Vividha - 47 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

विविधा - 47 - अंतिम भाग

47-साँप: हमारे मित्र

  साँप का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में डर और एक लिजलिजा अहसास आ जाता है आदमी साँपों से डरता है और उन्हें हानिकारक समझता है; लेकिन वास्तविक स्थिति ऐसी नही हैं । साँप हमारे बहुत अच्छे मित्र हैं । उनके द्वारा प्रकृति में कई प्रकार के अच्छे कार्य होते हैं । वे पर्यावरण को शुद्ध करते हैं । खेतों और जंगलों में चूहों को खाकर किसानों की मदद करते हैं । पूरे संसार में ढाई हजार तरह के साँप पाए जाते हैं । इनमें से दो सौ सोलह प्राकर के साँप भारत में पाए जाते हैं । भारत में पाई जानेवाली कुल बावन जातियाँ ही विषैली होती हैं; अर्थात् अधिकांश साँप विषहीन ही हैं और वे मानव के दुश्मन न होकर मित्र हैं । साँप द्वारा काटे जाने के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसंधान किए गए हैं । लगभग दो लाख व्यक्तियों को प्रतिवर्ष साँप काटते हैं । उनमें से लगभग दस हजार व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है । साँपों का कोई बाजार भारत में नहीं है । मुंबई स्थित हॉपकिंस शोध संस्थान साँपों को खरीदता है । इसी प्राकर चेन्नई के पास साँपों का एक बड़ा पार्क विकसित किया गया है, जिसमें सैकड़ों तरह के साँप उपलब्ध हैं । साँपों को विदेशी अजायबघरों, चिड़ियाघरों और प्रदर्शनों के लिए भारत से सँपेरों के साथ भेजा जाता है । वास्तव में, सँपेरे साँपों को पालनेवाली जनजाति है, जो साँपों के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी रखते हैं । ये सँपेरे उत्तरी भारत, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि स्थानों पर कालबेलियों के रूप में रहते हैं तथा साँपों का प्रदर्शन करके जीवन-यापन करते हैं ।

  नाग पंचमी के दिन सँपेरे साँपों के प्रदर्शन के लिए गली-मुहल्लों में जाते हैं । इसी प्रकार कुछ अन्य पवित्र एवं धार्मिक दिवसों पर साँपों की पूजा भी की जाती है । केरल में प्रत्येक घर में साँपों के लिए एक स्थान नियत करके वहाँ पर उनकी पूजा की जाती है । इसका कारण यह विश्वास है कि साँप चूहों से अनाज को बचाता है तथा घर में लक्ष्मी और सुख-समृद्धि रहती है ।

साँप: भोजन के रूप में

  पिछले विश्वयुद्ध में अजगर का सूप सैनिकों के भोजन के रूप में प्रयोग में लिया गया था । बर्मा में अजगर को भोजन के रूप में खाया जाता है । कई लोग साँपों को स्वादिष्ट भोजन के रूप में खाते हैं । अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों में भी अजगर का मांस-भोजन के रूप में प्रयुक्त होता है । मध्य प्रदेश तथा उत्तरी पूर्वी सीमा के स्थानों पर कुछ आदिवासी लोग साँपों को भोजन के लिए काम में लेते हैं । 

  साँपों के अंदर उपस्थित विष का उपयोग दवाओं के रूप में किया जाता है । कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में भी साँपों की वसा प्रयुक्त होती है । साँपों का तेल भी दवा के रूप में लिया जाता है । ‘रेटल’ साँप का तेल दवा के रूप में प्रयुक्त होता है । वास्तव में साँपों का तेल सूजन तथा कँपकँपी को कम करने के लिए काम में लिया जाता रहा है । साँपों की त्वचा की भारी माँग विदेशों में हैं। इसकी त्वचा से स्कार्फ, बेल्ट, जूते, हैंडबैग आदि बनाए जाते हैं । भारत में साँपोें द्वारा छोड़ी जानेवाली केंचुली का प्रयोग दवा के रूप में किया जाता है । साँपों की त्वचा को अन्य तरीके से भी उपयोग में लाया जाता है; जैसे खेल की स्पोर्ट्स जैकेट, टोपी और नेकटाई आदि । कभी-कभी लैंप शेड, किताबों के कवर, कंघे के कवर आदि भी साँपों के चमड़ें से बनाए जाते हैं ।

  साँपों के विष को काफी काम में लिया जाता है । भारत में होफकिंस संस्थान, मुंबई तथा केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, कसौली में साँपों का विष निकाला जाता है और उसको काम में लिया जाता है । औसतन एक ग्राम साँप का विष पाँच सौ रूपए का होता है । साँप का विष एंटीवेनिन बनाने के काम में आता है । इसके अलावा साँपों का विष दर्द निवारक तथा मांसपेशियों के रोगों में काम में लिया जाता है । ‘कोबरा’ नामक साँप का विष नर्वस रोगों में प्रयुक्त होता है । इसी प्राकर कुष्ठ रोगों में भी साँपों का विष काम में लिया जाता है । हाफकिंस संस्थान में किए गए अनुसंधानों से पता चलता है कि साँपों का विष कुछ विशेष प्रकार के कैंसरों में भी उपयोगी है । इसी प्रकार सिरदर्द और मांसपेशियों के अन्य रोगों में भी साँपों का विष काम में आता है । 

  ‘रसेल वाइपर’ नामक साँप का विष होम्योपैथिक दवाओं में काम में आता है । होम्योपैथी में त्वचा रोगों, मिर्गी, साइटिका रोग तथा नर्वस रोगों में साँपों का विष प्रयुक्त होता है । आयुर्वेद चिकित्सा में कोबरा सर्प का विष एक रस औषध के रूप में काम में लिया जाता है । साँप के शरीर के अन्य हिस्सों का उपयोग भी आयुर्वेद की दवाओं के रूप में किया जाता था । पूर्वी देशों में साँपों का विष तथा उसका मांस कई प्रकार के रोगों में प्रयुक्त होता था । इसी प्रकार साँपों के विष से कई प्रकार के एंजाइम भी बनाए जाते हैं । न्यूरोटोक्सिन नामक एंजाइम कोबरा साँप के विष से निकाला गया है । यह एंजाइम श्वास से संबंधित रोगों के शोध-कार्य में बहुत महत्त्वपूर्ण है । विभिन्न जैव रासायनिक शौध-कार्यों केे लिए साँपों के विष से विभिन्न एंजाइम निकाले गए हैं और उनका उपयोग शोध-कार्य के लिए किया गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि साँप हमारे लिए बहुत उपयोगी जंतु है । यह सही हैं कि साँप के काटने से आदमी मर जाता है, लेकिन अधिकांश लोग केवल भय से ही मरते हैं । ज्यादातर साँप विषहीन हैं और वे मनुष्य के मित्र हैं । इस मित्रता का लाभ उठाया जाता है तो मनुष्य का बहुत से अन्य लाभ भी होते हैं । 

