Vividha - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

विविधा - 9

9-मैं साहित्यकार को तीसरी ऑंख मानता हू

-विष्णु प्रभाकर

 विश्णु प्रभाकर हिन्दी के वरिश्ठ साहित्यकार हैं। पिछले पचास वर्शो से निरन्तर साहित्य साधना करते हुए उन्होंने चालीस से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। साहित्य में वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं नाटक, कहानी, एकांकी, उपन्यास, जीवनी आदि कई विधाओं में उन्होंने समान अधिकार से लेखनी चलाई। ‘आवारा मसीहा’ तो उनकी श्रेश्ठ कृति के रूप में समादृत हुई ही साथ ही उनके अनेक नाटक और एकांकी भी आकाशवाणी और रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हुए हैं।

 21 जून, 1912 को जन्में, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और गांधीवादी लेखकों में प्रमुख श्री प्रभाकर इन दिनों दिल्ली में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

 टापकी पीढ़ी के साहित्यिक दृश्टिकोण और युवा पीढ़ी के साहित्यिक दृश्टिकोण में क्याअन्तर महसूस करते हैं ? 

 अन्तर स्पश्ट है। मेरी पीढ़ी के साहित्यकारों ने सुधार आन्दोलन, राश्टीय आन्दोलन देखा, भोगा और महसूस किया। मैं स्वयं कभी आर्य समाजी था, राश्टीय आन्दोलन में पुलिस की कृपा भी मुझ पर हुई, बड़े भाई जेल में रहे। इन बातों का प्रभाव मेरे सृजन पर पड़ा। हमारे सामने आदर्श, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य थे, लेकिन आजादी के बाद स्थिति तेजी से बदली। हमारे नेताओं ने आजादी का सुख भोगना शुरू कर दिया। उन्होंने सत्ता का एक प्रकार से दुरूपयोग किया इस कारण नैतिक मूल्यों में तेजी से गिरावट आई और इससे नई पीढ़ी का बुरी तरह से मोहभंग हुआ। आदर्शों,त्याग और बलिदान जैसे मुल्यों के आगे प्रश्नचिन्ह लग गये। 

 इस बदलाव के कारण साहित्य में भी बदलाव आयें लेकिन उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। अन्ततः हम कहां पहुंचते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण हैं पीढ़ियों का अन्तर तो वेसे भी सभी जगह रहता है। हम आगे ही बढ़ते हैं पीछे नहीं लौटते। 

 साहित्य में जो निराशाजनक चल रही है, उस पर आप क्या सोचते हैं ? 

 जैसा कि मैंने कहा मूल्यों में लगातार ह्रास के कारण यह निराशाजनक स्थिति आई हैं नये मूल्य बने नहीं हैं और न कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व ही ऐसा है जो पहल कर सके। पूरे विश्व में ऐसी ही स्थिति है मूल्यों का संकट, नेता का संकट सर्वत्र है और इसी संकट के कारण स्थिति निराशाजनक बनी है। प्रेमचन्द ने कहा है ‘अपनी लड़ाई स्वयं लड़ो ’ और यही हम सभी को करना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि व्क्ति अपने में सिमट जाये व्यक्ति कभी अपनी निजता में धन्य नहीं होता, परिवेश से जुड़कर सार्थक होता है, हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति हर दूसरे व्यकित के प्रति उत्तरदायी होता है। 

 आप आकाशवाणी से लम्बे समय तक जुडे़ रहे हैं। वहां के गैर साहित्यिक वातावरण पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है ? 

 भाई यह तो सरकारी मीडिया है। ये ऐसे ही चलते हैं जैसे सरकार चाहती है। जब मैं नाटक विभाग का निदेशक था तो एक बार आदेश आया कि 75 प्रतिशत श्रेाता कामडी, 10 प्रतिशत श्रोता सामाजिक डामा व 1 प्रतिशत श्रोता टेजेडी सुनना पसन्द करते हैं। ऐसी स्थिति में मैंने कहा तब मेरी क्या आवश्यकता है। ये काम तो कोइ्र क्लर्क भी कर सकता है। राजनीतिज्ञों का दबाव भी कम नहीं रहता। इस प्रकार साहित्य नहीं, राजनीति वहां प्रमुख है। इसलिये मैं त्यागपत्र देकर बाहर आ गया था।  

 सृजन का वातावरण भी वहां सम्भव नहीं है। स्थिति अब ओर भी अधिक खराब है। आजादी के शुरू के वर्शों में हम एक ‘मिशनरी स्पिरिट’ से काम करते थे। लेखकों, कलाकारों को पूरा सम्मान मिलता था। उन्हें पूर्ण रूप से उभरने का मौका मिलता था, लेकिन अब यह भावना समाप्त हो चुकी है। आकाशवाणी ब्यूरोक्रेसी के चंगुल में फंस गयी। स्थिति यह है कि कभी शिड्यूल में नाम भी सिफाारिशों पर तय किये जाते हैं। राजनीति तो है ही लेकिन स्वयं साहित्यिक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जनसंख्या उनकी भी बढ़ रही है और फिर वही होता है जो होना चाहिए। ब्यूरोक्रेसी को और अवसर मिलता है और इसी कारण कार्यक्रमों का स्तर हल्का होता रहता है, अभिव्यक्ति पर कैसा भी बन्धन हो, स्तर तो गिरता ही है। 

 क्या केवल लेखक के बल पर जीवन-यापन किया जा सकता है ? 

