Vividha - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

विविधा - 6

6-नाटक दर्शक की जिंदगी की लड़ाई है ! 

-मुद्राराक्षस

 मुद्राराक्षस हमेशा से ही विवादास्पद और चर्चित रहे हैं। क्षेत्र चाहे नाटकों का हो या अन्य कोई, वे हमेशा बहस में कूद पड़ते हैं धारा को अपनी ओर मोड़ लेने की क्षमता रखते हैं। उन्होंने संसद का चुनाव भी लड़ा है लगभग 10 नाटकों व 20 अन्य पुस्तकें वे लिख चुके हैं। उनके साथ हुई बातचीत यहां पेश है। 

 मुद्राराक्षस नाम कैसे पड़ा ? 

 मेरा पहले का नाम तो सुभाशचन्द्र ही था। मद्राराक्षस उपनाम शायद 1953 के आसपास डॉ. देवराज के कारण चल पड़ा। उन दिनों में वे ‘युग-चेतना’ निकालते थे। तारसप्तक की कुछ कठोर आलोचना करते हुए मैंने एक लेख लिखा था-‘प्रयोगवाद की प्रेरणा’ छापने पर तारसप्तक के लेखक कहेंगे, किसी छोटे से पिटवा दिया। लिहाजा यह लेख मुद्राराक्षस नाम से छापा। चूंकि लेख की चर्चा विस्फोट की सीमा तक हुई और लक्ष्मीचन्द्र जैन ने उसी लेख के कारण मुझे बुला लिया। ज्ञानोदय पर यही नाम छपता था और कालान्तर में मुझे खुद पहला नाम अस्वाभाविक लगने लगा। आकाशवाणी से तेरह साल बहुत गहरा संबंध रहा, लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि में वहां तक पहुंचा, जब साहित्यकार एक एक करके बाीर जा रहे थे। वैसे मैं यह नहीं मानता कि साहित्यकार आकाशवाणी के लिए बहुत सही होता है। हां चेतना की एक बुनियादी संवेदनशीलता जरूर वहां होनी चाहिए, जो आमतौर पर नहीं हैं। अब तो हालत यह है कि आकाशवाणी के अन्दर भी जो लोग हैं वे भी माध्यम की विशिश्टताओं से कामचलाउ संबंध रखते हैं। बहुत कम ही पुराने संवेदनशील लोग बचे हैं। ‘ भगोड़ा’ में हैं। बाकी वहां के तंत्र और कर्मचारी संगठनों के बारे में यहां कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है। 

 हिन्दी में विजय तेन्दुलकर या बादल सरकार जैसे नाटककार नहीं, क्यों ? 

 हिन्दी में विजय तेन्दुलकर या बादल सरकार जैसे लेखक इसलिए नहीं हैं, कि हर भाशा का चरित्र अलग होता हैं उसमें उसी भाशा जैसा नाटककार हो सकता है। अगर आपका मतलब यह है कि ये जिस स्तर के हैं, उस स्तर के नाटककार नहीं है तो मैं सहमत नहीं हूं यह दुर्भाग्य जरूर है कि हिन्दी में गैर हिन्दी रंगकर्म इतना अधिक उधार लिया गया है कि अच्छे लेखक की वहां गुंजाइश नहीं रही। हिन्दी में आज मंच पर जो लोग काम कर रहे हैं, वे रचनात्मका के बजाय धंधे पर जोर देते हैं। वे चौंकाने पर आमादा रहते है, नाटक में यह ध्यान नहीं रखते कि वह जनता विशेश का अनुभव बनें ध्यान देने की बात है कि हिन्दी में ज्यादातर रंगकर्मी दो चार हप्ते एक जगह रह कर शिविर के नाम से प्रस्तुति का क्या असर हुआ। नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआं चूंकि उनका यह पेशा हो चुका है इसलिए उनका जोर कथ्य पर नहीं, ऐसी चमत्कारी रंगयुक्त पर होता है जो चौंकाए। यही वजह है कि हिन्दी में जो काम हबीब तनवीर करते है वह अर्थवान होता है क्योंकि वह लम्बे समय तक प्रस्तुति और दर्शक का रिश्ता खोजते और बनाते हैं। 

  आपकी पसन्द के नाटककार ?

 नाटककारों में मैं धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और गिरीश कर्नाड को पसन्द करता हूं। 

 नाटक पर सेंसरशिप के बारे में आप क्या सोचते हैं ? 

 नाटक ही नहीं अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम पर सरकारी सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए, क्योंकि सेंसर वर्गहित की रक्षा करता है। 

 क्या आप अपने नाटकों की प्रस्तुति से सन्तुश्ट हैं।

 टपनी प्रस्तुतियों में मैं अधिकाधिक प्रयोगधर्मी रहा हूं और घातक हद तक प्रयोग करता हूं। प्रयोग सन्तोश नहीं तलाश के लिए होता हैं वैसे मैं सन्तुश्ट न होता तो प्रस्तुति नहीं करता। अपनी प्रस्तुतियों में ‘कुआनो नदी’, ‘उत्तरप्रियदर्शी ’, ‘पगला घोडा़’ और एकाध अन्य मुझे प्रिय रही हैं। 

 नाटक के भविश्य पर आपके विचार ? 

 छोटे स्ािानों पर ही अब नाटक जीवित रहेगा। दिल्ली जैसी जगहों पर वह शिल्प चमत्कार भले ही बनाए रहे, वस्तुुतः मर रहा है नाटक बिना लवाजमात के होता हैं और तभी जिन्दा रहेगा। ऐसा नाटक छोटी जगह पर ही होगा। छोटी जगह ही नाटक दर्शक की जिन्दगी की लड़ाई भी बनेगा, दिल्ली में नहीं। 

 नए लेखकों को आपका सुझाव ?

नए लेखकों को यही सुझाव है कि वे सुझाव की अपेक्षा किए बिना लिखें 

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