भारतीय संस्कृति में साँप

भारतीय संस्कृति तथा लोकजीवन में साँपों का महत्त्व हमेशा से ही रहा है । कोबरा साँप विशेष रूप से पवित्र ओर पूजनीय माना गया है । भारतीय धर्म, कला और संस्कृति में कोबरा साँप को विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । नाग पंचमी एवं अनंत चतुर्दशी ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहार हैं, जब साँप की पूजा पूरे भारतवर्ष में की जाती है । नाग पंचमी ज्यादा महत्वपूर्ण त्योहार माना गया है और इस दिन साँपों की पूजा करके व्रत रखा जाता है; ताकि घर में सुख-समृद्धि रहे और परिवार नाग देवता के कोप से बचा रहे । लोगबाग साँपों को दूध पिलाते हैं, लेकिन वैज्ञानिकोें के अनुसार, साँप दूध नहीं पीता है, केवल अपना गला तर करता है । साँपों का राजा वासुकि को माना गया है । इसकी पूजा भी नाग पंचमी के दिन की जाती है । उत्तर प्रदेश में साँपों की पूजा का बहुत ज्यादा महत्त्व है । इसी प्रकार पंजाब, नेपाल, मध्य प्रदेश आदि स्थानों पर भी नाग पंचमी मनाई जाती है । भारतीय पुराणों में साँपों के बारे में कई महत्त्वपूर्ण आख्यान हैं । भगवान् कृष्ण द्वारा कालिया नाग के मान-मर्दन की कहानी महाभारत में आती है, जिसमें यमुना नदी के अंदर रहनेवाले कालिया नाग को भगवान् कृष्ण ने मारकर वहाँ रहनेवाले जीव-जंतुओं को कालिया नाग के अत्याचार से बचाया था । इसी प्रकार पुराणों में समुद्र-मंथन का वर्णन मिलता है । यह मंथन देवताओं और दानवों ने मिलकर किया था और सुमेरू पर्वत को समुद्र के बीच में रखकर वासुकि नाग की मदद से समुद्र-मंथन किया था । इस समुद्र-मंथन के कारण चौदह रत्न प्राप्त हुए, जिन्हेें आपस में बाँटा गया । महाभारत में राजा जनमेजय ने विशाल यज्ञ किया, जिसमें सभी साँपों की आहुति दे दी गई, क्योंकि राजा जनमेजय के पिता परीक्षित को तक्षक नामक साँप ने डस लिया था । भारतीय संस्कृति के पुरातन पुरुष भगवान् विष्णु हमेशा ही क्षीर सागर में बहुत से फणवाले नाग की शय्या पर आराम करते हैं । पृथ्वी को शेषनाग ने अपने फण पर धारण कर रखा है ।

सर्पपूजा की भारतीय परंपरा

  भारतीय संस्कृति में नागपूजा का बड़ा महत्त्व हैं । हमारे अधिकांश देवी-देवताओं का संपर्क साँपों से रहा है । विष्णु नाग पर सोते हैं तो शिव गले में नाग लपेटते हैं । पृथ्वी शेषनाग पर टिकी है तो समुद्र-मंथन में नाग का उपयोग रस्सी के रूप में किया गया था । बंगाल में मनसा देवी पूजी जाती हैं तथा महाभारत में जनमेजय ने नाग यज्ञ किया था। वेदों, पुराणाों तथा अन्य धार्मिक आख्यानों में नागों, सर्पाें तथा इनसे संबंधित विवरणों को स्थान दिया गया है । मोहनजोदड़ों व पौराणिक काल से नाग तथा यक्षों की पूजा-अर्चना की जाने लगी । मूर्तियुग में नागों तथा यक्षों की मूर्तियाँ बनीं और उनकी पूजा की जाने लगी । नागदंश से डरकर लोगों ने साँप की पूजा शुरू की । ऋग्वेद के अनुसार, इंद्र ने वृत्त और अहिनाग को मारा था । जातक काल में माता, वृक्ष, यक्ष तथा नागों की पूजा होने लगी। नागों को जलवासी तथा संपत्ति का स्वामी माना जाने लगा । साँपों की पूजा सर्प-विग्रह तथा मानव-विग्रह के रूप में होने लगी।

  महाभारत काल में राजमहल में नाग-मंदिर होने का उल्लेख मिलता है । जरासंध के समय में भी नागपूजा के लिए मगध प्रसिद्ध था । बौद्ध तथा जैन साहित्य में भी नागपूजा तथा नाग-मंदिर का वर्णन मिलता है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में फणयुक्त नाग की मूर्तियों का भी वर्णन मिलता है । पूर्व-मध्य युग में नागों, सर्पों की आकृतियों से युक्त मंदिर बनने लग गए । अर्ध-मानव, अर्ध-नाग की आकृतियाँ भी बनने लगीं । बौद्ध काल में नागपूजा की परंपरा का बड़ा विकास हुआ । बुद्ध ने नाग को उपदेश दिया था, ऐसा वर्णन भी मिलता है। नाग पंचमी बनारस का खास त्योहार है । कनिष्क के काल में नागों की मूर्तियों को स्थापित किया गया । कुषाण काल में बनी नाग-प्रतिमा आज भी मथुरा कला भवन में है । तालाबों की रक्षा के लिए, नया तालाब खुदवाते समय तालाब के मध्य में नाग-स्तंभ बनाया जाता था । 

  नग-छत्र जैन भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति का आवश्यक भाग है । भगवान् कृष्ण को जब वसुदेव सिर पर रखकर मथुरा से गोकुल जा रहे थे तो शेषनाग के फण ने वर्षा से कृष्ण की रक्षा की थी । 

  अजंता में नागराज की प्रतिमा रखी है, जो मानव रूप में है । इसमें नाग के चारों ओर सुंदर नाग कन्याएँ हैं, जिससे पता चलता है कि नाग-पत्नियाँ बहुत सुंदर थीं ।

  विष्णुपुराण के अनुसार, नागों ने पृथ्वी पर शासन किया था । नागों की महिमा का वर्णन करते हुए ‘मनसा मंगल’ नामक महाकाव्य विजय गुप्त ने लिखा था । इस पुस्तक में मनसा देवी के जन्म से लेकर सती बिहुला के पति के जीवन दान की कथा है । 

  बंगाल में इसका अध्ययन सत्यनारायण की कथा की तरह किया जाता है । श्रावण मास की पंचमी को पूरे देश में नागपूजा की जाती है और इस दिन को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है । महिलाएँ इस दिन घर पर नाग की आकृति बनाकर नाग की पूजा-अर्चना तथा दान-पुण्य करती हैं । इस दिन साँपों, सँपेरों, कालबेलियों हेतु दान-पुण्य भी किया जाता है । नागपूजा की प्राचीन परंपरा हमारे लोक-जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । राजस्थान में तेजाजी का मेला लगता है । नाग पंचमी के दिन दूध, चावल, मछली, मांस और मद्य से साँपों की पूजा की जाती है । राजस्थान में अनेक स्थानों पर सर्पदंश के उपचार हेतु नाग-मंदिर बने हैं । ऐसा ही एक मंदिर चितौड़ जिले के भदेसर गाँव में है । नागों की पूजा से व्यक्ति अपने लिए सुख, समृद्धि, पुत्र तथा शांति प्राप्त करने की कामना करता है । नागपूजा हमारी सांस्कृतिक धरोहर है । इसी प्रकार गणेश के हाथों में नागबाण नामक अस्त्र दिखाया जाता है। भगवान् शिव के गले में हमेशा साँपों को माला के रूप में दिखाया गया है । इसी प्रकार येाग के अंतर्गत कुंडलिनी योग बताया गया है, जो कि कोबरा सर्प को ही आधार मानकर बनाया गया है । विभिन्न राज्यों के राजाओं ने समय-समय पर साँपों को, विशेषकर नागराज को, पूजा के योग्य माना है और कई स्थानों पर साँपों के मंदिर भी बनाए गए है । कुंडली मारकर बैठे हुए नागों के कई चित्र तथा मूर्तियाँ भारत में विभिन्न स्थानों पर पाए जाते हैं । सौराष्ट्र के प्रत्येक गाँव में एक सर्प-मंदिर पाया जाता है । दक्षिण भारत में भी नागराज की पूजा बहुत ज्यादा प्रचलित है । महाराष्ट्र राज्य में साँपों के स्थान पीपल वृक्ष के नीचे रखे गए हैं और इनकी पूजा-अर्चना करके बच्चे, धन, वर्षा तथा दीर्घायु की कामना की जाती है ।

