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Jaishankar Prasad Ki Jeewan-katha Part-1

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उपन्‍यास

जयशंकर प्रसाद की जीवन-कथा

पहला खंड

श्‍याम बिहारी श्‍यामल

लेखक परिचय

श्याम बिहारी श्यामल

1998 में छपे अपने उपन्यास ‘ धपेल ‘ से हिन्‍दी साहित्‍य में छा जाने वाले कथाकार श्यामल ने कविता, कहानी, लघुकथा, व्‍यंग्‍य, संस्‍मरण, आलोचना और रिपोर्ताज समेत साहित्‍य की सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है।

हाल के वर्षों में उन्‍होंने अथक श्रम करके महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित वृहत औपन्‍यासिक कृति ‘कंथा’ की रचना की है जो बहुप्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘नवनीत’ में लगातार तीन वर्षों तक धारावाहिक छपकर चर्चे में है। यहां उसी का एक प्रसंग-खंड।

श्‍यामल पेशे से पत्रकार और संप्रति दैनिक जागरण की वाराणसी इकाई में मुख्‍य उप संपादक हैं।

उनके संपर्क-सूत्र :

डाक का पता : सी. 27 / 156, जगतगंज,

वाराणसी-221002 ( उत्‍तर प्रदेश )

ई मेल आईडी :

shyambiharishyamal1965@gmail.com

मोबाइल फोन नं. : 09450955978

प्रकाशित कृति‍यां : धपेल (उपन्यास / राजकमल

प्रकाशन, 1998) , प्रेम के अकाल में (कवि‍ता-

पुस्तिका / प्रथम प्रकाशन, 1998), अग्निपुरुष (

उपन्यास / राजकमल पेपरबैक्‍स, 2001), चना चबेना गंग-जल (ज्योति‍पर्व प्रकाशन, 2013),

लकुकथाएं अंजुरी भर (सत्‍यनारायण नाटे के साथ साझा संग्रह) / सांप्रत प्रकाशन, 1982)।

जयशंकर प्रसाद की जीवन-कथा

जयशंकर प्रसाद ने झुके-झुके आहिस्ते हाथ बढ़ाया और सधी गति से एक चाल चल दी. प्रतिद्वन्द्वी कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ने दृष्टि उठाकर भौंहें उचकायी और सिर हिलाने लगे. जवाब में प्रसाद मुस्कुराये और सीधा होते हुए बायें मुड़कर युवक की ओर देखा, ''...हां, बताइए बन्धु! कहां से, कैसे-कैसे आना हुआ ?''
''
जी, मैं सीतापुर से आया हूं! लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करना चाहता था किंतु यह प्रबंध न हो सका इसलिए यहां आ गया... अब यहीं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाह रहा हूं.. ''

'' बैठिये... बैठिये... खड़े क्यों हैं ? क्या पत्थर की इस चौकी पर बैठने में कोई दिक्कत होगी...''
'' ...
ना-ना! ऐसा कतई नहीं... मैं तो इसकी यह नक्काशी और कलात्मकता को देख यों भी गद्गद हूं... इस पर बैठकर तो मुझे आनन्द की ही उपलब्धि होगी... '' आंखें फैलाये चौकी को निरखते हुए युवक आहिस्ते कुछ यों बैठने लगा गोया वह इस पर अपना भार न डालने की कोई जुगत सोच रहा हो.

प्रसाद मुस्कुराये, '' बन्धु, यह पाषाण है... पृथ्वी की कोख से पाता है जन्म यह... उसकी ममतामयी आत्मा सम्भव बनाती है इसके अस्तित्व को... अपनी करोड़ों वर्षों की धधकती एकाग्रता और सदाप्रज्ज्वला संकल्प-अग्नि के गर्भ से ! ...तन-मन यदि सजग हों तो इसका संस्पर्श-मात्र आपके ब्रह्माण्ड-मण्डल में कैसी उन्नत ऊर्जा और कितनी ठोस दृढ़ता का संचार कर रहा होगा, चाहो तो इसे अनुभूत कर सकते हो! ...''

