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काहेको ब्याही विदेश


काहे को ब्याही विदेश

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काहे को ब्याही विदेश

एक हैं जनार्दन मिश्र। शुद्ध शाकाहारी, बिना सुबह नहाए अन्न, जल तक नहीं ग्रहण करते। इनके बाबा बनारस में पंडिताई करते थे। पिता को यह पसंद नहीं था, मगर मजबूरीवश रामायण बाँचनी पड़ती थी। उन्होंने ठान लिया था कि जनार्दन पंडिताई नहीं करेगा। जनार्दन को उन्होंने खूब पढ़ाया लिखाया एवं डॉक्टर बनाया। उन्हें क्या पता था कि एक कॉन्फ्रेन्स में जनार्दन अमरीका क्या आएँगे कि जैसे उन्हें अमरीका में बसने का चस्का ही लग जाएगा।

पिता—पुत्र में काफी बहस हुई। जनार्दन अड़े रहे कि वे अमरीका में रहेंगे और उनके पिता अड़े रहे कि उनके शव के ऊपर से चलकर ही अमरीका जा सकते हैं। आखिरकार जनार्दन की माताश्री के बीच—बचाव से यह तय हुआ कि जनार्दन ब्याह करके जाए नहीं तो कहीं कोई मेम ले आए तो धरम भ्रष्ट हो जाएगा।

काफी रिश्ते आए। आखिरकार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शर्मा की द्वितीय पुत्री ललिता ही उन्हें भाई। अपने समय के हिसाब से वे कुछ अधिक ही आधुनिका थीं अतरू भारत में उनके विवाह में परेशानी भी हो रही थी। जनार्दन के हामी भरते ही जैसे यह चरितार्थ हो गया कि श्रिश्ते स्वर्ग में ही बनते हैं।

अन्ततरू दोनों के पासपोर्ट, वीसा तैयार होने के बाद वह दिन भी आ गया, जब उन्हें बनारस से दिल्ली रवाना होना था।

जनार्दन के घर तो कोहराम ही मच गया था। औरों को रोता देखकर जनार्दन की आँखें भी भरने लगीं। ललिता ने भी घडि़याली आँसू निकालना शुरू कर दिया कि कहीं कोई यह न सोचे कि बहू अन्दर—ही—अन्दर खुश हो रही है लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि वह पुरातनपंथी ससुराल से मुक्ति पाने की बात सोचकर बहुत पुलकित थी।

जनार्दन की माताश्री गंगाजल लेकर आई व दोनों पर छिड़का और बुदबुदाई, ष्हे भगवान, इन्हें अधर्म से बचाना।ष् प्रोफेसर साहब दोनों को लेकर दिल्ली गए एवं पालम हवाई अड्डे से उन्हें विदाई दी। तारीख थी १० फरवरी, १९७२।

पच्चीस वर्ष बीत गए हैं। गंगा में तब से बहुत पानी बह चुका है, परन्तु जनार्दन मिश्र बिलकुल भी नहीं बदले हैं। बदले हैं तो कैलेंडर की तारीख एवं रहने का स्थान। सान फ्रान्सिस्को महानगर के पास सनीवेल में एक बड़े से भव्य घर में रहते हैं एवं उनकी डॉक्टरी का पांडित्य दूर—दूर तक फैला हुआ है। हाँ यह बात अलग है कि उनकी आधुनिका पत्नी अब अत्याधुनिक बन गई हैं एवं उनकी इकलौती संतान रीना श्चिप्स कल्चरश् में पलकर शहरी भाषा में स्वस्थ व देहाती भाषा में भैंस लगने लगी है। बस, वर्ण श्याम नहीं हैं।

जनार्दन अभी भी सूर्य को अर्घ्‌य दिए बिना दिनचर्या आरंभ नहीं करते। मांस मछली तो क्या, अंडे तक को हाथ नहीं लगाते। लेकिन एक विकट समस्या आन पड़ी है। बेटी चौबीस की हो रही है और उसकी शादी की चिन्ता में जनार्दन इकहरे से आधे हुए जा रहे हैं। उन्हें चिन्ता है कि कहीं उम्र के जोश में रीना कोई गलत जीवनसाथी न ढूँढ ले। वैसे इस समस्या के समाधान के प्रयास में तो उन्हें ललिता का भी पूर्ण सहयोग प्राप्त है।

