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देह के दायरे - 34

देह के दायरे

भाग - चौंतीस

मन्दिर के सामने, पेड़ों के झुरमुट से घिरा पक्का तालाब प्रातः की वेला में सोया पड़ा था | दूर क्षितिज में सूर्य उगने से पूर्व लाली उभर रही थी | पेड़ों पर पक्षी कलरव करने लगे थे | वहाँ फैले धुंधलके को चीरती उनकी आवाज जैसे संसार को जागने का सन्देश दे रही थी |

तालाब के एक बुर्ज पर खड़ा तपस्वी उस प्रातः वेला में दातुन कर रहा था | पिछ्ले दो दिन उसने मानसिक अशान्ति में व्यतीत किए थे | पूजा उससे दो बार मिल चुकी थी | उसने उसे अभी तक पहचाना नहीं था | वह भी इस दो दिनों में यह नहीं जान सका था कि क्या पूजा ने पंकज को अपना लिया है | कल वह अपने भाग्य का निर्णय कर लेना चाहता था कि उसी मध्य सेवकों ने आकर ‘सन्ध्या’ के समय की सूचना दे दी | वह शीघ्र ही स्थिति जानकार निर्णय कर लेना चाहता था | उसने सोच लिया था कि यदि पूजा ने पंकज को अपना लिया होगा तो वह बिना स्वयं को प्रकट किए यहाँ से चला जाएगा | उस स्थिति में उसने गुरुदेव की आज्ञा को स्वीकार करके समाज-सेवा में अपना शेष जीवन व्यतीत करने का निश्चय भी कर लिया था | एक आशा उसे अब भी थी कि शायद पूजा अब तक उसकी प्रतीक्षा कर रही हो | इसी आशा के सहारे तो वह वहाँ आया था | उसे विश्वास था कि यदि ऐसा हुआ तो पूजा उसे अवश्य अपना लेगी |

दातुन को फेंककर, उसने एक सेवक को आवाज दे कुल्ला करने के लिए पानी मँगवाया | कुल्ला कराकर सेवक लौट गया | देव बाबू अभी बुर्ज पर टहल ही रहा था कि सामने पूर्व से उगते सूर्य के साथ उसे पूजा आती दिखाई दी |

‘पूजा...इस समय?’ वह कुछ नहीं सोच सका और वहीं पेड़ के चारों ओर बने चबूतरे पर आकर बैठ गया |

पूजा ने वहाँ पहुँचकर उसके चरणों में प्रणाम किया और उसे चबूतरे के नीचे पृथ्वी पर बैठ गयी |

“क्या बात है देवी, आज प्रातः की प्रथम वेला में ही...?”

“आप तो अन्तर्यामी हैं महाराज!” पूजा बिच में की कह उठ, “मैं रातभर सो नहीं सकी | आप मेरे देवता के विषय में सब कुछ जानते हैं | मैं आपके पास उन्हीं के विषय में जानने आयी हूँ |”

“लेकिन देवी, क्या तुमने अपने पति के कहने पर पंकज से विवाह नहीं किया? तुम्हारा पति तो तुम्हें उसे सौंपकर गया था?” उत्सुकता से देव बाबू ने कहा |

“नहीं महाराज! मेरी दृष्टि में वह अनुचित था |”

“पंकज तो तुम्हें बहुत चाहता था |”

“वह तो पागल है महाराज! उसका विवाह तो मैंने अपनी सहेली करुणा से करा दिया है |”

“क्या सच कह रही हो देवी?” देव बाबू विश्वास न कर सका |

“आप अविश्वास क्यों कर रहे हैं महाराज!”

“नहीं देवी, ऐसी बात नहीं |” देव बाबू ने सम्भलते हुए कहा, “तुम्हारा पति तुमसे घृणा करता था | क्या तुम्हारे मन में उसके प्रति प्रतिशोध की कोई भावना उत्पन्न नहीं हुई?”

“वे मेरे पति हैं महाराज! पत्नी अपने पति से प्रतिशोध की भावना कैसे रख सकती है?” शान्ति से पूजा ने कहा |

“तुम अपने पति से मिलना चाहती हो?”

“क्या यह हो सकता है महाराज?” आश्चर्य से पूजा ने पूछा |

“क्या तुम अब भी उसे उतना ही चाहती हो?”

“मैं चार वर्ष से उनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ |”

“अब वह पूर्ण स्वस्थ हो गया है | वह पूर्ण हो गया है देवी |”

“सच! लेकिन वे कहाँ हैं | क्या आप उन्हें जानते हैं?”

“तुम्हारे सामने |” देव बाबू स्वयं को और अधिक न छिपा सका |

“कहाँ महाराज?” पूजा ने आश्चर्य से कहा |

“अपने देव बाबू को नहीं पहचाना पूजा!”

“आप!” पूजा अविश्वास से कह उठी |

“हाँ पूजा |” देव बाबू ने अपने हाथ आगे बढ़ाए |

एक क्षण को पूजा कुछ न सोच सकी और फिर एकाएक पूछे मुड़कर तेज कदमों से भागने लगी |

“रुक जाओ पूजा...रुक जाओ |” पूकारता हुआ कुछ कदम देव बाबू उसके पीछे भागा परन्तु पूजा वहाँ न रुकी | एक पल को भी उसने पीछे मुड़कर न देखा | थके पाँवों से वह वापस चल दिया |