Part-8- Sinhasan Battisi books and stories free download online pdf in Hindi

भाग-८ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 08


© COPYRIGHTS


This book is copyrighted content of the concerned author as well as NicheTech / Hindi Pride.


Hindi Pride / NicheTech has exclusive digital publishing rights of this book.


Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.


NicheTech / Hindi Pride can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

सिंहासन बत्तीसी

उनतीसवीं पुतली मानवती की कहानी

तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी की कहानी

इकत्तीसवीं पुतली कौशल्या की कहानी

बत्तीसवीं पुतली रानी रूपवती की कहानी

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

उनतीसवीं पुतली मानवती की कहानी

उनतीसवीं पुतली मानवती ने इस प्रकार कथा सुनाई— राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर रात में घूमा करते थे। ऐसे ही एक दिन घूमते—घूमते नदी के किनारे पहुंच गए। चांदनी रात में नदी का जल चमकता हुआ बड़ा ही प्यारा दृश्य प्रस्तुत कर रहा था।

विक्रम चुपचाप नदी तट पर खड़े थे तभी उनके कानों में श्बचाओ—बचाओश् की तेज आवाज पड़ी। वे आवाज की दिशा में दौड़े तो उन्हें नदी की वेगवती धारा से जूझते हुए दो आदमी दिखाई पड़े। गौर से देखा तो उन्हें पता चला कि एक युवक और एक युवती तैरकर किनारे आने की चेष्टा में हैं, मगर नदी की धाराएं उन्हें बहाकर ले जाती हैं।

विक्रम ने बड़ी फुर्ती से नदी में छलांग लगा दी और दोनों को पकड़कर किनारे ले आए। युवती के अंग—अंग से यौवन छलक रहा था। वह अत्यन्त रूपसी थी। उसका रूप देखकर अप्सराएं भी लज्जित हो जातीं। कोई तपस्वी भी उसे पास पाकर अपनी तपस्या छोड़ देता और गृहस्थ बनकर उसके साथ जीवन गुजारने की कामना करता।

दोनों कृतज्ञ होकर अपने प्राण बचाने वाले को देख रहे थे। युवक ने बताया कि वे अपने परिवार के साथ नौका से कहीं जा रहे थे। नदी के बीच में वे भंवर को नहीं देख सके और उनकी नौका भंवर में जा फंसी। भंवर से निकलने की उन लोगों ने लाख कोशिश की, पर सफल नहीं हो सके। उनके परिवार के सारे सदस्य उस भंवर में समा गए, लेकिन वे दोनों किसी तरह यहां तक तैरकर आने में कामयाब हो गए।

राजा ने उनका परिचय पूछा तो युवक ने बताया कि दोनों भाई—बहन है और सारंग देश के रहने वाले हैं। विक्रम ने कहा कि उन्हें सकुशल अपने देश भेज दिया जाएगा। उसके बाद उन्होंने उन्हें अपने साथ चलने को कहा और अपने महल की ओर चल पड़े।

राजमहल के नजदीक जब वे पहुंचे तो विक्रम को प्रहरियों ने पहचान कर प्रणाम किया। युवक—युवती को तब जाकर मालूम हुआ कि उन्हें अपने प्राणों की परवाह किए बिना बचाने वाला आदमी स्वयं महाराजाधिराज थे। अब तो वे और कृतज्ञताभरी नजरों से महाराज को देखने लगे।

महल पहुंचकर उन्होंने नौकर—चाकरों को बुलाया तथा सारी सुविधाओं के साथ उनके ठहरने का इंतजाम करने का निर्देश दिया। अब तो दोनों का मन महाराज के प्रति और अधिक आदरभाव से भर गया।

वह युवक अपनी बहन के विवाह के लिए काफी चिन्तित रहता था। उसकी बहन राजकुमारियों से भी सुन्दर थी, इसलिए वह चाहता था कि किसी राजा से उसकी शादी हो। मगर उसकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी और वह अपने इरादे में कामयाब नहीं हो पा रहा था।

