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Jaishankar Prasad Ki Jeewan-katha Part-2

उपन्‍यास

जयशंकर प्रसाद की जीवन-कथा

दूसरा खंड

श्‍याम बिहारी श्‍यामल

लेखक परिचय

श्याम बिहारी श्यामल

1998 में छपे अपने उपन्यास ‘ धपेल ‘ से हिन्‍दी साहित्‍य में छा जाने वाले कथाकार श्यामल ने कविता, कहानी, लघुकथा, व्‍यंग्‍य, संस्‍मरण, आलोचना और रिपोर्ताज समेत साहित्‍य की सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है।

हाल के वर्षों में उन्‍होंने अथक श्रम करके महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित वृहत औपन्‍यासिक कृति ‘कंथा’ की रचना की है जो बहुप्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘नवनीत’ में लगातार तीन वर्षों तक धारावाहिक छपकर चर्चे में है। यहां उसी का एक प्रसंग-खंड।

श्‍यामल पेशे से पत्रकार और संप्रति दैनिक जागरण की वाराणसी इकाई में मुख्‍य उप संपादक हैं।

उनके संपर्क-सूत्र :

डाक का पता : सी. 27 / 156, जगतगंज,

वाराणसी-221002 ( उत्‍तर प्रदेश )

ई मेल आईडी :

shyambiharishyamal1965@gmail.com

मोबाइल फोन नं. : 09450955978

प्रकाशित कृति‍यां : धपेल (उपन्यास / राजकमल

प्रकाशन, 1998) , प्रेम के अकाल में (कवि‍ता-

पुस्तिका / प्रथम प्रकाशन, 1998), अग्निपुरुष (

उपन्यास / राजकमल पेपरबैक्‍स, 2001), चना चबेना गंग-जल (ज्योति‍पर्व प्रकाशन, 2013),

लकुकथाएं अंजुरी भर (सत्‍यनारायण नाटे के साथ साझा संग्रह) / सांप्रत प्रकाशन, 1982)।

जयशंकर प्रसाद की जीवन-कथा

दूसरा खंड

निराला ने बहुत गंभीरता के साथ आंखें फैलायी, '' ...ठीक कहते हो! बाबूसाहब वस्तुत: एक विशिष्ट उपस्थिति हैं... उनका मन हमेशा किसी न किसी बीहड़-बियाबान को रौंदता बढ़ता रहता है... मस्तिष्क हर क्षण किसी न किसी उत्खनन में उद्यमरत... मैं तो स्वयं उन्हें निकट से देखने के बाद लगातार अभिभूत होता रहता हूं... उनका गाम्भीर्य मनन-मंथन के लिए उकसाता है, उनकी मुस्कान प्रेम के मंत्र फूंकती है... उनका अध्ययन पलक झपकते युग-युगांतरों की यात्रा करा देता है... ''

चंद्रप्रकाश चकित भाव से सुनता रहा. वे रूके तो उसने जिज्ञासा का घना जाल फैलाया, '' महाकवि, स्वयं आप भी उनसे इतने प्रभावित हैं ? ''

'' हां, क्यों नहीं ? क्या तुम मुझे इतना भी समझदार और विवेकी नहीं मानते! ''
''
नहीं ! नहीं!! मेरा तात्पर्य तो सिर्फ यही कि आखिर आप स्वयं महाकवि हैं... ''
'' ...
लेकिन अंतत: महाकवि प्रसाद का ही तो अनुज हूं... ''

दोनों बाहर आ गए. कदम बढ़ते चले गए.

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बाबूसाहब के पास दोनों जमे थे. निराला ने बहुत संयत स्वर में अपनी बात शुरू की थी, '' ...मेरा तो कभी अपनी किसी रचना से मन ही नहीं भर पाता... हमेशा हर रचना अधूरी लगती है... 'गीतिका' और 'निरुपमा' के फर्मे देख रहा था... दोनों की लगभग हर पंक्ति में कुछ न कुछ कलम लग ही गयी... इसीलिए भारती भण्डार वाले मुझसे मुंह फुलाये रहते हैं... तीसरी बार प्रूफ देख रहा हूं तब भी कट-कूट उसी तरह जारी है जैसे पहले प्रूफ के समय हुई थी...''

