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विश्वास की छाया में

प्रिय राजेन्द्र के लिए जिन्होंने विश्वास की छाया में रिश्ते बुनना सिखाया

आभार उन रिश्तों का जिनके अहसास की उधेड़बुन ने मुझसे काव्य सृजनकरवाया

एक पाण्डुलिपी से गुजरते हुए

संगीता ने ही प्रमाणित किया है कि मैं उसे सुन चुका हूँ । अब मुझे यहाँ यह प्रमाणित करना है कि उसे सुनने के वर्षों बाद मैंने उसकी “विश्वास की छाया में ” पढी है । उसे पढने के पहले दौर में ही लगा कि लिखते रहने के बाद किंचित-किंचित स्वयं को पढते रहने के अभ्यास के चलते ही संगीता को लगा होगा कि वह अपने पहले कान्यान्मेष को पाँच उपशीर्षकों में बाँटकर अपने पाठकों के सामने रखे । अब यह पाठक पर ही निर्भर है कि वह पाँचों उपशीर्षकों को एक ही रूप में या फिर अलग-अलग ही, भावान्मेष देखे और उसमें ही टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ देखे ।

देखने की इस यात्रा में पाठक को जहाँ ‘ विश्वास की धूप में चमक उठेगा आसमान ’ दिखेगा तो ‘ काँच-किरचों पर चलकर भी बने रहना तरंगे ही ’ से भी अरुबरू होना पड़ेगा ।यूँ आर-पार होते पाठक को लगेगा कि यह शब्द-कर्मी कभी माँ के आँचल में दुबकता तो कभी पिता के अंगुली थामकर चरैवेति-चरैवेति....

शब्द के साथ चलते रहने की इस यात्रा में जहाँ वह....सूरज को पानी में डूबता देखती है वहीं सृष्टि में उसकी आस्था तिरती दिखती है । तिरते रहना अथवा तिरते हे किसी को देखना अपने में एक अलग आनन्द है तो इसमें ही ‘दर्द के चेहरे उभर आएं तो उन्हें भी ’ देखना ही नहीं , पढना भी पड़ता है, अब यह देखना-पढना भले ही क्षणिक ही हो,पर है ही,रचना-कर्मी से यह छूटता नहीं, पहले काव्यान्मेष को पढते हुए पाठक के सामने दो चेहरे तो आएंगे ही । भाववाद का अपना चेहरा है तो ‘ रिश्तों की मिठास और उनमें उभरती कड़वाहट ’ का भी चेहरा है ।

इस रचना-धर्मी को अपने विकास के पहले चरण में अपने परिवेश से निरा सहज-मित्रवत संवाद-व्यवहार मिला तो दूसरे चरण में मनसा अनुराग भी । ऐसी अनुकूलता के चलते बहुत सम्भव है कि रचना-कर्मी एक संज्ञा के रूप में सिक्के के दूसरे चेहरे को गौणॅ कर जाए,पर यहँ ऐसा नहीं हुआ है,भले पहले काव्यान्मेष में सिक्के का यह दूसरा चेहरा रेत के समुन्दर पर कभी-कभार पड़ती बादल की चीतरी-सा ही दिखे दिखा तो है ही ।अब पाठक को यह आशा रखनी पड़े कि अनुकूलता के बीच रह-रह कर उभरती प्रतिकूलता के चेहरे अपने खुरदुरे पन के साथ दिखेंगे । इस खुरदुरेपन को अपने साथ समेटते हुए यह रचना धर्मी रचना के प्रति आस्था और अनुराग की यह पगड्ण्डी बनाएगी जहाँ वह एक नहीं,भरा-पूरा हल-चलता संसार उसमें है ।

और अंत में शब्द के माध्यम से स्वय़ं को और हलचलते संसार को लेकर चलना निश्चित रूप से एक कठिन यात्रा है । पता नहीं, इस यात्रा में अपने बाहर से ही नहीं,पने भीतर से,अपने आप से किन-किन स्तरों पर लड़ना पड़ता है । इस लड़ाई के संकेत तो इस पहले उन्मेष में झलकते हैं । इन्हें आकार लेना है । मेरी कामना है कि यह रचना-कर्मी बाहर भीतर से लड़ॅते रहने के इन संकेतों को विराट आकार देने में समर्थ हो ।

