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अस्तित्व

हर शहर कुछ कहता है …

अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है: उत्तर भारत का मैनचेस्टर

भारत का एक ऐसा शहर जो अपने अस्तित्व बचाए रखने के लिए आजादी के समय से जूझ रहा है यानि गुलाम भारत में फला-फुला यह शहर आजाद भारत में मुरझा रहा है। यहाँ बात हो रहा है, उत्तर भारत का मैनचेस्टर ,कारखानों की नगरी एवं उत्तर-प्रदेश के औद्योगिक राजधानी कानपुर की । देश कों औद्योगिक पथ पढ़ने वाला कारखानों का शहर आज के समय में बदहाल हालत में खड़ा है । हर पल अपने अस्तित्व के लिए जूझता यह शहर जल्द ही अपने मूल स्वरूप ( उत्तर भारत का मैनचेस्टर ) कों खोने वाला है । गुलामी के समय एक संपन्न औद्योगिक शहर के रूप में स्थापित इस शहर कों देखकर किसी ने सोचा भी नही होगा कि आजाद भारत में यहाँ के कल - कारखानों पर काला बादल छा जायेगा । अतीत के यादो में जीने वाले इस शहर के अतीत और आज पर प्रकाश डाल रहे है- विनय सिंह ।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहाँ अपने व्यापार-विस्तार नीति के उद्देश्य से सतरहवी शताब्दी के मध्य में औद्योगिकता के नीव रखने का काम शुरू कर दिया था। शुरूआती चरण में कम्पनी ने कानपुर के आस पास वाले इलाकों में किसानो कों नील की खेती के लिए बाध्य किया गया और फिर 1776 में कंपनी ने यहाँ नील का पहला कारखाना स्थापित किया।

गंगा तट पर बसे इस शहर में औद्योगिक विकास की धारा अठारहवी शताब्दी के शुरूआती सालो में तेजी से बहाना शुरू हो गई थी, जब 1801 में अंगेजो ने इस शहर कों जल मार्ग द्वारा कलकत्ता (कोलकता) से सीधे जोड़ने का काम किया। इससे कंपनी कों तैयार माल यूरोप भेजना आसन हो गया । अब कानपुर से जलमार्ग द्वारा कलकत्ता और फिर वहां से यूरोपीय देश पहुचा जा सकता था।

इसी दौरान यहाँ के किसानो कों कपास के खेती के लिए भी बाध्य किया गया , जब तक कानपुर में नील उद्योग अपने स्थापना का 83 वा साल पूरा कर रही थी और कपास के लिए माहौल तैयार होना शुरू हुआ था, तभी शहर में 1859 में रेलवे ने कदम रखा दिया। जल मार्ग के साथ-साथ रेल मार्ग से भी सीधे कलकत्ता से जुड़ने के चलते यह शहर उत्तर प्रदेश के मुख्य उद्योग व्यापार केंद्र के रूप में स्थापित हो गया ।

1860 तक कंपनी शासको के दबाव के कारण कानपुर के आस-पास वाले इलाकों में कपास की खेती शुरू हो गई, अब कपास कों जल और रेल मार्ग द्वारा सीधे कलकत्ता और फिर वहाँ से यूरोपीय देशो में भेजा जाता था । कच्चे माल (कपास) कों यूरोपीय देश भेजने में काफी समय और धन व्यय होता था, इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी के आदेश से 1864 में रिचर्ड ब्यूइस्ट और ह्युमैक्स बेल के नेतृत्व में यहाँ पहला सूती मिल का नीव रखा गया। यह कानपुर का पहला और सबसे अनमोल मिल था, क्यों कि इस मिल के बाद कानपुर में सूती वस्त्र मिलो की बाढ़ सी आ गई।

1864 के बाद हर दशक में कई मिल स्थापित हुए । पाँच दशक बाद (1919 तक ) यहाँ कुल 22 सूती मिल स्थापित हो चुके थे, जिनमे करीबन 90 हजार श्रमिक कार्यरत थे। सूती वस्त्र उद्योग के आलावा यहाँ चमडा और जुट उद्योगों का भी विकास काफी तेजी से हुआ, 1866 में चमडा उद्योग का पहला कारखाना खुला और 1883 में यहाँ पहला जुट मिल स्थापित हुआ। 1886 में जब यहाँ विक्टोरिया मिल का स्थापना हुआ तब यह इलाका विश्व मानचित्र पर उभर कर सामने आया।1919 तक यह क्षेत्र मुख्य औद्योगिक क्षेत्र के रूप में कारखानों की नगरी के नाम से विश्व प्रसिद्ध हो चुका था ।