जब संयोग से राजा विक्रमादित्य से उसकी भेंट हो गई तो उसने सोचा कि क्यों न विक्रम को उसकी बहन से शादी का प्रस्ताव दिया जाए। यह विचार आते ही उसने अपनी बहन को ठीक से तैयार होने को कहा तथा उसे साथ लेकर राजमहल उनसे मिलने चल पड़ा। उसकी बहन जब सजकर निकली तो उसका रूप देखने लायक था। उसके रूप पर देवता भी मोहित हो जाते, मनुष्य की तो कोई बात ही नहीं।

जब वह राजमहल आया तो विक्रम ने उससे उसका हाल—चाल पूछा तथा कहा कि उसके जाने का समुचित प्रबन्ध कर दिया गया है। उसने राजा की कृतज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि उन्होंने जो उपकार उस पर किए उसे आजीवन वह नहीं भूलेगा। उसके बाद उसने विक्रम से एक छोटा—सा उपहार स्वीकार करने को कहा। राजा ने मुस्कराकर अपनी अनुमति दे दी।

राजा को प्रसन्न देखकर उसने सोचा कि वे उसकी बहन पर मोहित हो गए हैं। उसका हौसला बढ़ गया। उसने कहा कि वह अपनी बहन उनको उपहार देना चाहता है। विक्रम ने कहा कि उसका उपहार उन्हें स्वीकार है।

अब उसको पूरा विश्वास हो गया कि विक्रम उसकी बहन को रानी बना लेंगे। तभी राजा ने कहा कि आज से तुम्हारी बहन राजा विक्रमादित्य की बहन के रूप में जानी जाएगी तथा उसका विवाह वह कोई योग्य वर ढूंढकर पूर्ण धूमधाम से करेंगे।

वह विक्रम का मुंह ताकता रह गया। उसे सपने में भी भान नहीं था कि उसकी बहन की सुन्दरता को अनदेखा कर विक्रम उसे बहन के रूप में स्वीकार करेंगे। क्या कोई ऐश्वर्यशाली राजा विषय—वासना से इतना ऊपर रह सकता है।

थोड़ी देर बाद उसने संयत होकर कहा कि उदयगिरि का राजकुमार उदयन उसकी बहन की सुन्दरता पर मोहित है तथा उससे विवाह की इच्छा भी व्यक्त कर चुका है। राजा ने एक पंडित को बुलाया तथा बहुत सारा धन भेंट के रूप में देकर उदयगिरि राज्य विवाह का प्रस्ताव लेकर भेजा। पंडित उसी शाम लौट गया और उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं।

पूछने पर उसने बताया कि राह में कुछ डाकुओं ने घेरकर सारा धन लूट लिया। सुनकर राजा स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी अच्छी शासन व्यवस्था के बावजूद भी डाकू—लुटेरे कैसे सक्रिय हो गए? इस बार उन्होंने पंडित को कुछ अश्वारोहियों के साथ धन लेकर भेजा।

उसी रात विक्रम वेश बदलकर उन डाकुओं का पता लगाने निकल पड़े। वे उस निर्जन स्थान पर पहुंचे जहां पंडित को लूट लिया गया था। एक तरफ उन्हें चार आदमी बैठे दिख पड़े। राजा समझ गए कि वे लुटेरे हैं। विक्रम को कोई गुप्तचर समझा। राजा ने उनसे भयभीत नहीं होने को कहा और अपने आपको भी उनकी तरह एक चोर ही बताया।

इस पर उन्होंने कहा कि वे चोर नहीं बल्कि इज्जतदार लोग हैं और किसी खास मसले पर विचार—विमर्श के लिए एकांत की खोज में यहां पहुंचे हैं।

राजा ने उनसे बहाना न बनाने के लिए कहा और उन्हें अपने दल में शामिल कर लेने को कहा। तब चोरों ने खुलासा किया कि उन चारों में चार अलग—अलग खूबियां हैं। एक चोरी का शुभ मुहूर्त निकालता था, दूसरा परिन्दे—जानवरों की जबान समझता था, तीसरा अदृश्य होने की कला जानता था तथा चौथा भयानक से भयानक यातना पाकर भी उफ तक नहीं करता था।

विक्रम ने उनका विश्वास जीतने के लिए कहा— श्मैं कहीं भी छिपाया धन देख सकता हूं।' जब उन्होंने यह विशेषता सुनी तो विक्रम को अपनी टोली में शामिल कर लिया।

