Deh ke dayre - 30 books and stories free download online pdf in Hindi

देह के दायरे - 30

देह के दायरे

भाग - तीस

“गुरुदेव, मैं स्वस्थ हो गया! मैं पूर्ण हो गया गुरुदेव!” देव बाबू आकर गुरुदेव के चरणों में लोट गया | आज वह बहुत खुश था | खुशी के चिह्न उसके मुख पर साफ दिखाई दे रहे थे |

गुरुदेव ने उसे अपने चरणों से उठाकर वक्ष से लगा लिया | स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिरते हुए वे बोले, “तुम्हारी साधना सफल हुई वत्स | भगवान की तुम पर कृपा हो गयी है | जाओ, पूजा की तैयारी करो...समय हो रहा है |”

“जो आज्ञा गुरुदेव |” कहकर वह वहाँ से पूजा के स्थान पर लौट आया |

आज वह काफी प्रयास करने पर भी पूजा में एकाग्रचित नहीं हो पा रहा था | बार-बार उसका मन भटक रहा था | उसे रह-रहकर पूजा और घर की याद आ रही थी | एक तरफ वह खुश था तो दूसरी और उसका मन हाहाकार कर रहा था |

सूर्य की किरणों घाटी मैं फैलने लगी थीं | देव बाबू अपनी कुटिया के एक कोने में चिन्तामग्न बैठा था |

चार वर्ष उपरान्त पूजा की याद ने उसे विचलित कर दिया था | उसका मन चाह रहा था कि एक बार वह जाकर पूजा को मिल ले परन्तु तभी वह सोच उठता कि क्या चार वर्ष तक पूजा उसकी प्रतीक्षा करती रही होगी? उसे तो यह भी पता नहीं है कि मैं जीवित हूँ या नहीं | उसने पंकज के साथ अपनी गृहस्थी बसा ली होगी | अब तो उसके पास एक-दो बच्चे भी होंगे | अब तो वह उसे भुलाकर प्रसन्नता से पंकज के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रही होगी | अब उसका वहाँ जाना उसके हरे-भरे जीवन को नष्ट करने का कारण बन जाएगा | हाँ..हाँ...अब तो उसका संसार ही बदल गया होगा | उस बदले हुए संसार में उसके लिए कोई स्थान नहीं होगा | नहीं...वह वहाँ नहीं जाएगा...कभी नहीं | उसे तो अब इसी आश्रम में अपना जीवन व्यतीत करना है | प्रभु की ऐसी ही इच्छा है |

“जाने का समय निकट आ गया वत्स!” गुरुदेव ने द्वार से प्रवेश करते हुए कहा |

“गुरुदेव, आप तो अन्तर्यामी हैं | मेरे ह्रदय की बात आप भली तरह जानते हैं | अब वहाँ वापस लौटकर मुझे क्या मिलेगा!” देव बाबू ने आगे बढ़कर गुरुदेव के चरण पकड़ लिए |

“तुम्हें अपने घर लौटकर जाना है वत्स! वहाँ तुम्हें एक नयी दिशा मिलेगी |”

“लेकिन गुरुदेव, मेरी पत्नी तो...?”

“इस संसार में बहुत-से दुखी व्यक्ति हैं | तुम संसार में लौटकर उनकी सेवा करो वत्स |”

“क्या मैं ऐसा कर सकूँगा गुरुदेव?”

“तर्क मत करो वत्स | आज्ञा का पालन करो | इच्छा दृढ़ हो तो मानव क्या नहीं कर सकता!”

“मुझे अपने से अलग न करें गुरुदेव |”

“मोह में न पड़ो | जो ज्ञान तुमने प्राप्त किया है उसे एक मशाल बनाकर सारे संसार में उसका प्रकाश फैला दो | मौसम स्वच्छ है वत्स, तुम अभी यहाँ से प्रस्थान कर जाओ |” कहते हुए गुरुदेव वहाँ से चले गए |

देव बाबू ने अपने कमण्डल और लकुटी सम्भालकर अन्य शिष्यों से विदा ली और गुरुदेव के पास आ गया |

“गुरुदेव, मैं आपको प्रणाम करता हूँ |”

“कल्याण हो!” हाथ उठाकर गुरुदेव ने आशीष दिया और वे भी देव बाबू को छोड़ने कुछ दूर तक उसके साथ चल दिए |

देव बाबू चार वर्षो में इन पहाड़ी रास्तों से भली तरह परिचित हो चुका था | एक ढलान पर आकर गुरुदेव रुक गए |

“जाओ वत्स, प्रभु तुम्हारा कल्याण करेंगे!” कहकर गुरुदेव पीछे मुड़कर चल दिए और देव बाबू कुछ देर को वहाँ खड़ा उन्हें जाते देखता रहा | जब वे आँखों से ओझल हो गए तो वह भी अपनी राह पर बढ़ चला |

एक हाथ में कमण्डल और दुसरे में लकुटी लिए देव बाबू के पाँव पहाड़ से नीचे उतरने लगे | राह में मिलने वाले पहाड़ी झुक-झुककर उसे प्रणाम करते तो उनका हाथ स्वयमेव ही आशीष देने की मुद्रा में ऊपर उठ जाता |