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शहीद तिलका मांझी

शहीद तिलका मांझी

संजय कुमार

कॉपी राइट : संजय कुमार

मूल्य :

लेखक : संजय कुमार

आवरण : संजय कुमार

शब्दांकन : संजय कुमार

मुद्रक :

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Shahid Tilka Manjhi (Hindi) By Sanjay kumar

दो शब्द

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यों तो इतिहास के पन्नों में देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले अनगिनत क्रांतिकारियों के नाम दर्ज है तो वहीं कई ऐसे नाम हैं जो आज भी उचित सम्मान के लिए बाट जोह रहे है। इन्हीं में से एक नाम है......... अंगे्रजों के खिलाफ लड़ने वाले जझारू आदिवासी सेनानी तिलका मांझी का। जिन्होंने अंगे्रजों के खलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ते वक्त अंगे्रज कलेक्टर को अपने तीर से निशाना बनाया। तिलका मांझी उन शहीदों में शुमार हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों में वह स्थान नहीं मिल पाया जो उन्हें मिलना चाहिए था। यही नहीं तिलका मांझी खुद अपने क्षेत्र में प्रशासन की अनदेखी के शिकार हैं। उन की याद में बनी शहीद स्थल उपेक्षित हैं। केवल बिहार के भागलपुर शहर के तिलका मांझी मुहल्ले में उनकी प्रतिमा स्थापित हैं जो उनकी शहादत की याद दिलाती रहती है।

सन्‌ 1771 से 1784 तक तिलका मांझी ने अंगे्रजी शासन के विरुद्ध बिहार के भागलपुर और झारखण्ड़ के राजमहल में जन आंदोलन का नेतृत्व अत्यंत साहसपूर्वक करते रहे। अंगे्रजी हुकूमत किसी भी कीमत पर कब्जा जमाना चाहती थी। अंग्रेजों की बढ़ती ताकत और गुलामी के भय से संथालों ने विद्रोह कर दिया और तिलका मांझी नामक आदिवासी युवक ने संथालों के विद्रोह का नेतृत्व अपने हाथ में लिया और छापामार युद्ध द्वारा अंगे्रजों को भागलपुर और राजमहल की पहाडियों से खदेड़ दिया। तिलका मांझी को लेकर इतिहासकरों के बीच मतभेद भी है। हालांकि बंगला साहित्य की चर्चित लेखिका और भारतीय आदिवासी समाज पर कई रचनायें लिख चुकी महाश्वेता देवी ने अपने लघु कथा संग्रह ‘‘सालगिरह की पुकार'' में तिलका मांझी के बारे में जिक्र कर चुकी हैं। तिलका मांझी का जन्म एक संथाल परिवार में 11 फरवरी, 1750ई0 को तिलकपुर गांव के सुल्तानगंज में हुआ था।

भागलपुर संजय कुमार

शहीद तिलका मांझी

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राजमहल की पहाड़ियों में एक गीत अक्सर गुंजता रहता है........

‘‘बाबा तिलका मांझी

खाम खुंटी काना हो

गांधी बाबाय मुतुल

खाम खुंटी काना........''

अंगे्रजों के खिलाफ लड़ने वाले जझारू आदिवासी सेनानी तिलका मांझी ने जिस कदर अंगे्रजों को तबाह किया वह लोकगीतों के स्वरों में फूटता दीखता है। पर, अंगे्रजों के खलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ते वक्त अंगे्रज कलेक्टर को अपने तीर से निशाना बनाने वाले तिलका मांझी उन शहीदों में शुमार हैं जिन्हें इतिहास के पन्नों में वह स्थान नहीं मिल पाया जो उन्हें मिलना चाहिए था। यही नहीं तिलका मांझी खुद अपने क्षेत्र में प्रशासन की अनदेखी के शिकार हैं। उन की याद में बनी शहीद स्थल उपेक्षित हैं। केवल बिहार के भागलपुर शहर के तिलका मांझी मुहल्ले में उनकी प्रतिमा स्थापित हैं जो उनकी शहादत की याद दिलाती रहती है।