आजकल उनकी शाम का समय ब्राह्मण लड़के खोजने में लग जाता है। जब किसी विवाह योग्य लड़के का पता चलता है, वे तुरन्त उससे मिलने पहुँच जाते हैं एवं अपनी डॉक्टरी आँखों से उसकी जाँच—पड़ताल करने लगते हैं।

ष्ललिता! एक लड़के का पता चला है। कम्प्यूटर इंजीनियर है। अभी दो वर्ष पहले भारत से आया है। इलाहाबाद का है, सरयूपारीण ही है। एक छोटी कम्पनी में काम करता है। मैं तो उससे मिल आया हूँ, मुझे पसंद है। क्यों न तुम रीना से बात करो। वह तैयार हो जाए तो बड़ा अच्छा है,ष् जनार्दन ने ललिता से कहा।

रीना से बात करना तो बिल्ली के गले में घंटी बाँधने जैसा है। फिर भी मैं प्रयत्न करूँगी।

क्या रीना—रीना हो रहा है, रीना सीढ़ी उतरते हुए बोली।

बेटा, तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे। एक लड़का है, सुधाकर। मुझे बहुत पसंद है। अगर तुम उससे बात कर लो तो...

इसके आगे बोलने की हिम्मत नहीं हुई जनार्दन की।

अच्छा, तो मेरी शादी की बात है! मुझे नहीं करनी अभी शादी—वादी, रीना ने उत्तर दिया।

ललिता के बहुत समझाने—बुझाने पर रीना सुधाकर से मिलने को तैयार हो गई। शनिवार आते ही रीना, ललिता एवं जनार्दन सुधाकर के घर पहुँचे।

नमस्ते! आप लोगों का ही रास्ता देख रहा था। सुधाकर ने शिष्टाचार पूर्वक कहा।

सुधाकर, यह है मेरी पुत्री रीना एवं मेरी पत्नी ललिता। जनार्दन ने परिचय कराया। सुधाकर ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बता दिया वरना उसे तो लगा था कि दो पुत्रियों के साथ आए हैं।

रीना ने कमरे का अच्छे ढंग से मुआयना किया। सामने ही एक प्रौढ़ जोड़े की फोटो लगी थी। हो—न—हो यह तस्वीर सुधाकर के माता—पिता की होगी। जनार्दन को चिन्ता थी कि रीना कम—से—कम शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करे। रीना ने सुधाकर से एक—दो सवाल पूछे तथा एक—दो सवालों का ठीक—ठाक—सा उत्तर दिया। जनार्दन ने तो जैसे सुधाकर की चार पीढियों का आगा—पीछा पूछ डाला। किसी तरह बातें समाप्त हुई और उन लोगों ने विदा ली।

कार में बैठते ही ललिता बोली, सचमुच, बड़ा अच्छा लड़का है, क्यों रीना?

ठीक ही है। लेकिन घर में घुसते ही उसके माता—पिता की बड़ी—सी तस्वीर लगी है एवं बात—बात में मम्मी—पापा बोलता रहता है। यह तो मुझे हर वर्ष जाड़े की छुट्टियों में भारत ले जाएगा, मच्छरों से कटवाने। फिर मैं स्कीइंग कब करूँगी।

जनार्दन व ललिता चुप रहे। परन्तु जनार्दन भी कोई हार मानने वाले थोड़े ही थे। मूछें तो अमरीका आते ही कटवा ली थीं फिर ताव किस पर देते! पर जनेऊ पर अवश्य हाथ फेरते हुए सोचने लगे चरैवैति चरैवैति।

ललिता, मेरे बचपन के मित्र चूड़ामणि त्रिवेदी का लड़का यहाँ आ रहा है। उसको वीसा मिल गया है। लिखा है कि उसका ध्यान रखना, ष्जनार्दन प्रसन्नतापूर्वक चिठ्‌ठी पढ़ते हुए बोले।