प्राचीन साहित्य में साँपों का वर्णन

  प्राचीन संस्कृत काव्यों में साँपों के कई वर्णन मिलते हैं । नागराज की पूजा हेतु प्रार्थना की जाती है । भगवान् विष्णु की प्रार्थना करते समय भी नागराज को याद किया जाता है । इसी प्रकार भगवान् शंकर की पूजा-अर्चना करते समय बार-बार नागदेवता को याद किया जाता है । शिव पंचाक्षर में भी नागराज को याद किया गया है । शिव महिमा में भी नागराज का महत्त्वपूर्ण स्थान प्रतिपादित किया गया है । वैदिक साहित्य में भी साँपों का विशद्वर्णन मिलता है । ऋग्वेद में ‘अहि’ शब्द साँपों के लिए ही प्रयुक्त किया गया है । यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में भी साँपों का वर्णन है । महाभारत में भगवान् कृष्ण के बड़े भाई बलदेव ने भी साँपों की पूजा की थी । अर्जुन ने भी नाग-कन्या से विवाह किया था । अशोक की पुत्री संघमित्रा ने भी नागराज की जादुई प्रक्रिया को नष्ट किया था । बौद्धकाल में साँपों की पूजा का वर्णन मिलता है । कुछ ऐसे चित्र पाए गए हैं, जहाँ पर भगवान् बुद्ध सात सिरोंवाले नागराज की छाया में विश्राम कर रहे है । पुराणों में नागों को पाताल लोक का निवासी माना गया है । विष-कन्या का भी विशद् वर्णन कौटिल्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में किया है । विष-कन्या किसी व्यक्ति विशेष को मारने के लिए प्रयुक्त की जाती थी । कालिदास ने ‘रघुवंश’ नाटक में नाग और उसकी शक्ति का उल्लेख किया है । 

भारतीय कलाओं में सर्प चित्रण 

उज्जैन की गुफाओं में कोबरा सर्प अर्थात् नाग का चित्रण किया गया है । गुफा नं. 19 में नागराज का चित्रण सात सिरोंवाले फण के साथ अंकित है । अधिकांश भारतीय मंदिरों में ईश्वर की प्रतिमाआंे के ऊपर साँप के फण की छतरी बनाई जाती रही है । साँची के स्तूप में भी सर्प का अंकन है । साँची के एक अनय स्तूप में एक संपूर्ण वृत्त ऐसा बनाया गया है, जिसमें कोबरा सर्प को कुंडली मारे हुए दिखाया गया है । इसी प्रकार इस स्तूप में अनेक स्थलों पर नागराज व सूर्य चित्रित किए गए हैं । इन चित्रों में सूर्य और नागराज साथ-साथ भी चित्रित हैं । साँप और सूर्य की पूजा-अर्चना भारत के अलावा अन्य देशेंा में भी साथ-साथ करने की परंपरा रही है । ग्रीक देश के वासी सूर्य और साँप दोनों की पूजा एक साथ करते थे । इसी प्रकार बेबीलान के वासी भी सूर्य और साँप की पूजा करते हैं । मिस्त्र में भी सूर्य और साँप की पूजा की परंपरा रही है । कोरिया में साँप को घर का संरक्षक माना जाता था । जापान में भारत की तरह साँप और सूर्य को आदर से पूजा जाता था । अफ्रीका में साँप, सूर्य और कछुए पवित्र माने जाते थे । भारत में प्राचीन राजाओं को छत्रपति कहा जाता था और उनके सिर पर सर्प के फण का चिन्ह भी अंकित रहता था । उत्तरी भारत में सर्प-मंदिरों में नागराज की पूजा की जाती रही है और इसे मनुष्य के रूप में माना जाता रहा है । यह भी माना जाता था कि नागराज बहुत अच्छे भवनों का निर्माण करते थे और बड़े शहरों का निर्माण उन्होंने किया था । महाभारत में वर्णित माया सभा भी इसी प्रकार के किसी नागराज द्वारा बनाई गई थी । पाताल, तक्षशिला, मगध, मथुरा और विलासपुर आदि शहरों का निर्माण नागराजाओं द्वारा किया गया थ । 

  उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि भारत में कोबरा सर्प का विशेष धार्मिक व लौकिक महत्त्व रहा है । भारतीय संस्कृति में कोबरा या नागराज को बहुत पवित्र और एक देवता के रूप में स्मरण किया गया है और नागराज की मदद से घरों में सुख, शांति, समृद्धि और वैभव आता है । ऐसी मान्यता आज भी है । अन्य साँपों को कोबरा जेसा महत्त्व भारतीय संस्कृति में नहीं दिया गया है । इसका प्रमुख कारण शायद यही है कि नागों में सर्वाधिक भयानक और महत्त्वपूर्ण साँप कोबरा ही है । अन्य साँप ज्यादा जहरीले तो हो सकते हैं, लेकिन उनको सामाजिक मान्यता अधिक नहीं मिलती है । नाग को सेक्स’ का प्रतीक भी माना जाता है । भारतीय कला स्थापत्य, चित्रकला, लौकिक कला तथा साहित्य में साँपों की विशेष उपस्थिति इस बात को बताती है कि सर्प हमारी संस्कृति से बहुत गहरे जुड़े हुए रहे हैं और प्राचीन समय से मनुष्य ने इनके महत्त्व को स्वीकार करते हुए, इनको एक देवता के रूप में पूजा है ।