उसके बाद उन्होंने अपने ही महल के एक हिस्से में चोरी करने की योजना बनाई। उस जगह पर शाही खजाने का कुछ माल छिपा था। वे चोरों को वहां लेकर आए तो चारों चोर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने खुशी—खुशी सारा माल झोली में डाला और बाहर निकलने लगे। चौकस प्रहरियों ने उन्हें पकड़ लिया।

सुबह जब राजा के दरबार में बंदी बनाकर उन्हें पेश किया गया तो वे डर से पत्ते की तरह कांपने लगे। उन्होंने अपने पांचवें साथी को सिंहासन पर आरुढ़ देखा। वे गुमसुम खड़े राजदंड की प्रतीक्षा करने लगे।

मगर विक्रम ने उन्हें कोई दंड नहीं दिया। उन्हें अभयदान देकर उन्होंने उनसे अपराध न करने का वचन लिया और अपनी खूबियों का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए करने का आदेश दिया। चारों ने मन ही मन अपने राजा की महानता स्वीकार कर ली और भले आदमियों की तरह जीवन—यापन का फैसला कर लिया। राजा ने उन्हें सेना में बहाल कर लिया।

उदयन ने भी राजा विक्रम की मुंहबोली बहन से शादी का प्रस्ताव प्रसन्न होकर स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में विक्रम ने उसी धूमधाम से उसकी शादी उदयन के साथ कर दी जिस तरह किसी राजकुमारी की होती है।

तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी की कहानी

राजा विक्रमादित्य जितने बड़े राजा थे उतने ही बड़े तपस्वी। उन्होंने अपने तप से जान लिया कि वे अब अधिक से अधिक छरू महीने जी सकते हैं। अपनी मृत्यु को आसन्न समझकर उन्होंने वन में एक कुटिया बनवा ली तथा राजकाज से बचा हुआ समय साधना में बिताने लगे।

एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आ रहे थे कि उनकी नजर एक मृग पर पड़ी। मृग अद्‌भुत था और ऐसा मृग विक्रम ने कभी नहीं देखा था। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर दूसरा हाथ तरकश में डाला ही था कि मृग उनके समीप आकर मनुष्य की बोली में उनसे अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। विक्रम को उस मृग को मनुष्यों की तरह बोलते हुए देख बड़ा आश्चर्य हुआ और उनका हाथ स्वतरू थम गया।

विक्रम ने उस मृग से पूछा कि वह मनुष्यों की तरह कैसे बोल लेता है तो वह बोला कि यह सब उनके दर्शन के प्रभाव से हुआ है। विक्रम की जिज्ञासा अब और बढ़ गई। उन्होंने उस मृग से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसने बताना शुरू किया?

मैं जन्मजात मृग नहीं हूं। मेरा जन्म मानव कुल में एक राजा के यहां हुआ। अन्य राजकुमारों की भांति मुझे भी शिकार खेलने का बहुत शौक था। शिकार के लिए मैं अपने घोड़े पर बहुत दूर तक घने जंगलों में घुस जाता था।

एक दिन मुझे कुछ दूरी पर मृग होने का आभास हुआ और मैंने आवाज को लक्ष्य करके एक बाण चलाया।

दरअसल वह आवाज एक साधनारत योगी की थी जो बहुत धीमे स्वर में मंत्रोच्चार कर रहा था। तीर उसे तो नहीं लगा, पर उसकी कनपटी को छूता हुआ पूरे वेग से एक वृक्ष के तने में घुस गया। मैं अपने शिकार को खोजते—खोजते वहां तक पहुंचा तो पता चला मुझसे कैसा अनिष्ट होने से बच गया।

योगी की साधना में विघ्न पड़ा था, इसलिए वह काफी क्रुद्ध हो गया था। उसने जब मुझे अपने सामने खड़ा पाया तो समझ गया कि वह बाण मैंने चलाया था। उसने लाल आंखों से घूरते हुए मुझे श्राप दे दिया। उसने कहा— श्ओ मृग का शिकार पसंद करने वाले मूर्ख युवक, आज से खुद मृग बन जा। तब से आज तक आखेटकों से अपने प्राणों की रक्षा करता आ रहा हूं।'