'' अधूरेपन का यही गहरा बोध तो प्रत्येक आगामी रचना की भूमि गढ़ता है! ..हर कला का जन्म अधूरेपन की ऐसी ही पूर्ववर्ती दग्ध अनुभूति से होता है... मुझे तो यही लगता है कि अतृप्तियां और अपूर्णताएं ही गति उत्पन्न करती हैं जबकि संतृप्ति और पूर्णता गति की सांस तोड़ देती हैं... पूर्णता सम्भवत: मोक्ष जैसी ही कोई दशा है... अब यही संयोग देख लीजिये न, जीवन जब पूर्ण हो जाता है तो यही दशा मृत्यु कहलाती है... '' बोलते हुए प्रसाद की मुद्रा गुरु-गंभीर बनी रही. सभी चुप. कुछ ही देर बाद वे आगे बोले, '' ...लेकिन बहुत अधिक प्रूफ-युध्द नहीं चलाइयेगा... भारती भण्डार चाहे भले रायकृष्ण दास का संस्थान हो, प्रकाशन का प्रबंधन एक-एक पैसा दांत से पकड़ता है... वाचस्पति पाठक अभी लिहाज कर रहे होंगे, लेकिन बाद में कभी भी वे अपना रंग दिखा सकते हैं... तब अप्रिय स्थिति बन जायेगी.. ''

निराला की वाणी में ताप उतर आया, '' ...अब उनकी बचत के लिए अपनी रचना के कील-कांटे तो ढीली नहीं ही छोड़ दूंगा... इसमें ज्यादा मुसीबत महसूस हुई तो अपनी पांडुलिपियां वापस ले लूंगा... यों भी भारती भण्डार के प्रति हमारा झुकाव सिर्फ आपके कारण है, दूसरी कोई वजह नहीं... जब कभी इस प्रकाशन का नाम आता है तो जेहन में एक ही बात आती है कि इसे आखिर आप जैसे हमारे अग्रज ने शुरू करवाया है... अन्यथा अब तो कई प्रकाशक हैं जो एक-एक पाण्डुलिपि के लिए कई-कई परिक्रमा करने के लिए तैयार बैठे हैं... आखिर दुलारेलाल भार्गव को गंगा-पुस्तक-माला के लिए स्वयं प्रेमचन्द ने भी अपनी पाण्डुलिपि दे ही दी है... ''


प्रसाद मीठा मौन ओढ़े बैठे रहे. निराला की वाणी-विदग्धता गूंजती रही, ''...प्रकाशन की एक सहज दुनिया गढ़ना अभी बाकी है... हिन्दी संसार में यह कमी अब तीक्ष्ण्ता से महसूस की जा रही है... इसमें आपकी ओर से कुछ और पहल होनी चाहिए... रायसाहब से भारती भण्डार शुरू कराकर आपने इस दिशा में बड़ी भूमिका निभायी है किंतु वे भी अंतत: व्यवसायी नहीं हैं... कहां उनका चांदनी जैसा शीतल कला-प्रेम और कहां प्रकाशन व्यवसाय का यह शुष्क-खुश्क प्रतप्त प्रक्षेत्र... ऐसे में बात भला कैसे बन सकती है! इसलिए व्यवस्थापन वाले जो-जो खेल चाह रहे हैं वह सब आराम से चला ही ले रहे हैं... ''

चेखुरा ने आकर कुछ लोगों के आने की सूचना दी. प्रसाद कुछ कहते इससे पहले निराला उठे और जिज्ञासा छलकाते गेट की ओर लपक गए. थोड़ी ही देर में वे बालकृष्ण शर्मा नवीन, केशव प्रसाद मिश्र, विनोदशंकर व्यास और रायकृष्ण दास को साथ लिए-दिए हंसते-बतियाते लौटे.

नवीन लपककर प्रसाद से गले मिल गए. सबने स्थान ग्रहण किया. सभी चेहरों पर मुस्कान के कतरे. प्रसाद ने व्यास की ओर देखकर उलाहना दी, '' क्यों, भई! आप साथ में थे तब भी आने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता पड़ गयी! ''

प्रसाद की आंखों में बिजली जैसी चमक आ गयी- देखिये मित्र, मेरा मानना है कि पुरखों के सुख-दु:ख हमारे अंतर्मन को ज्यादा गतिपूर्वक रौंदते हैं...