साँपों का जीव विज्ञान

  सभी साँप इस पृथ्वी पर स्तनपायी जंतुओं से काफी पहले से उपस्थित हैं । जंतु विज्ञान के वर्गीकरण के अनुसार, साँप ‘कोरडेट’ तथा ‘वर्टिब्रेट’ है । साँप की क्लास ‘रेप्टीलिया’ है तथा इनका ऑर्डर एफिडिया है । सभी साँपों का शरीर लंबा, रस्सी की तरह होता है; जिसे सिर, धड़ तथा पूँछ में वर्गीकृत किया जाता है । साँपों में कोई भी बाह्य अंग नहीं दिखाई देते हैं । इनके शरीर का ऊपरी हिस्सा ‘स्केल्स’ द्वारा ढका रहता है। कुछ साँपों में कुछ बाह्य अंग भी दिखाई देते हैं; लेकिन ये अंग पूर्व के अंगोें के अवशेष मात्र हैं । सामान्यतया सभी सर्प अपनी पुरानी त्वचा को बदल देते हैं । इनमें आँखें होती हैं, लेकिन पलकें नहीं होती हैं । और इनके कोई बाह्य कान भी नहीं होते हैं । इनकी जबान कटी हुई होती है और बार-बार मुँह से बाहर और अंदर आती रहती है । इनके दाँत के कई रूपांतर भी हो जाते हैं । इनके शरीर पर उपस्थित स्केल्स की रचना का अध्ययन करके यह पता लगाया जा सकता है कि साँप विषैले हैं या विषहीन हैं । जो सर्प विषैले होते हैं उनके मुँह के अंदर एक विष की थैली होती है, जिसका संबंध एक दाँत से होता है; और जब सर्प काटता है तो यह विष काटने वाले जंतु के शरीर में प्रवेश कर जाता है । कुछ सँपेरे इस विष की थैली को साँप के मुँह से निकाल लेते हैं और बाद में साँपों को विषहीन कर देते हैं । अलग-अलग साँपों की रचना और वर्गीकरण अलग-अलग है । कुछ महत्त्वपूर्ण साँपों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. कोबरा,        4. अफाई,

  2. रसेल वाइपर,      5. अजगर,

  3. करैत,         6. पानी का साँप आदि । 

  अजगर सबसे बड़ा लंबा साँप है, जो बहुत ही भारी होता है । इसकी लंबाई लगभग दस मीटर तक हो सकती है तथा वजन एक सौ पचास किलोग्राम तक हो सकता है । सबसे छोटे साँप बारह से.मी. तक के पाए गए हैं । साँपों की उम्र बहुत लंबी होती है । प्रयोगशाला में एक साँप चार से पाँच वर्ष तक जीवित रहता है और सामान्य परिस्थिति में पचीस वर्ष तक जीवित रह सकता है । साँपों का शरीर लंबा बेलनाकार होता है । इनके कोई हाथ या पैर नहीं होते हैं । कुछ अन्य सर्पों में हाथ-पाँव के अवशेष पाए गए हैं । लेकिन सामान्यतया साँपों में अवशेष नहीं होते हैं । एक विशेष साँप में सींग की तरह सिर के ऊपर एक चिन्ह भी पाया गया है । साँपों के शरीर पर स्केल्स बने होते हैं और इन स्केल्स के ऊपर एक पतली त्वचा होती है । जिसे साँप थोड़े-थोड़े समय के बाद छोड़ते रहते हैं । इसे केंचुली कहा जाता है ं सिर पर जो स्केल्स होते हैं, उन्हें शील्ड कहते हैं और जीव विज्ञान के आधार पर साँपों का वर्गीकरण सिर के ऊपर उपस्थित शील्ड के अनुसार ही किया जाता है । साँपों के शरीर पर बाल नहीं होते हैं । एक भारतीय मान्यता के अनुसार, बूढ़े साँपों के सिर पर कुछ सफेद बाल होते हैं । लेकिन वैज्ञानिक आधार पर यह सत्य नहीं पाया गया है ।

  साँपों के जबड़े

  साँपों का निचला जबड़ा एक न होकर दो हड्डियों का बना होता है, जिसके कारण साँप अपने भोज्य पदार्थों को पकड़ सकता है । साँप के दाँत दोनो जबड़ों के ऊपर होते हैं । इनके आधार और आकृति अलग-अलग हो सकती है ं साँपों के दाँत का रूपांतरण विषैले दाँतों के रूप में होता है । इसे फेंज कहते हैं । इसी फंेज की मदद से विषैले सर्प काटते हैं और साँप का विष जंतु के शरीर में प्रवेश करता है । सभी विषैले साँपों में दो फेंज होते हैं । इनके आधार मुड़े हुए होते है । जब विषैले साँप काटते हैं तो इनके फेंज के निशान बहुत गहरे तक काटे जानेवाले के शरीर पर दिखाई देते हैं । यदि साँप पूरी तरह से नहंीं काट पाया है तो निशान हलका भी हो सकता है । साँपों के काटे जाने के कारण शरीर में प्रवेश होनेवाले विष की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि साँप में विष की कुल मात्रा कितनी थी ? क्या साँप पूरे समय तक काट पाया ? विषैले साँपों के काटने की प्रक्रिया अलग-अलग साँपों में अलग-अलग पाई गई है । कोबरा के काटने की प्रक्रिया वाइपर या करैत के काटने की प्रक्रिया से बहुत ही भिन्न है । और इन साँपों के विष का रसायन विज्ञान भी बहुत भिन्न है । अर्थात् साँपों का विष शरीर के किस भाग पर कुप्रभाव डालेगा, यह अलग-अलग होता है । सामान्यतया एक बार काटने पर साँप आधा ग्राम विष तक व्यक्ति के शरीर में पहुँचा; जबकि एक व्यक्ति को मारने के लिए आवश्यक विष की मात्रा इस प्रकार है-

1. कोबरा 12 मिलीग्राम

2. रसेल वाइपर 15 मिलीग्राम

3. करैत 6 मिलीग्राम

4. इचिंस 8 मिलीग्राम

कोबरा साँप का जहर हलका पीला और गाढ़ा होता है । सूर्य का प्रकाश पड़ने पर हलका-सा टर्बिड हो जाता है; जबकि वाइपर का जहर सफेद या पीला होता है । यह सत्य है कि जहर नर साँप में मादा साँप की तुलना में ज्यादा होता है और रसेल वाइपर कोबरा से ज्यादा विष रखता है । सर्दियों में विष कम मात्रा में निकलता है और गर्मियों में ज्यादा मात्रा में । किंग कोबरा साँप अन्य साँपों से ज्यादा विषैला होता है । साँप अपने जीवन के प्रथम दिवस से ही जहरीला हो जाता है, उसी दिन काट सकता है । लेकिन विष की मात्रा बहुत कम होती है । विष लिटमस के प्रति अम्लीय होता है । विष के अंदर कई प्रकार के एंजाइम होते हैं । कुछ प्रमुख एंजाइम निम्न प्रकार हैं- (1) प्रोटियेज, (2) राइबोन्यूक्लिएज तथा (3) डी-ऑक्सीराइबो न्यूक्लिएलज आदि । कोबरा साँप के काटने पर सूजन आ जाती है और बहुत जलन होती है; उलटियाँ हो सकती हैं तथा जबान और आवाज का लकवा हो जाता है । कुछ ही घंटों में व्यक्ति मर जाता है । मृत्यु का कारण सामान्यतया श्वसन-क्रिया का बंद होना होता है । करैत साँप के काटने पर लक्षण कोबरा जैसे ही होते हैं, लेकिन विषैलापन ज्यादा तीव्र होता है । रसेल वाइपर साँप के काटने पर लकवे की शिकायत तो नहीं होती, लेकिन सूजन बहुत जल्दी आती है और व्यक्ति धीरे-धीरे मृत्यु की और बढ़ता है । यदि साँप काट ले तो निम्न प्राथमिक उपचार किए जाने चाहिए-

1. काठे हुए भाग से थोड़ा ऊपर एक कपड़ा या रस्से का टुकड़ा बाँधे, ताकि विष शरीर के अन्य भागों में जल्दी से न फेले । यदि रबर की रस्सी उपलब्ध हो तो सर्वश्रेष्ठ है, नहीं तो रूमाल-कपड़ा आदि का उपयोग भी किया जा सकता है । इसको थोड़े-थोड़े समय बाद ढ़ीला करते रहना चाहिए । 