ललिता ने मन—ही—मन सोचा कि बकरा स्वयं शेरनी के सामने आ रहा है। अब माता—पिता से बढ़कर कौन अपनी सन्तान को समझ सकता है।

अन्ततरू वह दिन भी आ गया, जब जनार्दन सौरभ को सैन होजे हवाई अड्डे से अपने घर ले आए। रीना बाहर गई हुई थी। उसके लौटते ही जनार्दन ने सौरभ का उससे परिचय करवाया।

रीना ने मन—ही—मन कहा कि पापा का यह नया मोहरा है।

कब आए आप? रीना ने सौरभ से पूछा।

अभी—अभी आया हूँ। भारत से लास एँजिल्स और फिर सैन जोस,ष् सौरभ ने बत्तीसी दिखाते हुए कहा।

अच्छा—अच्छा, सैन जोस से आए हैं सान फ्रांसिस्को से नहीं,ष् रीना को हँसी आ रही थी। स्पैनिश भाषा में ष्जष् को ष्हष् बोला जाता है, यह बेचारे सौरभ को पता नहीं था। (मेक्सिको की सीमा से लगे होने के कारण कैलिफोर्निया में स्पैनिश भाषा का बहुत प्रभाव है)

रीना घुमा—फिराकर सौरभ के मुँह से सैन जोस सुनती एवं हँसती। जनार्दन को रीना के इस अशिष्ट व्यवहार पर क्रोध आ रहा था एवं सौरभ ना समझी—एक वरदान के सिद्धांत पर चलता जा रहा था।

एकान्त होते ही जनार्दन नीची आवाज में रीना से बोले, ष्बेटी रीना, ऐसे किसी का मजाक नहीं उड़ाते।

मैंने किसी का मजाक नहीं उड़ाया है,ष् रीना का उत्तर था।

कितना सीधा—साधा है, तुम्हारे लिए बिल्कुल ठीक रहेगा।ष् जनार्दन ने सोचा कि जंगल में एक ही शेर काफी है।

यह मरगिल्ला! इससे तो लगता है कभी व्यायाम नहीं किया है। यह क्या शादी करेगा।

कितनी मेहनत से पढ़ाई की है, जब कमाएगा तो बदन अपने—आप ही बन जाएगा। अब इतनी छोटी बात पर तो मना मत करो।

जनार्दन ने अनुनय की।

मुझे दोस्तों में हँसी नहीं उड़वानी कि कहाँ से ये श्स्केयर क्रोश् (खेतों में लगा पुतला) ले आई हो?ष् रीना बोलते हुए ऊपर चली गई।

जनार्दन सिर पकड़कर बैठ गए। सोचने लगे कि भगवान रीना को सद्‌बुद्धि दे।

जनार्दन अब स्वयं ही लड़कों की जाँच—पड़ताल अच्छे ढँग से करने लगे कि रीना कुछ कमी न निकाल सके।

अंत में उन्हें एक बहुत अच्छा लड़का मिला। था तो कान्यकुब्ज पर बड़ी कम्पनी में कार्यरत था। भारत में उसका परिवार भी काफी नामी था। जनार्दन ने मानता मानी कि यदि यहाँ बात बन गई तो मंदिर की दान—पेटिका में सौ डॉलर अवश्य डालेंगे। अब सौ डॉलर तो बहुत होते हैं न भगवान।

किसी तरह हिम्मत बाँधकर जनार्दन एवं ललिता ने रीना के सम्मुख प्रस्ताव रखा।

अब मैं इस झाँसे मे नहीं आने वाली। मेरा अपना जीवन, अच्छी नौकरी है। मुझे जब जो उचित लगेगा, वहीं करूँगी। आप लोगों के इस व्यवहार से मैं बहुत विचलित हो जाती हूँ।