व्यास झेंप गए. सभी मुस्कुराने लगे. नवीन ने विनम्रता से कहा, '' ...भाई साहब, मैं आपके पास एक स्वार्थ से आया हूं... ''
''
आप नि:संकोच आदेश तो करें... ''
''
मेरी यह प्रार्थना है कि अब आप इतिहास की खाई से बाहर निकलिए... अब तक बहुत उत्खनन हो चुका... अब आपको सीधे-सीधे अपने युग और समकालीन जन से संवाद बनाना चाहिए... यह देश अब स्वतंत्रता के लिए कसमसा रहा है... इसे अब आप जैसे चिन्तकों का प्रत्यक्ष नेतृत्व चाहिए...''
''
क्या करें, कैसे इतिहास की खाई से बाहर निकल आयें... इसी में तो हमारा प्राचीन गौरवशाली अतीत धंसा पड़ा हुआ है... जिससे हमारा आज का समाज अनभिज्ञ है और गुलामी की मार से बेहाल सिर झुकाये कोल्हू के बैल की तरह एक ही जगह फंसा गोल-गोल घूम रहा है... विदेशी हमलावरों ने यहां के एक-एक जन में कुंठा व हीनता के भाव ठसाठस भर दिये हैं ! इस कुंठा व हीनता के भाव को आखिर हमें ही तो मिटाना है... यह काम आखिर हम अपने इसी प्राचीन गर्वोन्नत इतिहास के माध्यम से ही तो पूरा कर सकते हैं ! बेशक इसी के माध्यम से हम अपने हतगौरव समाज में आत्मगौरव और स्वाभिमान की आग्नेय भावनाएं भर सकेंगे... इसी से अंतत: हमारे समाज में जुझारुपन भर सकेगा ! '' प्रसाद ने बोलते हुए सब पर एक-एक दृष्टि डाली.

निराला 'माधुरी' के पन्ने पलटने में मशगूल. उन्हें जैसे यहां चल रही बातें जरा भी नहीं छू पा रही हों. चेखुरा ने आकर परात को तख्त पर रखा. वातावरण पर ताजा मकदल और गर्म हलवे की नवजात सुगंध तैरने लगी. प्रसाद के विनम्र आग्रह-संकेत पर एक-एककर सबके हाथ बढ़ने लगे.

मुंह चलाते हुए नवीन विनम्रता से मुस्कुराये, '' आप कृपया अन्यथा न लें... मैंने अपने विचार इसीलिए आपको खोलकर बताये कि आप इस सवाल पर कम से कम एक बार अवश्य सोचें... ''

प्रसाद की आंखों में बिजली जैसी चमक आ गयी, '' ...देखिये मित्र, मेरा मानना है कि पुरखों के सुख-दु:ख हमारे अंतर्मन को ज्यादा गतिपूर्वक रौंदते हैं... पूर्वजों के बारे में सोचते हुए व्यक्ति की संवेदनशीलता ज्यादा प्रखर हो जाती है ...ऐसे में वह कभी भी कहीं भी कोई बड़ा कदम उठा सकता है... इसीलिए मैं इतिहास के ऐसे ही प्रसंग उठाने का समर्थक हूं जो हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को एक झटके में जगा-झिंझोड़ दे और इससे अवगत होकर बच्चा-बच्चा अपने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने को उठ खड़ा हो. अब यह काम एक और तरीके से हो सकता है कि इसे लेकर नारेबाजी जैसी चीजें लिखी जायें... बेशक इसे कम से कम मैं तो साहित्य नहीं ही मान सकता... ''

इसी दौरान पान का एक सुगंधित दौर पूरा हुआ. सभी चुप. प्रसाद उठे, '' मैं जरा भीतर से आता हूं... अब बाहर की ओर निकला जायेगा न ? ''

व्यास बोले, '' असल में आज की हमारी शाम रायसाहब के नाम है... हमलोग इसी निमित्ता आपको लेने आए हैं... दरअसल, यहां चल रही उपयोगी चर्चाओं ने अब तक असली बात ही नहीं होने दी... ''

प्रसाद मुस्कुराये. दास ने तुरंत संशोधन किया, '' ...मेरे नाम नहीं, हम सब लोगों की ओर से नवीन जी के नाम! यही तो हमारे अतिथि हैं... असल में आज इनकी पसंद के कुछ विशिष्ट व्यंजन बने हैं... घर से मुझे आदेश हुआ कि इस अवसर पर मैं अपने सखा यानी तुम्हें और इलाहाबाद से पधारे पंडित निराला को अवश्य आमंत्रित कर लूं... बस इसी के आलोक में यहां आना हो गया... यह सुखद संयोग ही है कि निराला जी यहीं मिल गए अन्यथा मुझे दुर्गाकुण्ड की ओर जाना ही पड़ता... ''