2. जिस स्थान पर साँप ने काटा है उस स्थान पर एक चीरा लगा दें, जो एक से तीन से.मी. लंबा और 1ध्6 से.मी गहरा हो । यह चीरा स्टेनलेस स्टील के चाकू से लगाया जाना चाहिए । 

3. यदि संभव हो तो चीरा लगाए गए स्थान से रक्त का चूषण किया जाना चाहिए । इसके लिए उपचार केंन्द्र में रक्त-चूषण हेतु किट कप उपलब्ध रहते हैं । जिस स्थान पर चीरा लगाया गया है उस स्थान पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद नमक की पट्टी रखनी चाहिए । 

4. यदि संभव हो तो जिस स्थान पर साँप ने काटा है उस स्थान को लाल दवा के घोल से धोएँ । यदि काटने के दस मिनट के अंदर कोई व्याधि उत्पन्न न हो तो साँप विषहीन था या फिर उसके काटने के बाद भी विष शरीर में नहीं गया ।

5. सर्पविष को उदासीन करने के लिए ‘लेक्सिन’ नामक औषध का प्रयोग किया जा सकता है ।

6. सर्पविष की सबसे प्रभावशाली दवा प्रति सर्पविष है। 

7. रोगी को आराम पहुँचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए । उसे नींद न आए, यह कोशिश करें । अधिकांश लोग मनोवैज्ञानिक डर से ही मर जाते हैं । 

साँपों का भोजन

  साँप मांसाहारी जंतु है । यह मेढक, चूहे, छिपकली, गिलहरी तथा अन्य छोटे साँपों और जंतुओं को खाकर जीवित रहता है । प्रयोगशााला में किए गए प्रयोगों से ज्ञात होता है कि साँप चूहे को मेढक की तुलना में ज्यादा पसंद करता है । कई बार साँप मेढक को छोड़कर छोटे चूहों की जल्दी खा जाता है । साँप अपने भोजन को पूरे-का-पूरा मारकर निगल जाता है । एक बीस ग्राम के चूहे को साँप लगभग पाँच मिनट में खा लेता है । साँप अपने भोजन को विषैले दाँतों से बेहोश कर लेता है और बाद में निगल लेता है । साँप की जबान भोजन की तलाश में चारों तरफ बार-बार लपलपाती रहती है और भोजन को देखते ही तुरंत साँप झपटकर हमला कर देता है । एक बार भोजन करने के बाद साँप आराम से उसे धीरे-धीरे पचाता रहता है तथा अगले कई दिनों तक के लिए उसे भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अजगर, जो कि एक विशालकाय साँप है तथा मुँह खोलकर पूरे जानवर को निगल लेता है और बाद में कुंडली को पेड़ों के चारो ओर लपेटकर उस जानवर को शरीर में पचाने में लग जाता है । चूहा साँप अपने भोजन के चारों ओर कुंडली मारकर उसे जकड़ लेता है और बाद में निगल लेता है । कोबरा साँप की भोजन करने की विधि अन्य साँपों से थोड़ी अलग होती है । साँप छिपकली को भी खा जाता है और वह अपने छोटे बच्चों को भी खा जाता है । भोजन की तलाश में वे काफी तेजी से इधर-उधर घूमते हैं । कई बार अजगर छह महीने में एक बार ही भोजन करता है । 

  मणि-ऐसी मान्यता है कि साँपों के सिर पर एक मणि लगी होती है । इस मणि से साँपों का विष उतर जाता है, ऐसी लौकिक मान्यता है । सँपेरों तथा आदिवासियों के पास ऐसी मणियाँ पाए जाने की घटनाएं अकसर होती रहती है । लेकिन जीव विज्ञान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की कोई मणि साँपों के सिर पर नहीं होती है । इस लौकिक मान्यता को वैज्ञानिक धारणा पर नहीं कसा जा सकता है । 

  कान- साँपों के बाह्य कर्ण नहीं होते हैं; लेकिन साँप सुनने और सूँघने के लिए अपनी त्वचा और जबान पर निर्भर करते हैं । उसकी जबान दो भागों में विभक्त होती है । कई बार मुँह बंद रहते हुए भी जबान बाहर निकलती रहती है । जबान का उपयोग भोजन को निगलने में नहीं किया जाता है । वास्तव में साँप की जबान ज्ञानेंद्रिय के रूप में प्रयुक्त होती है, यह विश्वास किया जाता है । साँप की जबान हवा में उपस्थित कणों को ग्रहण करके शरीर के अंदर पहुँचाती है और वहाँ से साँप अपने आसपास के वातावरण के बारे में जानकारी ग्रहण करता है तथा भोजन के बारे में भी जानकारी करता है । वास्तव में साँप की जबान भोजन के अलावा नर या मादा की खोज में भी प्रयुक्त होती है तथा खतरों का पूर्वाभास भी साँप को जबान के द्वारा ही होता है । 

  आँखें- साँप की आँखो पर पलकें नहीं होती हैं । आँखें हर समय खुली रहती हैं । साँप की आँखों पर एक पतली झिल्ली होती है । यह झिल्ली हटने पर ही साँप आसानी से देख पाता है । साँप की आँखों में एक प्यूपिल भी होता है । साँप की दोनों आँखें अलग-अलग घूम सकती हैं । साँप अपनी आँखों की मदद से ही भोजन की तलाश विपरीत सेक्स तथा सुरक्षा की जानकारी करता है । साँप बहुत दूर तक नहीं देख सकता है । यह धारणा कि साँप एक बार देखकर भूलता नहीं, कोई वैज्ञानिक आधार नहंीं रखती है । 

  स्पर्श- साँपों की ऊपर की त्वचा के ऊपर स्केल्स होते हैं तथा नीचे की त्वचा बहुत चिकनी और लिजलिजी होती है । उनके शरीर पर थोड़ी-सी मिट्टी के कण गिरने से ही उनका शरीर तुरंत ही क्रियाशील हो जाता है । साँप अपनी आँखों से किसी भी वस्तु को बहुत स्पष्ट नहीं देख पाता है । इसलिए यह मान्यता ठीक नहीं है कि साँप दुश्मन को पहचान लेता है । साँप बहुत ज्यादा बुद्धिमान भी नहीं माना गया है । पतला कोबरा साँप मोटे अजगर से ज्यादा बुद्धिवाला होता है । साँप अपनी सुरक्षा के लिए बहुत ज्यादा सावधान रहता है । इस मामले में कोबरा साँप बहुत ही क्रियाशील पाया गया है । नर साँप और मादा अलग-अलग पाए जाते हैं और वे मैथुन के बाद अंडे देते हैं । वाइपर साँप एक बार में चालीस से पचहत्तर तक बच्चे तीन दिन में देते हैं । ये बच्चे सर्प पंद्रह दिन तक कुछ नहीं खाते औैर बाद में भोजन हेतु अन्यत्र निकल जाते हैं । कुछ साँप अंडे भूमि पर देते हैं; किंतु किंग कोबरा साँप अपने अंडे बाँस के पत्ते में रखते हैं । मैथुन सामान्यतया वर्षा के मौसम में होता है और यह क्षितिज अवस्था में ही संभव हो पाता है ं अंडे अगले वर्ष मार्च या अप्रैल में दिए जाते हैं । कोबरा सर्प को एक अंडे को पूर्ण सेने में लगभग अट्ठावन दिन लग जाते हैं और एक बार में लगभग पचपन नए बच्चे सर्प पैदा होते हैं । कुछ साँप ऐसे भी हैं, जो अंडे नहीं देते और सीधे ही बच्चे देते हैं । अंडे के आकार में बहुत अंतर होता है । 

