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भाग-६ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 06



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सिंहासन बत्तीसी

इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति की कहानी

बाइसवीं पुतली अनुरोधवती की कहानी

तेईसवीं पुतली धर्मवती की कहानी

चौबीसवीं पुतली करुणावती की कहानी

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति की कहानी

एक बार विक्रमादित्य एक यज्ञ करने की तैयारी कर रहे थे। वे उस यज्ञ में चन्द्रदेव को आमन्त्रित करना चाहते थे। चन्द्रदेव को आमन्त्रण देने कौन जाए? इस पर विचार करने लगे। काफी सोच—विचार के बाद उन्हें लगा कि महामंत्री ही इस कार्य के लिए सर्वोत्तम रहेंगे। उन्होंने महामंत्री को बुलाकर उनसे विमर्श करना शुरू किया।

तभी महामंत्री के घर का एक नौकर वहां आकर खड़ा हो गया। महामंत्री ने उसे देखा तो समझ गए कि अवश्य कोई बहुत ही गंभीर बात है अन्यथा वह नौकर उसके पास नहीं आता। उन्होंने राजा से क्षमा मांगी और नौकर से अलग जाकर कुछ पूछा। जब नौकर ने कुछ बताया तो उनका चेहरा उतर गया और वे राजा से विदा लेकर वहां से चले गए।

महामंत्री के अचानक दुखी और चिन्तित होकर चले जाने पर राजा को लगा कि अवश्य ही महामंत्री को कोई कष्ट है। उन्होंने नौकर से उनके इस तरह जाने का कारण पूछा तो नौकर हिचकिचाया। जब राजा ने आदेश दिया तो वह हाथ जोड़कर बोला कि महामंत्री जी ने मुझे आपसे सच्चाई नहीं बताने को कहा था।

उन्होंने कहा था कि सच्चाई जानने के बाद राजा का ध्यान बंट जाएगा और जो यज्ञ होने वाला है उसमें व्यवधान होगा। राजा ने कहा कि महामंत्री उनके बड़े ही स्वामीभक्त सेवक हैं और उनका भी कर्तव्य है कि उनके कष्ट का हरसंभव निवारण करें।

तब नौकर ने बताया कि महामंत्री जी की एकमात्र पुत्री लम्बे समय से बीमार है। उन्होंने उसकी बीमारी एक से बढ़कर एक वैद्य को दिखाई, पर कोई भी चिकित्सा कारगर नहीं साबित हुई।

दुनिया की हर औषधि उसे दी गई, पर उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई। अब उसकी हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वह हिलडुल नहीं सकती और मरणासन्न हो गई है।

विक्रमादित्य ने जब यह सुना तो व्याकुल हो गए। उन्होंने राजवैद्य को बुलवाया और जानना चाहा कि उसने महामंत्री की पुत्री की चिकित्सा की है या नहीं?

राजवैद्य ने कहा कि उसकी चिकित्सा केवल ख्वांग बूटी से की जा सकती है। दुनिया की अन्य कोई औषधि कारगर नहीं हो सकती। ख्वांग बूटी एक बहुत ही दुर्लभ औषधि है जिसे ढूंढकर लाने में कई महीने लग जाएंगे।

राजा विक्रमादित्य ने यह सुनकर कहा— श्तुम्हें उस स्थान का पता है जहां यह बूटी मिलती है?'

राज वैद्य ने बताया कि वह बूटी नीलरत्नगिरि की घाटियों में पाई जाती है लेकिन उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है। रास्ते में भयंकर सांप, बिच्छू तथा हिंसक जानवर भरे पड़े हैं। राजा ने यह सुनकर उससे उस बूटी की पहचान बताने को कहा। राजवैद्य ने बताया कि वह पौधा आधा नीला, आधा पीला फूल लिए होता है तथा उसकी पत्तियां लाजवन्ती के पत्तों की तरह स्पर्श से सकुचा जाती हैं।

विक्रम यज्ञ की बात भूलकर ख्वांग बूटी की खोज में जाने का निर्णय कर बैठे। उन्होंने तुरन्त काली के दिए गए दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें आनन—फानन में नीलरत्नगिरि की ओर ले चले। पहाड़ी पर उन्हें उतारकर बेताल अदृश्य हो गए।

