Vividha - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

विविधा - 12

12-ये आकाशवाणी है 

 इक्कीसवीं शताब्दी मंे आकाशवाणी को शब्द हत्या के लिये याद किया जायेगा। शब्द की मृत्यु इस युग की सबसे बड़ी टेजेड़ी है और इस टेजेड़ी में आकाशवाणी ने अपना पूरा योगदान किया है। 

 अपने प्रसारण, कार्यक्रमों तथा विराट जन समूह, तक पहुंचने की क्षमता के कारण आकाशवाणी शब्द के वर्चस्व को स्थापित कर सकती थी और कुछ वर्शों तक आकाशवाणी ने ऐसा किया भी मगर माध्यम के सरकारीकरण, लालफीताशाही और खोखले नारों के जाल में फंसकर आकाश्वाणी बेईमानी और बकवासों का ऐसा पुलिन्दा बन गई कि न निगलते बने और न ही उगलते। 

 रेडियो हमारे जीवन की अहम जरूरत अब नहीं रहा हैं लोकानुरंजन तथा समाचारों के लिये माध्यम के रूप में आकाशवाणी का महत्व लगातार कम होता चला जा रहा है। आकाशवाणी से जुड़े अधिकारी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि रेडियो के प्रति लेखकों, श्रोताओं, कलाकारों का रूझान निरन्तर कम हो रहा है और इसका कारण दूरदर्शन ही नहीं है और इसका कारण है लालफीताशाही और पुराने ढरे के उबाउकार्यक्रम। आजादी के तुरन्त बाद नेताओं ने आकाशवाणी के महत्व को स्वीकार करत हुए शब्द की व्राण प्रतिश्ठा हेतु सच्चे मन से कोशिश की। देश के स्नायु केन्द्रों में रेडियो स्टेशनों को बनाया गया तथा इस माध्यम को देश की जमीन और संस्कृति की जड़ों से जोड़ने की पुरजार कोशिश की गयी। डॉ. केसकर ने अपने स्वर्णकाल में एक ऐसा अभूतपूर्ण वातावरण तैयार किया कि हर भाशा और प्रान्त के वरिश्ठ विद्वान, साहित्यकार, कवि, संगीतकार, नाटककार, गायक, अभिनेता तथा एक बहुत बड़ा दर्शक बग्र रेडियो से जुड़ गया। देश की लंबी सांस्कृतिक विरासत, साहित्यिक सरोकार तथा सांगीतिक परम्पराओं को देश की प्रगति और विकास से जोड़ा गया है। ऐसे सलाहकार ओर प्रोड्यूसर आये जो प्रोग्रामों के चयन, प्रस्तुतीकरण, निर्माण में न केवल माहिर थे, बल्कि मिसनरी भावना के साथ काम करते थे। ये वे दिन थे, जब नौकरशाही और लालफीताशाही को इन लोगों के सामने झुकना पड़ता था। ये वे दिन थे जब आकाशवाणी में सुमित्रानन्दन पंत, अमृतलाल नागर, इलाचंद्र जोशी, सर्वेश्वर, बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, लक्ष्मीनारायण लाल जैसे लोग थे। हिन्दी के अलावा मराठी, गुजराती व दक्षिण भारतीय भाशाओं के रेडियो केन्द्रों में भी उन दिनों की महानतम् प्रतिभायें आती थीं, कार्यक्रम देती थी और स्वयं गौरवान्वित महसूस करती थी। तब ये केन्द्र सांस्कृतिक केन्द्र थे। 

 रेडियो से राप्टीय कार्यक्रमों के प्रसारण से और भी निखार आया। इससे श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग आकाशवाणी के कार्यक्रमों से जुड़ा और अगले कार्यक्रम का बेताबी से इंतजार करने लगा। 

 ये सब बहुत ज्यादा दिनों नहीं चला। केसकर के बाद प्रसारण मंत्रालय में कोई ढंग का व्क्ति नहीं आया। स्व. इंदिरा गांधी ने अवश्य अपने मंत्रित्व काल में कुछ किया। अब नौकरशाही ने अपने डैने फैलाने शुरू किये। लालफीताशाही का कसता शिकंजा कसता चला गया। परिणाम कार्यक्रमों कास्तर गिरने लगा। प्रोड्यूसरों ने नौकरियां छोड़ दीं। रेडियो साहित्य, कला के बजाय सत्ता का भौपू बन गया। 