जब इस इलाके में अंगेजो ने रूचि कम करना शुरू किया तों भारतीय उद्योगपति अंग्रेजी उद्योगपतियों से लोहा लेने के लिए आगे आये। उनमे भारतीय उद्योगपति लाला कमाल पाल सिहांनिया का नाम सबसे ऊपर आता है। कानपुर औद्योगिक क्रांति के महानायक के रूप में प्रसिद्ध सिहांनिया ने 1921 में यहाँ अपना पहला सूती मिल स्थापित किया और सोलह साल में सिहांनिया ने तीन बड़े कंपनियों कों स्थापित कर करीबन 50 हजार लोगो कों रोजगार मुहैया कराया। 1921 से 1946 तक यहाँ आधा दर्जन से अधिक कल-कारखानों की स्थापना कर भारतीय उद्योगपतियों ने इस क्षेत्र में चार चाँद लगा दिया। 1864 से 1946 तक का समय कानपुर औद्योगिक क्षेत्र के लिए स्वणिम काल था। 1946 तक यहाँ 160 औद्योगिक ईकाईयो की स्थापना हो चुकी थी और यह औद्योगिक क्षेत्र एशिया के मैनचेस्टर के रूप में विश्व प्रसिद्ध हो चुका था ।

1947 में देश को आजादी मिलने के बाद से शहर की औद्योगिक ईकाइयों को ग्रहण सा लग गया। एक ओर गुलामी से निकला देश अपने आपको संभालने का प्रयास कर रहा था तो दूसरी ओर शहर का औद्योगिक विकास ठप्प होता जा रहा था। आजादी के बाद अपनी ही सरकार के उदासीन रवैये से मैनचेस्टर शहर आहत होने लगा। इसे स्थापित करने वाले उद्योगपति आये दिन विभिन्न समस्याओं से जूझने लगे। लिहाजा उद्योगों के खुलने बंद होने से श्रमिक आंदोलन ने जन्म लिया।

1972 में उद्योगों को मिलने वाली बिजली की आपूर्ति में 25 फीसदी की गिरावट एवं 1974 में 80 फीसदी तक कटौती कर इन मिलो का कमर ही तोड़ दिया गया । फिर सरकार ने 1975 में बीमार मिलों को चलाने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय वस्त्र निगम लिमिटेड को सौंपी गयी। फिर मिलो की स्थिति सुधारने के लिए 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घाटे में चल रही मिलों का राष्ट्रीयकरण करके कुछ मिलों को नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन .एन टी सी. और कुछ को बी आई सी से सम्बद्व करके इन्हे कपड़ा मंत्रालय के अधीन कर दिया और कई अन्य मिलो कों निजी क्षेत्रो में सौप कर उसे चलने की अनुमति दे दी गई ।

यहाँ के मिलो कों आधुनिकीकरण के नाम पर अन्य इलाकों के मिलो से औसतन काम धनराशी मिला। जिसके कारण ये मिले दुबारा पूर्ण जीवित नही हो पाई। स्व. राजीव गाँधी की सरकार ने इन अधिग्रहीत मिलों को आधुनिक बनाने के लिए 550 करोड़ रुपयों की योजना बनाई लेकिन इसका क्रियान्वयन नरसिम्हा राव की सरकार के समय हो सका। लेकिन फिर भी कुछ खास नही हुआ क्यों कि राष्ट्रीय वस्त्र निगम के भ्रष्टाचार व नौकरशाही ने इन मिलों की भी कमर तोड़ कर रख दी।

सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि शहर की औद्योगिक ईकाईयाँ इतने कठिन दौर से गुजर रही थी फिर भी सरकार इन मिलों की समस्या से मुंह मोडे रही। कई लोकसभा और विधानसभा चुनाव आये और सियासी दलों ने नगर को उद्योग धंधों की बदहाली से उबारने के लंबे चौड़े वादे किये,लेकिन किसी ने इस एशिया के मैनचेस्टर कों बचाने के लिए कुछ खास नही किया ।

उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी कानपुर आज प्रशासनिक ढांचे में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकारी तंत्र की उदासीनता के चलते अन्य नगरों के मुकाबले विकास की दौड़ में काफी पीछे रह गया है। अतीत में कानपुर की जिन ईकाइयों ने औद्योगिक विकास की इबारत लिखी थी आज वर्तमान में वह औद्योगिक ईकाइयां कबाड़ के रुप में तब्दील हो चुकी हैं।