बेटी, बस इसके घर चली चलो, फिर नहीं कहेंगे, जनार्दन ने हथियार डालते हुए कहा।

ठीक है, पर यह अन्तिम बार होगा,ष् रीना ने शर्त रखी।

जनार्दन, ललिता व रीना दिवाकर के घर पहुँचे।

डैड, यह तो एपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स है,ष् रीना चौंककर बोली।

तो क्या हुआ, जनार्दन ने कहा।

रीना ने नाक—भौं चढ़ाते हुए अंदर प्रवेश किया। थोड़ी देर बाद ही उसे वहाँ घुटन होने लगी। वाशिंग मशीन, कूड़ादान — सभी कुछ तो दूर—दूर हैं और साझे के हैं।

वापस लौटते ही उसने ऐलान कर दिया कि वह उस दमघोंटू एपार्टमेंट में नहीं रह सकती और अभी दो—तीन वर्ष तक घर खरीदने का उसका कोई विचार नहीं है। इतने समय में तो उसका स्वास्थ्य ही चौपट हो जाएगा। जनार्दन एवं ललिता का मुँह खुला—का—खुला रह गया। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। सोफे में धँस गए और सिर पर हाथ फेरा। जहाँ कभी संकरी—सी माँग नामक गली होती थी, वहाँ आजकल काफी चौड़ी सड़क बन चुकी थी। काफी बाल तो अमरीकी ष्बाथ टबष् ने निगल लिए थे एवं बचे—खुचे रीना की शादी की चिन्ता ने। आधे मन से जनार्दन ने टी.वी. खोला तो समाचार आ रहा था। ष्माऊंटेन व्यू की कम्पनी श्फिक्स साफ्टवेयरश् पब्लिक घोषित हो गई है एवं इसका स्टॉक, स्टॉक मार्केट के सारे रिकॉर्ड तोड़ गया है।ष्

जनार्दन चिल्लाए, ष्रीना, ललिता!ष् सुधाकर की कम्पनी बहुत अच्छी चल निकली। सुधाकर करोड़पति बन गया है।ष्

ष्वो तो बड़ा अच्छा लड़का है,ष् ललिता ने खुशी से कहा।

ष्रीना देखो, तुमने बिना मतलब ही मना कर दिया। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं बात करता हूँ।ष् जनार्दन ने कहा।

ष्पैसा रहे तो भारत अमरीका सब बराबर है। मैंने मना थोड़ी ही किया था। अब कोई लड़की अपने मुँह से कैसे हाँ बोल दे?ष् रीना ने शर्माने का प्रयास किया।

जनार्दन खिजला गए कि चित भी मेरी, पट भी मेरी। वैसे उन्हें खुशी भी हो रही थी कि चलो, रीना ने हामी तो भरी! भावी दामाद के रूप में सुधाकर तो उन्हें पसंद था ही। जनार्दन ने सोचा कि सुधाकर आजकल भारत गया है, उसके लौटते ही बात करेंगे।

उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही थी। बाहर निकल कर देखा तो डाकिया पत्र डाल रहा था। पत्र—पेटी से जनार्दन ने पत्र निकाले और सरसरी दृष्टि से सारे पत्रों को देखा। उनकी दृष्टि एक विवाह—निमंत्रण पर पड़ी। ऊपर ही लिखा था श्सुधाकर नमिता परिणयश्।

काँपते हाथों से निमंत्रण खोलकर पढ़ा। पढ़ते ही उन्हें लगा, जैसे हाथों के तोते उड़ गए हों।

ष्ललिता, रीना! यह कार्ड देखोष् जनार्दन वाक्य पूरा न कर सके।

ललिता व रीना ने कार्ड पढ़कर सारा दोष जनार्दन के सिर मढ़ दिया।

जनार्दन धीरे—धीरे पुनरू अपने—आपको अपने काम में व्यस्त रखने लगे।

एक दिन रीना ने ऐलान किया, मैं प्रतीक को आप लोगों से मिलवाने ला रही हूँ। कल का दिन ठीक रहेगा क्या?