इसे संयोग ही कहा जाए कि ‘विश्वास की छाया में ’ पढते-पढते ‘ पापा के आस-पास ’ भी पढी तो लगा कि अच्छे आदमी और अच्छे साथी की छांव लेकर चल रहे इस शब्द-कर्मी की रचना-यात्रा अपनी तरह का ही रास्ता बनाएगी.....-हरीश भादाणी

संवेदना की शब्द छवियाँ

किसी रचना कार के प्रथम काव्य संग्रह पर विचार प्रकट करना कुछ अतिरिक्त सजगता और सावधानी की माँग करता है । एक तरफ है रचनाकार के संवेदनशील क्षणों का तकाज़ा और दूसरी तरफ है पहली-पहली कृति होने का रोमांच । अधिक प्रशंसा रचनाकार को आत्ममुग्ध कर सकती है । ठीक वैसे ही, सूक्ष्म पड़ताल उसमें हताशा भी भर सकती है । संगीता सेठी के साथ यह समस्या नहीं है । कृति चाहे पहली बार प्रकाशित हुई है पर इस बीच कवयित्री की रचनाधर्मिता निश्चित आकार ले चुकी है । कविताएँ चाहे स्व को सम्बोधित हो या समय को ,समाज को सम्बोधित हो या फिर किसी सोच या संस्कार को ,इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता कविताएँ शब्द की काया से कहीं अधिक उसकी आत्मा से संबोधित हो और हर समय रचना के सत्य को पकड़ने में आग्रहशील हों तो वो काव्यानुभव के दायरे में आने की हकदार बन जाती है । संगीता सेठी की कविताओं में शब्द की आत्मा से संवाद करने और सोच के काव्यात्मक रचाव करने की ललक है । यह ललक ही हमें उसकी काव्य-सम्भावनाओं के प्रति आश्वस्त करती है ।

वर्षा की रिमझिम से धुला-धुला और आत्ममुग्ध-सा आकाश अपनी रंगीनियों को इन्द्रधनुष में सजाता है । खामोशी के ये रंग कितना कुछ कह जाते हैं यह शब्द संसार की समझ के परे की बात है । प्रेम के आलोक में कविता भी अपना एक इन्द्रधनुष रचती है । वही सात रंग वाला इन्द्रधनुष , पर ये रंग हैं स्नेह के स्निग्धता और श्रद्धा के , विश्वास और आस्था के , सामंजस्य और संवेदना के । काव्य-खण्ड का प्रथम खण्ड “ विश्वास ” चाँदनी के पटल पर प्रेम की मनुहार का है । इसमें नेह-निर्मल बाहुओं-सी पसरी हुई भावनाएँ हैं । तृप्त मन की धड़कने और ध्वनियाँ हैं, आत्मीयता से सराबोर स्मृतियाँ हैं और कुलबुलाते हुए बीज के भीतर का उद्दाम उल्लास है । प्रेम के व्याकरण की संज्ञाएँ और क्रियाएँ अपने आप में स्वायत्त होती है , वे सामान्य नियमों से परिचालित नहीं होती । विश्वास और समर्पण के क्षण रोमांच और आत्मिक आनन्द के क्षण , दूध-मिश्री की मिठास वाले क्षण भाषा की किसी मेहरबानी के मुहताज़ नहीं होते । वे अपनी भाषा स्वयं रचते हैं । संगीता सेठी ने यह भाषा रची है , उसे रिश्तों की ऊष्मा और संवेदना से जोड़ा है , कोमल भावनाओं की लवंग लतिकाओं से सजाया है और मन के खुले कपाटों से उसकी अगवानी भी की है । प्रेम और विश्वास की दुनिया में ना तो द्वैत होता है ना छल। यदि कुछ होता है तो वो है खुलापन, एक अकृत्रिम व्यवहार , आत्म विगलन और आत्म विसर्जन का एक अनूठा उदाहरण । विश्वास की धुरी पर घूमता हुआ काव्य संकलन का यह प्रथम खण्ड सचमुच आश्वस्त करने वाला है ।

