DRAVID PRANAYAM books and stories free download online pdf in Hindi

DRAVID PRANAYAM

द्रविड़ प्राणायाम

भगवान अटलानी, डी—183, मालवीय नगर, जयपुर—302017

साहित्य संस्थान के कर्मचारी ने सात सदस्यों के लिये प्रवेष पत्रों की व्यवस्था पहले ही कर ली थी। अध्यक्ष के नाते वर्षभर के लिये उनका अपना प्रवेष पत्र पहले ही बना हुआ था। सचिवालय में वातावरण उत्साह से भरा था। ग्रामीणों की टोलियां यहां—वहां घूम रहीं थीं। सरकार बदले पांच दिन मात्र हुए थे। फ़िज़ाओं में अपेक्षाएं थीं। अमुक विधायक, अमुक मंत्री, अमुक राजनेता से परिचय मात्र भी सबकी आषाओं को सूरज की तरह आप्लावित कर रहा था। कुछ नया हो जाने की उम्मीदें ठाठें मार रहीं थीं।

साहित्य संस्थान के सदस्यों की कुल संख्या तीस थी। सरकार ऐसे लोगों को मनोनीत कर देती थी जिनको कई बार साहित्य की क, ख, ग भी मालूम नहीं होती थी। क्योंकि संस्थान साहित्य के क्षेत्र में काम करने के लिये स्थापित किया गया था, इसलिये अपने विषेषाधिकारों का उपयोग करके अध्यक्ष कुछ लेखकों और साहित्यकारों का सहवरण करते थे। सामान्यतः सभी अध्यक्ष विचारधारा के आधार पर सदस्यों को चुनते थे किन्तु इस परंपरा के विपरीत उन्होंने विचारधारा को महत्व नहीं दिया था। अब दूसरे दल की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभाली थी तो उन्हें इस सोच का सीधा लाभ मिल रहा था। उनके साथ आये सातों सदस्य कमोबेष नई सरकार से सम्बद्ध थे।

सचिवालय भवन के कारीडोर से गुज़रते हुए नई सरकार में पैठ रखने वाले एक सदस्य ने उनसे पूछा, ”षिक्षा मंत्री जी से कोई विषेष बात करनी हो तो बताइये।“

”बधाई देने चल रहे हैं न हम लोग? बधाई देंगे।“

”बधाई के साथ कोई और बात भी करनी है क्या हम लोगों को?“

”और क्या बात करनी है?“

सदस्य के होंठों पर अर्थपूर्ण मुस्कराहट थी। आषय समझने के बावजूद वे मौन रहे।

”कोई दूसरी बात करनी हो तो ज़रूर करें मगर हमारे मंत्री का आग्रह मत भूलियेगा।“ एक विस्तीर्ण मुस्कराहट उनके चेहरे पर ज़रूर उभरी किन्तु वे बोले कुछ नहीं।

पहली मंजिल पर जाना था। लिफ़्ट का उपयोग न करके सीढियां चढकर ऊपर पहुंचे। पी.ए. से पूछा। मंत्री कमरे में थे और अकेेले थे। पर्ची भेजते ही उन्होंने अन्दर बुलवा लिया। घुसते ही उन्होंने ऊंची आवाज में कहा, ”साहित्य संस्थान का प्रतिनिधिमंडल आपका हार्दिक स्वागत करता है।“ और आगे बढकर बुके भेंट किया। मंत्री ने मुस्कराकर धन्यवाद दिया और कुर्सियाें पर बैठने का संकेत दिया। व्यवस्थित हुए तो नई सरकार के संगठन में कभी प्रदेष के स्तर पर पदाधिकारी रहे संस्थान के सदस्य ने सबका परिचय दिया। तभी बात जारी रखने की मंषा से मंत्री ने औपचारिक रूप से हवा में प्रष्न उछाला, ”कैसा चल रहा है साहित्य संस्थान?“