उसने श्राप इतनी जल्दी दे दिया कि मुझे अपनी सफाई में कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला। श्राप की कल्पना से ही मैं भय से सिहर उठा। मैं योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा उससे श्राप मुक्त करने की प्रार्थना करने लगा।

मैंने रो—रोकर उससे कहा कि उसकी साधना में विघ्न उत्पन्न करने का मेरा कोई इरादा नहीं था और यह सब अनजाने में मुझसे हो गया। मेरी आंखों में पश्चाताप के आंसू देखकर उस योगी को दया आ गई। उसने मुझसे कहा कि श्राप वापस तो नहीं लिया जा सकता, लेकिन वह उस श्राप के प्रभाव को सीमित जरूर कर सकता है।

मैंने कहा कि जितना अधिक संभव है उतना वह श्राप का प्रभाव कम कर दे तो उसने कहा— श्तुम मृग बनकर तब तक भटकते रहोगे जब तक महान यशस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाएं। विक्रमादित्य के दर्शन से ही तुम मनुष्यों की भांति बोलना शुरू कर दोगे।'

विक्रम को अब जिज्ञासा हुई कि वह मनुष्यों की भांति बोल तो रहा है मगर मनुष्य में परिवर्तित नहीं हुआ है। उन्होंने उससे पूछा— श्तुम्हें मृग रूप से कब मुक्ति मिलेगी? कब तुम अपने वास्तविक रूप को प्राप्त करोगे?

वह श्रापित राजकुमार बोला— श्इससे भी मुझे मुक्ति बहुत शीघ्र मिल जाएगी। उस योगी के कथनानुसार मैं अगर आपको साथ लेकर उसके पास जाऊं तो मेरा वास्तविक रूप मुझे तुरन्त ही वापस मिल जाएगा।'

विक्रम खुश थे कि उनके हाथ से शापग्रस्त राजकुमार की हत्या नहीं हुई अन्यथा उन्हें निरपराध मनुष्य की हत्या का पाप लग जाता और वे ग्लानि तथा पश्चाताप की आग में जल रहे होते। उन्होंने मृगरूपी राजकुमार से पूछा— श्क्या तुम्हें उस योगी के निवास के बारे में कुछ पता है? क्या तुम मुझे उसके पास लेकर चल सकते हो?'

उस राजकुमार ने कहा— श्हां, मैं आपको उसकी कुटिया तक अभी लिए चल सकता हूं। संयोग से वह योगी अभी भी इसी जंगल में थोड़ी दूर पर साधना कर रहा है।'

वह मृग आगे—आगे चला और विक्रम उसका अनुसरण करते—करते चलते रहे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्हें एक वृक्ष पर उलटा होकर साधना करता एक योगी दिखा। उनकी समझ में आ गया कि राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा था। वे जब समीप आए तो वह योगी उन्हें देखते ही वृक्ष से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने विक्रम का अभिवादन किया तथा दर्शन देने के लिए उन्हें नतमस्तक होकर धन्यवाद दिया।

विक्रम समझ गए कि वह योगी उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह उनकी प्रतीक्षा क्यों कर रहा था?

पूछने पर उसने उन्हें बताया कि सपने में एक दिन इन्द्रदेव ने उन्हें दर्शन देकर कहा था कि महाराजा विक्रमादित्य ने अपने कमोर्ं से देवताओं—सा स्थान प्राप्त कर लिया है तथा उनके दर्शन प्राप्त करने वाले को इन्द्रदेव या अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। श्मैं इतनी कठिन साधना सिर्फ आपके दर्शन का लाभ पाने के लिए कर रहा था।'— उस योगी ने कहा।

विक्रम ने पूछा कि अब तो उसने उनके दर्शन प्राप्त कर लिए, क्या उनसे वह कुछ और चाहता है। इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इन्द्रदेव के मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी—खुशी वह माला उसे दे दी। योगी ने उनका आभार प्रकट किया ही था कि श्रापित राजकुमार फिर से मानव बन गया। उसने पहले विक्रम के फिर उस योगी के पांव छूए।