युवक जैसे चमत्कृत! लगा, जैसे ज्ञानेन्द्रियां पहली बार एक साथ बहुस्तरीय अनुभव-उपलब्धियों की प्रवहमान धारा से सनसनाती हुई भरने लगी हों. जैसे, अचानक तेज वर्षा से मानस-वसुन्धरा आप्यायित! आनन्द से आन्दोलित प्रवाहित धारा में थिरकती गेंद की तरह. ...सचमुच पत्थर की चौकी पर बैठना विरल अनुभव से सम्पन्न करने लगा!

'' क्या है तुम्हारा शुभ नाम ? '' प्रसाद फिर बिसात पर झुक गये.

'' चंद्रप्रकाश सिंह ! ''

उन्होंने थोड़े चकित भाव से तीक्ष्ण दृष्टि उठायी. मुड़कर इस बार गौर से देखा, '' क्या कुंवर चंद्रपकाश सिंह तुम्हीं हो ? ''

'' जी! '' युवक साश्चर्य पत्थर की नक्काशी को हथेलियों से सहलाता रहा.

प्रसाद ने मुस्कुराते हुए फिर बिसात पर ध्यान गड़ाया. कुछ पल सिर हिलाते रहे फिर जवाबी चाल चल दी. गौड़ खिल उठे. यह देख वे सशंकित हो गये. सजग हो दूसरे ही पल उन्होंने फिर सिर गोत लिया. निगाह गड़ाते हुए. मननशील मुखमण्डल पर अफसोस की झलक खिंच गयी. मुंह से स्वमेव जीभ बाहर निकल आयी. उन्होंने जल्दी से अपनी चाल वापस कर ली. इस पर गौड़ तिलमिला उठे. संयत किंतु तीखे स्वर में प्रतिरोध भी जताया. प्रसाद ने इसे अमान्य करते हुए इनकार में सस्मित सिर हिलाया, '' आप तो केवल चाल सोच रहे हैं जबकि मैं इस युवा आगन्तुक से बात भी कर रहा हूं... इसलिए गलती से चली हुई चाल को तो मैं वापस ले ही लूंगा... ''

गौड़ तुनक गये, '' यह आपकी काव्य-सर्जना का मनमाना पृष्ठ नहीं है बाबूसाहब ...कि जब चाहा पीछे लौटकर किसी भी पूर्वलिखित वाक्य को छू-छेड़ लिया... यह बिसात है! यहां बढ़ा हुआ कदम पीछे नहीं लौटता! आपकी यह चाल-वापसी की चाल नहीं चलेगी! ...नो! नेवर! इट कैन नेवर जस्टीफाई! ''

प्रसाद उसी तरह इनकारी मुद्रा में सिर हिलाते रहे, '' गौड़ जी, आप अपने मन में रंज ला रहे हैं तो लाते रहें... यह शतरंज है इसमें ऐसे-ऐसे शत-शत रंज भी आप मन में उगाते और बाहर उगलते रहें तब भी मैं आपके इस मन:रंज को मनोरंजन ही मानता चलूंगा... ''
वाक्य पूरा होते-होते ही गौड़ के चेहरे का रंज भंग हो गया. वे ठठा कर हंसने लगे. हंसते गए, हंसते गए. मुस्कुराते हुए प्रसाद कभी उन्हें तो कभी आगन्तुक को ताकते रहे. गौड़ ने कहा, '' मान गया महाकवि! आप शतरंज को नहीं खेल रहे बल्कि शतरंज ही आपसे अठखेल कर रहा है... यहां मैं आपसे दो कदम आगे और एक कदम पीछे की चालों का नया छंद सीख रहा हूं... ''

प्रसाद फिर आगन्तुक की ओर उन्मुख हुए, '' ...युवा मित्र, हाल के दिनों में विभिन्न पत्रिकाओं में मैंने तुम्हारी कई सशक्त कविताएं पढ़ी हैं... ''

चंद्रप्रकाश संकोच से भीग गया. प्रसाद ने आंखें मूंद ली. कुछ क्षण यों ही मननशील रहे. आंखें खोली तो दृष्टि में विशिष्ट गाम्भीर्य-भाव मुखर हो उठा, ''...तुम्हारी रचनाओं में जीवंतता है! बड़ी बात यह कि तुम अभी छात्र हो और अभी से ऐसे रसीले-गठीले गीत रच रहे हो! यह तो बहुत अच्छी बात है! सच मानो, तुम्हारे कुछ गीत पढ़कर तो मन तृप्त हो उठा... बहुत प्रमुखता से तुम्हारे गीत 'माधुरी' व 'सुधा' आदि में स्थान भी पा रहे हैं... कुछ तो मुखपृष्ठ पर भी छपे हैं.. ''