आगे बढने से पहले मैं कुछ उपमाओं , कुछ शब्दों-बिम्बों और कुछ उक्तिओं को उद्धृत करना चाहूँगा , जो संकलन के शब्दों में शक्ति भी भरती है और सुगन्ध भी । सपनों के गाँव में स्नेह का धान , आस्था के धागों का रफू , काँटॉं में उगा आसमान ,

शब्दों में धरती के इंसानों की बू , अंतर्मन को ओढाता कफन , और रिश्तों की गुनगुनी धूप तो है ही , फिर स्नेह का दामन है , संवेदना की किरणें हैं ,प्यार के निर्मल झरने हैं , स्निग्धता की कतरन है , आस्था की ज्योति है , विश्वास की धूप है और ममता की रिमझिम भी है । ये उक्तियाँ बीच-बीच में किसी दूर्वादल पर ओस की बूँदों-सी चमकती है । दूसरे तरफ षड्यंत्रों के सर्प , विश्वासघात के कीट-पतंगे , ईर्ष्या की लाल चींटियाँ , मवाद की नदियाँ और लहुलुहान आसमान संसार के खुरदरेपन को प्रकट करने वाले शब्द-बिम्ब हैं । कुछ उक्तियाँ तो परिभाषा जैसा महत्व ग्रहण कर लेती है । यथा “ माँ , पेड़ की छाँव / जैसे प्यार का हो गाँव / माँ , तुम ऐसी थाती / जैसे प्रेम की हो पाती ” सरलता इन पंक्तियों का श्रंगार है और अकृत्रिमता इनका आकर्षण , पर माँ के व्यक्तित्व को निखारने के लिए इससे अधिक सबल अभिव्यक्ति क्या कोई और हो सकती है ? होती होगी , लेकिन वह विरल होगी ।प्रथम खण्ड यदि विश्वास का है तो अंतिम खण्ड वेदना का । बीच के तीन खण्ड (सपनों में ,प्रकृति से तथा रिश्ते ) कहीं ना कहीं इन दोनों की चरम स्थितियों से जुड़े हैं । विश्वास से वेदना तक का संसार अनुभूतियों के अनेक स्तरों को हमारे सामने लाता है । कईं नये क्षितिज़ घुलते हैं तो कईं पुराने क्षितिज़ अदृश्य भी हो जाते हैं और पाठक कविताओं को केवल पढना ही नहीं , उगने और अस्त होने वाली इस क्षितिज़-लीला को देखता भी है । ऐसे में कविता पाठ्य भी बनती है और द्र्ष्टव्य भी और यदि कोई पाठक-मन शब्दों की ध्वनि को भीतर से सुनने वाला हो , तो श्रव्य भी । कविताओं का एक साथ पाठ्य , द्र्ष्टव्य और काव्य बन जाना उनकी सबलता है, कमजोरी नहीं ।

