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विविधा - 11

11-अंग्रेजी बनाम हिन्दी

 बहस पुरानी जरूर है, मगर घटिया नहीं। पिछले दशक में हिन्दी पत्र पत्रिकाओं की प्रसार संख्या अंग्रेजी की तुलना में ज्यादा बढ़ी हैं। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता का ग्राफ उनके समानान्तर नहीं चल पा रहा है। आजअनेक हिन्दी पत्रों में खुशवंत सिंह, जनार्दन ठाकुर, रजनी कोठारी, कुलदीप नैयर आदि के अंग्रेजी लेखों के अनुवाद एक साथ छप रहे हैं। क्या हिन्दी और प्रादेशिक भाशाओं के पत्र अपने खुशवंत सिंह या ठाकुर या रजनी कोठारी नहीं पैदा कर सकते। 

 आज सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा कला संबंधी समाचारों के संकलन में संवाद समितियां अंग्रेजी की बाट जाहती हैं और अंग्रेजी संवाददाता तथा संवाद समितियां प्रादेशिक हिन्दी साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों तथा कलाकारों के प्रति एक उपेक्षा का भाव रखते हैं। 

 यही कारण है कि देश में सैकड़ौ लेखकों, कलाकारों, साहित्यकारों के जन्म स्ािान, कर्म स्ािान तथा उपयोगी स्मारक स्थल उपेक्षित पड़े हैं। अंग्रेजी वाले इन्हें प्रादेशिक कहकर उपेक्षित कर देते हैं और हिन्दी व प्रादेशिक भाशाओं वालों के पास सुविधाएं नहीं हैं। 

 हिन्दी वाले अनुवाद की जिन्दगी जी रहे हैं। अनुवाद से बढ़े और समर्थ पत्र भी अछूते नहीं हैं। डेस्क पर कार्यरत आधा स्टाफ अनुवाद का ही काम करता है। अंग्रेजी के इस सांस्कृतिक आतंकवाद ने हमारी जड़ों को खोखला कर दिया है। हिन्दी व देसी भाशाओं का लिखने बोलने वालों पर दुतरफा मार पड़ रही है। उनके नैतिक बल को तोड़ा जा रहा है, उन्हें यह समझाया जा रहा है कि हिन्दी पत्रकारिता लेखन केवल अनुवाद के बल पर जिंदा रह सकती है, जबकि आज से 40-50 वर्शों पूर्व स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों में हिन्दी व प्रादेशिक भाशाओं की पत्रकारिता ने अंग्रेजीों को इस देश से निकाल बाहर किया था। 

 समुचा स्वतंत्रता आन्दोलन और इतिहास हमें गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचन्द, माखन लाला चतुर्वेदी, पराड़कर जैसे लोगों की याद दिलाता है, जिन्होंने पत्रकारिता को नए आयाम दिए। आज भाशा व वार्ता संवादएजेंसियां केवल अनुवाद की आक्सीजन पर जिन्दा है, जो थोड़ा बहुत मौलिक समाचार संकलन वे करती भी हैं, उसे अंग्रेजी समाचार पत्रों में कोई स्ािान नहीं मिलता। यही कारण है कि हिंदी व प्रादेशिक भाशाओं में हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों को अंग्रेजी पत्रों में स्ािान नहीं मिलता। एक ही संस्थान के हिंदी और अंग्रेजी लेखकों के पारिश्रमिक में भी अन्तर है।

 यह दुर्दशा क्यों ? क्योंकि हिंदी वाले अपनी स्वतंत्र सत्ता स्ािापित नहीं कर पा रहे हैं और आज भी अनुवादों की बैसाखी से चल रहे हैं। हिन्दी की स्थिति दूसरी श्रेणी के नागरिक सी है। 

 देश के सांस्कृतिक, साहित्यिक व धार्मिक विकास के निर्माण के प्रति अपने अंग्रेजी मोह के कारण अंग्रेजी पत्र उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाते हैं और हिंदी में लिखे का कोई नोटिस नहीं लिया जाता। आज भी प्रामाणिकता के नाम पर अंग्रेजी पत्र या अंग्रेजी संवाद एजेंसी या टी.वी. की ओद निहारा जाता है। 

  कैसी अजीब स्थिति है ? दक्षिण में जीवन तमिल, तेलगू का मलयालयम से चलता है और समाचार संकलन अंग्रेजी में होता है। 

 उत्तरी भारत में हिन्दी का प्रभुत्व है, मगर समाचार अंग्रेजी मंे प्रेशित होते हैं। परिणामस्वरूप संवाददाता क्षेत्र के परिवेश, संस्कति तथा भाशा के ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं समझता। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर जो समाचार आते हैं, अंग्रेजी समाचार बुलेटिनों की तुलना हिन्दी बुलेटिनों से करने पर फर्क साफ नजर आता है। 

 हिन्दी में बार बार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, समाचारों का अनुवाद पर आश्रित होना तथा दूरदर्शन के विजुअल्स व स्टिल तथा समाचारों में तालमेल नहीं होना आम बात है। इसका एक बड़ा कारण ये है कि आकाशवाणि और दूरदर्शन भी अंग्रेजी संवाद समितियों पर निर्भर है। प्रादेशिक भाशाओं का ता भगवान ही मालिक है। प्रादेशिक भाशा व उच्चारण इस बात पर निर्भर करते हें कि उद्घोशक किस क्षेत्र का है। संस्कृत समाचारों के बारे में एक विशेशज्ञ का कहना है कि संस्कृत के सरलीकरण के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है, वह अनुचित है। अंग्रेजी भाशा व साहित्य के प्रति पूर्ण सम्मान रखते हुए हमें यह विचार करना होगा कि भारतीय भाशाओं की पत्रकारिता अंग्रेजी की मानसिक दासता से मुक्त होकर भारतीयजनमानस को वैचारिक क्रांति का अवसर दें और तभी हिन्दी व देशी भाशाओं की सामर्थ्य का सही ज्ञान हो पाएगा। हमें यह जान लेना चाहिए कि देसी भाशाएं हमारे सांस्कृतिक सरोकारों की स्ािापना और उच्च सांस्कृतिक मूल्यों के लिए हैं। 

 हिन्दी व भारतीय भाशाओं का समाचार जगत अंग्रेजी के प्रति भ्रमपूर्ण अंधविश्वास व मोह में बंधा हुआ है। हमें इस अज्ञान को दूर करने में मदद करनी चाहिए। इन दिनों सब चारों तरफ संकअ के घने बादल गहराते हुए दिखाई पड़ रहे हैं, एक दूसरे से आक्रांत होकर विनाश पर उतारू हैं, राश्ट की एकता, अखण्डता और प्रभुसत्ता तथा सांस्कृतिक मूल्य खतरे में है, हमें हमारी हिन्दी व प्रादेशिक भाशाओं की पत्रकारिता के दायित्व को और गहरे जाकर समझना होगा। 

 

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