सन्‌ 1771 से 1784 तक तिलका मांझी अंगे्रजी शासन के विरुद्ध भागलपुर और राजमहल में जन आंदोलन का नेतृत्व अत्यंत साहसपूर्वक करते रहे। अंगे्रजी हुकूमत किसी भी कीमत पर कब्जा जमाना चाहती थी। अंग्रेजों की बढ़ती ताकत और गुलामी के भय से संथालों ने विद्रोह कर दिया। लेकिन, अंगे्रजों ने आंदोलन को बर्बरता पूर्वक दवाने का प्रयास जारी रखा। इसी बीच तिलका मांझी नामक आदिवासी युवक ने संथालों के विद्रोह का नेतृत्व अपने हाथ में लिया और छापामार युद्ध द्वारा अंगे्रजों को भागलपुर (बिहार) और राजमहल (झारखण्ड़) की पहाडियों से खदेड़ दिया।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में इस क्षेत्र में चर्चित तिलका मांझी का जन्म एक संथाल परिवार में 11 फरवरी, 1750ई0 को तिलकपुर गांव के सुल्तानगंज में हुआ था। उस समय मुर्शिदाबाद और आसपास के थोडे़ से इलाकों में अर्ली वर्दी खान का शासन था। मराठों ने सन्‌ 1742 में राजमहल को अपने कब्जे में ले लिया था जो मारगो दर्रे से बंगाल की समतल भूमि से जुड़ा हुआ है। सन्‌ 1757 में सिराजुद्‌दौला को मीर दाउद ने पकड़ा और उसे मुर्शिदाबाद लाकर मार डाला। अंग्रेजों ने सन्‌ 1758 में मीर जाफर को मुर्शिदाबाद का नवाब बनाया। इस तरह, मुर्शिदाबाद की असली मालिक ईस्ट इंडिया कंपनी बनी।

राजमहल में मुस्लिम शासन ढीला पड़ने लगा और माल पहाड़िया लोगों ने मौके का फायदा उठाकर विद्रोह कर दिया। पहाडिया लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे गंगा नदी और ब्राही नदी के बीच लूटपाट मचाया करते थे और पहाड़ों में छिप जाते थे । सन्‌ 1770 में जब भीषण अकाल पड़ा, तो पहाडी लोगों ने मैदानी इलाकों में आतंक पैदा कर दिया। वे सरकारी खजाने तक को लूट लेते थे। सन्‌ 1772 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने जनरल ब्रूक को आठ सौ सैनिकों की सेना के साथ इस जंगली तराई का सैनिक गर्वनर बनाया। सन्‌ 1773 में जनरल बू्रक ने टिउर का किला जीत लिया, जो माल पहाडिया आदिवासी सरदारों का सैन्य गढ़ था। बू्रक बडे़ ही नम्र स्वभाव का था, जिसने पहाड़िया सैनिक कैदियों का दिल जीत लिया।

सन्‌ 1774 से कैप्टन जेम्स ब्राउन 1778 तक जंगल तराई का सैनिक गर्वनर रहा, उसने लक्ष्मीपुर के जगन्नाथ देव के नेतृत्व में हुए भुईयॉ विद्रोह को दबाया। अम्बर और सुल्तानाबाद की पहाड़ियों में हमेशा लड़ाई होती रही। उसने तब पहाड़िया लोगों पर भविष्य में शासन करने की एक योजना बनाई, जिसे क्लीवलैंड ने पूरा किया, जो 1776 में राजमहल के उपसमाहर्ता अगस्टम क्लीवलैंड, भागलपुर के समाहर्ता बन कर आये। वह उस समय 21 वर्ष का खूबसूरत और सूझ—बूझ वाला अंग्रेज नौजवान था। उसने माल पहाड़िया लोगों के साथ संधि की और उनकी शासन—व्यवस्था को मान्याता दी। हर परगने या टप्पे को सरदार के अंदर रखा। साथ ही परगने या टप्पे के हरेक गॉव को एक मॉॅझी के तहत रखा और सरकार की मदद के लिए एक नायक रखा। उनहोंने हर सरदार को 10, हर नायक को 5 और हर मॉझी को 2 रूपये मासिक वेतन देना शुरू किया। 47 पहाड़िया सरदार एवं 400 मॉझी थे और प्रत्येक मॉझी को एक सिपाही भेजना पड़ता था। हर 50 सिपाहियों के पीछे एक सरदार रहता था। सन्‌ 1781 में 1300 सैनिक सेनापति सर आयरकूट के नेतृत्व में बहाल किये गये, जिनका सेनापति जाउराह के रान के एक पहाड़िया को बनाया गया जो एक खूंखार पहाड़िया डाकू के नाम से पूरे इलाके में जाना जाता था। यह उस इलाके की मुगलकालीन मुसिलम जमींदारी को दबाने का अच्छा तरीका था और मुस्लिम जमींदारों में शुरू से ही दुश्मनी थी।

