Deh ke dayre - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

देह के दायरे - 25

देह के दायरे

भाग - पच्चीस

दो दिन की लम्बी यात्रा के बाद अब देव बाबू पैदल ही हिमालय की तराइयों में भटक रहा था | उसने अपना अन्तिम समय इन एकान्त और मौन पर्वतों के मध्य बिताने का निश्चय कर लिया था |

कल से उसने अन्न का एक दाना भी नहीं खाया था | पैदल चलने और भूखे रहने से उसका शरीर क्षीण होता जा रहा था | उसके बाल बिखर रहे थे और शरीर थकान से टुटा जा रहा था परन्तु फिर भी वह निरन्तर पर्वत पर ऊपर की ओर बढ़ा जा रहा था | ऐसा लगता था जैसे साँस रुकने से पहले वह पर्वत की सबसे ऊँची चोटी को छू लेना चाहता हो | एक दृढ़ विश्वास उसके मुख पर फैल रहा था |

अचानक ठण्डी हवा तेज हो गयी | उसका कमजोर शरीर काँपने लगा | पाँव पत्थरों से टकराने लगे | तेज हवा के थपेड़े उसे विचलित करने लगे | फिर भी वह सर्दी की परवाह किए बिना गिरता-उठता तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था |

हवा में बर्फ के कण तैरने लगे | जब उसने अपनी यात्रा आरम्भ की थी तो उसने सोचा था कि यों ही चलते-चलते वह अपनी इस जीवन-यात्रा को समाप्त कर देगा परन्तु अब उससे मृत्यु की पीड़ा सहन नहीं हो रही थी | वह पर्वत में चारों ओर कोई आश्रय खोज रहा था लेकिन दूर-दूर तक बर्फ-ढकी चोटियों के सिवाय उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था |

एक क्षण को उसे अपने किए निश्चय पर पश्चात्ताप भी हुआ | मृत्यु की पीड़ा अधिक कष्टदायक होती जा रही थी | आश्रय की खोज में वह और अधिक तेजी से इधर-उधर भागने लगा |

बर्फ तेजी से गिरने लगी | पर्वत के पत्थर सफेद होने लगे | उसके आगे बढ़ते, लड़खड़ाते पाँव बर्फ में धँसने लगे | उसका साहस साथ छोड़ता जा रहा था | उसके पाँवों में जैसे किसी ने भारी पत्थर बाँध दिए थे | आगे बढ़ने को उसके पाँव उठ ही नहीं रहे थे |

उस राह का कोई ज्ञान न था | चारों ओर बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी | पगडण्डी का निशान दूर-दूर तक न था | फिर भी वह अनुमान से धीरे-धीरे बढ़ा जा रहा था |

अचानक उसका पाँव एक गड्ढे पर पड़ा और वह सम्भल न सका | वह कमर तक बर्फ में धँस गया | वह बाहर निकलने का प्रयास कर रहा था मगर शरीर के सारे अंग ठण्ड से निष्क्रिय होते जा रहे थे |

अब वह बर्फ से बाहर निकलने का प्रयास भी नहीं कर पा रहा था | उसने सोच लिया कि उसका अन्तिम समय समीप आ गया है | उसके हाथ स्वयं ही भगवान की प्रार्थना में ऊपर को उठकर जुड़ गए | एक पल पश्चात् वह बुदबुदा उठा, “मैंने तम्हें बहुत कष्ट दिए हैं पूजा! मेरा अपराध क्षम्य नहीं है परन्तु मैं विवश था | इसका प्रायश्चित मैं अपना जीवन देकर कर रहा हूँ | हे भगवान! उसे उसकी खुशियाँ लौटा देना...उसने कोई अपराध नहीं किया है | प्रभु, अब मैं तुम्हारी शरण में आ रहा हूँ |” बुदबुदाते होंठ भी बन्द हो गए |

बर्फ में धँसता उसका शरीर निश्चेष्ट होता जा रहा था | उसकी आँखें मूँद रही थीं और वह निढाल-सा हो गया था |

हवा के साथ आ-आकर बर्फ के कण तेजी से उसपर जमने लगे |