 आज की स्थिति में ऐसा सम्भव नहीं है। पढ़े लिखे लोग कितने हैं और जो हैं उनमें पढ़ने की आदत कितनों को है ? हिन्दी भाशी लोग सबसे कम पढ़ते हैं। पुस्तकों का मूल्य अनिवाय्र कारणों से बढ़ रहा है। तब कौन खरीदेगा पुस्तकें और पत्रिकाएं। ऐसी स्थिति में लेखक को समझौते करने के लिए तैयार करना चाहिए। उसे अनुवाद, पत्रकारिता या टी.वी. या रेडियो पर निर्भर रहना पडेगा और वहां समझौता अवश्यम्ीाावी है। मेरी चालीस पुस्तकें प्रकाशित हैं, लेकिन मासिक आमदनी आज ही हजार तक नहीं पहुंच पाती।

 ‘आवारा मसीहा’ हिन्दी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसकी रचना में जैसा कि आपने इसकी भूमिका में संकेत भी दिया है कि काफी कठिनाइयॉं आयीं। क्या इनके अलावा कुछ और भी कठिनाइयॉं रहीं ? 

 हां, बहुत लोगों ने मुझे मूर्ख तक कहा। शरू-शुरू में बंगालियों ने भी शंका के दृश्टिकोण से देखा एक सज्जन ने कहा-‘व्हाई एन आउटसाइडर शुड वर्क सो हार्ड आन ए बंगाली ?’कठिनाई स्वयं शरत बाबू को लेकर भी हुई। उनका चरित्र ही ऐसा था न जानें कितने अपवादों, लांछनों से वे घिरे रहे। अपने बारे में स्वयं अपवाद फेला देते थे। बड़ा जटिल चरित्र था उनका। इस जटिलता को सुलझााते, सुलजाते इतने वर्श बीत गये। 

 ‘विभिन्न कहानी आन्दोलनों पर आप क्या कहना चाहेंगे ?’

 आंदोलन प्रायः आइडेन्टी की तलाश हेतु किये जाते हैं। पहले हमें लम्बे समय तक साहित्य में कोई चुनौती देने वाला नहीं था, लेकिन अब लेखक बढ़ गये हैं। इसलिए भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाने हेतु आंदोलन चलाये जाते हैं। मूल्यों में जो परिवर्तन आते हैं वे भी नये आंदोलनों को जन्म देते हैं। 

 आम आदमी का आज बहुत राग है लेकिन मैं समझता हूं आम आदमी स्वयं जब तक अपनी कहानी नहीं लिखता, तब तक नकली आम आदमी ही साहित्य में प्रतिश्ठित होता रहेगा। बिरला साहित्यकार ही अपने को उस वर्ग से जोड़ सकता है। 

शरत जी के अलावा आप किन किन से प्रभावित हैं, 

बडा़ कठिन है ठीक ठीक उत्तर देना। बंकिम, रवीन्द्र और शरत बाबू, प्रेमचन्द और टाल्सटाय सभी से मैं प्रभावित हूं, लेकिन शरत बाबू से सर्वाधिक प्रभावित हूं, क्योंकि उनके जीवन की संवेदना मेरे जीवन के बहुत पास रही है। मेरा प्रारम्भिक जीवन काफी करूण रहा है, लेकिन इस सबके बावजूद मनुश्य को उसकी समग्रता में देखा जाना चाहिए। समग्र दृश्टि से देखने पर मुझे शरत बहुत आकर्शित करते हैं। भले ही इसे आप मेरी दुर्बलता समझें। समझाा भी गया है। 

देश की वर्तमान परिस्थितियों में साहित्यकार का दायित्व ?

राश्ट उनकी ओर दिशा निर्देश हेतु देख रहा है, लेकिन साहित्यकार असफल हो रहा है। मैं साहित्यकार को तीसरी आंख मानता हूं व्यवस्था को ठीक ढंग से चलने को बाध्य करने का दायित्व साहित्यकार पर है। उसे इस बहुत बड़े दायित्व का भार वहन करना चाहिए। वह यह काम सीधे आक्रमण करके नहीं करता बल्कि अपने पाठकों को सही स्थिति से परिचित कराता हैं ऐसे कराता है कि उसकी संवेदना जाग उठती है। 

    000