राजकुमार को लेकर विक्रम अपने महल आए। दूसरे दिन अपने रथ पर उसे बिठा उसके राज्य चल दिए। मगर उसके राज्य में प्रवेश करते ही सैनिकों की टुकड़ी ने उनके रथ को चारों ओर से घेर लिया तथा राज्य में प्रवेश करने का उनका प्रयोजन पूछने लगे।

राजकुमार ने अपना परिचय दिया और रास्ता छोड़ने को कहा। उसने जानना चाहा कि उसका रथ रोकने की सैनिकों ने हिम्मत कैसे की? सैनिकों ने उसे बताया कि उसके माता—पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया है और अब इस राज्य पर किसी और का अधिकार हो चुका है।

चूंकि राज्य पर अधिकार करते वक्त राजकुमार का कुछ पता नहीं चला, इसलिए चारों तरफ गुप्तचर उसकी तलाश में फैला दिए गए थे। अब उसके खुद हाजिर होने से नए शासक का मार्ग और प्रशस्त हो गया है।

राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना परिचय नहीं दिया और खुद को राजकुमार के दूत के रूप में पेश करते हुए कहा कि उनका एक संदेश नए शासक तक भेजा जाए। उन्होंने उस टुकड़ी के नायक को कहा कि नए शासक के सामने दो विकल्प हैं— या तो वह असली राजा और रानी को उनका राज्य सौंपकर चला जाए या युद्ध की तैयारी करे।

उस सेनानायक को बड़ अजीब लगा। उसने विक्रम का उपहास करते हुए पूछा कि युद्ध कौन करेगा? क्या वही दोनों युद्ध करेंगे? उसको उपहास करते देख उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने तलवार निकाली और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए शासक को खबर की। वह तुरन्त सेना लेकर उनकी ओर दौड़ा।

विक्रम इस हमले के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा बेतालों ने उनका आदेश पाकर रथ को हवा में उठा लिया। उन्होंने वह तिलक लगाया जिससे अदृश्य हो सकते थे और रथ से कूद गए। अदृश्य रहकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर—मूली की तरह काटना शुरू कर दिया।

जब सैकड़ों सैनिक मारे गए और दुश्मन नजर नहीं आया तो सैनिकों में भगदड़ मच गई और राजा को वहीं छोड़ अधिका।'ा सैनिक रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई पैशाचिक शक्ति उनका मुकाबला कर रही है। नए शासक का चेहरा देखने लायक था। वह आश्चर्यचकित और भयभीत था ही, हताश भी दिख रहा था।

उसे हतप्रभ देख विक्रम ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा अपने वास्तविक रूप में आ गए। उन्होंने उस शासक से अपना परिचय देते हुए कहा कि या तो वह इसी क्षण यह राज्य छोड़कर भाग जाए या प्राण दण्ड के लिए तैयार रहे। वह शासक विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था तथा उनका शौर्य आंखों से देख चुका था, अतरू वह उसी क्षण उस राज्य से भाग गया।

वास्तविक राजा—रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जंगल पड़ा। उस जंगल में एक मृग उनके पास आया तथा एक सिंह से अपने को बचाने को बोला। मगर महाराजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की। वे भगवान के बनाए नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते थे। सिंह भूखा था और मृग आदि जानवर ही उसकी क्षुधा शांत कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने सिंह को मृग का शिकार करने दिया।

इकत्तीसवीं पुतली कौशल्या की कहानी

राजा विक्रमादित्य वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया कि उनका अंत अब काफी निकट है। वे राजकाज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे। उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक आवास बना रखा था।

एक दिन उसी आवास में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा। उन्होंने गौर से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा है।

इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर भवन दिखाई पड़ा। उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया।

उनके आदेश पर बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी ने तंत्र का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उसका निवास है। उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उस योगी से अधिक हो।

विक्रम ने सच जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया। वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उस योगी से अधिक है या नहीं। चलते—चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए। एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिंड आया और उनके पास स्थिर हो गया।

उसी समय भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा। वह अग्निपिंड सरककर पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ हो गया। विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज उनसे उनका परिचय पूछने लगी। उसने कहा कि सब कुछ साफ—साफ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भस्म कर देगा।

विक्रम तब तक कक्ष में पहुंच चुके थे और उन्होंने देखा कि योगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने जब उसे बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया। उसने कहा कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उसे नहीं थी।