प्रसाद प्रसन्नचित भीतर चले गए. निराला ने अचानक सिर उठाया. एक भरपूर शीतल दृष्टि दास पर डाली. सभी चुप. उन्होंने नवीन की ओर ताका, वे सजग हो गए. दूसरे ही पल निराला की वाणी में ताप आ गया, '' मुझे एक बात नहीं समझ में आ रही कि आखिर कोई यह कैसे और क्यों अपेक्षा पालने लगता है कि सारे लेखक एक जैसी दृष्टि से भर जायें और समान सृष्टि करने लगें! भई, जिसकी जो अन्तर्प्रेरणा होगी, जैसी वैचारिक संरचना रहेगी, वह वैसा ही सृजन तो करेगा ! क्या सभी रचनाकार एक जैसे ताल-सुर में लिखने लगेंगे तो यह कोई अच्छी और स्वाभाविक बात मानी जा सकती है? मैं पूछता हूं कि बाग में फूल की एक ही प्रजाति का बेहिसाब लदा-पसरा होना अच्छा है या बहुविध-बहुरंग और बहुसुगंध पुष्पों की रंग-बिरंगी क्यारियों की उपलब्धता ? मैं तो कहूंगा कि साहित्य क्षेत्र के अंधे-बहुधंधे उपदेशकों की ऐसी बेसिर-पैर की बातों की कोई परवाह नहीं की जानी चाहिए... कम से कम रचनाकारों को तो ऐसे जीवों से पूरी तरह सतर्क ही रहना चाहिए... उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं देना चाहिए... ''

सबके चेहरों पर जैसे ताप के कण रेंगने लगे. तभी प्रसाद आ गए. वे बाहर निकलने की तैयारी के साथ निकले थे. धोती-कुर्ता, कंधे पर हल्के कत्थई रंग की मुलायम चादर. सबको मौन देख उन्होंने धीरे से मुस्कुराकर पूछा, '' ... मेरे न रहने के दौरान अभी कोई और चर्चा हो गयी क्या! ''

सब चुप. निराला ससंकोच मुस्कुराए. प्रसाद बोले, ''...लगता है पंडितजी ने कोई धोबियापाट दे मारा है... ''

सभी हंस पड़े. निराला उठकर बाहर आ गए. पीछे-पीछे सभी चल पड़े. रास्ते में प्रसाद और दास के पीछे-पीछे सभी चलने लगे.

रायकृष्ण दास के यहां मंडली जमी. नवीन की पसंदीदा खिचड़ी सबको परोसी गयी. साथ में आलू का छौंकदार चोखा और कटोरियों में ताजा दही. एक बड़े कटोरे में गरम घी भी आ गया. हवा पर घी की सोंधाई सबसे तेज फैलने लगी. निराला ने प्रसन्नता से सिर हिलाया, '' ...दही और घी साथ-साथ चलाना होगा क्या ? ''

'' अगर किसी को रूचे तो ग्रहण कर ले, इसमें मेजबान की ओर से भला क्यों कोई मनाही हो सकती है... '' प्रसाद ने धीरे-धीरे कहा. सभी हल्के-हल्के हंसने लगे.

दास अभी भीतर ही थे. मन ही मन सभी उनके आने का इंतजार करने लगे. तभी नौकर ने आकर मैथिलीशरण गुप्त के आने की सूचना दी. सबने इस सुखद संयोग पर हर्षध्वनि की. इधर दास भीतर से निकले और सामने से गुप्त ने प्रवेश किया. दास सुखद आश्चर्य से भरकर पुलकित हो उठे. लपककर उनका स्वागत किया. गुप्त दूसरे ही पल प्रसाद के सामने आ गए. वे भी उठ खड़े हुए. दोनों गले मिले. निराला ने मुस्कुराते हुए हाथ जोड़े, '' आइये, कविवर ! स्वागत है! बहुत सही समय आपने यहां चरण रखे, आज के व्यंजन के असली प्रतीक-पुरुष तो आप ही हैं... ''

प्रसाद ने बाहर निकलकर आकाश की ओर ताका, '' ...ये बादल तो मूलत: मूर्ख प्रजाति के लग रहे हैं, बीच-बीच में छींटे मारकर परेशान भर करते रहेंगे.

सभी हंसने लगे. गुप्त ने झुककर थालियों पर दृष्टि दौड़ायी, ''... वाह, सचमुच मैं सही समय आ गया हूं... थालियां तो तैयार हैं... कोई विशेष व्यंजन है क्या भई ? ''

'' ...हां, ढेर सारी अच्छी-बुरी चीजें मिलाकर घोलमट्ठा की हुई खिचड़ी ! '' निराला ने शब्द-शब्द को सहलाकर कहा. सभी हंसने लगे.