यद्यपि सवाल केवल पूछने के लिये पूछा गया था, लेकिन सभी सदस्य प्रष्न के ऊपर गोया झपट पड़े। जिसको अवसर मिला उसने संस्थान के कार्यकलापों के कसीदे पढने षुरू किये। इस प्रक्रिया में उनकी प्रषंसा का तड़का भी दिया जाता रहा। वे मुस्कराते हुए शान्ति से खामोष बैठे रहे। षिक्षा मंत्री षिष्टता के साथ सिर हिला रहे थे। उन्हें टोकने का न अवसर दिया जा रहा था और न उनकी ऐसी कोई भावना नज़र आ रही थी। संभव है, उनका इरादा इस प्रष्न को मुलाकात का पहला और अन्तिम प्रष्न बनाना रहा हो।

लगभग प्रत्येक सदस्य कुछ न कुछ बोला। सबके चुप होते ही उन्होंने पहली बार ज़ुबान खोली, ”क्षमा करें मंत्री जी, यह प्रष्न आपने ग़लत लोगों से पूछा है।“

”कैसे?“

”साहित्य संस्थान का प्रतिनिधिमंडल आपसे मिलने आया है। वह तो संस्थान की तारीफ़ ही करेगा। इस प्रष्न के सही जवाब की अपेक्षा न हमसे की जा सकती है और न हमारे विरोधियों से। आप सचमुच संस्थान के कार्यकलापों का आकलन करना चाहते हैं तो यह प्रष्न तटस्थ लोगों से पूछा जाना चाहिये।“

”हां, कहते तो आप ठीक हैं।“

”इजाज़त दें तो एक और ठीक बात कहना चाहता हूं।“

”हां, हां, कहिये न!“

”मुझे पिछली सरकार ने साहित्य संस्थान का अध्यक्ष बनाया था। आदेषानुसार भले ही मेरा कार्यकाल तीन वर्ष है किन्तु यदि बाकी बचे लगभग डेढ साल के लिये आप अपनी पार्टी के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष नियुक्त करना चाहते हों तो कृपया बता दें। मैं पद से त्यागपत्र दे दूंगा। तनावों और खींचतान के बीच काम करना मेरी प्रकृति में नहीं है।“

”कैसी बातें करते हैं? आप प्रतिठित साहित्यकार हैं। आपकी रचनायें हम बचपन से पढते आ रहे हैं। अगर किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते तो मैं अपनी ओर से ही आपसे त्यागपत्र मांग लेता। आप पूर्ववत्‌ काम करते रहें। मैं हृदय से आपका सम्मान करता हूं।“ उनके प्रस्ताव के परिणाम स्वरूप सबके चेहरों पर उभरीं तनाव की रेखायें मंत्री का उत्तर सुनकर प्रसन्नता में बदल गईं।

कमरे से बाहर निकलते ही नई सरकार से निकटता रखने वाले सदस्य ने षिकायती स्वर में कहा, ”मेरे मना करने के बाद भी आप नहीं माने!“

”मौका मिला तो मन की बात कह दी।“ वे किंचित मुस्कराये।

”आपने मन की बात कह दी और अगर षिक्षा मंत्री त्यागपत्र देने के लिये कह देते तो क्या होता?“

”क्या होता? इस्तीफ़ा दे देते!“

”षिक्षा मंत्री के कमरे में जाने से पहले गलियारे में मैंने आपको अपने मित्र मंत्री का आग्रह याद दिलाया था। इसके बाद भी आपने ऐसी बात क्यों कही?“

”साहित्य संस्थान के अध्यक्ष पद पर मैं किसी की कृपा या दया के कारण बना रहना नहीं चाहता हूं। नई सरकार योग्य मानती है तो मुझे कार्यकाल पूरा करने दे। नहीं समझती है या अन्य कारणों से किसी और को इस पद पर लाना चाहती है तो कल नहीं आज लाये। मैं अध्यक्ष रहूंगा तो स्वाभिमानपूर्वक रहूंगा, न किसी के सामने गिड़गिड़ाऊंगा और न याचना करूंगा।“

”मेरे मित्र मंत्री साहित्यकार के रूप में आपको लम्बे समय से जानते हैं। यही बात आज षिक्षा मंत्री ने भी कही। आप साहित्य संस्थान के अध्यक्ष अपनी योग्यता के कारण हैं, इसमें संषय करके त्यागपत्र देने का प्रस्ताव रखने की कोई आवष्यकता ही नहीं थी!“

