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विविधा - 1

यशवंत कोठारी

1-कवियों-शायरों की होली

बात होली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है। जाने माने शायर नजीर अकबराबादी कहते हैं: 

 जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।

 और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। 

 परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की। 

 महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की 

 कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो। 

 मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों में 

पिचकारी हो, तब देख बहारें होली की।

लेकिन बहादुरशाह जफर अपना अलग ही तराना गाते हैं, वे कहते हैंः

 क्यूं मों पे मारी रंग की पिचकारी

 देखो कुंवरजी दूंगी गारी। 

 भाज सकूं मैं कैसे मोंसो भाजयों नहीं जात 

 थाडे़, अब देखूं मैं, कैान जो दिन रात।

 सबको मुंह से देत है गारी, हरी सहाई आज

 जब मैं आज निज पहलू तो किसके होती लाज। 

 बहुत दिनन मैं हाथ लगे हो कैसे जाने दूं

 आज है भगवा तोसों कान्हा फटा पकड़ के लूं।

 शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से खेले कौन होरी।

और कबीर की फक्कड़ होली का ये रंग तो सबको लुभाता ही है:

 इक इक सखियां खेले घर पहुंची, इक इक कुल अरुझानी, 

 इन इक नाम बिना बहकानी, हो रही ऐंचातानी,

 प्रिंय को रुप कहां लाग वरनों, रुपहिं माहिं समानी,

 जो रंग रंगे सकल छवि छाके, तनम न सबहि भलाती, 

 यों मत जाने यहि रे फयाग है, यह कुछ अकथ कहानी,

 कहैं कबीर सुनो भाई साधे, यह गति बिरले जानी। 

वास्तव में बसन्त और होली नये जीवन चक्र का प्रस्थान करने का समय है और ऐसी स्थिति में निराला कहते है:

 युवक-जनों की है जान, खून की होली जो खेली।

 पाया है आंखों का मान, खून की होली जो खेली। 

रंग गए जैसे पलाश, कुसुम किशंक के सुहाए

पाए कोकनद-पाण, खून की होली जो खेली।

निकलें हैं कोंपल लाल, वनों में फागुन छाया

आग के फाग की तान, खून की होली जो खेली।

खुल गई गीतों की रात, किरन उतरी है प्रात की। 

हाथ कुसुम-वरदान, खून की होली जो खेली।

आई भुवेश बहार, आम लीची की मंजरी

कटहल की अरधान, खून की होली जो खेली। 

विकट हुए कचनार, हार पड़े अमलतास के 

पाटल-होंठों मुस्कान, खून की होली जो खेली। 

 होली का यह आनंद मुगलों ने भी खूब लिया। मीर तकी मीर गाते हैं: 

  आओ साकी बहार फिर आयी,

  होली में कितनी शादियां लागी। 

  आयें बस्ता हुआ है सारा शहर,

  कागजी गुल से गुलिस्तां है दहर। 

  कुमकुमे घर गुलाल जो मारे, 

  महविशां लाला रुख हुए सारे। 

  खान भर भर अबीर लाते हैं,

  गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं। 

  जश्ने नीरोज हिन्द होली है,

  रागो-रेग और बोली ठोली है। 

 उर्दू में होली का विशद एवं रोचक वर्णन करने वाले शायरों की कमी नहीं हैं। उत्तरी भारत के प्रसिद्ध शायर फाइज देहलवी ने अपनी कविता में रंग, अबीर, पिचकारी, नारियों की ठिठोली आदि का विशद वर्णन किया है-

  नाचती गा गा के होरी दम-ब-दम

  जूं सभा इंदर की दरबारे हरम

  जूं जड़ी हरसू है पिचकारी की धार

  नाचती है नारियां बिजली के सार

 नजीर अकबराबादी के अनुसार यह त्यौहार आम आदमी का त्यौहार है-

  कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है

  जो खाली रहता है वह देखने को जाता है

  जो ऐश चाहो वो मिलता है यार होली में

उर्दू काव्य ने कालांतर में होली शब्द को उपमा के रुप में ग्रहण किया। इसका प्रमाण है शमीम करहानी का यह शेर-

  दिलो जलो कि पाक होली आ गयी

  जिंदगी परचम नया लहरा गयी

 सातवें दशक में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे-चीनी और पाकिस्तानी आक्रमण, शांतिप्रिय महापुरुपों का मृत्यु शोक। उर्दू के जांबाज कवियों ने होली को इस संदर्भ में भी प्रस्तुत किया। हसरत रिसापुरी की यह नज्म आपसी भाईचारे अमन चैन की अपील करती है-

  मुंह पर लाल गुलाल लगाओ

  नैनन को नेत्रों से मिलाओ 

  बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ

  है होली, खेलो होली।

  सबको आत्मज्ञान सिखलाओ.

 

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