राजा घाटियों की ओर बढ़ने लगे। घाटियों में एकदम अंधेरा था। चारों ओर घने जंगल थे। राजा बढ़ते ही रहे। एकाएक उनके कानों में सिंह की दहाड़ पड़ी। वे सम्भल पाते इसके पहले ही सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया।

राजा ने बिजली जैसी फुर्ती दिखाकर खुद को तो बचा लिया, मगर सिंह उनकी एक बांह को घायल करने में कामयाब हो गया। सिंह दुबारा जब उन पर झपटा तो उन्होंने भरपूर प्रहार से उसके प्राण ले लिए। उसे मारकर जब वे आगे बढ़े तो रास्ते पर सैकड़ों विषधर दिखे।

विक्रम तनिक भी नहीं घबराए और उन्होंने पत्थरों की वर्षा करके सांपों को रास्ते से हटा दिया। उसके बाद वे आगे की ओर बढ़ चले। रास्ते में एक जगह इन्हें लगा कि वे हवा में तैर रहे है। ध्यान से देखने पर उन्हें एक दैत्याकार अजगर दिखा। वे समझ गए कि अजगर उन्हें अपना ग्रास बना रहा है।

ज्योंहि वे अजगर के पेट में पहुंचे कि उन्होंने अपनी तलवार से अजगर का पेट चीर दिया और बाहर आ गए। तब तक गर्मी और थकान से उनका बुरा हाल हो गया। अंधेरा भी घिर आया था। उन्होंने एक वृक्ष पर चढ़कर विश्राम किया। ज्योंहि सुबह हुई वे ख्वांग बूटी की खोज में इधर—उधर घूमने लगे। उसकी खोज में इधर—उधर भटकते न जाने कब शाम हो गई और अंधेरा छा गया।

अधीर होकर उन्होंने कहा— श्काश, चन्द्रदेव मदद करते!श् इतना कहना था कि मानों चमत्कार हो गया। घाटियों में दूध जैसी चांदनी फैल गई। अन्धकार न जाने कहां गायब हो गया। सारी चीजें ऐसी साफ दिखने लगीं मानो दिन का उजाला हो।

थोड़ी दूर बढ़ने पर ही उन्हें ऐसे पौधे की झाड़ी नजर आई जिस पर आधे नीले, आधे पीले फूल लगे थे। उन्होंने पत्तियां छुईं तो लाजवंती की तरह सकुचा गईं। उन्हें स।'ाय नहीं रहा। उन्होंने ख्वांग बूटी का बड़ा—सा हिस्सा काट लिया।

वे बूटी लेकर चलने ही वाले थे कि दिन जैसा उजाला हुआ और चन्द्रदेव सशरीर उनके सम्मुख आ खड़े हुए। विक्रम ने बड़ी श्रद्धा से उनको प्रणाम किया। चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत देते हुए कहा कि अब सिर्फ अमृत ही महामंत्री की पुत्री को जिला सकता है।

उनकी परोपकार की भावना से प्रभावित होकर वे खुद अमृत लेकर उपस्थित हुए हैं।

उन्होंने जाते—जाते विक्रम को समझाया कि उनके सशरीर यज्ञ में उपस्थित होने से विश्व के अन्य भागों में अंधकार फैल जाएगा, इसलिए वे उनसे अपने यज्ञ में उपस्थित होने की प्रार्थना नहीं करें।

उन्होंने विक्रम को यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न कराने का आशीर्वाद दिया और अन्तर्ध्‌यान हो गए। विक्रम ख्वांग बूटी और अमृत लेकर उज्जैन आए। उन्होंने अमृत की बून्दें टपकाकर महामंत्री की बेटी को जीवित किया तथा ख्वांग बूटी को जनहित के लिए रख लिया। चारों ओर उनकी जय—जयकार होने लगी।

बाइसवीं पुतली अनुरोधवती की कहानी

अनुरोधवती नामक बाइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है—

राजा विक्रमादित्य अद्‌भुत गुणग्राही थे। वे सच्चे कलाकारों का बहुत अधिक सम्मान करते थे तथा स्पष्टवादिता पसंद करते थे। उनके दरबार में योग्यता का सम्मान किया जाता था। चापलूसी जैसे दुर्गुण की उनके यहां कोई कद्र नहीं थी। यही सुनकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके द्वार तक आ पहुंचा।