कौन प्रतीक? ललीता ने पूछा।

अरे वही, जिसका म्यूजिक का बड़ा सा शोरूम है, रीना ने कहा।

कौन? वो जो बालों की चोटी बाँधता है और एक कान में बुंदा पहनता है, जनार्दन सोफे से उछलते हुए बोले। उछलने वाली बात ही थी।

हाँ—हाँ, वही, रीना बोली।

वह तो एक नम्बर का गुंडा लगता है। जनार्दन बोले।

हाँ बेटी, वह तो एकदम लफंगा लगता है। दुकान पर जाओ तो कैसे देखता है, ललिता बोली।

अरे कितना मॉडर्न है। सफल व्यापारी है, रीना ने तर्क दिया।

ठीक से पता लगाया है कि दुकान उसकी ही है या वह वहाँ नौकर है।

डैड, काफी बोल दिया। अब वो कल आ रहा है। उसके सामने कुछ ऐसा वैसा मत बोलिएगा, रीना ने जैसे एल्टीमेटम दे दिया।

जनार्दन को ललिता पर चीखने का मन हो रहा था कि आधुनिकता की होड़ में बेटी ही हाथ से निकल गई। पच्चीस साल बीत गए, मजाल है कि कभी जनार्दन ने ललिता से ऊँची आवाज में कुछ कहा हो। अब मोटा दहेज लेकर शादी करने में यह तो होता ही है।

एक पूरा दिन पूरे युग की तरह बीता। शाम को रीना प्रतीक के साथ आई। प्रतीक च्यूइंगम चबाते, चोटी पर हाथ फेरते हुए जनार्दन के सारे प्रश्नों का गोल—मोल उत्तर देता रहा।

ललिता ने खाना लगा दिया। प्रतीक ने छककर खाना खाया। फिर रीना उसे घर

दिखलाने ले गई। ऊपर जाकर प्रतीक ने कहा, तुम्हारा घर बहुत बड़ा व अच्छा है। शादी के बाद यहीं ऊपर रहेंगे।

नहीं—नहीं, यहाँ नहीं। अलग रहेंगे। रीना ने कहा।

क्यों, यहाँ क्यों नहीं? ऊपर पूरी प्राइवेसी रहेगी और तुम्हारी मम्मी रोज बढिया खाना बना दिया करेंगी, नो प्रॉब्लम, प्रतीक ने कहा।

अच्छा, बाद में सोचेंगे,ष् रीना ने धीरे से कहा।

कुछ समय बाद प्रतीक वापस चला गया। रीना का प्रतीक से मेल—जोल बढ़ता गया एवं जनार्दन का रक्तचाप।

एक दिन रीना कार्यालय से घर आई। मुँह लटका हुआ था।

क्यों बेटी, क्या बात है?ष् ललिता ने पूछा।

मेरा ग्रुप बंद हो रहा है। मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। रीना ने रोना आरम्भ कर दिया।

अरे, यह नौकरी नहीं तो और सही। इसमें रोने की कौन—सी बात है, ललिता ने उसके आँसू पोंछे।

रीना प्रतीक को बतलाने उसके घर चली गई। वापस आते ही चुपचाप ऊपर जाने लगी तो जनार्दन ने टोका, ष्बेटी, कुछ खा लो।

मेरा मन नहीं है। जब पता चला कि मेरी नौकरी चली गई है तो प्रतीक ने मुझसे सीधे मुँह बात तक नहीं की।

जनार्दन अन्दर—ही—अन्दर खुशी से फूले न समाए परन्तु ऊपर से गंभीरता का मुखौटा लगाए हुए बोले, ये कामचोर लड़के बस अमीर बाप की इकलौती, भोली—भाली लड़की को फँसाकर जिन्दगी भर मौज करना चाहते हैं। तुम चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।

रीना थोड़ी शांत हुई। जनार्दन ने चुपके से पूजा के कमरे में जाकर भगवान के सामने दंडवत किया कि भगवान उस गुंडे से मुक्ति मिली।

रीना को दूसरी नौकरी मिल गई थी, परन्तु उसकी उदासी ज्यों—की—त्यों थी। यह देखकर जनार्दन व ललिता बहुत चिन्तित थे।

क्यों न रीना के लिए भारत में कोई लड़का देखें?

