भी पता चल जाएगा। जैसे झींगुरों में पालक से 15 फीसदी ज्यादा आयरन होता है, बीफ से दुगुना प्रोटीन होता है और सैलामान जितनी विाटामिन बी-12 होती है। सुपर मार्केट और आॅनलाइन कीड़ों, लार्वा, झींगुरों के आटे उपलब्ध हैं। सीलबंद पैक में आने वाला झींगुरों का पीसा हुआ आटा मुख्य तौर पर उत्तरी अमेरिका, इंडोनेशिया, कोरिया या चीन से मंगाया जाता है। इसकी बढ़ती उपयोगिता और मांग के बारे मंे अमेरिका की एक कंपनी का दावा है कि कीड़-मकोड़े ही हमें वैश्विक तौर पर खाद्य पदार्थों की कमी को पूरा करने में सहयोगी बन सकते हैं। अर्थशास्त्रियों के अनुसार 2050 तक गोश्त पूरी तरह से केवल अमीरों का भोजन बनकर रह जाएगा, ऐसे में इन्सेक्टस वैश्विक भोजन का जवाब बन सकते हैं। बाजार में मिलने वाले प्रोटीन बार में करीब 40 झींगुरों का इस्तेमाल होता है, जिनमें 270-300 कैलोरी, 10 ग्राम प्रोटीन, 14-20 ग्राम फैट, 13-18 ग्राम शुगर ओर 5-7 ग्राम फाइबर की मात्रा पाई जाती है।

उत्तरी अमेरिका में विश्व का पहला ओर अमेरिका का सबसे बड़ा औद्योगिक फार्म है, जहां कीट और कीड़े पाले जाते हैं और भोज्य पदार्थों के रूप में इनको संसाधित किया जाता है। इस फार्म में जमीन से लेकर छत तक एक के ऊपर रखी क्रेट्स में 30 मिलियन झींगुर पाले और ब्रीड करवाए जाते हैं। इसके अलावा यहां मीलवाॅम्र्स और खाने योग्य कीट भी पाले जाते हैं। इस बारे में वैज्ञानिको का दावा है कि ये प्रोटीन का बड़ा स्रोत है और इनका आटा बनाकर उसकी कुकीज, बिस्कुट या दूसरी खाने की चीजें बनाई जाती हैं।

कृत्रिम मांस

डच वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में मांस विकसित करने में कामयाबी हासिल कर ली है। जिससे भविष्य में बीफ पर से निर्भरता कम हो सकती है। वैज्ञानिकों ने गाय की मूल कोशिकाएं लेकर यह करिश्मा कर दिखाया है। जो ठीक मांस की तरह होता है। इस बारे में आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का कहना है कि यह मवेशियों को मारने से बेहतर होगा और इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा तथा ऊर्जा व पानी की खपत भी घटेगी। वैसे प्रयोगशाला में मांस तैयार करने की दिशा में पिछले 10 सालों से काम चल रहा है। नीदरलैंड के माशत्रिश विश्वविद्यालय में इस शोध का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर मार्क पोस्ट के अनुसार प्रयोगशाला में बनाया गया मांस प्राकृतिक मांस से जरा भी अलग नहीं है। इसका स्वाद भी ठीक बीफ जैसा ही है। हालांकि उनका यह भी कहना है कि इस पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, जिससे यह चलन में आ सके। फिलहाल तो इसकी लागत दो लाख पौंड की आई है, लेकिन बड़े पैमाने पर तैयार किए जाने पर यह 15 पौंड प्रति किलोग्राम तक की हो सकती है। आने वाले दिनों में थ्री-डी प्रिंटर की तकनीकी मदद से इसे बनाना और भी सहज-सरल हो जाएगा। उल्लेखनीय है कि थ्री-डी प्रिंटर में खाने-पीने की चीजें उसके इन्ग्रीडेंट्स इस्तेाल कर बनाई जा सकती है। इसे भविष्य का अत्याधुनिक चूल्हा, ओटा, एअर फ्राचर या इंडक्शनकूकर कह सकते हैं।कई वैज्ञानिकों का दावा है कि वे चीकन को प्रयोगशाला में बना सकते हैं, जो शोधकर्ताओं के लिए ठीक उसी तरह है जैसे वे अंग प्रत्यारोपण किया जाता है। इस कार्य को एक बड़ी परियोजना के तौर पर किया जा रहा है।

शाकाहारी चीज

चीज काफी लोकप्रिय और बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाने वाला दूध का उत्पाद है। जिसे लोग मंसाहार की श्रेणी में रखते हैं। संभवतः यही कारण है कि शाकाहारी चीज बनाया गया है। वर्ष 2014 की शुरूआत में अमेरिका के सन-फ्रांसिस्को में रीयल बेगन चीज परियोजना प्रारंभ की गई थी, जिसमं गाय की दूध का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

इसके द्वारा मवेशियों को उपयोग में लाए बगैर न केवल चीज, बल्कि दूध और अंडे की जर्दी भी तैयार करने में सफलता पाई है। यह सब बायोटेक्ट की प्रयोगशाला का कमाल संभव हो पाया है, जहां बायोटक इंजीनियरिंग से दूध और अंडे में पाए जाने वाले प्रोटीन के सेल का तैयार करना संभव हो पाया तथा उससे शाकाहारी चीज तैयार किया जा सकता है।

किण्वित काॅफी

काॅफी सामान्यतः उबले पानी या दूध के साथ पी जाने वाली भले ही बहुत ही लोकप्रिय पेय हो, लेकिन समय-समय पर इसमें भी कई बदलाव आए हैं। पेड़ से भूने हुए बीजों से बनाई जाने वाली काॅफी में कैफीन को लेकर कई तरह की मान्यताएं और कुछ ठोस वैज्ञानिक तर्क हैं। इसके कई प्रकार एस्प्रेसो, कैपेचीनो, फ्रैपी, फिल्टर, इंस्टैंट या साॅल्यूबल(घुलनशील), मोचाचिनो आदि के बाद एक नया नाम किण्वित काॅफी भी जुड़ गया है। हाल में ही एक अमेरिकी कंपनी अफिन्योर ने किण्वण के माध्यम से अद्वितीय स्वाद की काॅफी बनाई है। इस तरीके से सामान्यतः विभिन्न किस्म की शराब बनाई जाती है। कंपनी के संस्थापक सह सीईओ कामिले डेलेबेक्ये का कहना हैं कि उनका प्रयास केवल काफी को नए सिरे से पेश करना है। इसमें सुबह की चर्चा के साथ स्वाद को भी शामिल कर दिया गया है। अभी तक काॅफी को बीज और भूनने से जाना जाता रहा है, लोग इसे अब तीसरे शक्तिशाली तरीके किण्वन से भी जानेंगे। इसे संसाधित करने के लिए सीधे तौर पर बीज भरे हरे सेम का इस्तेमाल किया जाता है। उसमें स्वाद देने वाले बैक्टीरियल स्टेªेेन का पाउडर या तरल के रूप मंे छिड़काव कर दिया जाता है। ये बैक्टिरिया सेम के भीतर रासायानिक प्रतिक्रिया कर बीज की कड़वाहट को कम कर स्वादिष्ट बना देते हैं।

बहरहाल, आनेवाले दिनों में कम समय में पकाये और परोसे जाने वाले अहार नए स्वरूप के हो सकते हैं, साथ ही पारंपरिक मोटे अनाजों का दौर भी लौट सकता है। इसके अतिरिक्त अकाबर्निक अहार का भी जोर तेजी से पकड़ने लगा है।