साँप की गतिशीलता

  सभी साँप तैर सकते हैं । लेकिन ज्यादा समय तक तैरने की क्षमता और पानी में ज्यादा देर रहने की ताकत केवल पानी के साँपों में ही मिलती है । इन साँप का शरीर तैरने के लिए रूपांतरित हो जाता है और इस कारण वे लंबे समय तक तैर सकते हैं । तैरते समय साँप अपना सिर और नासिका-रंध्र पानी के ऊपर रखता है । इस प्रकार साँप पेड़ों पर भी आसानी से चढ़ सकता है । कुछ साँपों पेड़ों की शाखाओं पर अच्छी तरह से कुंडली मारकर लंबे समय तक रह सकते हैं । भूमि पर चलते समय साँप घसिटकर चलता है । इस प्रकार की गतिशीलता में साँप कई प्रकार से अपने शरीर को चलाता है और सामान्यतया अलग-अलग होती है । एक साँप दो मील प्रति घंटा तक चल सकता है । कुछ साँप काफी तेजी से दौड़ सकते हैं; लेकिन इस क्षेत्र में ज्यादा अनुसंधान नहीं किए गए हैं । साँपों की उम्र ज्यादा मानी गई है । इसी की जाति के कछुए पाँच सौ वर्ष तक जी सकते हैं; लेकिन प्रयोगशालाओं में साँप छह वर्ष से ज्यादा नहीं जीया । लेकिन ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्राकृतिक परिस्थितियों में सर्प तीस से पचास वर्ष तक जी सकता है । लोक-कथाओं और कहानियों में साँपों को बहुत ज्यादा जीनेवाला और पुराने धन की रक्षा करनेवाला माना गया है । लेकिन वैज्ञानिक कसौटी पर इस बात को नहीं कसा जा सकता है। साँप बहुत उच्च और कम ताप को सहन नहीं कर सकते । सामान्यतया वे शीत-रक्त जंतु हैं । वे तेज सूर्य की रोशनी को भी पसंद नहीं करते है और अधिकांश सर्प शाम के समय या रात के समय निकलते हैं । ज्यादातर साँप नमी और शांत स्थानों पर रहना पसंद करता है । यदि नमी और शांति उपलब्ध हो तो साँपों को पाला जा सकता है । उनके लिए ठंडा और साफ पानी व भोजन एक सप्ताह में एक बार उपलब्ध कराया जाना चाहिए । भोजन में छोटे चूहे और मेढक या छिपकली है तो साँप चाव से खाता है; लेकिन अजगर के लिए खरगोश, कबूतर आदि चाहिए । यदि साँपों को अंडा फेंटकर खिलाया जाए तो वे बड़े ही चाव से खाते हैं । विषहीन साँप को ही पालना चाहिए और उन्हेें एक विशेष पिंजरे में बंद रखना चाहिए । साँपों को आसानी से पकड़ा भी जा सकता है । दक्षिणी भारत तथा अन्य प्रदेशों में जनजाति के लोग सँपेरे साँपों को बहुत आसानी से पकड़कर अपने कब्जे में कर लेते है । कुछ लोग साँपों के विष की थैली भी निकाल लेते हैं और उन्हें प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त करते हैं । 

  साँपों के प्रसिद्ध परिवार निम्न हैं -

  विषहीन साँप 

  1. टिफलोपीडी,   2. लेप्टोटिफलोपीडी

  3. बोयिडी,     4. कोलूब्रिडी । 

  जहरीले साँप परिवार-

  1. एलापीडी,    2. हाइड्रोपीडी,

  3. वाइपेरीडी ।

  उपर्युक्त सर्प परिवारों में लगभग इकसठ जेनेरा भारत में पाए जाते हैं; जिनकी कुल स्पेसिज दो सौ सोलह के आसपास है । 

कुछ महत्त्वपूर्ण साँपों की जानकारी

यशवन्त कोठारी

  विषहीन सर्प

  अजगर- जीव वैज्ञानिक इसे ‘पाइथोन मोलूरस’ कहते हैं । ये पूरे भारत में पाए जाते हैं । सामान्यतया अजगर जंगली झाड़ियो और गीले स्थानों पर रहते हैं । इसकी लंबाई सात सौं से लेकर नौ सौ से.मी. तक हो सकती है । इसकी गोलाई लगभग नब्बे से.मी. तथा वजन एक सौ पचास किलोग्राम तक हो सकता है । यह भूरे रंग का होता है और इसके पूरे शरीर पर गहरे भूरे रंग के धब्बे होते हैं । इसके शरीर पर एक भूरा चिन्ह होता है और शरीर के दोनेां हिस्सों पर हलके गुलाबी या भूरे रंग की धारियाँ होती हैं । इसकी नीचे की सतह हरी या पीली होती है और इसकी पूँछ पर भूरे धब्बे बहुत अधिक स्पष्ट होते है । जब यह अपनी केंचुली उतारता है तो इसकी आवाज काफी तेज होती है । अजगर के बारे में कई कहानियाँ या जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। यह साँप भोजन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । यह पेड़ों पर चढ़ सकता है, तैर सकता है और पेड़ों पर आराम से भोजन के इंतजार में पड़ा रहता है । यह चिड़िया, छोटे स्तनपायी जानवर तथा छोटे साँप या छिपकली का भोजन करता है। हालाँकि यह बहत आलसी साँप है, लेकिन भोजन देखते ही उसपर पिल पड़ता है और भोजन को निगलकर यह कुंडली मारकर उसे पचा लेता है । सर्वप्रथम यह जानवर के सिर को अपने मुँह में लेता है और फिर उसे पूरा निगल जाता है । बकरी तक को अजगर निगल जाता है । सर्दियों में अजगर शीत समाधि ले लेता है और सर्दियों के बाद यह अंडे देता है, जिनकी संख्या सौ से अधिक होती है । मादा अजगर अंडों के चारों तरफ कुंडली मारकर उनसे बच्चे निकलने तक उनकी रक्षा करती है । लगभग साठ दिनों में अंडों से बच्चे निकल आते हैं । 