चंद्रप्रकाश हिम-खण्ड की तरह पिघलता रहा. बिसात पर झुका हुआ गौड़ का एकाग्र मौन फिर ललकारने लगा तो प्रसाद फिर जूझने लगे. मौन के पंख फैलते चले गए. दोनों सिर गोते रहे. कुछ ही पल बाद दोनों ने ऐसा ठहाका फोड़ा कि मौन एक झटके से हवा हो गया. प्रसाद का वजीर कट चुका था. हंसते हुए वे गौड़ की पीठ ठोंकने लगे, '' वाह भई! आपने तो मेरे मंत्री को गिरा कर ही दम लिया... चलिए, राजा का हश्र अब तय हो गया इसलिए अब यहीं विराम! ''

'' अरे नहीं... शतरंज में कभी भी चाल पलट जाती है... आप ऐन क्लाइमेक्स में ही ऐसा कैसे कर सकते हैं...''

'' हां... वो तो हैं किंतु चलिये, हम यह मान लेते हैं कि आप ने दांव मार लिया! इसलिए ...फिलहाल इतना ही रहने दें ...फिर बाद में खेलेंगे! मैं अब जरा अपने अतिथि को ठीक से उपलब्ध हो लूं...'' प्रसाद ने दृढ़ता से कहा.

गौड़ मुस्कुराये, '' साधारण वजीर भला आपके किस काम का था ही? आपको तो भृत्य भी चेखुरा जैसा हाजिरजवाब और क्रांतिकारी चाहिए... ऐसे में आपका मंत्री तो ऐरा-गैरा चलेगा नहीं... हंस का मंत्री भला कौआ कैसे हो सकता है! आपको तो एकदम अनूठा-अनोखा मंत्री ही चाहिए न... इसलिए इस अटकु-लटकु वजीर का शहीद हो जाना ही अच्छा रहा...''

प्रसाद चंद्रप्रकाश की ओर मुड़े, ''...मित्र, सीधा परिचय तो आज हो रहा है किंतु एक दिन तो तुम्हारे पिताजी तुम्हें खोजते हुए यहां आ चुके हैं... उनके हाथ में मेरे नाम निराला जी का पत्र था... मैं तो उस समय हतप्रभ रह गया... जटिल समस्या यह प्रस्तुत हुई कि तुमसे मेरी कोई सीधी भेंट थी नहीं और मुझी से वे तुम्हारे यहां से गायब हो जाने के बारे में पूछ रहे थे... मेरे लिए चिंताजनक यह कि मुझे इस प्रश्न का उत्तर एक परेशान पिता को देना था... मैंने बहुत सोच-समझकर सावधानीपूर्वक बात की और उन्हें यह महसूस ही नहीं होने दिया कि मैं तुमसे अपरिचित हूं तथा यह भी समझा दिया कि तुम कहीं किसी आयोजन में चले गए हो और दो-चार दिनों में ही लौटने वाले हो! खैर, मेरी बातों ने उनकी बेचैनी को कम कर दिया, यह देख मैं बहुत संतुष्ट हुआ. बाद में वे फिर दुबारा लौटे नहीं तो मैंने यही मान लिया कि तुम सकुशल लौट चुके होगे. वैसे मुझे अब तो बताओ कि तुम अचानक यहां से चले कहां गए थे ? ''

चंद्रप्रकाश थोड़ा सकपकाया. वह स्वयं को संभालने लगा, ''...जी, दरअसल, मैं एक साथी के यहां चला गया था मीरजापुर... वहां बहुत मनमोहक प्राकृतिक छटा मिली... जीते-जागते-से सांस लेते जंगल-पहाड़ और गलीचेदार-गुलगुली सप्राण हरियाली... ऊपर लहराता नीला निस्सीम मस्त-मगन फेनिल गगन... मन तो जैसे वन में रम-सा ही गया था... नेत्रों से जैसे शीतल तृप्ति का एक सम्पूर्ण निनादित झरना ही हृदय-प्रदेश में झर्-झर् झर्-झर् उतरता रहा... वहां से हिलने-हटने की इच्छा ही नहीं हो रही थी...''