दरबार में महफिल सजी हुई थी और संगीत का दौर चल रहा था। वह युवक द्वार पर राजा की अनुमति का इंतजार करने लगा। वह युवक बहुत ही गुणी था। बहुत सारे शास्त्रों का ज्ञाता था। कई राज्यों में नौकरी कर चुका था। स्पष्टवक्ता होने के कारण उसके आश्रयदाताओं को वह धृष्ट नजर आया, अतरू हर जगह उसे नौकरी से निकाल दिया गया।

इतनी ठोकरें खाने के बाद भी उसकी प्रकृति तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आ सका।

वह द्वार पर खड़ा था, तभी उसके कान में वादन का स्वर पड़ा और वह बड़बड़ाया— श्महफिल में बैठे हुए लोग मूर्ख हैं। संगीत का आनन्द उठा रहे हैं, मगर संगीत का जरा भी ज्ञान नहीं है। साजिन्दा गलत राग बजाए जा रहा है, लेकिन कोई भी उसे मना नहीं कर रहा है।'

उसकी बड़बड़ाहट द्वारपाल को स्पष्ट सुनाई पड़ी। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। उसने उसको सम्भालकर टिप्पणी करने को कहा।

उसने जब उस युवक को कहा कि महाराज विक्रमादित्य खुद महफिल में बैठे हैं और वे बहुत बड़े कला पारखी हैं तो युवक ने उपहास किया। उसने द्वारपाल को कहा कि वे कलाप्रेमी हो सकते हैं, मगर कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिन्दे का दोषपूर्ण वादन उनकी समझ में नहीं आ रहा है। उस युवक ने यह भी बता दिया कि वह साजिन्दा किस तरफ बैठा हुआ है।

अब द्वारपाल से नहीं रहा गया। उसने उस युवक से कहा कि उसे राजदण्ड मिलेगा, अगर उसकी बात सच साबित नहीं हुई। उस युवक ने उसे सच्चाई का पता लगाने के लिए कहा तथा बड़े ही आत्मविश्वास से कहा कि वह हर दण्ड भुगतने को तैयार है अगर यह बात सच नहीं साबित हुई। द्वारपाल अन्दर गया तथा राजा के कानों तक यह बात पहुंची।

विक्रम ने तुरन्त आदेश किया कि वह युवक महफिल में पेश किया जाए। विक्रम के सामने भी उस युवक ने एक दिशा में इशारा करके कहा कि वहां एक वादक की अंगुली दोषपूर्ण है। उस ओर बैठे सारे वादकों की अंगुलियों का निरीक्षण किया जाने लगा। सचमुच एक वादक के अंगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ था और उसने उस अंगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी।

राजा उस युवक के संगीत ज्ञान के कायल हो गए। तब उन्होंने उस युवक से उसका परिचय प्राप्त किया और अपने दरबार में उचित सम्मान देकर रख लिया।

वह युवक सचमुच ही बड़ा ज्ञानी और कला मर्मज्ञ था। उसने समय—समय पर अपनी योग्यता का परिचय देकर राजा का दिल जीत लिया। एक दिन दरबार में एक अत्यंत रूपवती नर्तकी आई। उसके नृत्य का आयोजन हुआ और कुछ ही क्षणों में महफिल सज गई।

वह युवक भी दरबारियों के बीच बैठा हुआ नृत्य और संगीत का आनन्द उठाने लगा। वह नर्तकी बहुत ही सधा हुआ नृत्य प्रस्तुत कर रही थी और दर्शक मुग्ध होकर रसास्वादन कर रहे थे। तभी न जाने कहां से एक भंवरा आकर उसके वक्ष पर बैठ गया।

नर्तकी नृत्य नहीं रोक सकती थी और न ही अपने हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि भंगिमाएं गड़बड़ हो जातीं। उसने बड़ी चतुरता से सांस अन्दर की ओर खींची तथा पूरे वेग से भंवरे पर छोड़ दी। अनायास निकले सांस के झौंके से भंवरा डरकर उड़ गया। क्षणभर की इस घटना को कोई भी न ताड़ सका, मगर उस युवक की आंखों ने सब कुछ देख लिया।

वह —वाह! वाह!— करते उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नर्तकी के गले में डाल दी। सारे दरबारी स्तब्ध रह गए। अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा हो गई।