जहॉ एक ओर माल पहाड़िया और संथालों के बीच खूब लडाई होती थीं, वहीं दूसरी ओर, जंगली इलाकों में मुस्लिम, हिन्दू और संथाल तिलका मॉझी के नेतृत्व में संगठित होने लगे। तिलका मॉझी हर जाति और धर्म के लोगों के बीच श्रद्धा और विश्वास के पात्र थे। कहा जाता है कि वे भागलपुर में अपनी जन—सभाऍ किया करते थे। वे मारगो दर्रो और कहलगॉव में अंग्रेजी खजाने को लूट कर गरीबों में बॉट दिया करते थे। इससे प्रभावित होकर गरीब तबके के लोग तिलका मॉझी के नेतृत्व में गोलबंद होने लगे और अंग्रेजी सत्ता तथा सामंतवादी प्रथा के खिलाफ लड़ाई को तेज कर दिया। मुंगेर, भागलपुर और संथाल परगना के पहाडी इलाकों में खूब लड़ाई लडी गई। जहॉ एक तरफ अगस्टस क्लीवलैंड और अंग्रेजी सेनापति सर आयरकूट, पहाड़ी सेनापति तथा खूंखार डकैत जाउराह थे, वहीं दूसरी तरफ, इन सबसे मोर्चा लेने वाले तिलका मॉझी और उनके लोग थे। हर जगह तिलका मॉझी की जीत होती गई। सन्‌ 1784 में तिलका मॉझी ने भागलपुर पर हमला बोल दिया। 13 जनवरी, 1784 को तिलका मॉझी ने एक ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोडे पर सवार कलक्टर अगस्टस क्लीवलैंड को तीर से मार गिराया ।

अंग्रेज कलेक्टर के मारे जाने से अंग्रेजी फौज में आतंक का माहौल व्याप्त हो गया। विजय की खुशी में जब तिलका मॉझी और उनके लोग जश्न मना रहे थे, तब रात के अंधेरे में, पहाड़िया सेनापति जाउराह और अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने हमला बोल दिया, जिससे बहुत सारे लोग मारे गये। किसी तरह तिलका मॉझी ने बच—बचाकर सुलतानगंज के पहाडों में शरण ली और वहीं से अंगे्रजों के खिलाफ छापामारी युद्ध को कायम रखा। अंग्रेजों ने सारे पहाड़ को घेरना शुरू कर दिया और तिलका मॉझी तक पहुॅचने वाली तमाम सहायताओं को रोक दिया गया। ऐसे में अन्न और जल के अभाव में तिलका मॉझी को पहाड़ों से निकलकर लड़ाई लड़नी पड़ी और एक दिन वे पकड़े गये। तिलका मॉझी को चार घोड़ों से बॉधकर भागलपुर तक घसीटकर लाया गया और बड़ी बेरहमी से वर्तमान तिलका मॉझी चौक में एक बरगद के पेड़ की डाल से बॉधकर फॉसी दे दी गई। तिलका मॉझी को जहां फांसी दी गई थी वहां का पूरा इलाका तिलका मॉझी मोहल्ला के नाम से हैं।