  दोमुँहा साँप-जंतु शास्त्री इसे ‘इरिक्सकोनिकस’ कहते हैं । इस साँप की लंबाई अड़तालीस से.मी. तक होती है । इस साँप में मादा की लंबाई नर सर्प से बहुत ज्यादा, लगभग दुगनी होती है । यह हलके गुलाबी, स्लेटी रंग का साँप है, जिसके पूरे शरीर पर भूरे धब्बे बने होते हैं । इसकी नीचे की सतह हलकी पीली होती है, जिसके बाहर की ओर भूरे धब्बे होते हैं । इस साँप की गरदन और सिर को अलग-अलग नहीं पहचाना जा सकता है । आँखें बहुत छोटी होती हैं और नासिका-रंध्र भी छोटा होता है। पूरा सिर छोटे-छोटे स्केल्स से ढका रहता है । आँखों के चारों ओर दस से पंद्रह स्केल्स होते है । यह रेतीली भूमि पर छिपा रहता है और सामान्यतया अपने बिल से बाहर नहीं आता । यह मेढक, चूहे, छिपकली खाता है । इस साँप की पूँछ चपटी होती है और सिर जैसी ही दिखती है, इसलिए इसे दोमुँहा साँप कहा जा सकता है; लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिसे यह नाम सही नहंी है । यह साँप गरमियों में अंडे देता है । इस प्रकार का एक अन्य साँप भी भारत में पाया जाता है, जिसका रंग चॉकलेट जैसा होता है । यह दोमुँहा साँप से काफी ज्यादा बड़ा होता है । इन साँपों का कृषि के लिए महत्त्व होता है । दो मुँह के साँपों में उनकी पूँछ सिर जैसी होती है । इस कारण उन्हें दोमुँहा साँप कहा गया है ।

  लेकिन साँपों के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, कुछ ऐसे साँप भी पाए गए हैं, जिनके दो सिर और एक ही शरीर होता है । इस तरह के कई उदाहरण पुराणों में भी दिए गए हैं । विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र में भी इस प्रकार के साँपों का वर्णन किया है । कुछ भारतीय शोधकर्ताओं ने इस प्रकार के दो सिरवाले साँपों का अध्ययन किया है । भारत में फनियर साँप, दबोई साँप, जल साँपों में दो सिरवाले साँप पाए गए हैं । वास्तव में इस तरह के साँपों को युग्मशाखी सर्प कहते हैं और यह प्रकृति में अपवादस्वरूप ही पाए जाते हैं । इन साँपों को कई भागों में बाँटा गया है । सामान्यतया इन साँपों में सिर दो होते हुए भी शरीर की संपूर्ण क्रिया एक सिरवाले साँप की तरह ही होती है । यदि एक सिर एक दिशा में जाता है तो पूरा साँप भी उसी दिशा में गमन करता है । यदि दूसरा एक सिर अन्य दिशा में जाना चाहे तो भी पूरा साँप उसी दिशा में गमन करेगा । इस प्राकर के साँपों की कई रिर्पोंटे उपलब्ध हैं। भारत में भी रामेश वेदी ने इस तरह के साँपों के कुछ अध्ययन किए हैं । लेकिन ये साँप सामान्य नहीं हैं केवल प्रकृति की एक असामान्य घटना है । 

रैट स्नेक या चूहा सर्प-हिंदी में इसे धामन साँप कहा जाता है । यह साँप पूरे भारत में पाया जाता है । इसकी लंबाई दो सौ तीस से.मी. तक होती है ं मादा की लंबाई एक सौ अस्सी से.मी. तक होती है । आँखें बड़ी और गोल होती है । इनका सिर गले से अलग होता है । इनका आकार और रंग नाग की तरह का होता है । सामान्यतया यह पहाड़ी क्षेत्रों और खेतों में मिलता है । धामन साँप दिन के समय ज्यादा क्रियाशिल होता है और मेढक, पक्षी आदि को खाकर जिंदा रहता है । पकडे़ जाने पर यह साँप हलके से गुर्राता है । इसकी मादा आठ से सोलह अंडे देती है । प्रजनन के मौसम में नर धामन साँप एक प्रकार का नृत्य करके अपनी मादा और अंडों को सुरक्षित रखता है । यह साँप पेड़ों पर चढ़ सकता है यह अंडे देता है । भारत में बहुत अधिक पाए जानवाले साँपों में यह भी एक है ।

वृक्षों पर चढ़नेवाले साँप-भारत में पाए जानेवाले साँपों में वृक्ष पर चढ़नेवाले साँप लंबे और बहुत फुरतीले होते है । यह सामान्यतया मेढक, छिपकली और चिड़ियों का शिकार करता है । भारत मे हरा साँप, बिल्ला साँप और कांस्य पृष्ठ साँप इस श्रेणी में आते हैं । ये साँप जंगल में पाए जाते हैं ओर विषहीन होते हैं । ये साँप अंडे देते हैं । इन्ही साँपों में से एक विशेष साँप है जो तीस मीटर तक हवा में उड़ सकता है और इसे उड़नेवाला साँप कहा जाता है । शायद राजस्थान के रेगिस्तान में पाया जानेवाला पीवण साँप, जो उड़ सकता है, इस प्रकार का होता होगा । लेकिन इस तथ्य को वैज्ञानिक कसौटी पर नहीं कसा जा सका है । 

पानी का साँप-यह विषहीन साँप है, जो पानी में बहुत समय तक रह सकता है । यह मेढक और मछली को खाता है । इसकी लंबाई नब्बे से.मी. तक तथा मादा की लंबाई एक सौ बीस से.मी. तक होती हेै । यह औसत आकार का साँप है । यह वृक्षों के साँपों की तरह तेज नहीं दौड़ सकता है; लेकिन अच्छा तैराक होता है । भारत में इस प्रकार के बीस किस्मों के साँप पाए जाते हैं । यह पानी और उसके आसपास ही रहता है । इसकी मादा एक बार में बीस से चालीस अंडे देती है । यह काटता नहीें है । इस प्रकार का एक दूसरा पानीवाला साँप कुत्ते जैसी शक्ल का होता है । यह रात्रिचर होता है इन प्रमुख विषहीन साँपों के अलावा बांबी साँप, कृमि साँप, कवच पूँछ, कुकरी साँप आदि भी पाए जाते हैं । 

जहरीले साँप 

भारत में चार प्रकार के प्रमुख जहरीले साँप पाए जाते हैं-

1. नागराज,       2. करैत,

3. वाइपर,       4. अफाई ।

  नागराज-यह अत्यंत प्रसिद्ध और भयानक सर्प है, जो अपने फण और लंबी गरदन के कारण अत्यंत डरावना लगता है ं यह अपना फण फेलाकर उसे लहराता है और शत्रु को भयभीत कर देता है । गुस्से में आने पर काट लेता है । इसके काटे का इलाज होना लगभग असंभव है । भारत में जो नाग सर्प पाए जाते हैं। वे निम्न प्रकार के हैं-

1. एकोपाक्ष, 2. चश्मेदार, 3. काला । 

  नाग शाम के समय क्रियाशील होता है । यह साँप् ज्यादातर फसलवाले खेतों में पाया जाता है। नागिन जून और अगस्त के बीच अंडे देती है और दो महीनों तक अंडों को सेती है ।

  करैत-अपने नीले, काले शरीर के कारण करैत आसानी से पहचाना जानेवाला साँप हैं इसका सिर छोटा होता है । इसकी लंबाई एक मीटर तक होती है । यह सबसे खतरनाक साँप है । इसका विष नाग के विष से दस गुना ज्यादा खतरनाक होता है । यह रात्रिकालीन सर्प है । यह सामान्यतया ईंटों-पत्थरों के घूरे में रहता है । चूहे, छिपकली और अंडे खाता है । करैत अपने से छोटे साँप को भी खा जाता है । 