योगी ने उनका खूब आदर—सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ मांगने को बोला। राजा विक्रमादित्य ने उससे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन मांग लिया।

विक्रम को वह भवन सौंपकर योगी उसी वन में कहीं चला गया। चलते—चलते वह काफी दूर पहुंचा तो उसकी भेंट अपने गुरु से हुई। उसके गुरु ने उससे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोला कि भवन उसने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उसके गुरु को हंसी आ गई।

उसने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेगा और उसने उसे विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रूप में अपना भवन फिर से मांग लेने को कहा। वह वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिला जिसमें वे साधना करते थे। उसने रहने की जगह की याचना की।

विक्रम ने उससे अपनी इच्छित जगह मांगने को कहा तो उसने वह भवन मांगा। विक्रम ने मुस्कराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे। उन्होंने बस उसकी परीक्षा लेने के लिए उससे वह भवन लिया था।

इस कथा के बाद इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की। वह बोली— राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, वे थे तो मानव ही। मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी। उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी। जब उनकी चिता सजी तो उनकी सभी रानियां उस चिता पर सती होने को चढ़ गईं। उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की।

उनके बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को राजा घोषित किया गया। उसका धूमधाम से तिलक हुआ। मगर वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका। उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है?

वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए। उन्होंने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा। उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य—प्रताप तथा यश से उस सिंहासन पर बैठने लायक होगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे।

मगर विक्रम उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि सिंहासन का किया क्या जाए? पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम सपने में आए। सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को जमीन में गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी।

उन्होंने कहा कि जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण—सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन खुद—ब—खुद उसके अधिकार में चला जाएगा।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह मजदूरों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें दबवा दिया। वह खुद अम्बावती को नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा।

बत्तीसवीं पुतली रानी रूपवती की कहानी

बत्तीसवीं पुतली रानी रूपवती ने राजा भोज को सिंहासन पर बैठने की कोई रुचि नहीं दिखाते देखा तो उसे अचरज हुआ। उसने जानना चाहा कि राजा भोज में आज पहले वाली व्यग्रता क्यों नहीं है?

राजा भोज ने कहा कि राजा विक्रमादित्य के देवताओं वाले गुणों की कथाएं सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि इतनी विशेषताएं एक मनुष्य में असम्भव हैं और मानते हैं कि उनमें बहुत सारी कमियां हैं। अतरू उन्होंने सोचा है कि सिंहासन को फिर वैसे ही उस स्थान पर गड़वा देंगे जहां से इसे निकाला गया है।

राजा भोज का इतना बोलना था कि सारी पुतलियां अपनी रानी के पास आ गईं। उन्होंने हर्षित होकर राजा भोज को उनके निर्णय के लिए धन्यवाद दिया।

पुतलियों ने उन्हें बताया कि आज से वे भी मुक्त हो गईं। आज से यह सिंहासन बिना पुतलियों का हो जाएगा। उन्होंने राजा भोज को विक्रमादित्य के गुणों का आंशिक स्वामी होना बतलाया तथा कहा कि इसी योग्यता के चलते उन्हें इस सिंहासन के दर्शन हो पाए।

उन्होंने यह भी बताया कि आज से इस सिंहासन की आभा कम पड़ जाएगी और धरती की सारी चीजों की तरह इसे भी पुराना पड़कर नष्ट होने की प्रक्रिया से गुजरना होगा।

इतना कहकर उन पुतलियों ने राजा से विदा ली और आकाश की ओर उड़ गईं। पलक झपकते ही सारी की सारी पुतलियां आकाश में विलीन हो गईं।

पुतलियों के जाने के बाद राजा भोज ने कर्मचारियों को बुलवाया तथा गड्ढा खुदवाने का निर्देश दिया। जब मजदूर बुलवाकर गड़ढा खोद डाला गया तो वेद मन्त्रों का पाठ करवाकर पूरी प्रजा की उपस्थिति में सिंहासन को गड्ढे में दबवा दिया।

मिट्टी डालकर फिर वैसा ही टीला निर्मित करवाया गया जिस पर बैठकर चरवाहा अपने फैसले देता था, लेकिन नया टीला वह चमत्कार नहीं दिखा सका जो पुराने वाले टीले में था।