तिलका मॉझी का स्थान भगवान बिरसा मुंडा से कम नहीं है, जिन्होंने सामंती व्यवस्था, साम्राज्यवाद, पूॅजीवादी—व्यवस्था और राजतंत्र के खिलाफ लड़ाई लड़ी। तिलका मॉझी जिस जमीन की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए, आज उसी जमीन पर अपने ही लोगों द्वारा भुलाये जा रहे हैं। अतीत के पन्नों में कैद तिलका मॉझी को याद करने का सिलसिला भी भुला दिया गया है। 15 अगस्त, 26 जनवरी, 30 जनवरी, 11 फरवरी और तिलका मॉझी की पुण्यतिथ के अवसर पर संथाल लोग अपने प्रिय नेता की समाधि पर फूल चढ़ाने जाते हैं और यहॉ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। लेकिन, अब इसमें एक ठहराव आ गया है। चंद लोग ही उनके शहीद स्थल पर जमा हो पाते हैं। तिलका मॉझी की शहादत जितनी बड़ी है, उसके एवज में भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम तिलका मॉझी विश्वविद्यालय किये जाने पर ही शहीद को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होगी, बल्कि इतिहास के पन्नों में उचित स्थान देकर ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। लेकिन र्दुभाग्य यह है कि तथ्यों के अभाव में तिलका माॅंझी के वजूद को ही लेकर इलाके के कुछ इतिहासकार —विद्वान सवाल उठाने लगे हैं। और यही वजह है कि आधुनिक भारतीय इतिहास में आदिवासी देशभक्त तिलका मॉझी विवाद के तौर पर देखे जा रहे हैं।

एतिहासिक तथ्य के अभाव में जनश्रुति और यथार्थ के बीच इतिहास में वह स्थान तिलका मॉझी को नहीं मिल पाया है जो मिलना चाहिये। जनश्रुति के आधार पर भागलपुर प्रमंडल के लोगों के बीच तिलका मॉझी शहीद के तौर पर देखे जाते हैं। उत्पन्न भ्रम और ऐतिहासिक तथ्य के अभाव में कोई तिलका मॉझी को सिरे से खारिज करता है तो कोई जनश्रुतियों के आधार पर उन्हें स्थापित किये जाने का प्रयास करता है। लेकिन हकीकत में भागलपुरवासियों के लिए वे एक महान सेनानी के रूप में स्थापित है। मिथक, जनश्रुति या फिर यथार्थ को थोडे देर के लिए हटा दिया जाये तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस दौर में तिलका मॉझी थे और अंग्रेजों के खिलाफ लडाई लड़ी उसे इतिहास बनाने के लिए अंग्रेज भला क्यों अपनी रूचि दिखाते ? उनकी नजर में तो वे लुटेरे थे ? और फिर लुटेरों को कौन तरजीह देता है ?

वहीं बंगला साहित्य की चर्चित लेखिका और भारतीय आदिवासी समाज पर कई रचनायें लिख चुकी महाश्वेता देवी ने अपने लघु कथा संग्रह ‘‘सालगिरह की पुकार'' में तिलका मांझी के बारे में जिक्र कर चुकी हैं। महाश्वेता देवी ने तिलका मॉझी का जन्म संथाल परगना के संथाल बहुल गॉव बताया है। उनके अनुसार 1750 ई0 में सुंद्रा मुर्मू के घर तिलका मॉझी पैदा हुए थे। पहले उनका नाम तिलका था जिसे उनके समर्थकों ने अंग्रेजों के विरोध में नेतृत्व संभालने और उत्तरदायित्व सौंपते हुए, उन्हें बाबा तिलका मांझी की उपाधि दी थी । महाश्वेता देवी के अनुसार 1779 में अगस्टस क्लीवलैंड जब भागलपुर का कलक्टर बना। अंगे्रजों के बढ़ते शोषण से तंग आकर तिलका मॉझी ने क्लीवलैंड की हत्या गुलेल की गोली से 1784 ई. में कर दी । क्लीवलैंड की हत्या के बाद अंग्रेजों ने तिलका मॉझी को पकड़ लिया और घोड़े से घसीटते हुए उसे ले जाकर बरगद के पेड़ पर लटकार 1785 में फॉसी दे दी। हॉलाकि वहीं पर गुरू गोबिन्द सिंह कॉलेज पटना के प्रोफेसर योगेन्द्र सिंह के अनुसार 13 जनवरी 1784 को तिलका मॉझी ने क्लीवलैंड की हत्या की। प्रो. सिंह के अनुसार तिलका मॉझी का जन्म स्थान सुलतानगंज प्रख्ांड है। जबकि सिद्धो— कान्हो विश्वविद्यालय दुमका के डॉ.बी.एन. दिनेश तिलका मॉझी को एक काल्पनिक शहीद बताकर इतिहास के पन्नों से गायब इस शहीद के वजूद पर ही सवाल उठा दिया है। उन्होंने दावा दिया है कि आदिवासी साहित्य, इतिहास, गजेटियर, ब्रिटिश रिपोर्ट और बिहार के इतिहास के पुस्तकों सहित अन्य शोध निबंधों में तिलका मॉझी से जुडी भूमिका का कहीं उल्लेख नहीं है। उनका मानना है कि अगर अंग्रेजों ने तथ्यों को दबाया तो आजादी के बाद भारत के विद्वान इतिहासकारों ने तिलका के बारे में एक शब्द क्यों नहीं लिखा ? दूसरी ओर एस.एस.वी कॉलेज कहलगॉव के इतिहास विभाग के व्याख्याता डॉ. रमन सिन्हा तथ्यों के हवाले से बताते हैं कि डॉ. प्रोफेसर दिनेश ने माना है कि खूनी डाकू जबरा पहाड़िया को ही अतिरंजित कर तिलका मांझी को पेश किया जाता रहा है। प्रो0 दिनेश ने तिलका मांझी को खारिज करते हुए दावा किया है कि तिलका मांझी का कहीं भी जिक्र नहीं किया गया है। अंग्रेजों ने भी उनके बारे में एक शब्द नहीं लिखा है। कुछ लोगों का मानना है कि तिलका मांझी ने क्लीवलैंड की हत्या नहीं की थी बल्कि वह बीमारी से स्वाभाविक मौत मरे थे।