नहीं—नहीं, इतनी दूर मैं अपनी बच्ची को नहीं भेज सकती।

अरे, कोई साधारण परिवार का अच्छा लड़का देखते हैं। यहीं बुला लेंगे। जो माँगेंगे दे दिया जाएगा।

तो ऐसा क्यों नहीं कहते कि धन का लोभ देंगे।

अब जैसा सोचो।

नहीं, बिल्कुल नहीं। मेरी तो ऐसे परिवार में शादी होकर जिन्दगी ही चौपट हो गई। शादी के बाद नए—नए शौक रहते हैं। मैं तो कोई भी शौक पूरा नहीं कर पाई। अब पापा बेचारे कितना करते हैं। मैं नहीं चाहती कि रीना की भी वैसी स्थिति हो।

तुम्हारे कौन से शौक पूरे नहीं हुए। कौन—सा तुम्हारे पिता ने खजाना लुटा दिया!ष् जनार्दन को अब क्रोध आने लगा था।

रहने दो, मुँह न खुलवाओ। बाजा—बत्ती समेत बारात का पूरा खर्चा दिया था। बहू—भोज भी तो मेरे मायके के पैसों से ही हुआ था। तुम्हारे सारे परिवार की तो जैसे सारी दरिद्रता मेरे दहेज से ही दूर हुई थी। ललिता ऊंची आवाज में बोली।

अच्छा, और तुम जो यहाँ से चुपके से अपने भाई के कैपिटेशन वाले इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए पैसे भेजती थीं, सो कुछ नहीं।

जनार्दन ने पहली बार ललिता को ऊंची आवाज में जवाब दिया।

ललिता ने सोचा कि आज तक तो जनार्दन को ऐसा बोलते तो कभी नहीं सुना। सचमुच स्प्रिंग को आवश्यकता से अधिक दबाओ तो उछलकर अपने को ही लगती है।

तू—तू मैं—मैं होने लगी कि सीढ़ी पर सूटकेस उतारने की आवाज से दोनों चौंके।

वाह भई वाह! मेरी शादी की बात करते—करते आपस में ही लड़ने लगे। रीना नीचे आते हुए बोली।

बेटी, कहाँ जा रही हो सामान लेकर? जनार्दन ने पूछा।

मैं घर छोड़कर जा रही हूँ। कहीं और रहूँगी जिससे आप लोग भी शांतिपूर्वक रहें और मैं भी।

पर बेटी... ललिता रुआँसी हो गई।

जनार्दन की छाती में दर्द हुआ। छूकर देखा कि कहीं हार्ट अटैक तो नहीं है लेकिन फिर महसूस हुआ कि गैस का दर्द है। रीना दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई। ललिता रो पड़ी एवं जनार्दन को अपने बाबूजी व माताजी की याद आ गई कि एक दिन उन्हें भी ऐसा ही लगा होगा।

जनार्दन दरवाजा बन्द करने के लिए आगे बढ़े तो देखा कि रीना एक गोरे युवक के साथ आलिंगनबद्ध होकर चुंबनरत थी। आज बिन ब्याहे बेटी की डोली उठ रही थी, बचपन में सुने विदाई के गीत कानों में बेसुरे बज उठे।

ष्काहे को ब्याही विदेश।ष् जनार्दन को लगा कि जैसे बिना मौत के उनकी अर्थी उठ रही हो।

जनार्दन सोफे पर बैठ गए एवं आँखों को बंद कर लिया। ध्यान में भगवान श्रीकृष्ण आए और बोले, ष्हे वत्स! व्यर्थ चिन्ता करते हो। आत्मा अजर—अमर है। तुम्हीं बताओ, कभी विदेशी मुर्गी से कोई देसी बोल बुलवा पाया है? फिर तुम किस खेत की मूली हो।

जनार्दन ने आँखें खोल दीं। भगवान अन्तर्ध्‌यान हो चुके थे। जनार्दन ने खुशी—खुशी अपनी नियति स्वीकार कर ली।