वेदना की कविताएँ त्रास की गहरी सांकेतिकता दर्शाती है । यहाँ आते-आते “स्व” और “पर” का कोई भेद नहीं रह जाता । अवसाद अपना अध्याय स्वयं लिखता है और पीड़ा भी जैसे अपना पारायण खुद ही करती है । ये कविताएँ पीड़ा की सर्जनात्मक संवेदना की हैं , पीड़ा की पारदर्शिता की हैं और अंतस के दर्द से लेकर सम्पूर्ण मानव समाज के आहत सम्मान और आर्तनाद की हैं । इतना सब-कुछ होते हुए भी इनका रचाव जहर पीकर के ज़िन्दा रहने के हौसले वाला रचाव है । आँसुओं की धार के बाद भी नयन की किसी पुलक जैसा है । अवसाद और उल्लास की जुगलबन्दी-सा है और काली घनघोर घटाओं के बीच बिजली की कौंध-सा है । तनाव और कड़वाहट , बेगानापन और भीतर का ज़हर , हताशा और आँसुओं में पिघलती सब यहाँ आते-आते एकमेक हो जाते हैं और तब शुरु होती है जीवट की एक महायात्रा । कवयित्री इस महायात्रा की यायावर है ।संकलन में दूसरा और चौथा खण्ड ‘ सपनों में ’ और ‘ रिश्ते ’ की बुनावट भी आश्वस्त करने वाली है । रचाव चाहे सुहाने सपनों का हो या स्नेहिल रिश्तों का, मन को सुकून देने वाला होता है । स्मृतियों में तैरते ह्हुए ममता भरे बचपन के रिश्ते , यौवन की देहरी पर गुनगुनी धूप से आमंत्रित करने वाले प्यार भरे रिश्ते और भावना में छलछलाते बुढापे के अनुभव से भरे निश्छल रिश्ते...। उधर सपने भी अपना एक नया संसार रचाते हैं माधुर्य का संसार , मस्ते और मादकता का संसार , मिलन की मधुरिमा यादों का संसार । पर जब यकायक जब सपनों के दरकने अर रिश्तों के टूटने की पीड़ा सामने आती है तो लगता है चान्द को जैसे ग्रहण लग गया है । काँच की किरचों की तरह सब-कुछ बिखर जाता है इधर-उधर लहुलुहान हो जाता है मन और बिलखने लगती है आत्मा । कवियत्री ने आत्मा के इस विलाप को बड़ी ही कुशलता के साथ शब्दों में उतारा है । हाँ , ऐसा करते हुए शब्दों की आँखें गीली हुए बिना नहीं रही ।’ प्रकृति ’ क खण्ड कुदरत के साथ एकाकार होने का खण्ड है । छँद से झरती हुई शीतल चाँदनी का , डूबते हुए सूर्य को देखकर बाल-मन में उठने वाली संवेदना का , महासागर की ऊपर शांति के नीचे की उथला-पुथल का और सूर्य की बदलती हुई छवियों का खण्ड है । ऐसा लगता है प्रकृति सदेह हमारे सामने उपस्थित हो गई हो । ऐसे में कविता जीवन और कुदरत के सुरों की एक सरगम बन जाती है । इस सरगम के स्वरों को बिगाड़ने, उन्हें बेसुरा करने का अधिकार न तो जीवन को है और न प्रकृति को । पीड़ा तब होती है जब कुदरत का मिजाज बिगड़ जाए और वह उच्छृंखल होकर किसी के सृजन-खिलौने को ही छीन ले । ऐसे में कविता का कोप कुदरत पर उतरे बिना नहीं रहता ।

इस काव्य-संकलन की कविताओं में समय के पदचाप की आहट और उसके ‘ सच ’ की पहचान है । इतना होते हुए भी पाठक को लगना चाहिये कि वह इक्कीसवीं सदी के किसी कृति का आस्वाद ले रहा है । समय के साथ भाषा की भंगिमा , उसका तेवर और उसका मुहावरा बदला है । आज की संश्लिष्ट और जटिल संवेदना नए रचाव की माँग करती है । शिल्प के बदलाव और अभिव्यक्ति के आयामों के नए संस्पर्श की माँग करती है । कविताओं में जहाँ भावों का उन्मेष हो , लहरों की तरह मन के भावों की तरंगे उछाल भरती हों तो कथ्य के साथ न्याय करने के लिए कविताओं के कलेवर का लम्बा होना स्वाभाविक हो जाता है । बस, यहीं पर सजगता की दरकार है । लम्बी कविताओं से कहीं ऐसा ना लगे कि भाव-बोझिलता आ रही है या कसावट की कमी है या शब्द स्फीति है अथवा स्वयं को दोहराने की प्रवृत्ति है । ये सब बातें कविता को कमजोर कर सकती हैं । आज की कविता न तो उपदेश की घुट्टियाँ चाहती हैं और न ही आदर्शों की व्याख्यात्मक प्रस्तुति के बघार से खुश होती हैं । कवि को जहाँ लगे कि कविता रचनात्मक आकर लेते-लेते रह गई है , तो उसे फिर से तराशे क्योंकि अंतत: कविता एक साधना भी है और तपस्या भी । मुझे खुशी है कि संगीता सेठी की कविताओं में इन सारे बिन्दुओं के प्रति सजगता है । और यही बात आगे जाकर संभावनाओं के कपाट भी खोलती है ।

कवयित्री ने अपनी कविताओं को जीवन संगीत की लय और भाव-सम्पदा से जोड़ा है । किसी रचनाकार के प्रथम संकलन से बहुत अधिक अपेक्षाएँ कर लेना महत्वाकांक्षा की श्रेणी में आने वाली बात है , पर इन कविताओं का प्रथम पाठक होने के नाते मैं कह सकता हूँ कि कवयित्री ने अपने कवि कर्म के साथ पूरा न्याय किया है । तदर्थ मैं इस संकलन का हृदय से स्वागत करता हूँ । इत्यलम् !