प्रसाद बीच में ही बोले, '' अरे, वहां की प्राकृतिक छटा की तो बात ही अलग है... एक बार मैं भी उसमें जा फंसा था.. उस सुषमा ने मुझे भी अपने में उलझा लिया था... ''

'' अच्छा! आपको वहां की प्राकृतिक सुषमा ने उलझा लिया था! क्या तात्पर्य ? ''
'' अब इस पर फिर कभी बातें होंगी! फिलहाल तो तुम्हारी इसी बात को मैं मजबूत कर रहा हूं कि वहां की प्रकृति किसी को भी बेसुध बना सकती है...''

'' हां, तो ऐसे में मैं भी भला और क्या करता! विभोर होकर वहीं कई दिनों तक जमा रहा... इधर पिताजी यहां बनारस आ गए और मुझे नहीं पाया तो घबराकर सीधे इलाहाबाद लौट गए... मुझे खोजते हुए ही वे श्रध्देय निराला जी के पास जा पहुंचे... जब निराला जी को पता चला कि मैं लापता हूं तो उन्होंने मन ही मन यह अंदाजा लगा लिया कि अपनी प्रवृति के अनुसार मैं काशी में अब तक आप से अवश्य परिचित हो चुका होऊंगा, इसलिए उन्होंने आपके नाम एक पत्र लिखकर उन्हें फिर बनारस वापस कर दिया... खैर, दूसरी बार जब पिताजी आए और आपसे मिलकर लौट रहे थे ऐन उसी समय रास्ते में ही मेरी उनसे भेंट हो गयी थी... मैं मीरजापुर से लौट ही रहा था... उनकी हालत देख मुझे अपनी भूल का गहरा अनुभव हुआ! ...''

प्रसाद बहुत ध्यान से सुनते रहे. चन्द्रप्रकाश ने आगे बताया, ''...यहीं चेतगंज में मेरे कुटुम्बियों का घर है... वहीं मैं ठहरा हुआ हूं... मुझे मीरजापुर जाने से पहले इसकी पूरी सूचना अपने कुटुम्बियों को अवश्य दे देनी चाहिए थी... मुझसे यही भूल हुई कि मैंने उन लोगों को भी कुछ नहीं बताया और अचानक मित्र के साथ मीरजापुर चला गया...! ...आपको इसमें जो अनावश्यक चिन्ता-परेशानी उठानी पड़ी इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं..'' कहते हुए उसने दोनों हाथ जोड़ लिए.

प्रसाद मुस्कुराए, '' ...चलो, ठीक है! तुम लापता नहीं हुए और सकुशल लौट आए इसके लिए तुम्हें ही मेरी बधाई! ...तो, तुम निराला जी के निकट कैसे पहुंचे ? ''
'' इलाहाबाद में इसी तरह उनसे भी मिलने पहुंचा था... उनके हाथ में 'सुधा' का नया अंक था और उस समय संयोगवश वे मेरा ही गीत पढ़ रहे थे... मैंने पहुंचकर अभिवादन करते हुए जब अपना नाम बताया तो वे प्रफुल्लित हो आवेग से भर उठे... मुझे गले से लगा लिया और मुक्तकंठ आशीष देने लगे... बताने लगे कि वे मेरी कई रचनाएं पढ़ चुके हैं और हर रचना-पाठ के समय उनके मन में मुझे देखने की इच्छा जागती रही... अभी भी वे ऐसा ही कुछ महसूस कर रहे थे कि ऐन इसी क्षण मैं उपस्थित हो गया... '' चंद्रप्रकाश की वाणी पर प्रसन्नता की चिकनाई चमक रही थी.
प्रसाद मुस्कुराते रहे. चन्द्रप्रकाश ने आगे बताया, '' ...मैं निराला जी से नियमित मिलने लगा... उन्होंने मुझे अपनी कई ताजा रचनाओं का प्रथम श्रोता बनाया और एक दिन अचानक मुझे बिना कुछ पूर्व सूचना दिए कविवर सुमित्रानन्दन पन्त के यहां लेकर पहुंच गए! ...पन्त चुप-चुप सुनते रहे और निराला जी उन्हें मेरे बारे में ढेरों बातें बढ़ा-चढ़ाकर बताते रहे... बाद में मैं पन्त जी से भी मिलने पहुंचने लगा ! ...ले-देकर अब तक मैं आपसे ही न मिल सका था और इसके चलते लंबे समय से भीतर-भीतर स्वयं को छूंछा-सा महसूस करता रहा हूं... यह तो अच्छा ही हुआ कि लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरा प्रवेश नहीं हो सका और मुझे काशी आने का बहाना मिला... इस तरह आज आपके दर्शन का भी अविस्मरणीय लाभ अर्जित कर पा रहा हूं... ''