गुप्त ने दोनों हाथ जोड़ लिए, ''...मेरे तो कम, यहां की बहुरंगी उपस्थिति का यह ज्यादा प्रतीक-व्यंजन है... कैसा अच्छा लग रहा है... कवि भी, नाटककार भी, उपन्यासकार भी और साथ में प्रकाशक और कला-उध्दारक भी... सभी तो यहां एक साथ विराजे हुए हैं... एकदम खिचड़ी समाज ! ''

दास ने साग्रह हाथ पकड़कर गुप्त को कुर्सी पर बिठाया. नौकर ने लाकर पहले पानी का भरा गिलास रखा, फिर कुछ क्षण बाद थाली.

सभी कुछ न कुछ टीका-टिप्पणी करते रहे. भोजन के बाद पान का दौर थमा तो गुप्त बोले, '' ...जयशंकर, इस बार मैं तीन दिनों के लिए ही काशी आया हूं... कल बाबा का दर्शन करूंगा और इच्छा है कि शाम में तुम्हारे यहां भाभीश्री के हाथ की कचौड़ियों का प्रसाद ग्रहण कर सकूं... ''
प्रसाद ने छूटते ही कहा, '' केवल कचौड़ियां ही क्यों, कल आप सभी लोगों का मेरे यहां सर्वांग-पूर्णांक भोजन होगा... ''

सभी प्रसन्न. निराला बोले, '' ...चलिए! मैंने भी काफी समय से भाभीश्री के हाथ की कचौड़ियों की चर्चा सुन रखी थी... अब इसका स्वाद भी ले ही लूंगा... ''

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आसमान में मेघों का खेल तो मनोरंजक था किंतु उमस ने हालत खराब कर रखी थी. प्रसाद ने बाहर निकलकर आकाश की ओर ताका, '' ...ये बादल तो मूलत: मूर्ख प्रजाति के लग रहे हैं, बीच-बीच में छींटे मारकर परेशान भर करते रहेंगे... गर्मी और उमस का तो वे बाल बांका भी नहीं कर पा रहे...'' सबके चेहरों पर दूब-सी पतली- छरहरी हरी-नुकीली हंसी हिली. प्रसाद आगे बोले, ''...इस गुमसुम मौसम में बैककखाने के भीतर बैठना तो कष्टकारी होगा... इसलिए जब तक संभव हो बाहर ही बैठकी जमनी चाहिए... ''

सामने खड़ा चेखुरा मुस्कुराया, '' ...हां! उहे होई कि पानी पड़े लगी तऽ सबके उठ-पठ के भागे के पड़ीऽ... ''

प्रसाद ने सन्तु को नरियरी बाजार भेजकर आज शाम दुकान पर अपने न आ पाने की सूचना भिजवा दी. चबूतरे पर पत्थर के कलात्मक आसनों पर आस्तरण बिछने लगे. झुटपुटा होते ही सबसे पहले निराला के साथ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, वाचस्पति पाठक और कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह पहुंचे. कुछ ही क्षणों बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, डा. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा और विनोदशंकर व्यास. निराला ने ज्यों ही नाम लेकर चर्चा की, उसी क्षण आ गये मैथिलीशरण गुप्त और रायकृष्ण दास. साथ में चिरगांव से आये मुंशी अजमेरी भी. कृष्णदेव प्रसाद गौड़ और मोहनलाल रस्तोगी भी सूंघते हुए आ पहुंचे.

प्रसाद ने मुस्कुराते हुए कहा, '' मुझे लगता है यहां उपस्थित समाज में मेरे मित्र रस्तोगी जी ही ऐसे इकलौते व्यक्ति हैं जो विजातीय यानी अलेखक हैं, केवल इन्हीं का परिचय देना आवश्यक है... शेष तो प्राय: सभी सबसे अवगत ही हैं...''

गौड़ आहिस्ते टुभके, '' ...परिचय तो आपमें से कई के भी नये सिरे से जारी किये जा सकते हैं... ''

प्रसाद ने उन्हें संकेत में रोकते हुए कहा, '' ...आपलोगों में जिन्हें गौड़ जी का सीधा परिचय न हो, वे भी इनके ताजा अंदाज से यह समझ गये होंगे कि... यही जनाब हैं प्रसिध्द व्यंग्यकार कृष्णदेव प्रसाद गौड़ उर्फ बेढब बनारसी ... ''

निराला ने गंभीरता से जिज्ञासी की, '' ...उर्फ बेढब बनारसी या उफ्फ बेढब! ''
ठहाका बेकाबू. सभी लोटपोट, केवल गौड़ मटर-मटर ताकते रहे. ठहाका ठहरा तो उन्होंने निराला की ओर देखते हुए भौंहें उचकायी और धीरे से बाण चलाया, '' काशी में बाबा शंकर के सामने आसन मिल जाने पर आज नन्दी के जलवे ही कुछ और हैं...''