भवानी शंकर व्यास ‘विनोद ’

1-स-9 पवनपुरी

बीकानेरदुर्गाष्टमी 24 अक्टूबर 2001

अपनी बात

आत्मविश्वास के बीज कईं बार सुप्तावस्था में पड़े.....बाहर आने को आतुर......कुलबुलाते हुए.....बाहर आने को आतुर छ्टपटाते हुए....तो कभी बाहर की कड़वी दुनिया की धूप में झुलसने के डर से सुप्तावस्था में रहना पसन्द करते हुए....ना जाने कब कैसे...और कहाँ से माता-पिता के आँगन में प्रस्फुटित होकर देह में उग आए । नन्हें-नन्हें पंखों के रूप में वे पंख काट कर फेंक दिए होते तो मन को समझा देती कि तेरा आत्मविश्वास अपाहिज है , उड़ नहीं सकता बेचारा पर आत्मविश्वास के अपरिपक्व , गीले पंख साथ थे , जो फड़फड़ाते...कसमसाते रहे । जीवनसाथी राजेन्द्र जी के सान्निध्य में विश्वास की छाया का एक कोना मिला जहाँ धीमे-धीमे पंख पले बढे और उड़ान की दिशा में अग्रसर हुए ।कईं एहसासों का नाम है-ज़िन्दगी...छाया से हट कर धूप है –ज़िन्दगी...घृणा ,हिंसा ,क्रोध ,छल , प्रपंच और षडयंत्र की हद तक ज़िन्दगी से गुजरना पड़ता है...विश्वास की छाया में दुबक कर आखिर कब तक जीया जा सकता है । ज़िन्दगी की धूप में लेखनी सहारा बनती है और कविता सखी बन जाती है । कविता उबारती है उन सभी एहसासों से , जो ज़िन्दगी की धूप में पग-पग पर मिलते हैं ।

कविता खोए आत्मविश्वास को लौटाती है तो कभी ज़िन्दगी को हौले से झूला भी दे जाती है । स्वयं की लड़ाई...विचारों का रुदन जब मन में हाहाकार मचा देता है तब कविता का जन्म होता है । आशा है मेरा प्रथम काव्य संग्रह ज़िन्दगी के कईं एहसासों को खोलेगा ।

मैं आभारी हूँ अपने परिवार जन और मित्रों की जिन्होंने मेरे कार्य में भरपूर सहयोग दिया । मैं आभारी हूँ श्री हरीश भादाणी , श्री भवानी शंकर व्यास ‘विनोद ’, श्री दीपचन्द सांखला , श्री माणक ‘ बन्धु ’ तिवाड़ी एवम कामेश्वर प्रकाशन की , जिनके प्रेरणा , सहयोग और मार्गदर्शन से ही ‘ विश्वास की छाया में ’ को मूर्त रूप मिला ।

संगीता सेठी

अनुक्रम

खण्ड : विश्वास

विश्वास की छाया में

तुम्हीं से अस्तित्व मेंविश्वास का एक कण

विश्वास की धूपविश्वास का मोती

विश्वास की छाया में

स्नेह के दायरे में

जिन्हें हो जाये

आदत जीने कीविश्वास की छाया में

जिन्हें आती हो

नींद सुखदवैसी ही आदत

जीने की

हुई आपसेजहाँ आँख खुलते ही

पहचाना आस्था को

पर विश्वास की छायाकहीं दूर ना हो जायेउठा ले सायासिर से हमारेअब विश्वास की धूप से

झुलस ना जाएउम्मीद हैविश्वास की छायादेगी हवा,बूँदें और उष्माऔर तैयार पौधदेखूंगी मैंविश्वास की खिड़की से

जो एक दिन बनेगी

वृक्ष विश्वास का ।

तुम्हीं से अस्तित्व में

तुम्हीं से ज़िन्दा हूँ मैं

आज ए दोस्त !तुम्हीं से अस्तित्व में हूँ

आज ए दोस्त !