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। केवल मुस्कराते रहे। अपनी योजना सफल होने के कारण वे प्रसन्न थे। सरकार बदलने के बाद साहित्य संस्थान के अध्यक्ष पद पर लटकती तलवार उनके ज़हन में डेरा जमाकर बैठ गई थी। षिक्षा मंत्री के नाम की घोषणा के साथ इस तलवार की धार उन्हें अपने पद के बेहद निकट महसूस हाने लगी थी। यद्यपि एक मंत्री का आष्वासन मिल चुका था किन्तु यह उन्हें पर्याप्त प्रतीत नहीं हो रहा था। षिक्षा मंत्री यदि अपने दल और विचारधारा के आधार पर परिवर्तन करते हैं या पिछली सरकार की ओर से की गई नियुक्तियों को निरस्त करने की नीति बनाते हैं तो उनका अध्यक्ष पद पर बने रहना संभव नहीं है। यदि कुछ करना है तो अभी करना है। पिछली सरकार ने नियुक्त किया था इसलिये ठप्पा तो लगा हुआ ही है उनके ऊपर। अपने बूते पर पहल करके परिणाम पक्ष में लाये जा सकते हैं। बहुत सोच—समझकर उन्होंने आक्रामक ढंग से आगे बढने की योजना बनाई। षिक्षा मंत्री को बधाई देने के बाद क्या कहना है, पूर्वनिष्चित था। यदि प्रभावित हो जाते हैं तो मनचाहा परिणाम मिल जायेगा और अगर पासा उल्टा पड़ता है तो दे देंगे इस्तीफा। शहादत का जामा पहनकर सिद्धान्तवादी के रूप में छवि बनाने का अवसर मिल जायेगा। वे प्रसन्न थे कि दाव सफल हुआ। षिक्षा मंत्री ने तो आष्वस्त किया ही, उनकी यह छवि भी बनी कि पदलिप्सा की अंधी दौड़ के बीच एक ऐसा व्यक्ति भी है जो स्वयं पद त्याग का प्रस्ताव रखता है। साहित्य संस्थान के सदस्यों की नज़र में उनका क़द कई गुना बढ गया।

मुख्यमंत्री राज्य विधान सभा के सदस्य नहीं थे। छह माह में विधायक का चुनाव जीतना मुख्यमंत्री बने रहने के लिये ज़रूरी था। एक विधायक ने इस्तीफा देकर उनके लिये चुनाव लड़ने का रास्ता साफ किया था। उपचुनाव की तारीख घोषित हो चुकी थी। प्रक्रिया चरणबद्ध रूप में आगे बढ रही थी। चुनाव में केवल तीन दिन बाकी थे। पक्ष—विपक्ष के सभी कद्‌दावर नेताओं ने वहां डेरा डाला हुआ था। उन्हें साहित्य संस्थान का अध्यक्ष नियुक्त करने वाले पूर्व षिक्षा मंत्री, वर्तमान षिक्षा मंत्री और साहित्य संस्थान के सदस्य के मित्र मंत्री आदि इलाके का सघन दौरा कर रहे थे।

संयोग से वर्ष भर के कार्यक्रमों की श्रंखला में उसी समय उस क्षेत्र में साहित्य संस्थान की ओर से व्याख्यानमाला के अन्तर्गत भाषण होना था। स्थानीय संयोजक ने फोन पर, मुख्य अतिथि और अध्यक्ष के रूप में किन लोगों को आमन्त्रित करना है, यह प्रष्न पूछा। व्याख्यानमाला के भाषणकर्ता विद्वान का नाम भले ही पूर्व निर्धारित था किन्तु वर्तमान षिक्षा मंत्री तथा अन्य राजनीतिक नेताओं की क्षेत्र में उपस्थिति के कारण उनमें से मंच के लिये व्यक्तियों का चुनाव करना आसान नहीं था। बाद में संभावित विवाद में अपराधी सिद्ध होने की आषंका भी भरपूर थी। परामर्ष करके उन्होंने संयोजक को स्पष्ट निर्देष दिये कि किसी भी राजनीतिक व्यक्ति को मुख्य अतिथि, अध्यक्ष आदि के रूप में आमन्त्रित नहीं करना है। अहम्‌ को ठेस न लगे इसलिये उन्हें व्यक्तिषः जाकर निमन्त्रण पत्र ज़रूर दिये जायें। स्थानीय संयोजक ने तदनुसार सारी व्यवस्थाएं कर दीं।

कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले सभागार में श्रोताओं की उपस्थिति ठीक—ठाक हो गई थी। नगर के प्रमुख लेखक, विद्धान, प्राध्यापक, बुद्धिजीवी एवं रुचिषील व्यक्तियों के आगमन के कारण उन्हें अच्छा लग रहा था। व्याख्यान माला में भाषण के लिये आमन्त्रित विद्वान पहुंच चुके थे। सत्ताधारी दल के कोई नेता, विधायक या मंत्री नहीं आये मगर कार्यक्रम शुरू होते ही पूर्व षिक्षा मंत्री आकर पीछे रखी एक कुर्सी पर बैठ गये। किसी समय साहित्य संस्थान के प्रभारी मंत्री रहे थे। श्रोताओं के बीच बैठें, यह शोभनीय नहीं था। उन्होंने सोचा, चुनावों का माहौल शबाब पर है। यदि पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर बैठाया जाता है तो ग़लत संदेष जायेंगे। साहित्य संस्थान के अध्यक्ष का रिष्ता विपक्षी दल से जोड़ते न सत्ताधारी हिचकिचायेंगे और न मीडिया चूकेगा। वे स्पष्ट निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर बैठने के लिये आमन्त्रित करें या नहीं?

बाहर से सामान्य दिखाई देने के बावजूद वे आत्मालाप कर रहे थे। पूर्व षिक्षा मंत्री जुड़ाव महसूस करते हैं, इसलिये आये हैं न कार्यक्रम में? उन्हें मंच पर बैठाने के कारण अलग—अलग वर्ग कोई भी अर्थ क्यों न निकालें मगर पूर्व षिक्षा मंत्री के मन में यह भावना मज़बूत हो जायेगी कि वे उनके ही आदमी हैं। अपने दल में पूर्व षिक्षा मंत्री का वर्चस्व है। सरकारें आती—जाती रहती हैं। संभव है, अगली बार इनके दल की सरकार बने तो वे मुख्यमंत्री चुन लिये जायें। मंच पर बुलाकर एक तरह से आम का पौधा रोपेंगे कि जिसके फल आज नहीं कल मिलते की प्रबल संभावना है। नई सरकार की ओर से कोई नहीं आया है। हो सकता है, पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर बैठाने की बात तूल न पकड़े। अगर बवाल मचता है तब भी दलील दी जा सकती है कि पूर्व मंत्री की अवमानना अषिष्टता मानी जाती। उन्हंें मंच पर बैठाकर साहित्य संस्थान ने उच्चतर मूल्यों की रक्षा की है। दलीय सोच और राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय लिया है। उठा—पटक को साहित्य से जितना दूर रखा जायेगा, समाज को संस्कारित करने में उतनी ही अधिक मदद मिलेगी। उन्होंने मन ही मन पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर बुलाने का फैसला कर लिया।

इषारे से उन्होंने मौजूदा सरकार में मंत्री के निकटस्थ अपने सदस्य को मंच पर बुलाया। स्थिति बताकर आग्रह किया कि सभागार में साहित्य संस्थान के उपस्थित पदाधिकारियों से बात करके पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर बुलाने के बारे में निर्णय लेकर सूचित करें। जल्द ही आकर बताया गया कि स्पष्ट राय नहीं बन पा रही है। बेहतर होगा जैसा उचित लगे वे तय करलें।

संदेष आने के तुरन्त बाद उन्होंने संचालक को पूर्व षिक्षा मंत्री को आग्रह व आदरपूर्वक मंच पर बुलाने के निर्देष दे दिये। संचालक के अनुरोध को जब पूर्व षिक्षा मंत्री ने स्वीकार नहीं किया तो वे मंच से नीचे उतरकर स्वयं उनके पास गये और हाथ पकड़कर ऊपर ले आये। सभागार में उपस्थित लोगों ने करतल ध्वनि से स्वागत किया तो उन्हें अपने निर्णय की सार्थकता में जो थोड़ा—बहुत सन्देह था, वह भी तिरोहित हो गया। व्याख्यान प्रभावषाली था। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वातावरण उपलब्धिपरक अनुभूति से परिपूर्ण था। पूर्व षिक्षा मंत्री को मंच पर ज़रूर बैठाया गया किन्तु उन्हें बोलने के लिये नहीं बुलाया गया। आसन्न उपचुनावों को ध्यान में रखते हुए कोई खतरा उठाना ठीक नहीं लगा उन्हें।