राजा की उपस्थिति में दरबार में किसी और के द्वारा कोई पुरस्कार दिया जाना राजा का सबसे बड़ा अपमान माना जाता था। विक्रम को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने उस युवक को इस धृष्टता के लिए कोई ठोस कारण देने को कहा।

तब युवक ने राजा को भंवरे वाली सारी घटना बता दी। उसने कहा कि बिना नृत्य की एक भी भंगिमा को नष्ट किए, लय—ताल के साथ सामंजस्य रखते हुए इस नर्तकी ने जिस सफाई से भंवरे को उड़ाया वह पुरस्कार योग्य चेष्टा थी।

उसे छोड़कर किसी और का ध्यान गया ही नहीं तो पुरस्कार कैसे मिलता। विक्रम ने नर्तकी से पूछा तो उसने उस युवक की बातों का समर्थन किया। विक्रम का क्रोध गायब हो गया और उन्होंने नर्तकी तथा उस युवक, दोनों की बहुत तारीफ की। अब उनकी नजर में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। जब भी कोई समाधान ढूंढना रहता उसकी बातों को ध्यान से सुना जाता तथा उसके परामर्श को गंभीरतापूर्वक लिया जाता।

एक बार दरबार में बुद्धि और संस्कार पर चर्चा छिड़ी। दरबारियों का कहना था कि संस्कार बुद्धि से आते हैं, पर वह युवक उनसे सहमत नहीं था। उसका कहना था कि सारे संस्कार व।'ाानुगत होते हैं। जब कोई मतैक्य नहीं हुआ तो विक्रम ने एक हल सोचा।

उन्होंने नगर से दूर हटकर जंगल में एक महल बनवाया तथा महल में गूंगी और बहरी नौकरानियां नियुक्त कीं।

एक—एक करके चार नवजात शिशुओं को उस महल में उन नौकरानियों की देखरेख में छोड़ दिया गया। उनमें से एक उनका, एक महामंत्री का, एक कोतवाल का तथा एक ब्राह्मण का पुत्र था। बारह वर्ष पश्चात जब वे चारों दरबार में पेश किए गए तो विक्रम ने बारी—बारी से उनसे पूछा— श्कुशल तो हैं?' चारों ने अलग—अलग जवाब दिए।

राजा के पुत्र ने श्सब कुशल है।' कहा, जबकि महामंत्री के पुत्र ने संसार को नश्वर बताते हुए कहा श्आने वाले को जाना है तो कुशलता कैसी?' कोतवाल के पुत्र ने कहा कि चोर चोरी करते हैं और बदनामी निरपराध की होती है।

ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेमानी है। सबसे अन्त में ब्राह्मण पुत्र का जवाब था कि आयु जब दिन—ब—दिन घटती जाती है तो कुशलता कैसी? चारों के जवाबों को सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का पुत्र निश्चिन्त भाव से सब कुछ कुशल मानता था और मंत्री के पुत्र ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया।

इसी तरह कोतवाल के पुत्र ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण पुत्र ने दार्शनिक उत्तर दिया। सब व।'ाानुगत संस्कारों के कारण हुआ। सबका पालन—पोषण एक वातावरण में हुआ, लेकिन सबके विचारों में अपने संस्कारों के अनुसार भिन्नता आ गई। सभी दरबारियों ने मान लिया कि उस युवक का मानना बिलकुल सही है।

तेईसवीं पुतली धर्मवती की कहानी

तेईसवीं पुतली जिसका नाम धर्मवती था, ने इस प्रकार कथा कही— एक बार राजा विक्रमादित्य दरबार में बैठे थे और दरबारियों से बातचीत कर रहे थे। बातचीत के क्रम में दरबारियों में इस बात पर बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से? बहस का अन्त नहीं हो रहा था, क्योंकि दरबारियों के दो गुट हो चुके थे।

एक कहता था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है क्योंकि मनुष्य का जन्म उसके पूर्वजन्मों का फल होता है। अच्छे संस्कार मनुष्य में व।'ाानुगत होते हैं जैसे राजा का बेटा राजा हो जाता है। उसका व्यवहार भी राजाओं की तरह रहता है। कुछ दरबारियों का मत था कि कर्म ही प्रधान है।

अच्छे कुल में जन्मे व्यक्ति भी दुर्व्‌यसनों के आदी हो जाते हैं और मर्यादा के विरुद्ध कमोर्ं में लीन होकर पतन की ओर चले जाते हैं। अपने दुष्कमोर्ं और दुराचार के चलते कोई सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करते और सर्वत्र तिरस्कार पाते हैं।

इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि मूल संस्कार नष्ट नहीं हो सकते हैं जैसे कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी अपने गुण नहीं खोता। गुलाब कांटों पर पैदा होकर भी अपनी सुगन्ध नहीं खोता और चन्दन के वृक्ष पर सपोर्ं का वास होने से भी चन्दन अपनी सुगन्ध और शीतलता बरकरार रखता है, कभी भी विषैला नहीं होता।

दोनों पक्ष अपने—अपने तकोर्ं द्वारा अपने को सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहे। कोई भी अपना विचार बदलने को राजी नहीं था।

विक्रम चुपचाप उनकी बहस का मजा ले रहे थे। जब उनकी बहस बहुत आगे बढ़ गई तो राजा ने उन्हें शान्त रहने का आदेश दिया और कहा कि वे प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा करेंगे।

उन्होंने आदेश दिया कि जंगल से एक सिंह का बच्चा पकड़कर लाया जाए। तुरन्त कुछ शिकारी जंगल गए और एक सिंह का नवजात शावक उठाकर ले आए। उन्होंने एक गड़रिए को बुलाया और उस नवजात शावक को बकरी के बच्चों के साथ—साथ पालने को कहा।

गड़रिए की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा का आदेश मानकर वह शावक को ले गया।

शावक की परवरिश बकरी के बच्चों के साथ होने लगी। वह भी भूख मिटाने के लिए बकरियों का दूध पीने लगा, जब बकरी के बच्चे बड़ हुए तो घास और पत्तियां चरने लगे। शावक भी पत्तियां बड़े चाव से खाता। कुछ और बड़ा होने पर दूध तो वह पीता रहा, मगर घास और पत्तियां चाहकर भी नहीं खा पाता।

एक दिन जब विक्रम ने उसे शावक का हाल बताने के लिए बुलाया तो उसने उन्हें बताया कि शेर का बच्चा एकदम बकरियों की तरह व्यवहार करता है।

उसने राजा से विनती की कि उसे शावक को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए, क्योंकि शावक को अब घास और पत्तियां अच्छी नहीं लगती हैं। विक्रम ने साफ मना कर दिया और कहा कि सिर्फ दूध पर उसका पालन—पोषण किया जाए।

गड़रिया उलझन में पड़ गया। उसकी समझ में नहीं आया कि महाराज एक मांसभक्षी प्राणी को शाकाहारी बनाने पर क्यों तुले हैं? वह घर लौट आया। शावक जो कि अब जवान होने लगा था, सारा दिन बकरियों के साथ रहता और दूध पीता। कभी—कभी बहुत अधिक भूख लगने पर घास—पत्तियां भी खा लेता।

अन्य बकरियों की तरह जब शाम में उसे दरबे की तरफ हांका जाता तो चुपचाप सर झुकाए बढ़ जाता तथा बन्द होने पर कोई प्रतिरोध नहीं करता। एक दिन जब वह अन्य बकरियों के साथ चर रहा था तो पिंजरे में बन्द एक सिंह को लाया गया।

सिंह को देखते ही सारी बकरियां डरकर भागने लगीं तो वह भी उनके साथ दुम दबाकर भाग गया। उसके बाद राजा ने गड़रिए को उसे स्वतंत्र रूप से रखने को कहा। भूख लगने पर उसने खरगोश का शिकार किया और अपनी भूख मिटाई।

कुछ दिन स्वतंत्र रूप से रहने पर वह छोटे—छोटे जानवरों को मारकर खाने लगा। लेकिन गड़रिए के कहने पर पिंजरे में शान्तिपूर्वक बन्द हो जाता। कुछ दिनों बाद उसका बकरियों की तरह भीरु स्वभाव जाता रहा।

एक दिन जब फिर से उसी शेर को उसके सामने लाया गया तो वह डरकर नहीं भागा। शेर की दहाड़ उसने सुनी तो वह भी पूरे स्वर से दहाड़ा। राजा अपने दरबारियों के साथ सब कुछ गौर से देख रहे थे। उन्होंने दरबारियों को कहा कि इन्सान में मूल प्रवृतियां शेर के बच्चे की तरह ही जन्म से होती हैं।