जब जब चली आँधियांतुम वृक्ष बन खड़े हुएजब जब चले तूफान

तुम शिला बन अड़े रहेबरसात में जो छत्र मिलातुम्हीं से ए दोस्त !तुम्हीं से अस्तित्व में हूँ

आज ए दोस्त !

जब अवसाद का भंवर चला

तुम उबार लाएजब रात हुई मावस की

तुम चाँद बन कर आये

वीरानी राहों पर मिला

जो साथतुम्हीं से ए दोस्त !तुम्हीं से अस्तित्व में हूँ

आज ए दोस्त !

हर एक राह हर मंजिल परपग-पग साथ चलेहर विचार हर नीति में

पथ प्रदर्शक तुम रहे

स्वप्नों की दुनिया में भीसंग तुम्हारा ए दोस्त !तुम्हीं से अस्तित्व में

आज ए दोस्त !

हर पल हर क्षण मानस पर

छाए हुए हो तुम

हर दिन हर वर्ष संम्बधों को

दृढ करते हो तुमजन्म-जन्मान्तर साथ रहूँतमन्ना है ए दोस्त !तुम्हीं से अस्तित्व में

आज ए दोस्त !

विश्वास का एक कण

विश्वास का एक कण है काफी

सौ चक्रव्यूहों से निकलने के लिये

स्नेह की एक बून्द है काफीघृणा की नदी पार करने के लिए

श्रद्धा की एक लौ है काफीजीवन को गति देने के लिए

संवेदना की एक किरण है काफी

पीड़ा का सूरज निगलने के लिए

स्निग्धता की एक कतरन है काफी

शुष्क जंगल पार करने के लिए

विश्वास का एक कण दे दो

सौ चक्रव्यूहों से निकल लूँ

स्नेह की एक बूँद दे दोघृणा की नदी पार कर लूँ

श्रद्धा की एक लौ दिखा दोपीड़ा का सूरज निगल लूँ

प्यार की उंगली पकड़ा दो

पथरीली राहों पर चल लूँ

संकल्प का बाना पहनकरसाथ कदम कुछ मैं चल लूँ

आस्था की ज्योति दिखला दोसृष्टि का तम हर लूँ

विश्वास की धूप

मैंने उन भावनाओं को अबदबा लिया है

अपने ही हृदय में

कुछ इस तरह सेजैसे पेड़ से बीजपक कर गिरता हैउस बंजर भूमि में

पड़ा रहता है

सुप्तावस्था में

भावनाएँ भी मेरीबीज की तरह

पक चुकी हैं

इस कदर भिन्न हैंबंजर सांसारिकताओं सेकि उनके प्रस्फुटन की

कल्पना भी

दूभर हैअब,जब होगी उर्वर भूमिइस संसार में

स्नेह की खाद होगीउस भूमि में

पर्याप्त होगास्निग्धता का जलतैरता वायुमण्डल में

विश्वास की धूप से चमक उठेगाये आसमानउस दिन हीमेरी भावनाओं का

सुप्त पादप

बीज के खोल में

कुलबुलाएगाबाहर आने कोऔर जी उठेगाइस संसार मेंनई,हरी कोंपल के साथ

विश्वास का मोती

राह पर एक पत्थर पड़ाहर कोई राहीदेखा अनदेखा करचला जाता अपनी राह परउत्सुकता ज़िज्ञासा से

देखकर पत्थर कोचली जा रही थी राह परपल भर ठिठकीक्षण भर रुकीधरा से उठा

ले लिया ह्थेली परओह ! भ्रम टूटापत्थर नहीं,सीपी थी

उस अंजानी,पहचानी राह परराहगीरों की पदचापउड़ती हुई धूल

मलिन हो गई थी सीपी

स्पर्श पाया चाहत भरामलिनता हट गई यों

स्नेह का दामन पकड़ करकवच जल उठामद्धम-मद्धम

विश्वास की लौ पाकरआश्चर्य ! कवच खाली ना था

विश्वास, स्नेह श्रद्धा कामोती था उसमेंना जान कैसे पा लियाअनमोल मोती

अनजाने ही

या परख कर ।