उपसंहार— कुछ भिन्नताओं के साथ हर लोकप्रिय संस्करण में उपसंहार के रूप में एक कथा और मिलती है। उसमें सिंहासन के साथ पुनरू दबवाने के बाद क्या गुजरा— यह वर्णित है। आधिकारिक संस्कृत संस्करण में यह उपसंहार रूपी कथा नहीं भी मिल सकती है, मगर जनसाधारण में काफी प्रचलित है।

कई साल बीत गए। वह टीला इतना प्रसिद्ध हो चुका था कि सुदूर जगहों से लोग उसे देखने आते थे। सभी को पता था कि इस टीले के नीचे अलौकिक गुणों वाला सिंहासन दबा पड़ा है। एक दिन चोरों के एक गिरोह ने फैसला किया कि उस सिंहासन को निकालकर उसके टुकड़े—टुकड़े कर बेच देना चाहिए। उन्होंने टीले से मीलों पहले एक गड्ढा खोदा और कई महीनों की मेहनत के बाद सुरंग खोदकर उस सिंहासन तक पहुंचे।

सिंहासन को सुरंग से बाहर लाकर एक निर्जन स्थान पर उन्होंने हथौड़ों के प्रहार से उसे तोड़ना चाहा। चोट पड़ते ही ऐसी भयानक चिंगारी निकलती थी कि तोड़ने वाले को जलाने लगती थी। सिंहासन में इतने सारे बहुमूल्य रत्न—माणिक्य जड़े हुए थे कि चोर उन्हें सिंहासन से अलग करने का मोह नहीं त्याग रहे थे।

सिंहासन पूरी तरह सोने से निर्मित था, इसलिए चोरों को लगता था कि सारा सोना बेच देने पर भी कई हजार स्वर्ण मुद्राएं मिल जाएगीं और उनके पास इतना अधिक धन जमा हो जाएगा कि उनके परिवार में कई पुरखों तक किसी को कुछ करने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

वे सारा दिन प्रयास करते रहे मगर उनके प्रहारों से सिंहासन को रत्तीभर भी क्षति नहीं पहुंची। उल्टे उनके हाथ चिंगारियों से झुलस गए और चिंगारियों को बार—बार देखने से उनकी आंखें दुखने लगीं। वे थककर बैठ गए और सोचते—सोचते इस नतीजे पर पहुंचे कि सिंहासन भुतहा है। भुतहा होने के कारण ही राजा भोज ने इसे अपने उपयोग के लिए नहीं रखा।

महल में इसे रखकर जरूर ही उन्हें कुछ परेशानी हुई होगी, तभी उन्होंने ऐसे मूल्यवान सिंहासन को दोबारा जमीन में दबवा दिया। वे इसका मोह राजा भोज की तरह ही त्यागने की सोच रहे थे। तभी उनका मुखिया बोला कि सिंहासन को तोड़ा नहीं जा सकता, पर उसे इसी अवस्था में उठाकर दूसरी जगह ले जाया जा सकता है।

चोरों ने उस सिंहासन को अच्छी तरह कपड़े में लपेट दिया और उस स्थान से बहुत दूर किसी अन्य राज्य में उसे उसी रूप में ले जाने का फैसला कर लिया। वे सिंहासन को लेकर कुछ महीनों की यात्रा के बाद दक्षिण के एक राज्य में पहुंचे। वहां किसी को उस सिंहासन के बारे में कुछ पता नहीं था।

उन्होंने जौहरियों का वेश धरकर उस राज्य के राजा से मिलने की तैयारी की। उन्होंने राजा को वह रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन दिखाते हुए कहा कि वे बहुत दूर के रहने वाले हैं तथा उन्होंने अपना सारा धन लगाकर यह सिंहासन तैयार करवाया है।

राजा ने उस सिंहासन की शुद्धता की जांच अपने राज्य के बड़े—बड़े सुनारों और जौहरियों से करवाई। सबने उस सिंहासन की सुन्दरता और शुद्धता की तारीफ करते हुए राजा को वह सिंहासन खरीद लेने की सलाह दी। राजा ने चोरों को उसका मुंह मांगा मूल्य दिया और सिंहासन अपने बैठने के लिए ले लिया।

