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विविधा - 7

7-यहां नाटक संस्कार से जुड़ा हुआ नहीं है

      हमीदुल्ला

 भारतीय नाट्य आन्दोलन में सृजन व मंचन पक्ष से जुड़ा एक प्रयोगधर्मी नाम है- हमीदुल्ला, जो प्रदेश के बाहर भी जाना पहचाना है। ‘दरिन्दे’, ‘उलझी आकृतिया’, ‘ख्याल भारमली’, ‘उत्तर उर्वशी’ तथा ‘एक और युद्ध’ उनकी प्रकाशित नाट्य कृतियां है। इसके अलावा आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनके लगभग सौ नाटक अब तक प्रसारित हो चुके हैं, अनेक अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में उनके नाटक प्रशंसित, पुरस्कृत हुए हैं। अभी हाल ही में उन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित भी किया गया है। 

 आजकल नया क्या लिख रहे हैं ? 

 ‘हरिओम शांति’, ‘उसका ताजमहल ’ व ‘हर बार ’ मेरे नये नाटक हैं। ‘ हर बार ’ नाटक को आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा हैदराबाद में हाल में आयोजित 14 वीं अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता में सर्वश्रेश्ठ अभिनय का दूसरा पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। 

 आप नाटको में कब से हैं। एक विधि अधिकारी होने के साथ - साथ नाट्य-कला में आपको क्या मुश्किलें आई ? 

 मैं नाटक के क्षेत्रों में 1968 में आया। इससे पहले मैं बच्चों की कहानियां लिखता था। उसमें मुझे राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला। नाटकों के क्षेत्र में काम करते हुए मुझे विधि अधिकारी के रूप में कोई परेशानी नहीं होती है। कभी कभी घर पर पड़े अधूरे पात्र दफतर में भी दिमाग में घूमते रहते हैं। 

 समकालीन नाटककारों में आप किसे पसन्द करते हैं? आपकी पसन्द के नाटक कौन कौन से हैं ? 

 भाई मोहन राकेश से मेरा व्यक्तिगत परिचय 1968 में हुआ। उन दिनों संगीत नाटक अकादमी के तत्वावधान में मोहन महर्शि के निर्देशन में एक नाटक शिविर में ‘ आधे अधूरे ’ पढ़ा गया था। मोहन राकेश इस शिविर में विशिश्ट अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए थे। इस रचना से मैं बहुत प्रभावित हुआ और मैंने तय किया कि मेरे नाटक डाइंग रूपम का मेडीजोन नहीं होंगे। नाटक ऐसा होना चाहिए जो आज की जिन्दगी की समस्याओं से जुड़ा हो। इसका समाज के लिए कोइ्र अर्थ हों भाशा की दृश्टि से मैं सुरेन्द्र वर्मा और भीश्म साहनी के नाटकों से प्रभावित हॅंू। इसके अलावा डॉ. लाल का ‘अभिव्यक्ति ’, डॉ. धर्मवीर का ‘अंधायुग ’ तथा राजस्थानी लोकनाट्य मेरी पसन्द की रचनाएं हैं। 

 इन दिनों जयपुर में रंग आंदोलन कमजोर क्यों हो गया हैं ? 

हां, जब ‘कोआ चला हंस की चाल ’ और ‘ अरे शरीफ लोग’ जैसे नाटक होंगे तो रंग आन्दोलन कमजोर पछेगा ही। साथ ही पंजाबी डामों के कारण भी रंग कर्म के प्रति समर्पित का ध्यान कम है। राज्स्थान के रंगमंच की पहचान बनाने के लिए राजस्थानी जमीन से जुड़ा हुआ नाटक होना चाहिए, ताकि राजस्थान की अपनी एक पहचान बने। 

पु.ल. देशपाण्डे, विजय तेन्दुलकर, बादल सरकार जैसे नाटककार हिन्दी में नहीं हैं,-क्यों ? 

वास्तव में हिन्दी में नाट्य लेखन एक प्रकार से उपेक्षित सा रहा है। रंगकर्म एक कलक्टिव आर्ट है, रंगमंच की प्रस्तुतिकला से जुड़ा हुआ नाटककार ही अच्छा नाटक दे सकता है। 

 बादल सरकार के नाटक आज की समस्याओं से जुड़े है। तेन्दुलकर के नाटकों में सेक्स व हिंसा है। इसी कारण व्यावसायिक रूप से सफल भी हैं, लेकिन ये सभी दृश्य स्वाभाविक है और कथानक के आवश्यक भाग भी हैं, हिन्दी में ऐसे नाटककारों का नहीं होना एक प्रश्न है, जिसे हल किया जाना चाहिए। यदि नाट्य परम्परा विकसित होगी तो अच्छे नाटककार भी पनपेंगे। बंगाली व मराठी भाशी नाटककारों के अधिक सफल होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि उन प्रदेशों में नाटक संस्कार से जुड़ा है। यहां नाटक संस्कार से जुड़ा है। यहां नाटक संस्कार से जुड़ा हुआ नहीं है। 

‘ख्याल भारमली ’ को आपने लोकशैली में दिया, क्यों ? 

डस २शैली को चुनने का विशेश कारण यही था कि वह कथा उस २शैली में ज्यादा मनोरंजक बन गई। इस नाटक का कन्नड़ में ‘दासी भारमली ’ के नाम से फिल्मीकरण भी हुआ है। 

क्या सिनेमा नाटक के विकास में बाधक है ? 

नहीं। न तो सिनेमा नाटक के विकास में बाधक है न ही उससे नाटक के अस्तित्व को कोई खतरा ही है। नाटक जिन्दा रहेगा। नाटकों के प्रति आकर्शण बना रहेगा। धीरे धीरे एक वर्ग बन रहा है जो नाटक देखता और समझता है। ‘ एलिट क्लास ’ को छोड़ देने पर भी नाटक के गंभीर दर्शन बन रहे हैं। 

अपने नाटक में परिवर्तन की किस हद तक आप निर्देशक को छूट देते हैं ?

नाटक की मूल आत्मा सुरक्षित रहनी चाहिए। जहां पर आवश्यक हो, परिवेश के अनुसार ‘ लोकल टच ’ दिया जा सकता है, लेकिन कथानक में खास परिवर्तन नहीं होना चाहिए। 

हिन्दी में नाट्य लेखक बहुत कम हैं, क्यों ? 

अब काफी लोग लिख रहे हैं। जैसा मैंने बताया हिन्दी में नाटक काफी समय तक उपेक्षित रहा हे। हिन्दी में अनूदित नाटक करने की एक परम्परा तो बन गई है। इसे विचार किया जाना चाहिये ताकि नये नाटककार प्रोत्साहित होकर लिखें और हिन्दी नाट्य जगत का दारिद्रय दूर हों आज प्रोत्साहन की आवश्यकता है। इस बात की भी जरूरत है कि नाट्य लेखन शिविर आयोजित किये जाये। 

 आप अकादमियों से जुड़े रहे हैं, पुरस्कृत भी हैं, क्या उनकी कार्यप्रणाली से सन्तुश्ट हैं ? 

अपने सीमित साधनों से अकादमियां जो भी कर सकती हैं, कर रही हैं। प्रशासनिक खर्च अधिक होने के कारण वे ज्यादा कुछ कर भी नहीं पातीं। जरूरत इस बात की है कि अकादमियों के प्रशासनिक व्यय का सम्पूर्ण भार सरकार उठाये और अनुदान में वृद्धि हों 

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