अवसर पाकर वे प्रवृतियां स्वतरू उजागर हो जाती हैं जैसे कि इस शावक के साथ हुआ। बकरियों के साथ रहते हुए उसकी सिंह वाली प्रवृत्ति छिप गई थी, मगर स्वतंत्र रूप से विचरण करने पर अपने—आप प्रकट हो गई। उसे यह सब किसी ने नहीं सिखाया, लेकिन मनुष्य का सम्मान कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए।

सभी सहमत हो गए, मगर एक मन्त्री राजा की बातों से सहमत नहीं हुआ। उसका मानना था कि विक्रम राजकुल में पैदा होने के कारण ही राजा हुए अन्यथा सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी राजा नहीं होते। राजा मुस्कराकर रह गए।

समय बीतता रहा। एक दिन उनके दरबार में एक नाविक सुन्दर फूल लेकर उपस्थित हुआ। फूल सचमुच विलक्षण था और लोगों ने पहली बार इतना सुन्दर लाल फूल देखा था। राजा ने फूल के उद्‌गम स्थल का पता लगाने भेज दिया।

वे दोनों उस दिशा में नाव से बढ़ते गए जिधर से फूल बहकर आया था। नदी की धारा कहीं अत्यधिक संकरी और तीव्र हो जाती थी, कहीं चट्टानों के ऊपर से बहती थी। काफी दुर्गम रास्ता था। बहते—बहते नाव उस जगह पहुंची जहां किनारे पर एक अद्‌भुत दृश्य था।

एक बड़े पेड़ पर एक योगी जंजीरों से जकड़ा उल्टा लटका हुआ था। जंजीरों की रगड़ से उसके शरीर पर कई गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से रक्त चू रहा था जो नदी में गिरते ही रक्तवर्ण पुष्पों में बदल जाता था।

कुछ दूरी पर ही कुछ साधु बैठे तपस्या में लीन थे। जब वे कुछ और फूल लेकर दरबार में वापस लौटे तो मंत्री ने राजा को सब कुछ बताया।

तब विक्रम ने उसे समझाया कि उस उलटे लटके योगी को राजा समझो और अन्य साधनारत संन्यासी उसके दरबारी हुए। पूर्वजन्म का यह कर्म उन्हें राजा या दरबारी बनाता है। अब मन्त्री को राजा की बात समझ में आ गई।

उसने मान लिया कि पूर्वजन्म के कर्म के फल के रूप में ही किसी को राजगद्दी मिलती है।

चौबीसवीं पुतली करुणावती की कहानी

चौबीसवीं पुतली करुणावती ने जो कथा कही वह इस प्रकार है— राजा विक्रमादित्य का सारा समय ही अपनी प्रजा के दुखों का निवारण करने में बीतता था। प्रजा की किसी भी समस्या को वे अनदेखा नहीं करते थे। सारी समस्याओं की जानकारी उन्हें रहे, इसलिए वे भेष बदलकर रात में पूरे राज्य में, आज किसी हिस्से में, कल किसी और में घूमा करते थे।

उनकी इस आदत का पता चोर—डाकुओं को भी था, इसलिए अपराध की घटनाएं छिट—पुट ही हुआ करती थीं। विक्रम चाहते थे कि अपराध बिलकुल मिट जाएं ताकि लोग निर्भय होकर एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करें तथा चौन की नींद सो सकें।

ऐसे ही एक रात विक्रम वेश बदलकर राज्य के एक हिस्से में घूम रहे थे कि उन्हें एक बड़े भवन से लटकता एक कमन्द नजर आया। इस कमन्द के सहारे जरूर कोई चोर ही ऊपर की मंजिल तक गया होगा, यह सोचकर वे कमन्द के सहारे ऊपर पहुंचे।

उन्होंने अपनी तलवार हाथों में ले ली ताकि सामना होने पर चोर को मौत के घाट उतार सकें। तभी उनके कानों में स्त्री की धीमी आवाज पड़ी श्तो चोर कोई स्त्री हैश्, यह सोचकर वे उस कमरे की दीवार से सटकर खड़े हो गए जहां से आवाज आ रही थी।

कोई स्त्री किसी से बगल वाले कमरे में जाकर किसी का वध करने को कह रही थी। उसका कहना था कि बिना उस आदमी का वध किए हुए किसी अन्य के साथ उसका सम्बन्ध रखना असम्भव है। तभी एक पुरुष स्वर बोला कि वह लुटेरा अवश्य है, मगर किसी निरपराध व्यक्ति की जान लेना उसके लिए सम्भव नहीं है।

