Itra ghule ahsas in Hindi Short Stories by Shashi Bansal Goyal books and stories PDF | इत्र घुले अहसास

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इत्र घुले अहसास

इत्र घुले अहसास


फ़ेरे हो चुके हैं , तमाम रस्मों-रिवाज को निपटाने के बाद कुछ देर विश्राम के लिए काज़ल को एक कमरे में छोड़ दिया गया।अकेलापन पाते ही उसकी आँखों से आँसुओं का सैलाब फूट पड़ा ।छत पर तेज़ी से घुमते पंखे के साथ अतीत के पन्ने फड़फड़ाने लगे । अचानक एक पन्ने ने खुलते ही आगे बढ़ने से इनकार कर दिया ,काज़ल के माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं ।चारों ओर अन्धकार की कालिमा फ़ैल गई ।पन्ने जहाँ थे , वहीं रुक गए। मुझे यानि काज़ल को हर पन्ने से उतनी शिकायत न थी ,जितनी उस ख़ास पन्ने से थी, जो इस समय मेरे सामने आकर रुक गया था ।फिर भी मैं सबसे ज्यादा इसी पन्ने को पढ़ना चाहती थी, छूना चाहती थी ,जीना चाहती थी ।

उस वर्ष सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी।भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे फूलों से बगिया सुसज्जित थी।मीठे अमरुदों की बहार से बाज़ार अटा पड़ा था ।जगह जगह गर्म कपड़ों की दुकानों में भीड़ उमड़ी जाती थी, और साँझ ढलते ही ये भीड़ घरों में अलाव जला बंद दरवाज़ों में कैद हो जाती । उस वक्त मेरी उम्र कोई चौदह पंद्रह वर्ष के बीच रही होगी । अपने काम से काम रखने और अन्तर्मुखी स्वभाव ने मुझे पारंपरिक सोच की महिलाओं के बीच खासा लोकप्रिय बना दिया था । जब मौका पाती , माँ के सामने प्रशंसा पुराण ले बैठतीं। मेरा बचपन जिन गलियों में गुजरा ,वह शहर के बीचों बीच बसा मौहल्ला था । जिसके भीतर धूप की एक भी किरण आने को तैयार न थी , उस हाड़ कंपा देने वाली सर्दी से परेशां हो चौके-चूल्हे से निपटते ही सभी महिलाएं छज्जे पर धुप सेंकने बैठ जातीं ।वैसे तो छज्जे बहुत बड़े नहीं थे,परंतु घरों की मिली हुई दीवारों और लगभग समान ऊँचाई ने उन्हें विस्तृता दे दी ।मुंडेर पर करीने से सजे बारहमासी, गेंदे, गुलाब ,सेवंती जैसे सुन्दर फूलों के गमले कभीकभार घर से निकलने वाली स्त्रियों को स्वर्ग सा आनंद देते, और हो जाती उनकी चर्चा शुरू।कभी स्वेटर के नए नमूनों पर , तो कभी खीचलों पर , कभी नींबू के अचार डाले जाते तो कभी भाजी तोड़ ली जाती।कभी साड़ी बिछा बड़ी-पापड़ छोड़े जाते तो दूजी ओर बच्चों की चिल्ला-पों मची होती ।साथ होती ढेरों रोकती-चिल्लाती गूँजती आवाज़ें.....।
" ए बंटी, खबरदार पापड़ को छूने की कोशिश की तो... "
" अरे मोड़ाओन तनक तो बैठ जाओ, पैरों में चकर घिन्नी लगा के पैदा हुए हो का... ?"
" ओफ्फो ओ , लाओ मुझे दो ये गेंद । आँख फूटते फूटते बची...।"
" सच्ची जीजी, आप के हाथ के नींबू के अचार का तो जवाब ही नहीं, जी करे , अँगुली चाटते रहो बस...।"

सर्दी के साथ छत-चौपाल भी अपने चरम पर होती ।नित -नवीन विषयों से चर्चा शुरू हो वापस चौके-चूल्हे ,नाते - रिश्तों पर आकर ठहर जातीं।ऐसी ही एक सर्द दोपहर में, उनका विषय बनी मैं ।

" संतो , तेरी काज़ल बिटिया बहुत सयानी है, मुहल्ले भर में उसके जैसी कोई ना है ।कक्षा में अव्वल, काम में अव्वल ।सीधे काम से जाना और आना , मज़ाल है कि आँख उठा के दाएँ-बाएँ झाँक तो ले.... मुझे तो ऐसी ही सुशील बहू चाहिए अपने राजू के लिए । कहो , ब्याहोगी अपनी बेटी को मेरे राजू के साथ...."