चेखुरा आया और सामने जलपान रखकर चला गया. तस्तरी में मकदल और ताजा तली निमकी. सोंधाई और मिठास हवा पर तैरने लगीं. प्रसाद ने विनम्रता से तश्तरी की ओर संकेत किया. चंद्रप्रकाश ने ग्रहण करना शुरू कर दिया.

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बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में नामांकन हो गया तो चंद्रप्रकाश ने किराए का एक मकान ले लिया. दुर्गाकुण्ड से आगे नवाबगंज के मार्ग पर. एक दिन सुबह-सुबह गंगा-स्नान के लिए घाट जाने को ज्योंही दरवाजे से बाहर कदम बढ़ाया, सामने से निराला जी आते दिख गए. चंद्रप्रकाश सुखद आश्चर्य से भर गया. अपनी ही आंखों पर सहज विश्वास नहीं कि जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वह सोलह आने सच भी हो सकता है!

कंधे से लटकता हिलता झोला और तीव्र भंवर की तरह लपकती आती गतिमान कद्दावर काया. भीतर तक उतरने वाली दृष्टि फैलाये समीप आती बलती हुई आंखें और हवा से खेलते मुक्तछंद व्यंजित आरोह-अवरोह से भरे दाढ़ी-बाल.

निराला समीप आ पहुंचे. वह अचकचाया-सा मटर-मटर ताकता रहा. उन्होंने हाथ उठाया और उसके सिर के ऊपर ले जाकर थपकी देने लगे, ''... जो तुम देख रहे हो, यह सच है बेटे! यह मेरा प्रेत नहीं, तुम्हारे सामने यह स्वयं मैं ही साकार खड़ा हूं... अब चलो, ग्रहण करो... लो, तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूं ... ''

चंद्रप्रकाश ने गतिपूर्वक उनके चरणों में शीश झुक दिया. निराला की वाणी मधु बन गयी, ''..चलो हुआ! मैंने तुम्हें वाग्विरलता और वाग्प्रखरता का आज एक नया आशीर्वाद दिया... ''

चंद्रप्रकाश ने उनका झोला थाम लिया. उन्हें साथ लिये भीतर चल पड़ा. बरामदे के बाद पहला कमरा लांघते दोनों बगल के दूसरे कमरे में पहुंच गए. निराला ने अलग कमरे का प्रबंध होता देख उसके कंधे पर हाथ रखा, ''...यह किसका कमरा है भला ? ''

'' यह पूज्य पिताश्री के लिए है... असल में वे काशी आने का कोई बहाना नहीं चूकते न... कभी एकादशी, कभी पूर्णिमा तो कभी कोई भी छोटा-बड़ा पर्व-त्योहार... वे विश्वनाथ दरबार में यहां पहुंचते ही रहते हैं... इसीलिए यह पूरा मकान ही ले रखा है..''

'' अरे बच्चू, मैं तुम्हारे पास इसलिए भी आया हूं कि तुमसे कुछ नियमित विमर्श होता रहे... यह अलग कमरा और शिष्ट-विशिष्ट सुविधा के लिए नहीं आया... ''

'' महाकवि, कोई हर्ज नहीं! मैं तो आपकी सेवा में अहर्निश उपलब्ध हूं ही... ''
'' दरअसल, 'गीतिका' और 'निरुपमा' के फर्मे भी चेक करने हैं... अंतिम दौर के जोड़-घटाव भी तो करने हैं '' निराला मुस्कुराये.
थोड़ी ही देर में दोनों गंगास्नान के लिए निकल गए.