वह स्त्री को अपने साथ किसी सुदूर स्थान जाने के लिए कह रहा था और उसे विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि उसके पास इतना अधिक धन है कि बाकी बची जिन्दगी वे दोनों आराम से बसर कर लेंगे। वह स्त्री अन्त में उससे दूसरे दिन आने के लिए बोली, क्योंकि उसे धन बटोरने में कम से कम चौबीस घंटे लग जाते।

राजा समझ गए कि पुरुष उस स्त्री का प्रेमी है तथा स्त्री उस सेठ की पत्नी है जिसका यह भवन है। सेठ बगल वाले कमरे में सो रहा है और सेठानी उसके वध के लिए अपने प्रेमी को उकसा रही थी। राजा कमन्द पकड़कर नीचे आ गए और उस प्रेमी का इन्तजार करने लगे।

थोड़ी देर बाद सेठानी का प्रेमी कमन्द से नीचे आया तो राजा ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा उसे बता दिया कि उसके सामने विक्रम खड़े हैं। वह आदमी डर से थर—थर कांपने लगा और प्राण दण्ड के भय से उसकी घिघ्घी बंध गई। जब राजा ने उसे सच बताने पर मृत्यु दण्ड न देने का वायदा किया तो उसने अपनी कहानी इस प्रकार बताई—

मैं बचपन से ही उससे प्रेम करता था तथा उसके साथ विवाह के सपने संजोए हुए था। मेरे पास भी बहुत सारा धन था क्योंकि मेरे पिता एक बहुत ही बड़े व्यापारी थे। लेकिन मेरे सुखी भविष्य के सारे सपने धरे—के—धरे रह गए।

एक दिन मेरे पिताजी का धन से भरा जहाज समुद्री डाकुओं ने लूट लिया। लूट की खबर पाते ही मेरे पिताजी के दिल को ऐसा धक्का लगा कि उनके प्राण निकल गए। हम लोग कंगाल हो गाए। मैं अपनी तबाही का कारण उन समुद्री डाकुओं को मानकर उनसे बदला लेने निकल पड़ा।

कई वषोर्ं तक ठोकर खाने के बाद मुझे उनका पता चल ही गया। मैंने बहुत मुश्किल से उनका विश्वास जीता तथा उनके दल में शामिल हो गया। अवसर पाते ही मैं किसी एक का वध कर देता। एक—एक करके मैंने पूरे दल का सफाया कर दिया और लूट से जो धन उन्होंने एकत्र किया था, वह लेकर अपने घर वापस चला आया।

वह आदमी रोता हुआ राजा के चरणों में गिर पड़ा तथा अपना अपराध क्षमा करने के लिए प्रार्थना करने लगा। राजा ने मृत्युदण्ड के बदले उसे वीरता और सत्यवादिता के लिए ढेरों पुरस्कार दिए। उस आदमी की आंखें खुल चुकी थीं।

दूसरे दिन रात को उस प्रेमी का भेष धरकर वे कमन्द के सहारे उसकी प्रेमिका के पास पहुंचे। उनके पहुंचते ही उस स्त्री ने स्वर्णाभूषणों की बड़ी सी थैली उन्हें अपना प्रेमी समझकर पकड़ा दी और बोली कि उसने विष खिलाकर सेठ को मार दिया और सारे स्वर्णाभूषण और हीरे—जवाहरात चुनकर इस थैली में भर लिए।

जब राजा कुछ नहीं बोले तो उसे शक हुआ और उसने नकली दाढ़ी—मूंछ नोच ली। किसी अन्य पुरुष को पाकर श्चोर—चोरश् चिल्लाने लगी तथा राजा को अपने पति का हत्यारा बताकर विलाप करने लगी। राजा के सिपाही और नगर कोतवाल नीचे छिपे हुए थे।

वे दौड़कर आए और राजा के आदेश पर उस हत्यारी चरित्रहीन स्त्री को गिरफ्तार कर लिया। उस स्त्री को समझते देर नहीं लगी कि भेष बदलकर आया हुआ पुरुष खुद विक्रम थे। उसने झट से विष की शीशी निकाली और विषपान कर लिया।