इतिहासकारों के लिए चुनौती बने तिलका मांझी भले ही विवाद का विषय हो और तथ्यों के अभाव में मिथक बने हों। इस शहीद के बारे में शोध करने की जरूरत है। हॉंलाकि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कई ऐसे नाम है जो गुमनाम है और जो सामने है वे जनश्रुति के तहत इतिहास के पन्नों पर जगह बना चुके हैं।

उठ रहे सवालों, किवदंती और यथार्थ के बीच तिलका मांझी इतिहासकारों के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि तिलका मांझी की शहादत की जडे़ भागलपुरवासियों के दिलो—दिमाग पर इतनी मजबूत से है कि शायद ही वे अपने इस शहीद को भूला पाये ? भले ही इतिहास के पन्नों ने उन्हें खास तरजीह न दिया हो, उपेक्षित रखा हो? फिर भी तिलका मांझी को भूलाया नहीं जा सकता, भागलपुर आने वालों को तिलका मांझी चौक पर लगी उनकी प्रतिमा इस बात का गवाह है।

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संदर्भः— महाश्वेता देवी की लघु कथा संग्रह ‘‘सालगिरह की पुकार'',

एस.एस.वी कॉलेज कहलगॉव, इतिहास विभाग, व्याख्याता

डॉ. रमन सिन्हा, झारखंड खबर, आदि।

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लेखक परिचय

संजय कुमार

समाचार संपादक

दूरदर्शन पटना

पटना—800001, बिहार। मो—09934293148

ईमेल—ेंदरन3मिइ/हउंपसण्बवउ

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पुस्तक प्रकाशन—

1.तालों में ताले अलीगढ़ के ताले, 2.नागालैंड के रंग बिरंगे उत्सव, 3.पूरब का स्वीट्‌जरलैंडःनागालैंड, 4. 1857ःजनक्रांति के बिहारी नायक, 5.बिहार की पत्रकारिता तब और अब, 6.आकाशवाणी समाचार की दुनिया, 7.रेडियो पत्रकारिता और 8.मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे, 9. मीडिया : महिला जाति और जुगाड़ (पे्रस में) और 10. मीडिया में दलित(पे्रस में)।

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पुरस्कार—

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्‌ द्वारा ‘‘नवोदित साहित्य सम्मान'', भारतीय साहित्य संसद द्वारा 1857 जनक्रांति के बिहारी नायक के लिये ‘‘बहादुरशाह जफर सम्मान, करूणा मैत्री सम्मान 2014 सहित कई सम्मान प्राप्त।

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संप्रतिः भारतीय सूचना सेवा

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सम्पर्क—संजय कुमार, फ्‌लैट संख्या—303, दिगम्बर प्लेस, डॉक्टर्स कालोनी, लोहियानगर, कंकडबाग, पटना—800020, बिहार। मो— 09934293148