रास्ते में निराला ने पिछले दिनों के बनारस-प्रवास की चर्चा छेड़ दी. वे पिछली बार पास ही नवाबगंज में वाचस्पति पाठक के यहां ठहरे थे. बताने लगे, '' ...रायकृष्ण दास के यहां ठहरने पर सुविधाएं तो खूब मिलती हैं किंतु एक बड़ी असुविधा भी पेश होती है... उनमें मित्र की कोई छवि ही नहीं उभरती! ...बार-बार मुझे वे बाबूसाहब अर्थात् प्रसाद जी के ही अंतरंग दिखाई पड़ते हैं, इस नाते उनके प्रति संकोच-लिहाज जैसे भाव ही जेहन में उभरते रहते हैं... ''

चंद्रप्रकाश हां-हूं करते चल रहे थे. निराला बोलते जा रहे थे,''...पिछली बार वाचस्पति पाठक के यहां रूका था... उनके साथ एक अलग समस्या है... उन्हें भारती भण्डार की व्यवस्था संभालते हुए कुछ अधिक ही ज्ञान-लाभ हो चुका है...जब देखो तब लेखकों की इंटरनल पॉलिटिक्स बतियाने लगते हैं... कभी मैथिलीशरण और बाबूसाहब में मेल कराने की बात लेकर बैठ जाते हैं तो कभी दुलारेलाल भार्गव की प्रकाशन-रणनीति की काट खोजने लगते हैं... ''

इस पर चंद्रप्रकाश ठठा पड़ा. बोलते हुए तेज डग भर रहे निराला सड़क के दोनों ओर ध्यान से ताकते भी चल रहे थे. कुछ इस तरह जैसे साथ-साथ चल रहे घर-मकान, पेड़-पौधे, जमीन-हवा... सबसे वे मन ही मन समानान्तर मानसिक संवाद जोड़ते चल रहे हों. वे मुस्कुराते हुए आगे बोले, '' दिक्कत यह कि आज के समय में हर कोई अपनी ही अदा और अंदाज में सबको घसीट लेना चाहता है... ''

चंद्रप्रकाश ने चलते हुए गति थोड़ी धीमी की और उनकी ओर गौर से देखा. वे भी धीमे हो चुके थे, '' ...भई, ऐसी बातों से मन भिन्ना कर रह जाता है...''

निराला की आंखें जैसे भीतर तक देख रही हों. चंद्रप्रकाश ने सिर को स्वीकार में हिलाया. दूसरे ही पल उनके चेहरे पर एक निर्मल आभा तैर गयी, उन्होंने सामने की ओर संकेत किया. निराला ने दृष्टि फेंकी, गंगा लहरा रही थी.

वे घाट के पास आ चुके थे. निराला की भाव-मुद्रा तुरन्त तनाव-मुक्त. अब यह तरंगायित हो उठी, '' चंद्रप्रकाश! देखो न, काशी में यहां गंगा की छटा कुछ खास ललकारने वाली लग रही है... यह चांद जैसी कोण-कटान और तीव्र आंदोलित धारा की उग्र श्यामा-मुद्रा... ''

चंद्रप्रकाश कई सप्ताह से लगातार ऐन यहीं इसी घाट पर पहुंचकर स्नान करता रहा है किंतु आज निराला की टिप्पणी के आलोक में सचमुच गंगा का यह रूप एकदम अनदेखा और सर्वथा नया-नया-सा लगने लगा. वह मन ही मन मनन-विश्लेषण में डूबा रहा. कपड़े कम करने के बाद निराला घाट से नीचे उतरे. छाती भर पानी में पहुंचकर उत्साह व आवेग से भर उठे, '' बच्चू, उस पार रामनगर है... वह देखो, वहां उधर काशी-नरेश का किला दिख रहा है... कहो तो, मैं तैरकर उस पार चला जाऊं... मुश्किल से एक-डेढ़ घंटे में लौट भी आऊंगा... ''

निराला की आवाज जल पर फैले गाज-फेन और खेलते भंवर से टकराकर घिरनी की तरह नाचती हुई पहुंची. चंद्रप्रकाश का मन चक्करघिन्नी बनकर बेचैन हो उठा. वह घबराहट से भर उठा. लगभग चिल्लाकर हांक लगायी, '' ना बाबा ना! एकदम नहीं! मैं आपसे यह विचार तत्काल त्यागने की करवध्द प्रार्थना कर रहा हूं... आप ऐसी बात अब अगर दुबारा महज उच्चरित भी करेंगे तो मैं अब स्नान तक नहीं करूंगा... यहां आना भी आज के बाद सदा-सदा के लिए बंद कर दूंगा... ''