यह सुन कर मटर छीलते मेरे हाथ कांप उठे और दिल की धड़कनें शोखी से कुछ यूँ मचल गईं, जैसे पहले कभी नहीं मचली थीं , वह चुपके से मन की मनाही वाले कक्ष में आ कर बैठ गया।नज़रें खुद ब खुद लजा कर झुक गई ।

अम्मा भी कहाँ चुप रहने वाली थी , बिना विचारे झट बोल पड़ी , जैसे जरा मुँह खोलने में देर हुई नहीं कि रिश्ता हाथ से फिसला समझो ,और कहीं उनकी मोड़ी जन्म भर मायके ही पड़ी न रह जाये ,

" हाँ हाँ क्यों नहीं , तुमने तो मेरे मुख की बात छीन ली जिज्जी ! मुझे भी राजू जैसा गोरा-चिट्टा दामाद चिराग लेके ढूंढें से नहीं मिलेगा पूरे शहर में ...।" हा हा के ठहाकों के साथ दोपहर की चर्चा समाप्त हो चुकी थी ।

उम्र के उस दौर में नया नया प्रवेश था मेरा , जहाँ सपनों से परिचय शुरू होता है ।ठीक उसी समय ये हास्य से भरा मज़ाक मेरे जीवन में आ गया ।कुछ दिल दे बैठते हैं , कुछ परिस्थिति वश मजबूर हो जाते हैं । मैं भी उम्र के हाथों बेबस थी ।मेरे कोरे अंतर में प्रेम की कोपल कब प्रस्फुटित हो होले-होले फूलने-फलने लगी , मुझे खुद पता न चला। पर इतना अवश्य जान गई थी कि मैं अब पहले वाली काज़ल नहीं रही । वो काज़ल तो हरदम चौकन्नी हो काम करती थी , पर ये तो सदा अपने से ही बतियाती रहती है ।कभी गिलास गिराती है तो कभी उसकी आँखों के सामने ही दूध उफ़न जाता और उसे पता न चलता ।अपने भीतर हुए इस परिवर्तन का अहसास तब हुआ जब मैंने पाया कि मेरा सर्वस्व खोया खोया रहने लगा । नव उम्र कोमल शाख़ पर उगे नन्हे कंपकंपाते पत्तों की तरह मेरे होंठ भी लरज़ने लगे हैं , पलकों का पर्दा खुद ही लाज से मेरी आँखों को ढक रहा है, आईने के सामने घंटों खड़े हो खुद को निहारने लगी हूँ तो कभी दोनों हथेलियों से अपना ही मुँह छिपा लेती हूँ । उन दिनों मैं खुद में ही अनमोल हो गई ।उसके प्यार ने स्वयं से भी प्रेम करना सीखा दिया ।होठों से मुस्कान जाने का नाम ही न लेती ।मेरी हालत देख हवाएँ भी शरारत पर उतर आतीं, और कानों में मुझे छेड़ता सा गीत गुनगुना निकल जाती । दिल और दिमाग दोनों एक ही दिशा में दौड़ते ।आँखे हमेशा उसकी एक झलक पाने को तरसती रहतीं ।एक अजीब सी कशिश उसकी ओर खींचतीं रहती ।उस नए अद्भुत परिवर्तन ने मेरे तन मन को रोमांचित कर दिया था ।इतना सुखद अनुभव जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था , इसलिए स्वयं को रोकने की कोशिश भी न की मैंने ।दिल जिसने नया नया धड़कना सीखा था , लाख न चाहने पर भी उसका हो गया ।

नित नवीन रूपों के कल्पनाजाल में उलझती-सुलझती मैं उसके और अपने बीच के फासले को समझ न सकी । गलती मुझसे ज्यादा मेरी उम्र की थी , ख्यालों में कोई सपनों का राजकुमार जन्म लेता , इससे पहले ही उसकी छवि को चेहरा मिल गया ।जानती थी उसकी तस्वीर के फ्रेम में कभी नहीं उतर सकती, बावज़ूद इसके स्वयं को बहने के लिए ये सोचकर छोड़ दिया कि किनारा मिले या मंझधार , बढ़े हुए कदमों को रोकूँगी नहीं ।मैं प्रेम गर्वित इस विश्वास के साथ जी रही थी कि मेरा प्यार सच्चा है तो ये अलग अलग राहें एक दिन अवश्य किसी मोड़ पे आ मिलेंगी ।

नादानी की हद थी, ये जानने का प्रयास भी नहीं किया कि जिसके साथ मैं जीवन के स्वप्न देख रही हूँ , उसे इसकी खबर भी है या नहीं ।उसके हृदय में भी मेरे लिए कुछ अहसास हैं भी या नहीं ।लोग बदसूरती से डरते हैं , मैं उसकी ख़ूबसूरती से डर गई ।उसकी ना की छुअन बर्दाश्त नहीं कर सकती थी , इसलिए उसे मैंने अपने अहसास से अनभिज्ञ ही रखा ।वैसे भी जहाँ तक मैंने महसूस किया था , कहीं न कहीं वह मेरे प्यार को नहीं तो मेरे अपने प्रति आकर्षण को तो समझ ही चुका था ।फिर भी उसकी तरफ से कोई पहल न होना मुझे लेकर नापसंदगी को ही जाहिर करता था । मैं ठहरी प्रेम दीवानी , इससे कोई फर्क नहीं पड़ा मुझे । कहीँ गहरे ये विश्वास पैठ कर गया था , वो सिर्फ मेरा है , सिर्फ मेरा ।मेरी प्रेम साधना खुद ब खुद उसे मेरे करीब ला देगी ।