ठहाके ने फिर तटबंध तोड़ डाले. निराला ने हंसते हुए सिर हिलाया, '' ...क्यों नहीं! क्यों नहीं!! तमाम बेढब-ढबाढब भूत-प्रेत गण तो आखिर अपनी ही जमात के हुए न... उन्हें देखकर तो सामुदायिक उत्साह जाग ही जायेगा... ''

चेखुरा ने एक-एककर कई हुक्के लाकर रखे जिसे लोग ललक के साथ थामते चले गए. गुप्त, दास, नवीन और निराला चकित-हुलसित भाव से हुक्के गुड़गुड़ाने लगे. नीम रोशनी में कश पर कश... हर कश पर चिलम के ऊपर अंगारे धधक उठते और दमकते हुए लौ उगलने लगते. धुएं से विशेष सुगंध उठने और आसपास फैलने लगी. इसका अहसास होते ही निराला ने मुग्ध भाव से सिर हिलाया और नवीन को कुछ बोलने का संकेत दिया. नवीन मुस्कुराये, ''...गले में विशेष आनन्द का स्पर्श दे रहे हैं ये धुंए... बाबूसाहब ने सम्भवत: इसमें भी कोई काव्यात्मक खेल किया है... ''

गुप्त ने हुक्के की कलात्मक संरचना को लक्ष्य कर सिर हिलाया. उन्होंने मुंह से एक भरपूर धूम्र-धार खींची और आंखें मूंदकर आनन्दपूर्वक विसर्जित करने लगे, '' काशी में ही मिट्टी के ऐसे कलात्मक हुक्के बनते हैं... यह इसकी नीचे की लम्बोतरी नारियली गोलाई, इसी से जुड़कर ऊपर जाने वाली यह डण्ठली लम्बाई और शिखर पर चिलम की यह आभूषणों जैसी कटावदार कढ़ाई... सब सचमुच विरल हैं... ''

रस्तोगी चुप न रह सके, '' ...और जनाब, उस पर तुर्रा यह कि नीचे की इस लम्बोतरी गोलाई से लेकर ऊपर उठता पाइपनुमा यह डण्ठल और शिखर के चिलम तक का यह पूरा हुक्का खुद में एकदम सिंगल पीस है... बिना जोड़ का... ''

गौड़ ने अपनी ओर से जोड़ा, '' ...एकदम बिना जोड़ का... यानी बेजोड़! ''

दास बोले, '' ...अंगारे तो अलग से रखे गए हैं न ! ''

गौड़ बोले, ''...हां, असल में ये जलने-धुंआने वाली चीजें हैं, आपके विभाग के तहत आने वाली... यह जिससे जुड़ेंगी उसका कलेजा पहले तो भरपूर धुंधु आयेगा फिर सदा के लिए जुड़ा जायेगा... ''

सभी ठठा पड़े. नवीन ने माहौल पर बारीक नजर रखते हुए दृढ़ता से बारी-बारी से सब पर दृष्टि दौड़ायी, '' ...सबसे विरल है इस धुंए की सुगंध ! ... ''

निराला आंखें मूंदे सिर हिला-हिलाकर भूरे धुंए उगलने लगे, ''...एकदम प्रसाद गुण से भरे हुए हैं ये धुंए भी... ''
व्यास बोले, '' निराला जी, आप ठीक कह रहे हैं... बाबूसाहब ने आज सुबह कारखाने में चौकी पर आसन जमाकर अपने हाथों इसका तम्बाकु ठीक वैसे ही खूब सधे ढंग से रचा है जैसे वे पंक्तियां और छंद तराशते हैं... इस तम्बाकु और इसके धुंए का प्रसाद गुण से लबालब होना बिल्कुल ही स्वाभाविक है... ''

बतकही और कहकहों के दौर पर दौर निकलते-चलते रहे. किसी को पता भी न चला, इस दौरान आकाश में काफी उधम मच चुका था. अग्नि-कौंधों के साथ तड़कती बिजली तक का किसी को खयाल नहीं. अचानक जब बड़ी-बड़ी बून्दें तेज-तेज तड़तड़ाने लगीं तो सभी खड़बड़ाकर गिरते-पड़ते भागने लगे. हुक्के जहां के तहां, लोग बैठकखाने में. देखते ही देखते सभी गोष्ठी की मुद्रा में. सजग-सावधान और अपने 'असलहों' से लैस. प्रसाद के कहने पर निराला ने बिना ना-नुकुर 'तुलसीदास' के छंद तुरंत शुरू कर दिये.