निराला ने चुपचाप डुबकी लगायी- छपाक्! घंटाध्वनि-सी घाट की तीक्ष्ण कनकनी हवा खुले शरीर के रोम-रोम को झंकृत कर रही थी. चंद्रप्रकाश सिहरता रहा. उसने ससंशय दृष्टि गड़ाये रखी. कुछ ही पल बाद निराला ने जल में यथास्थान सिर ऊपर निकाला तो जान में जान आयी. बालों को झटकारते-झाड़ते हुए निराला तेज स्वर में बोले, '' ...चलो, हो गया! तुम्हारी ही बात मान ली, नहीं जाऊंगा उस पार! तुम भी तो मेरे एक और गार्जियन हो गए हो यार... लगता है काशी मेरी गार्जियन-भूमि ही होकर रह गयी है... जो अग्रज हैं सो तो कदम-कदम पर लठ लिए आगे खड़े ही दिखते हैं, जो अनुज गण हैं वे भी पीछे नहीं ... उधर एक विनोदशंकर व्यास है जिसे मेरे खान-पान पर लगाम कसने के अलावा दूसरा कोई काम नहीं सूझता... इसी कारण मानमंदिर के उसके घर में ठहरना मैंने छोड़ा और इधर एक तुम हो जो मेरे गंगा में तैरने तक को बैन कर रहे हो... मन को विचरण के लिए खुला छोड़ने की राह में यहां बाबूसाहब और रायसाहब तो ऐलानिया रोड़े हैं ही... अग्रजों को प्राप्त अधिकार तो प्रकृतिप्रदत है लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा कि अनुज गण भला किस हक से लगाम कस रहे हैं... ''

पानी से निकल निराला ऊपर आए. अंगोछे से देह पोंछने के बाद वे वस्त्र बदलने लगे. चंद्रप्रकाश आहिस्ता बढ़ा और पानी में उतर गया. वह घाट के समीप ही ठेहुने भर पानी में रूका और हाथों से जल उछालकर अपनी देह भिंगोने-धोने लगा. निराला की दृष्टि जा पड़ी. उसे कम पानी में नहाता देख पहले तो वे चौंके फिर गरज पड़े, '' यार, चंद्रप्रकाश! इतने भी कायर न बनो... लानत है, ठाकुर होकर इस तरह काग-स्नान कर रहे हो! छि: छि:! वेरी सैड! ''

चंद्रप्रकाश एक साथ संकोच व अपराध-बोध से भर उठा. झेंपते हुए सप्रयास मुस्कुराया जिसे देख निराला ने प्रतिवादी आवेग छलकाया, '' ...यार, यह ठीक नहीं है!... सिंह हो, कम से कम शेर का प्राथमिक गुण तो न भूल जाओ... छाती भर पानी में तो आगे बढ़ ही जाओ! ''

चंद्रप्रकाश ने किसी दक्ष तैराक की तरह सधी हुई छलांग लगा दी. छपाक् की तेज आवाज हुई. हवा में पल्टा खाकर वह जल के तल पर गिरा और तैरने लगा. ठीक समुद्री मछली की तरह. निराला ने ताली पीटी, '' हां! वेरी गुड! नाइस!! वाह... वाह ! तभी तो मैं कहूं कि मेरी पसंद आखिर गलत कैसे निकल सकती है... मेरा पसंदीदा युवा कवि भला इतना भय-भिंचित कैसे हो सकता है... ''

जल पर कुछ ही पैंतरे दिखाने के बाद चंद्रप्रकाश तैरता हुआ घाट की ओर लौट आया. जल्दी-जल्दी देह-हाथ रगड़ने और नहाने लगा. कुछ ही देर में वह भी ऊपर आ गया. निराला गद्गद्. परम प्रसन्न नेत्रों में परिपाक प्रशंसा. वाणी में ओज के अग्नि- कण तैरने लगे, '' ...मर-मर कर जीने वाला व्यक्ति जीवन की मर्यादा को कभी गर्वीली ऊंचाइयां नहीं दे सकता! ...जो मृत्यु को मुंह नहीं चिढ़ा सकता उसकी जिन्दगी का मूल स्वर तो गिड़गिड़ाहट ही हो सकती है, इससे अलग कुछ और नहीं! ...और गिड़गिड़ाहट... हुंह! यह संघर्ष-विमुख बनाने के अलावा और भला कर ही क्या सकती है! ...और संघर्ष-विमुखता तो लिजलिजी समझौता-परस्ती ही सिखायेगी न! ''

