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विविधा - 13

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यदि प्रधानमंत्री न बनते तो साहित्यकार बनते  

राजनेता या चिन्तक नेहरू पर बहुत कुछ लिखा गया है मगर साहित्यकार नेहरू के बारे में बहुत कम जानकारी है। 1937 में कलकत्ता के ‘माडर्न रिव्यू’ में चाणक्य उपनाम से उन्होंने एक रिपोर्ताज में स्वयं के बारे में लिखा था, उसे फिर से देखिए-‘एक विशाल जुलूस, उसकी कार घेर कर नाचते कूदते चिल्लाते हजारों हजार लोग। वह कार की सीट पर अपने को ठीक से संभालते हुए खड़ा होता है-सीधी लम्बी आकृति देव पुरूश जैसी-उमड़ती भीड़ से एकदम असंप्रक्त। अचानक वही एक स्पश्ट हंसी और सारा तनाव जैसे घुल गया और बगैर यह जाने िकवह क्यों हंसा, सारी भड़ उसके साथ हंसने लगी। अ बवह देवता सरीखा नहीं था- एक मानव जो अपने चारों बगल उमड़ रही हजारों की भीड़ से एक गहरा रिश्ता और दोस्ती महसूस करता है और भीड़ भी उसे दोस्ताना महसूस करती है, ओर उसे अपने दिल में जगह देती है, फिर मुस्कान औझल हो जाती है और पीला, कठोर चेहरा उभर आता है।’ 

 र्जाज बनैड शा के अनुसार-‘ अगर नेहरू राजनीतिज्ञ नहीं होते तो वे भारत के सफलतम और महान लेखकों में से एक होते।’ 

 वास्तव में नेहरू कविमना, स्वप्नद्रश्टा, भावुक और अत्यंत संवेदनशील थे। वे एक महान कवि या संगीतकार या चित्रकार भी बन सकते थे। उनकी पुस्तकें ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ तथा ‘ग्लिम्पसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्टी’ उत्कृश्टतम अंग्रेजी लेखन के उदाहरण हैं। 

 ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में वे लिखते हैं-‘जिन्दगी से मुंह मोडने या उससे बाज आने में मुझे यकीन नहीं। जिन्दगी से मुझे मोहब्बत है और वह बराबर मुझे अपनी तरफ खींचती है। अपने ढंग से मैं उसका रस लेना चाहता हूं।’

 नेहरू जी की साहित्यिक श्यख्शियत उन पर गहरा असर रखती थी। वह अपनी मेज पर राबर्ट फ्रोस्ट की प्रसिद्ध कविता ‘माइल्स टू गो बिफोर आई स्लीप’ रखते थे और आजीवन इस कविता से प्रेरणा पाते रहे। बच्चों, फूलों, बादलों, सौंदर्य का उपासक तो कोई साहित्यस्त्रश्टा ही हो सकता है, राजनीतिज्ञ नहीं। उनके लेखन का महत्व तथा साहित्यिक अभिरूचि का पता निम्न घटनाओं से चलता है। 

 आजादी के बाद पहली बार पंडितजी अमरीका गए। साहित्य, पुस्तकें और पत्रिकाओं के प्रति उनका प्रेम सर्वविदित है हि। अतः अमरीका के तूफानी दौरे में भी अवकाश निकाल कर वे न्यूयार्क स्थित पुस्तकों की एक बड़ी दुकान में गए।

 दुकान दार को पहले ही सूचना दी गई थी। अतः दुकान, फर्नीचर, पुस्तक और पत्रिकाएं करीने से सजा कर रखी गई थी। दुकान की मालकिन ने पंडितजी का दरवरजे पर स्वागत किया। खुद चलकर उन्हें सारी दुकान और उसमें रखा ग्रंथ वैभव दिखाया। विभिन्न विशयों के ग्रन्थों की जानकारी देते देते वह महिला अचानक एक अकल्पित बात बोल गई। उसने पंडितजी से कहा-‘आपको शीघ्र ही जेलखाने में बंद कर देना चाहिए।’ 

 सब आश्चर्यचकित हो गए, पंडितजी ने मृदु स्वर में पूछा-‘मैं नहीं समझा। आप कहना क्या चाहती हैं।’ 

 ‘आपके ग्रन्थों की बहद मांग होती है और आप सचमुच बहुत सुंदर लिखते भी है लेकिन जब से भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, आपने लिखना छोड़ दिया है। इस तरह करोडों़ पाठकों ने अपना प्रिय लेखक खो दिया है इसलिए अंग्रेज सरकार को आपको शीघ्र ही जेलखाने में बंद कर देना चाहिए।’ 

 पंडितजी दिल खोलकर हंसंे 

 सन् 1954, दिल्ली में साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय राश्टीय नाटक महोत्सव का पंडितजी ने उद्घाटन किया,फिर महाकवि कालिदास के नाटक ‘शाकुंतलम्’ का प्रदर्शन था। समयाभाव के कारण प्रधानमंत्री केवल प्रथम अंक में ही उपस्थित रहेंगे, ऐसी सूचना आयोजकों को पहले ही दे दी गई थी। फलस्वरूप नाटक का प्रथम अंक पूर्ण होते ही आयोजकों की ओर से घोशणा की गई कि नेहरूजी समयाभाव के कारण पूरे नाटक में उपस्थित रहने में असमर्थ हैं। अतः पहले पुरस्कार वितरण होगा, फिर शेश नाटक अभिनीत किया जायगा। 

 लेकिन इधर पंडितजी को नाटक इतना अच्छा लगा िकवे मंत्रमुग्ध हो, परदा गिरने तक उसे तन्मयता से देखते रहे, आयोजकों की घोशणा जब उनके कान में पड़ी तब वे चांक उठे और उन्होंने अपने स्थान से ही चिल्ला कर कहा-‘ महाशय मुझे तो पूरा नाटक देखना है।’ 

 सच पूछो तो नेहरूा जी सुंदरतम की खोज में निरन्तर लगे रहे। देशी, विदेशी, साहित्य का गहरा अध्ययन करने के अलावा सभी भारतीय भाशाओं के साहित्यकारों से उनका निजी परिचय था। साहित्य अकादमी की स्थापना के समय उन्होंने कहा था-‘शब्द हमेशा फिसल फिसल जाते हैं। पूरी तरह समझ में नहीं असते हैं, पी अंततः इस दुनिया में शब्द ही सबसे महान हैं वे ही टिकते हैं। ’ 

 रामायण और महाभारत को वे बहुत श्रद्धा और आदर देते थे। 

 रवीन्द्रनाथ ठाकुर उन्हें ‘ऋतुराज’ कहते थें अपनी आत्मकथा में उन्होंने कविता को अपना प्यार माना है। यह नेहरूजी की ही सदाशयता थी कि उनके कार्यालय में संसद में मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे लोग थे। 

 

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