संभावना के अनुरूप उपचुनाव में मुख्यमंत्री राज्य विधानसभा के लिये चुन लिये गये। संभावना के अनुरूप ही उन्हें साहित्य संस्थान के सदस्य के माध्यम से अपने मित्र मंत्री की नाराज़गी का संदेष भी मिला। उपाध्यक्ष और उस सदस्य को साथ लेकर वे मंत्री से मिलने गये। उन्हें भरोसा था कि परिस्थितियां बताने के बाद मंत्री संतुष्ट हो जायेंगे।

तीनों निर्धारित समय पर मंत्री के कमरे में पहुंचे। जाते ही मंत्री ने चाय मंगवाई। थोड़ी—बहुत औपचारिक बातचीत के बाद मुद्दे पर आने के मकसद से उन्होंने कहा, ”सुना है आप हम लोगों से नाराज़ हैं?“

”हां, हूं। ठीक चुनाव के समय मुख्यमंत्री के क्षेत्र में जाकर आपने साहित्य संस्थान को विरोधी मंच में बदल दिया।“

”ऐसा नहीं है। पूर्व षिक्षा मंत्री कार्यक्रम में आ गये तो मजबूरी में उन्हें ऊपर बुलाना पड़ा। फिर यह निर्णय तो सबने मिलकर लिया था।“

”नहीं बुलाते तो क्या हो जाता? बिजली गिर जाती?“

”बिजली तो नहीं गिरती मगर मूल्यों की हत्या हो जाती।“

”वाह, वाह, हमारे विरोधियों को मंच पर बैठाकर आपने मूल्यों की रक्षा की है।“

”देखिये, एक सम्मानीय व्यक्ति सभागार में था। हमारा कर्तव्य था कि हम उसे मंच पर बुलायें। साहित्यकारों से दलीय आधार पर निर्णय लेने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।“

”मत भूलिये कि हमारी सरकार की कृपा से आज आप साहित्य संस्थान के अध्यक्ष हैं। हम चाहते तो आपकी छुट्टी कर देते।“

अब तक वे शान्त थे। अन्तिम वाक्य सुनने के बाद उन्हें अपनी कनपट्टियों में ख़ून उतरता महसूस हुआ। धीर गम्भीर स्वर में चिन्गाारियां उतर आईं, ”आपको वहम है मंत्री जी कि आज मैं साहित्य संस्थान का अध्यक्ष आपकी या आपकी सरकार की कृपा के कारण हूं। मेरे पास तीन वषोर्ं का नियुक्ति का आदेष है।“

”तो क्या हो गया? हम चाहें तो आपको तुरन्त निलम्बित कर सकते हैं।“

”ठीक है, कर सकते हैं तो करके दिखाइये। मैं डंके की चोट पर कह रहा हूं कि कार्यकाल पूरा करूंगा।“ गुस्से से उफनते हुए वे उठ खड़े हुए।

”देखो, किस तरह बोल रहे हैं।“ मंत्री ने दोनों साथियों की ओर देख कर कहा। कोई जवाब न देकर बिना रुके वे बाहर निकल आये। साहित्य संस्थान के उपाध्यक्ष और साथ गये मंत्री के मित्र सदस्य भी उनके पीछे बाहर आ गये। भवन से निकलने के बाद उपाध्यक्ष ने कहा, ”आप बहुत जल्दी क्रोधित हो जाते हैं।“

”क्रोध नहीं आना चाहिये? ऐसी अपमानजनक बातें सुनने के बाद भी शान्त बने रहना चाहिये?“

”तरीका भले ही ठीक न हो मगर कोई ग़लत बात तो कही नहीं मंत्री ने।“

”कैसे नहीं कही? पूर्व षिक्षा मंत्री को हम धक्के मारकर हाल से बाहर निकालते तो इन्हें अच्छा लगता।“