साथ-साथ लौट रहे चंद्रप्रकाश ने कृतज्ञता व्यक्त की, '' महाकवि, आज आपने मुझे यह बोध करा दिया कि आपके जिन हाव-भावों को लोग अक्सर त्वरित क्षणिक आवेग समझ लेते हैं, वे वस्तुत: न आकस्मिक भावोच्छवास हैं न कोई अनजानी भूल-गलती... बल्कि ये तो आपकी सुविचारित कार्रवाइयां हैं और जीवन-संघर्ष की दुर्लभ रणनीतियां भी... ''

निराला ने चलते-चलते पीठ ठोंकी, ''...अब सविस्तार व्याख्या-विश्लेषण के अंधे-बंधे-धंधे में न जुट जाओ! नंददुलारे वाजपेयी को बेरोजगार बना देना चाहते हो क्या! तुम आलोचक-समालोचक न बनो, दिमाग ठंडा रखो ...आदमी की तरह साथ चलो... ''

चंद्रप्रकाश झेंप गया. निराला ने ठहाका लगाया. काशी का आकाश अक्षर शब्द-शक्तियों की विद्युत तरंग और प्रवहमान काव्य की अनन्त अंतराओं से रंजित हो उठा.

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उस दिन विश्वविद्यालय से चंद्रप्रकाश कुछ जल्दी लौटा. निराला अपने कमरे में चौकी पर पाल्थी जमाये जमे थे. अपने उठे हुए मुड़े ठेहुने को मेज की तरह इस्तेमाल करते तख्ती रखे, सिर गड़ाये प्रूफ देखने में तल्लीन. इसके बावजूद जरा-सी आहट पर सिर उठाकर देखा. मुस्कुराये, '' क्या बात है युवा मित्र, बहुत पहले चले आए ? कहीं किसी से कोई टंटा-वंटा तो नहीं कर आये हो ? ''

'' नहीं...नहीं ! कल आप ही ने तो बताया था कि आप आज शाम गोवर्ध्दनसराय की ओर निकलेंगे ... ''

'' हां... हां! यार, काशी में रहूं और एक-दो दिन पर भी बाबूसाहब से न मिलूं, ऐसा कैसे हो सकता है... मन हो तो चले चलो तुम भी... '' उन्होंने तख्ती हटाकर नीचे रखी और पास के कागज-पत्तर समेटने लगे. चश्मा उतारा और चौकी से नीचे आ गए.

'' हां...हां ! मैं भी चलूंगा ! इसीलिए तो विश्वविद्यालय से सरपट भागता हुआ आ रहा हूं... रास्ते में कहीं जरा-भी नहीं ठहरा, सीधे यहीं आकर रूका हूं...देखिये न, एकदम पसीने-पसीने हो गया हूं...'' चंद्रप्रकाश कुर्सी पर थसक कर बैठा था. कुछ यों जैसे वह चुहचुहायी थकान को विसर्जित करने और नये प्रस्थान के लिए ऊर्जा संचय में जुट गया हो.
निराला ने दृष्टि उठायी. सिर से गर्दन तक चमकती बूंदें देख होंठ उचकाकर मुस्कुराए. चंद्रप्रकाश की आवाज में सांगीतिक कोमलता थी, '' ...मुझे तो प्रसाद जी के निकट बैठने पर अद्भुत अनुभूति होती है... उन्हें देखना, उनकी दृष्टि का साक्षात् संस्पर्श पाना और उनकी वाणी को सुनना सचमुच गहन तृप्ति का अनुभव देते हैं ! ...हवा पर जब उनकी वाग्मिता सन्निकट तैरती है तो लगता है जैसे बिल्कुल पास ही ज्ञान और अनुभूति की महागंगा प्रवाहित हो रही हो... ''

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