 इमरजेंसी ने आकाशवाणी का स्तर और विश्वसनीयता को बड़ी ठेस पहुंचायी। 

 जनता सरकार भी आकाशवाणी को स्वायतता नहीं दे सकी। परिणामस्वरूप आकाशवाणी फिर अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगी। अब केन्द्रों पर प्रोड्यूसरों के बजाय नेता और अफसरों का बोलबाला हो गया । उनके भाई भतीजों, नाते रिश्तेदारों, पत्नियों, सालियों के कार्यक्रम आने लगे। लेखक-कलाकार के लिये आकाशवाणी के दरवाजे बंद हो गये। अफसर ऐसे हुये जो कभी बाबू थे। ये कुशल बाबू न तो साहित्य समझते न कला और न संगीत, मगर अपनी अफसरी के जोर में भाग्य विधाताओं की तरह आचरण करने लगे। फिर तबादलों और तरक्की में फंसा तंत्र, अच्छे कार्यक्रम देने की बजाय स्थानीय नेताओं के अनुसार चलने लगा। यदि ऐसा नहीं करे तो टांसफर और प्रमोशन रूकने का खतरा। सब कुछ एक कागजी खानापूर्ति की तरह हो गया। कलाकार वही, प्रोग्राम वही, मगर प्रोग्राम की आत्मा मर गयी। फिर कार्यक्रमों का विभाजन और वर्गीकरण हुआ। किसानों के लिये महिलाओं के लिये, बच्चों के लिये आदि कार्यक्रम बने। 

 इससे रेडियों की भापा विकृत हुई।

रेडियो के ठेके ‘कोंटक्ट’ भी कम महत्वपूर्ण नहीं। किसे बुक करना है, कब बुक करना है, फीस क्या होगी आदि निर्णय लेने में अफसरशाही और तंत्र हावी होता चला गया। फिर आयाविज्ञापनों का युग और पैसा बरसने लगा। साथ में पनपी रिश्वत और भ्रश्टाचार। रेडियो समाचारों का स्तर भी गीरा लेकिन अभी भी समाचारों के कवरेज में रेडियो दूरदर्शन से तेज हैं। पत्रकारों और विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का केन्द्रों पर बोलबाला हो गया। एक दूसरे दर्जे की पीढ़ी का विकास हुआ, जिसका कब्जा इन केन्द्रों पर हा गया। 

केन्द्रों के इंजीनियरों और अन्य कर्मचारियों का प्रभुत्व बढ़ गया। एक प्रोड्यूसर से बहुत ज्यादा वकत एक लेखाधिकारी या एक प्रशासनिक अधिकारी की हो गयी। उनकी सिफारिश पर कार्यक्रम दिये जाने लगे। 

नाटको के मामले में विश्णु प्रभाकर जैसे व्यक्ति को रेडियों छोउ़ना पड़ा। आंखों देखा हाल सुनाने पर पूरे पूरे सप्ताह तक अन्य कार्यक्रमों को बंद किया जाने लगा। धीरे धीरे श्रोताओं ने भी आकाशवाणी से मुंह मोड़ लिया और दूरदर्शन न रही सही कसर पूरी कर दी।दूरदर्शन के कार्यक्रम घटिया होते हुये भी ग्लेमर के साथ है, इसलिए आकाशवाणी को पीट रहे हैं। 

लेकिन एक ओर कमी है और वो है मसीहाई स्पिटि की। आज कल आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वाले अधिकारी दब गये हैं। वे उदासीन असंतुश्ट और कटे हुए हैं। प्रसारण कर देंगे। बस घटिया या अच्छां उनका अंतर्मन मर गया है। वे सोचते ही नहीं की उनके अच्छे प्रसारण से क्या हो सकता है ? कार्यक्रमों के स्तर में गिरावट का कारण कल्पनाशीलता का अभाव है। 

आकाशवाणी जैसा माध्यम मृत प्रायः हो गया। इसका एक कारण अच्ेछ प्रशिक्षण का अभाव भी है। इसके अलावा यदि कोई प्रोड्यूसर किसी विधा विशेश में लगातार काम करके महारत हासिल कर लकता है तो उसे उसी विधा में रखा जाना चाहियें। इससे कार्यक्रमों की गुणवत्ता बनी रहेगी। 

माध्यम से जुडे़ लोग ही इस माध्यम को वापस पुनर्जिवित कर सकते हैं। दवा वही कर सकते हैं, जो इसकी नस को पहचानता हो।

स्थ्तिि में सुधार की अपक्षा तो करनी ही चाहिये साथ ही आकाशवाणी के कार्यक्रमों की स्थायी समीक्षा होनी चाहिये। पिछले दिनों आकाशवाणी ने अपने कार्यक्रमों में व्यापक फेरबदल किये हैं, मगर कार्यक्रमों के स्तर में कोइ्र सुधार नहीं हुआ है। शिड्यूल को रिव्यू करते समय नये, युवा और उत्साही लोगों को स्थान दिया जाना चाहिये। वर्शों पुराने शिड्यूल को दोहराते चले जाना घटिया कार्यक्रमों का प्रमुख कारण है। 

साहित्य से जुडी विधाओं कविता, कहानी, व्यंग्य नाटक तथा संगीत के कार्यक्रमों को आमंत्रित श्रोताओं की उपस्थिति में नियमित रूप से करना चाहिये। क्या कारण है कि अच्छे कार्यक्रमों पर केवल कुछ केन्द्रों का ही प्रभुत्व है ? लंबी चौड़ी पुरस्कार योजनाओं के बावजूद अच्छे नाटक नहीं आते। 

यदि इस सबलतम माध्यम को अकाल मृत्यु से बचाना है तो हमें आकाशवाणि को उन्नत करना ही होगा। 

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