समय तुलसी के पास खिंचा जा पहुंचा. वायु का समग्र विस्तार जैसे काव्य काया में तब्दील हो गया हो! कानों में निराला के छंद टपकने लगे और आत्मा के मुख पर दोहे-चौपाइयों की सोंधी रुनझुन मधु-बूंदों-सी टप्-टप्. लगने लगा जैसे सचमुच यहीं कहीं आसपास आकर बैठ गये हों स्वयं महाकवि गोस्वामी तुलसीदास! साक्षात्, सदेह. माहौल गमगमा उठा. सभी एकाग्र और अभिभूत.

निराला ने लगे हाथ अजमेरी और नवीन की ओर भौंहें उचका दी. बारी-बारी से दोनों ने कविताएं सुनायीं. उन्होंने कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह की पीठ पर थपकी दी तो वह भी एक गीत लेकर खड़ा हो गया.

अंत में प्रसाद ने मंद-मृदु गले से 'कामायनी' के छंद शुरू किये. ...विनाश की कोख चीरकर निकलता हुआ महासृजन... आदिपुरुष मनु का महानिर्माण-द्वन्द्व... श्रध्दा और इड़ा से फूट रहे प्रेम और परस्‍पर स्पर्द्धा के लाल-नीले धार-स्रोत...-सृष्टि के आदि -दृश्य का सम्पूर्ण आदिपरिदृश्य सबकी आंखों के आगे लहराने लगा. सभी चमत्कृत्!

प्रसाद ने वाणी को विराम दे दिया तब भी पूरा वातावरण देर तक गूंजता रहा. हवा पर तैरते भाव-बिम्ब धीरे-धीरे हल्के हुए.

भोजन का बुलावा आ चुका. भीतर सभी लम्बी बिछी सफेद चादर पर पंक्तिबध्द हुए. प्रसाद भी गुप्त और दास के साथ बैठे. निराला ने नवीन और व्यास को अपने पास बिठाया. भाभीश्री के हाथ की बनी कचौड़ियों और दही-बाड़े ने धूम मचाकर रख दी. स्वाद प्रशंसा बनकर हवा में उतरने लगा. किशोर रत्नशंकर सोत्साह थालियों में घूम-घूमकर कचौड़ियां डालता रहा. निराला ने पानी मांगा तो वह भरा जल-पात्र लेकर दौड़ा.

पांत में बैठे-बैठे ही प्रसाद ने अपना खाली गिलास ऊपर किया. रत्नशंकर की दृष्टि इस पर नहीं जा सकी. तभी दास ने हांक लगा दी. वह फिर पिता के खाली गिलास को देख न सका. निराला ने फिर बुला लिया. वह फिर पीछे लौट गया तो प्रसाद बोले, '' एक किसी शायर के पर्सियन शेर का बिम्ब मुझे याद आ रहा है जिसमें उसने अपने काबिल बेटे को लक्ष्य कर कहा है कि काफिर मरने के बाद भी अपने पितरों को जलदान करते हैं, लेकिन तू मुझे जीते जी ही प्यासा रख रहा है! ''

सभी हंसने लगे. रत्नशंकर झेंप गया. वह तेज गति से पास आया और गिलास में पानी डालने लगा. प्रसाद उसे देख-देख मुस्कुरा रहे थे. वह पिता से नजर नहीं मिला पा रहा था.

निराला ने संकेत से उसे बुलाया और एक और दहीबड़ा लाने को कहा. लखरानी देवी अब तक दूर से ही सब देख रही थीं. वह स्वयं पंक्ति के पास आ गयीं. उनके हाथ में दहीबड़ा से भरी थाली थी. उन्होंने निराला की थाली में एक-एककर दो दहीबड़े डाल दिए. वे कुछ न बोले, सिर झुकाए खाते रहे. उन्होंने एक-एककर दो और डाले. निराला बिना कुछ बोले एक-एक कर दहीबाड़े खा गए. लखरानी ने फिर एक दही बड़ा डाला और अपेक्षा की कि वे सहमति या असहमति का कोई तो शब्द निकालें! निराला ने अब भी सिर नहीं उठाया तो वह बोलीं, '' पंडित जी, मुझे आपको खिलाने में लग तो अच्छा रहा है किंतु आपकी चुप्पी से... ''

निराला ने सिर उठाया, '' ...जिह्वा तो तृप्त हो गयी है, उदर में भी स्थान नहीं बचा किंतु हृदय-मन अभी संतृप्त नहीं हुए हैं... यह संतृप्ति दहीबड़े से होगी भी नहीं, यह आपके आशीर्वाद से होगी... जब तक आपका मन न भर जाये और आपके मुख से आशीर्वाद के शब्द न निकलने लगें तब तक मैं ... ''