  वाइपर- वाइपर साँप भारत में कम मिलता है । चाय और काफी के बागान में पाया जाता है। इसकी आँखें और नथुनों के बीच हलके गड्ढे होते हैं । यह साँप अंधा हो जाने के बाद भी अपने शिकार को मारकर खा लेता है । मेढक, छिपकली और चूहे तथा छोटी चिड़िया इसका प्रमुख आहार है । इसकी पूँछ लंबी और आकर्षक होती है और इसी कारण यह जंतुओं को आसानी से अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । यह मोटा भारी होता है और परेशान करने पर ही काटता है । यह भी रात्रिकाल में ज्यादा क्रियाशील रहता है । 

  अफाई साँप- यह पूरे भारत में मिलता है । यह चालीस से अस्सी से.मी. लंबा होता है । इसका रंग भूरा-धूसर होता है । इस साँप के पार्श्व पर एक तीर या पक्षी के पद के चिन्ह का आकार होता है । यह साँप कुंडली मारे पड़ा रहता है । 

  इन साँपों का भोजन चूहे, मेढक, गिरगिट, छोटे साँप, कीड़े आदि हैं । 

  ये अचानक काट लेते हैं तथा इनका विष घातक होता है । मगर विष की मात्रा कम होती है । चौबीस से छब्बीस घंटों में शरीर के विभिन्न स्थानों से रक्त-स्त्राव से मृत्यु होती है । यह गरमियों में ज्यादा बाहर निकलता है। 

  इन चार प्रमुख साँपों के अलावा भारत में समुद्री साँप, मूँगिया साँप भी पाया जाता है । सबसे खतरनाक साँप करैत है और नागराज साँप अपनी भयावहता के कारण खतरनाक लगता है । 

साँप और सँपेरे

  साँपों की चर्चा हो और सँपेरों का जिक्र न हो, यह कैसे हो सकता है । आम आदमी साँप से बहुत डरता है; लेकिन उनके बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता है । इसी बात का लाभ उठाते हुए कुछ आदिवासी जातियाँ साँपों को पकड़ती हैं, उन्हें पालती हैं और नगरों व शहरों में उनका प्रदर्शन करती हैं । लोग साँपों की खालों को बेचकर जीवन-यापन भी करते हैं । दक्षिणी भारत में इरूला जनजाति का मुख्य पेशा यही है । इसी प्रकार उत्तरी भारत मे भी बहुत से आदिवासी जनजाति के लोग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा आदि स्थानों पर रहते हैं और साँपों को पालनेवाले ये सँपेरे राजस्थान में कालबेलिया जनजाति के लोग होते हैं । इस जनजाति के लोग अपने आपको नाथ संप्रदाय का बताते हैं तथा गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु मानते हैं । ये कालबेलिए भगवान् शिव को अपना आराध्य समझते हैं और सर्पविद्या के बेताज बादशाह माने जाते हैं । मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में भी नागवंशी जाति रहती है, जो नागों को पालती है और उनसे संबंधित लोक-जीवन में रम गई है। राजस्थान की कालबेलिया जाति की स्त्रियाँ सँपेरा नृत्य भी करती हैं और इस नृत्य के प्रदर्शन विदेशों में भी हुए हैं । ये सँपेरे बीन बजाकर साँपों को आकर्षित करके उनका प्रदर्शन करते हैं और पैसा इकट्ठा करके जीवन-यापन करते हैं । नाग पंचमी, अनंत चतुर्दशी तथा शिवरात्रि के अवसर पर गाँव-गाँव व गली-गली साँपों के प्रदर्शन करते हैं । कुछ पुराने और बुजुर्ग सँपेरे साँपों का विष उतारने की दवा भी रखते हैं और वे यह बताते हैं उनके पास सर्प-मणि भी है । साँपों से संबंधित कुछ जानकारी तंत्र-मंत्र के आधार पर भी पाई गई है । आज भी ऐसे ओझे और सपेरे हैं, जो सर्पविष उतारने का दावा करते हैं । राजस्थान में वीर तेजाजी का मेला साँपों के राजा के लिए ही लगता है । कोटा क्षेत्र में सर्पविद्या के बारे में कुछ ओझााओं को जानकारी है । वे साँप को काटने से ही रोक सकने के मंत्र भी जानते हैं । इसी प्रकार कुछ सँपेरे तो घर में आए साँप को पकड़कर भी ले जाते हैं । 

साँपों के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण अध्ययन

  राजस्थान के उदयपुर विश्वविद्यालय के डॉ. त्यागी ने साँपों के बारे में महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया है । साँपों की कुछ प्रमुख प्रदर्शनियाँ मुंबई, चेन्नई आदि शहरों में समय-समय पर लगाई गई है । एक प्रदर्शनी में एक लड़की ने साँपों के साथ रहने का विश्व रिकार्ड बनाया है । हमारी पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग ही हैं, ऐसी भी लोक-मान्यता रही है । शेष नाग के एक हजार फण सिर माने गए हैं । शार्ग्ड.धर नामक लेखक ने ऐसे साँप का जिक्र किया है, जिसके पाँच, सात, दस और इक्कीस सिर हैं । लेकिन वैज्ञानिक दो-तीन सिरवाले साँपों की बात ही स्वीकार करते हैं । सँपेरे के जीवन, कला, संस्कृति और लोक-अनुरंजन पर अलग से काफी कार्य किए गए हैं । तंत्र-मंत्र और ओझाओं के बारे में भी कई विशद विवरण भी अलग से उपलब्ध हैं । भारत में सँपेरों की जातियाँ अलग-अलग व्यवसाय से जुड़ी रही हैं । धीरे-धीरे वे अपने पैतृक कार्य से अलग हो रहे हैं । अब साँपों की खाल का निर्यात नहीं होता है । लेकिन साँपों के जहर का दोहन करके उसे बेचकर काफी मात्रा में आय हो सकती है । इस जहर को मुंबई का होपकिंस संस्थान, पुणे का संस्थान व चेन्नई का किंग संस्थान खरीद लेता है । अब साँप के विष से कई प्रकार की दवाइयाँ भी बनाई जाने लगी हैं और उससे भी सँपेरों को आय होने लगी है । एक साँप से एक सप्ताह में दो बार तक जहर निकालकर उसे फिर जंगल में छोड़ देने की बात तमिलनाडु में काफी जानी जाती है । सँपेरे विषदंत निकालकार ही साँप को प्रदर्शन के लिए काम में लेते हैं । अब केंद्र सरकार सँपरों को अपना-उत्सव कार्यक्रम के लिए विदेशों में ले जाती है । 

  बंगलौर के एक परिवार ने अपने घर पर कई प्रकार के साँप पाल रखे हैं । वे साँपों की मदद से लोगो को साँपों के बारे में जानकारी भी देते हैं । साँपों का प्रजनन भी करते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि साँप वास्तव में हमारे मित्र हैं, शत्रु नहीं । साँपों का नाम सुनते ही होश उड़ाने की जरूरत नहीं है । साँपों को सामने देखकर मृत्यु को सामने मत समझिए । साँप मनुष्यों का दुश्मन या विरोधी नहीं है । साँप हमारे सच्चे मित्र हैं और उन्हें यदि मित्र समझकर प्रयोग में लिया जाए तो वे प्रकृति में पर्यावरण शुद्ध रख सकते हैं और हमें कई प्रकार के आर्थिक लाभ दे सकते हैं । साँपों को अपना मित्र समझें । 

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यशवन्त कोठारी

86,लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर

जयपुर 302002