जब वह सिंहासन दरबार में लगाया गया तो सारा दरबार अलौकिक रोशनी से जगमगाने लगा। उसमें जड़े हीरों और माणिक्यों से बड़ी मनमोहक आभा निकल रही थी। राजा का मन भी ऐसे सिंहासन को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। शुभ मुहूर्त देखकर राजा ने सिंहासन की पूजा विद्वान पंडितों से करवाई और उस सिंहासन पर नित्य बैठने लगा।

सिंहासन की चर्चा दूर—दूर तक फैलने लगी। बहुत दूर—दूर से राजा उस सिंहासन को देखने के लिए आने लगे। सभी आने वाले उस राजा के भाग्य को धन्य कहते, क्योंकि उसे ऐसा अद्‌भुत सिंहासन पर बैठने का अवसर मिला था। धीरे—धीरे यह प्रसिद्धि राजा भोज के राज्य तक भी पहुंची। सिंहासन का वर्णन सुनकर उनको लगा कि कहीं विक्रमादित्य का सिंहासन न हो। उन्होंने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाकर विचार—विमर्श किया और मजदूर बुलवाकर टीले को फिर से खुदवाया।

खुदवाने पर उनकी शंका सत्य निकली और सुरंग देखकर उन्हें पता चल गया कि चोरों ने वह सिंहासन चुरा लिया। अब उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि वह राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरुढ़ कैसे हो गया? क्या वह राजा सचमुच विक्रमादित्य के समकक्ष गुणों वाला है?

उन्होंने कुछ कर्मचारियों को लेकर उस राज्य जाकर सब कुछ देखने का फैसला किया। काफी दिनों की यात्रा के बाद वहां पहुंचे तो उस राजा से मिलने उसके दरबार पहुंचे। उस राजा ने उनका पूरा सत्कार किया तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा। राजा भोज ने उस सिंहासन के बारे में राजा को सब कुछ बताया। उस राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि उसे सिंहासन पर बैठने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई।

राजा भोज ने ज्योतिषियों और पंडितों से विमर्श किया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हो सकता है कि सिंहासन अब अपना सारा चमत्कार खो चुका हो। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि सिंहासन अब सोने का न हो तथा रत्न और माणिक्य कांच के टुकड़े मात्र हों।

उस राजा ने जब ऐसा सुना तो कहा कि यह असंभव है। चोरों से उसने उसे खरीदने से पहले पूरी जांच करवाई थी, लेकिन जब जौहरियों ने फिर से उसकी जांच की तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। सिंहासन की चमक फीकी पड़ गई थी तथा वह एकदम पीतल का हो गया था। रत्न—माणिक्य की जगह कांच के रंगीन टुकड़े थे।

सिंहासन पर बैठने वाले राजा को भी बहुत आश्चर्य हुआ। उसने अपने ज्योतिषियों और पण्डितों से सलाह की तथा उन्हें गणना करने को कहा। उन्होंने काफी अध्ययन करने के बाद कहा कि यह चमत्कारी सिंहासन अब मृत हो गया है। इसे अपवित्र कर दिया गया और इसका प्रभाव जाता रहा।

उन्होंने कहा— श्अब इस मृत सिंहासन का शास्रोक्त विधि से अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। इसे जल में प्रवाहित कर दिया जाना चाहिए।'

उस राजा ने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाया तथा मजदूर बुलवाकर मंत्रोच्चार के बीच उस सिंहासन को कावेरी नदी में प्रवाहित कर दिया।

समय बीतता रहा। वह सिंहासन इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया। लोककथाओं और जन—श्रुतियों में उसकी चर्चा होती रही। अनेक राजाओं ने विक्रमादित्य का सिंहासन प्राप्त करने के लिए कालान्तर में एक से बढ़कर एक गोताखोरों को तैनात किया और कावेरी नदी को छान मारा गया। मगर आज तक उसकी झलक किसी को नहीं मिल पाई।

लोगों को विश्वास है कि आज भी विक्रमादित्य की सी खूबियों वाला अगर कोई शासक हो तो वह सिंहासन अपनी सारी विशेषताओं और चमक के साथ बाहर आ जाएगा।