Deh ke Dayre - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

देह के दायरे - 14

देह के दायरे

भाग - चौदह

देव बाबू तीन-चार दिन के लिए शहर से बाहर जा रहे थे | उनके एक मित्र का विवाह था और उसने बड़े आग्रह से उन्हें बुलाया था | उन्होंने पूजा से भी साथ चलने के लिए कहा मगर उन्हीं दिनों उसकी एक सहेली का विवाह था | वह साथ न जा सकी तो विवश देव बाबू को अकेले ही जाना पड़ा |

एक सप्ताह तक देव बाबू नहीं लौटे तो पूजा को चिन्ता हुई | आठवें दिन प्रतीक्षा करते हुए पूजा को उनका फोन मिला | पड़ोस के मकान में ही टेलीफोन था | पड़ोसिन के बुलाने पर पूजा भागती हुई वहाँ पहुँची |

“हैलो...|” दूसरी ओर से आती हुई देव बाबू की आवाज को पूजा पहचान गयी |

“मैं पूजा बोल रही हूँ देव |”

“कैसी हो तुम?”

“मैं तो ठीक हूँ, लेकिन तुम अभी तक लौटे क्यों नहीं? मुझे यहाँ चिन्ता हो रही है |”

“एक आवश्यक काम से यहाँ फँस गया हूँ पूजा, इसीलिए अभी तक नहीं आ सका |”

“कब तक लौटोगे?”

“मुझे लगभग महिना-भर लग जाएगा | ऐसा करना, तुम अपने पिताजी के पास चली जाना |”

“लेकिन ऐसा क्या जरुरी काम हो गया है?” पूजा ने पूछा, मगर दूसरी ओर से बिना कोई उत्तर दिए देव बाबू ने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया | पूजा हाथ में रिसीवर पकड़े झुँझलाकर रह गयी | उसे तो उनका टेलीफोन नम्बर और पता भी मालूम न था | रिसीवर को क्रेडिल पर पटकते हुए वह अपने कमरे में भाग आयी | उसका ह्रदय अन्दर से भर आया था | कमरा बन्द कर वह देर तक आँसू बहाती रही |

पूजा कुछ भी कर सकने में असमर्थ थी | उसकी इच्छा तो थी कि वह उड़कर पति के पास पहुँच जाए, मगर कैसे? उसे तो उनका पता भी मालूम न था | आखिर सन्ध्या को एक निश्चय करके वह उठी और कपड़ों की एक अटैची लेकर अपने पिताजी की पास चली गयी | पूजा के पिताजी उसके इस तरह अचानक अकेले आने पर चकित तो हुए मगर जब पूजा ने उन्हें सारी बात बतायी तो वे निश्चिन्त हो गए |

एक महीने के स्थान पर दो महीने व्यतीत हो गए थे | देव बाबू वापस नहीं लौटे थे | इधर पूजा बेचैनी से उनकी प्रतीक्षा कर रही थी और उसके पिताजी भी उनकी कोई सूचना न पाकर चिन्तित हो उठे थे |

आखिर एक दिन स्कूल के चपड़ासी ने आकर पूजा को देव बाबू के लौट आने की सुचना दी |

“लेकिन वे कब आए?” पूजा ने पूछा |

“अभी-अभी ही आए हैं | मुझे राह में ही मिल गए थे | मुझे देखा तो उन्होंने मुझे आपको बुलाने के लिए भेज दिया |”

“लेकिन वे यहाँ पर क्यों नहीं आए?” आश्चर्य से पूजा ने पूछा |

“उनकी तबीयत ठीक नहीं है |”

“क्यों, क्या बात है?” पूजा ने व्यग्रता से पूछा |

“कह रहे थे कि बहुत थका हुआ हूँ; तुम पूजा को मेरे आने की सुचना दे आओ |”

“थके हुए हैं!” पूजा ने झुँझलाते हुए सोचा, ‘दो महीने तक बाहर घूमते रहे तब नहीं थके और यहाँ तक आने के लिए वे थके हुए हैं!’

चपड़ासी सुचना देकर चला गया |

पूजा की झुँझलाहट अधिक देर तक स्थिर न रह सकी | वह सोच उठी कि कहीं वे सचमुच ही बीमार न हों | यह सोचकर वह तुरन्त जाने के लिए तैयार हो गयी | अपनी माँ को सुचना दे, वह अटैची लेकर वहाँ से चल पड़ी |

वहाँ पहुँचकर पूजा ने जब अपने पति को देखा, तो एकाएक देखती ही रह गयी | वे सुखकर काँटा हो गए थे | मुँह पीला हो गया था और आँखें अन्दर को धँस गयी थीं | एक बार को तो उन्हें पहचानने में भी धोखा हो सकता था |

“यह तुम्हें क्या हो गया है देव!” अधीरता से अटैची को वहीँ पटक, उनके पास बैठते हुए पूजा ने कहा |

“कुछ नहीं, यूँ ही जरा बीमार हो गया था | कमजोरी-सी आ गयी है |” कहने के साथ ही देव बाबू की आँखें छलछला उठीं | आँखों में उभरे आँसुओं को उसने गर्दन फिराकर पूजा से छिपाना चाहा |

पूजा ने पति का मुख अपनी हथेलियों में ले लिया | उनके आँसुओं ने उसे शंकित कर दिया था |

“क्या बात है देव, मुझसे छिपा रहे हो?”

“कुछ नहीं |”

“कुछ तो है | तुम्हारी आँखों के आँसू...|” कहते-कहते पूजा का गला भी भर आया |

“जाओ चाय तैयार करो | आते ही तंग करने बैठ गयीं |” कहकर देव बाबू ने मुँह मोड़ लिया |

सुनकर पूजा सन्न रह गयी | मन को एक झटका-सा लगा था | उसे लगा जैसे सैकड़ों बिजलियाँ एकसाथ उसपर गिर पड़ी हों | उसके पति दो माह के बाद लौटे थे और लौटने पर यह उपेक्षा? एक बार को तो उसे लगा जैसे वे उसके पति नहीं, उनके रूप में कोई और ही लौटकर आया है |

उस दिन पूजा ने अपमान का पहला कड़वा घूँट पिया था | उसके अन्दर अपमान की ज्वाला उठी थी और वह उठकर तेजी से रसोई में आ गयी थी |

दीवार पर लगे घंटे के टनटनाने से पूजा की चेतना लौटी | सुनहरे अतीत में खोए कब पाँच बज गए, उसे पता ही न चला | उसने देखा, पास में ही दुसरे पलंग पर उसके पति गहरी निद्रा में सो रहे थे | एक गहरी निश्वास-सी उसके मुँह से निकल गयी | अपने अतीत में वह कोई भी तो ऐसी घटना नहीं ढूँढ सकी थी जो उसके पति की उससे विमुखता का कारण बन सकती |

उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था | इच्छा हो रही थी कि जी-भरकर रो ले मगर आँखों के आँसू तो जैसे समाप्त ही हो गए थे | वह कुछ न सोच सकी और उसकी आँखें धीरे-धीरे फिर बन्द होती चली गयीं |