प्रेम की पराकाष्ठा यहाँ तक पहुँच चुकी थी, कि मैं उसे प्रेमी से पति और पति से एक प्यारी सी कली के पिता के रूप में देखने लगी ।जहाँ मैं कभी नाराज़ हूँ और वो मुझे मना रहा है , कभी मैं उसे भोजन परोसते हुए कनखियों से उसकी आँख में तैरती हुई प्रशंसा को निहार रही हूँ , कभी उसके सीने से लगकर इतरा रही हूँ , " देखो , जीत आखिर मेरे प्यार की ही हुई ।"मेरी दीवानगी पागलपन को पार कर चुकी थी । बिना उसके करीब गए , उसे छुए अपनी साँसों में महसूस करती,वह हर पल मेरे वज़ूद पर छाया रहता।उसकी कल्पनाएँ मुझे इतनी आनंदित करती रहीं, कि मुझे कभी उसके साथ की कमी नहीं खली ।

मैंने अपनी दुनिया के ख़्वाब अकेले ही बुने थे , इसलिए उसका दुःख भी अकेले ही झेलना था । मज़ाक मज़ाक ही रहा ।उसे मूर्त रूप देना तो दूर , दोबारा उस पर कभी चर्चा भी न हुई ।बात आई गई हो कर रह गई । किसी को भी मेरे कोमल मन का ख्याल न आया ।

विधि का लिखा एक बार फिर मेरे सामने था , वह विवाह कर रहा था उससे , जिससे वो प्यार करता था ।वह भी उसी की तरह सौंदर्य की मूर्ति थी ।मैं भीतर तक दरक गई ।मेरे अंतर का प्रेम ज्वालामुखी बन आँखों के रास्ते फूट पड़ा और बूँद बूँद हो इधर-उधर छितरा गया ।हर बूँद में झिलमिलाते खंडित सपने तैर रहे थे । कहीं वह मेरी कलाई पकड़ मुझे अपनी और खींच रहा था, तो कहीं मैं उसकी बाँहों में सिमटी थी , किसी बूँद में उसके हाथ मेरे बालों को सहला रहे होते तो किसी बूँद में नन्ही कली किलकारती मारते हुए गोद में आने को मचलती दिखती , हर बूँद रक्तरंजित थी ।हाँ रक्त ही तो बहा था , मेरे अरमानों का , मेरे अहसास का , मेरे प्यार का ।जहाँ संग नहीं था , वासना नहीं थी, सिर्फ कोरी कोमल कल्पनाएँ थीं , और उस पत्थर पर विश्वास था , जिसे लोग ईश्वर कहते हैं ।जिसके आगे हर दर पर हाथ जोड़ अपने प्यार को माँगा था ,परंतु उसने भी उसकी प्रेम-तपस्या को मज़ाक में ही लिया था ।

हाँ, पर राजू को इसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकती थी। उसने मुझे छला नहीं था , धोखा नहीं दिया था। गलती मेरी थी जो मज़ाक में तय किये रिश्ते को दिल से लगा बैठी थी , सच समझ बैठी थी ।उनकी तो हँसी-ठिठोली हुई , पर मेरी जीवनधारा बदल गई । प्रथम प्यार की खुशबू उससे शुरू होकर उसी पर ख़त्म हो गई ।प्यार जीवन में एक बार ही होता है , वो मैं उससे कर बैठी थी ।दूसरा कोई उसका स्थान नहीं ले सकता था । उसके प्यार ने मुझे भले ही बहुत तड़पाया हो , रुलाया हो , पर जो ख़ुशी मुझे उन वर्षों में मिली , वह जिंदगी भर नहीं मिल सकती । वह मीठा दर्द जो उसने नहीं दिया था , पर कारण भी वही था ।

अचानक कमरा धवल उजास से भर गया और तनिक सा... सच में सिर्फ राई भर सा ही मन का अंधेरा भी छंट गया। अब नया पृष्ठ मेरे सामने था । कुछ देर बाद मेरी विदा हो जायेगी । माँ बाबूजी कितने खुश हैं मेरे लिए विलायती संपन्न वर चुनकर । और मैं ...? क्या कहूँ.... ? वह भी एक मज़ाक था , यह भी एक मज़ाक होगा , मेरा अपने पति के साथ... ।

मुझे अनकही शिकायत है अपनी और उसकी माँ से ,जिनके मजाक ने मुझे जीवन भर का दर्द दे दिया.... पर चलो कोई बात नहीं.... उसके इत्र घुले अहसास ही काफी हैं मेरे जीने के लिये.....।

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