वह थाली को वहीं रख विभोर होकर खड़ी हो गयीं, '' ...जयशंकर तऽ हमार देवरो हउवन अउर बेटो हउवन... तूहूं येह से कम नइखा... जाऽ तूं सिध्दपुरुष होखा... इहे आशीर्वाद हम देत हईं... ''

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आकाश शांत हुआ तो तारे भर गए. चांद निकलकर नाचने लगा. बैठकखाने से निकलकर सभी चबूतरे पर लौट आये. चेखुरा चिलमों पर ताजे अंगारे रख रहा था. सभी अपने हुक्के पहचानने में ठिठके रहे. निराला ने उमगते अंगारों का एक हुक्का पकड़कर मुंह लगा दिया और एक भरपूर धूम्र-धार खींची. वही सुगंधित धुंआ. उन्होंने ठिठके लोगों को लक्ष्यकर कहा, '' आपलोग अब तक अपना हुक्का नहीं पहचान सके न! देखिये मैंने एक ही नजर में पहचान लिया... मेरा हुक्का इसके अलावा दूसरा नहीं हो सकता... कहां किसी दूसरे में हैं ऐसे खिले-खिले अंगारे...! ''

सभी उनकी बेतकल्लुफी पर मुस्कुरा रहे थे. चेखुरा फिर नये हुक्के ला-लाकर गुप्त, दास और नवीन को पकड़ा गया. रत्नशंकर ने आकर बताया, '' ...उस्ताद जी आइल हउवन... ''

प्रसाद उठकर स्वयं आगे बढ़े. दोनों हाथों से सितार पकड़े वे सामने से आते दिख गये. चेहरे पर खूब तराशी हुई धारदार खिचड़ी दाढ़ी, रूई जैसे हवा से खेलते मुलायम फड़फड़ाते बाल. आसमानी रंग का रेशमी लम्बा कुर्ता और अलीगढ़ी पायजामा. उन्होंने आते ही झुककर विशेष अंदाज में चुटकी सिर के पास लाकर कहा, '' आदाब! ''

प्रसाद ने झुककर उन्हें थाम लिया और अंकवार में भरकर बोले, '' उस्ताद, आज मेरे कई साथी दूर-दूर से आए हैं... इन्हें मेरी पसन्द का अहसास करा दीजिए... ''

निराला उत्साहित हो उठे, '' ...वाह! आनन्द आ गया! ''

प्रसाद बोले, '' ये हैं हमारे अनन्य मित्र सितारवादक उस्ताद आशिक अली! आप लोगों को यह मेरी पसन्द की रागिनी बागेश्वरी सुनायेंगे... बहुत उम्दा मीड़ों और मूर्च्छनाओं के साथ बजाते हैं... ''

सितारवादन शुरू हुआ. सभी जैसे स्वरलहरियों पर हिलोरें लेने लगे. आचार्य शुक्ल बोले, ''... मैं तो कभी-कभी महसूस करता हूं कि कविता का मर्म बिना संगीत के स्पर्श के अधूरा ही अधूरा रह जाता होगा... काव्याभिव्यक्ति और रागाभिव्यक्ति, दोनों ही माध्यमों से हृदय-पटल पर भावों का संचरण समान भाव से होता है... काव्य और संगीत, दोनों कदाचित् एक ही तरह से मन-प्राणों को झंकृत-प्रकम्पित भी करते हैं... जैसे पेन्सिल हो या कलम, दोनों कागज के पार्श्‍व पृष्ठ पर प्राय: एक ही तरह से रेखांकन या शब्दांकन करते हैं... दोनों का कार्य भी एक, लक्ष्य भी वही और कुल-गोत्र भी समान... ''

आचार्य मिश्र हल्‍के-से मुस्कुराये, कुछ इस भाव से जैसे अब जो कहने जा रहे हैं उससे अवगत तो सभी होंगे लेकिन प्रसंगवश यहां कह देना टाला नहीं जा पा रहा, '' ...हां, क्यों नहीं! कविता हो या संगीत, चित्रकला- मूर्तिकला या नृत्य-गायन की कोई भी कला विधा, सभी की नागरिकता हृदय-प्रदेश की ही तो है... इनमें मन-प्राणों में प्राण-वायु प्रवाहित करने की समान क्षमताएं हैं... सर्वथा एक जैसी.. कदाचित् इसीलिए संसार का हर पदार्थ, बल्कि यह पूरी सृष्टि ही इन्हीं से नि:सृत गति, ध्वनि, ताल, लय, सुर और नाद-निनाद से सृजित-नि:सृत हुई है.. ''

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