”ऐसा तो नहीं कहा उन्होंने!“

”कोई कसर बाकी छोड़ी क्या? साहित्य संस्थान का अध्यक्ष अगर उनकी सरकार ने नहीं बदला है तो केवल इसलिये क्योंकि मैं इस पद के योग्य हूं और वे कहते हैं, आप हमारी कृपा से अध्यक्ष हैं! ऐसा पद मैं अपने जूते की नोक पर रखता हूं।“

”फिर भी इस तरह से चुनौती देने की क्या ज़रूरत थी?“

”क्या बिगाड़ लेंगे मेरा? निलम्बित ही तो करेंगे। अदालत से स्टे ले आऊंगा। देखूं, कैसे हटाते हैं मुझे?“ उनके गुस्से में कमी नहीं आई थी।

तब तक तीनों सचिवालय की पार्किंग में आ गये थे। एक—दूसरे से विदा होकर, वाहन उठाकर वे रवाना हो गये।

दिन ज्यों—ज्यों गुज़रता गया, उनका क्रोध भय और आषंका में परिवर्तित होता चला गया। बेचैनी बढ गई। भूख ग़ायब हो गई। इस तरह नियन्त्रण नहीं खोना चाहिये था। अगर षिक्षा मंत्री से बात करके निलम्बन के आदेष निकलवा देंगे तो......? अदालत में जाने पर समय और पैसा तो लगेंगे ही अपरिमित तनाव भी झेलना पड़ेगा। सरकार के पास अपने वकील हैं। मुकदमा लड़ने के लिये पूरा तन्त्र है। क्या जाता है उनका? छीछालेदार होगी तो व्यक्तिगत रूप से उनकी होगी। अच्छा—खासा साध लिया था सबको। मंत्री के साथ तैष में आकर अमर्यादापूर्ण व्यवहार करने की क्या ज़रूरत थी? भविय में ध्यान रखने का आष्वासन देते तो बात आई—गई हो जाती। इन लोगों को किसी की योग्यता से क्या लेना—देना है? जिसे साहित्य संस्थान का अध्यक्ष बनाकर बैठा देंगे, वही योग्य कहलाने लगेगा। विराधी पक्ष की सरकार के नियुक्त अध्यक्ष से मुक्ति पाने के लिये किसी तर्क—वितर्क की ज़रूरत कौन महसूस करता है? सदैव ऐसा होता आया है। इस बार भी हो गया तो आष्चर्यजनक क्या है? नुकसान में केवल वे रहेंगे। प्रतिष्ठा, पद, सम्मान मिट्‌टी में मिल जायेंगे। यह सब केवल इसलिये होगा क्योंकि आपा खोकर उन्होंने अवांछित व्यवहार किया मंत्री से।

उथल—पुथल सोने नहीं दे रही थी। अपनी मूर्खता बार—बार कांटे की तरह चुभ रही थी। चिन्ता, दुष्चिन्ता बनकर आलोड़ित—विलोड़ित कर रही थी। अपने रचे चक्रव्यूह में से बाहर निकलने का मात्र एक रास्ता सूझ रहा था उन्हें। यदि वे मंत्री से माफी मांग लेते हैं तो आषा है, मंत्री मामले को आगे नहीं बढायेंगे।

उन्होंने ग़लत किया है तो स्वीकार करने से क्यों हिचकिचाते हैं? समस्याएं आमन्त्रित करने, अप्रिय स्थितियाें में उलझने की तुलना में यह बेहतर विकल्प है। यदि सुबह वे मंत्री के घर चले जाते हैं, उनसे एकान्त में मिलकर अपने व्यवहार के लिये माफी मांगते हैं तो शायद कोई बुराई नहीं है। उन्होंने साहित्य संस्थान के उपाध्यक्ष और एक सदस्य की उपस्थिति में अपमानजनक व्यवहार किया था। माफी अकेले में मांगेंगे। किसी को पता भी नहीं लगेगा और संकट से मुक्ति मिल जायेगी।

नींद इस फैसले पर पहुंचने के बाद भी कोसों दूर थी मगर दिल और दिमाग आतुरता से सुबह की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रतिदिन होने वाली सुबह से अलग एक ऐसी प्रभात की प्रतीक्षा कि जब वे मंत्री के बंगले पर जाकर चारों ओर घिर आई काली घटाओं को तितर बितर कर सकेंगे।

———————————

भगवान अटलानी, डी—183, मालवीय नगर, जयपुर—302017