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विविधा - 21

21-दास्तान फिल्मी गीतों की

   ‘बैइ जा, बैठ गई......’

   ‘खड़ी हो जा, खड़ी हो गई.....’

   ‘जीजाजी जीजाजी......’

 सूर्योदय के पहले से, देर रात तक किसी भी रेडियो स्टेशन से आप ऐसे फूहड़ और घ्टिया फिल्मी गीत सुन सकते हैं। कई बार रेडियो बन्द कर देना पड़ता है, लेकिन रेडियो बन्द कर देने से ही समस्या का समाधान नहीं हो जाता है। ये सस्ते फिल्ती गीत हमारे राप्टीय चरित्र और नई पीढ़ी के लिए जहर साबित हो रहे हैं। 

 गीतो की यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति लगभग 20 वर्प पूर्व शुरु हुई, जब फिल्मी गुट ने सभी मानदण्ड ताक पर रखा कर फिल्म कला की हर विधा को व्यावसायिक बना दिया। उस समय के कविवर प्रदिप, आरजू लखनवी तथा पं. भरत व्यास के गीतों की रवानगी आज भी दिल को छू लेती है। 

 स्वतंत्रता से पूर्व फिल्मों और गीतों का एक निश्चित उद्देश्य था। युवकों को आजादी के लिए प्रेरित करना। लेकिन स्वतंत्रता के बाद फिल्म निर्माताओं न सामाजिक मानसिक मूल्यों को एक तरफ रख दिया। आग में घी का काम किया पाश्चात् संगीत ने। फिल्मी गीत और संगीत महज पैसा कमाने के साधन बन गए। और अन्त में भोंडी, अयलील व सस्ती तुकबंदियां ष्शुरु हो गई। 

 ल्ेकिन फिर भी इस दौर में शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, भरत व्यास आदि गीतकारों ने साहित्य का आंचल थामे रखा और लोकप्रिय तथा उद्देश्यपरक गीत लिखे।

 हाल के कुछ वर्पो में ऐसे गीतकार उभर कर सामने आए हैं, जो साहित्य से फिल्मों तक जा कर भी साहित्य का दामन थामे हुए हैं। ऐसे गीतकारों से आशा की जानी चाहिए कि वे अच्छे, सुरुचिपूर्ण तथा कलात्मक गीत दे सकेंगे। ऐसे गीतकारों में नीरज, गुलजार, पं. नरेन्द्र शर्मा, योगेश, रविन्द्र जैन, कपिल कुमार, राम भारद्वाज, एम.जी. हशमत, संतोपान्द, इन्द्रजीत सींह तुलसी, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, सोम ठाकुर, सूर्यभानु गुप्ता आदि हैं। 

 महिला गीतकारों की दुनिया में कमी लगती है। माया गोविंद तथा डोगरी की कवियत्री पद्मा सचदेव को छोड़ कर अन्य कोई नाम सुनाई नहीं पड़ता। पद्माजी के ‘प्रेमपर्वत’ के गाने लोगों की जुबान पर चढ़े रहे हैं। 

 पहले संगीतकार गीत पढ़ कर धुन और सुर लगाते थे, लेकिन अब धुन पहले तैयार हो जाती है और बेचारा गीतकार उसमें शब्द भरता है। दूसरे शब्दों में ‘कब्र तैयार है, अब कब्र के नाम का मुर्दा लाओ।’ 

 अधिकांश पाश्चात् वाद्ययत्रों ने मिलकर संगीत को ‘लाउड’ व ‘फास्ट’ कर दिया है। आज गीत की मधुरता की ओर ध्यान देना बंद कर दिया गया है। फिल्मी संस्कृति दर्शक वर्ग की भावनाओं से अपने को जोड़ पाने में असफल रही है। इसके लिए जिम्मेदार है नये संगीतकारों की व्यावसायिकता, गायन के क्षेत्र में एकाधिकार तथा समर्थ गीतकारों का अभाव। 

 नए गायकों तथा गीतकारों को अवसर देना या उन्हें आगे लाना संगीतकार का काम है, लेकिन फिल्मों की गंदी राजनीति, घटिया अर्थशास्त्र तथा नवकुवेरों की जकड़न इन बातों के लिए इजाजत नहीं देती। कई गीतकार स्वयं कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते। फिर उनमें से बहुत से खुद अपने अस्तित्व के लिए हथकडेंबाजी में लगे हैं। उन्हें नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने की क्या पड़ी है ? 

 रेडियो सीलोन व विविध भारतीय से उन्हीं गीतकारों व संगीतकारों के गाने ज्यादा तादाद में बजाये जाते हैं जो दिल खोलकर पैसा खर्च करते हैं। हर छोटे बड़े कस्बे में आजकल रेडियो श्रोता संघ खुल गए हैं। ये संघ अपने ‘चेहरे’ गीतकारों व संगीतकारों के लिए बार बार फरमाइशें भेजकर गानों को लोकप्रिय बनाने में मदद करते हैं। सवाल उठता है कि क्या गुलजार, रवीन्द्र जैन, सी. रामचन्द्र, भप्पी लहरी, नौशाद, जयदेव या खैय्यामक संगीत में दम नहीं है। 

 दर असल प्रतिप्ठित व्यक्ति घटिया तरीकों से अपने गीतों को लोकप्रिय नहीं बनाते। झूठी चिट्ठियों, झूठी फरमाइसों से गीत कुछ समय तक तो चल सकता है। फिर वापस अंधेरे के गर्त में डूब जाएगा।

 गीतों में अश्लीलता, फूहड़पन व सस्ते लटकों की भरमार हो गई है। तो क्या आज का गीतकार केवल फिल्मी पैसे, चमक दमक और ग्लैमर में ही डूब गया है ? नहीं, कुछ गीतकारों ने अच्छे गीत देकर अपनी पहचान बनाई है जो अनुकरणीय है। गुलजा ने ‘आनन्द’ ‘मौसम’, ‘आंधी’, तथा ‘अमानुप’ आदि में अच्छे गीत दिए हैं। संतोपानन्द, रवीन्द्र जैन, विट्ठभाई पटेल, इन्द्रजीत सिंह तुलसी, वसन्तदेव, माया गोविन्द, विश्वेशर शर्मा आदि भी ठीक गीत लिख रहे हैं। 

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