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पराभव - भाग 2

पराभव

मधुदीप

भाग - दो

गाँव में आदर्श विद्या मन्दिर की स्थापना हुए दो वर्ष व्यतीत हो चुके थे | इन दो वार्षों में श्रद्धा बाबू और मास्टर जसवन्त सिंह के अथक प्रयास से विद्यालय की ख्याति दूर-दूर के गाँवों तक पहुँच गई थी | इन दोनों के अतिरिक्ति मनोरमा तो प्रारम्भ से ही इस विद्यालय में पढ़ाने का काम कर रही थी, अब बच्चों की बढ़ती संख्या को देखते हुए विद्यालय में एक अध्यापक और एक अध्यापिका की नियुक्ति और कर ली गई थी |

श्रद्धा बाबू गाँव की बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक जोर देता था | उसका आदर्श था कि यदि हम बालक को पढ़ाते हैं तो सिर्फ एक को शिक्षित करते हैं, परन्तु यदि हम एक बालिका को शिक्षा देते हैं तो पूरे एक परिवार को शिक्षित करते हैं | श्रद्धा बाबू और मास्टर जसवन्त सिंह जी घर-घर जाकर लड़कियों की शिक्षा का महत्त्व समझाते थे | इस कारण से विद्यालय में छात्राओं की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी |

इसी मध्य श्रद्धा बाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया | श्रद्धा बाबू पिछ्ले दस दिनों से विद्यालय नहीं जा सका था | उसके विद्यालय न जाने से वहाँ कुछ अव्यवस्था-सी फैल गई थी | इससे जसवन्त सिंह जी भी चिन्तित थे | वे प्रतिदिन ही श्रद्धा बाबू के घर हो आया करते थे, परन्तु विद्यालय में फैलती अव्यवस्था के विषय में उन्होंने उससे अब तक किछ नहीं कहा था |

आखिर श्रद्धा बाबू के पिताजी की तेरहवीं के उपरान्त एक दिन मास्टरजी ने घर जाकर श्रद्धा बाबू को पुकारा –

"श्रद्धा...ओ श्रद्धा बेटे...|"

"आया गुरूजी!" कहते हुए उदास मुरझाया मुख लिए वह उनके सामने आ खड़ा हुआ |

मास्टर जसवन्त सिंह श्रद्धा बाबू के साथ घर में चले गए | श्रद्धा बाबू की माँ रसोई में खाना बनाने में लगी थी | वे उसके साथ कमरे में बैठ गए |

"बेटा, तुम्हारे पिताजी के चले जाने का मुझे भी बहुत दुख है, लेकिन ऐसे कितने दिनों तक चलेगा |" प्यार और आत्मीयता से मास्टरजी ने कहा |

"क्या करूँ गुरूजी, मुझसे कुछ करते नहीं बन रहा है | किसी कार्य को करने के लिए मन नहीं करता, मैं बहुत ही अकेला हो गया हूँ गुरूजी!" कहते-कहते उसकी आँखों से दो आँसू चू पड़े |

श्रद्धा बाबू की इस स्थिति से मास्टरजी भी विचलित हो गए | उन्होंने उठकर उसे अपने सीने से लगा लिया |

"बेटा श्रद्धा, इस तरह हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा | इस तरह से न तो जानेवाले की आत्मा को शान्ति मिलेगी और न तुम ही इस तरह चैन पा सकोगे | उधर विद्यालय में तुम्हारे न होने से बड़ी अव्यवस्था फैल रही है | वहाँ आओगे तो काम में तुम्हारा मन भी बहल जाएगा | चलो, आज मैं तुम्हें विद्यालय ले चलता हूँ |"

"ऐसी अवस्था में गुरूजी!" आश्चर्य से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"ऐसी अवस्था में क्यों! तुम जाकर स्नान आदि से निवृत हो लो, मैं तुम्हारी माताजी से मिल लेता हूँ |"

"जैसी आपकी इच्छा गुरूजी |" वह मास्टरजी के आग्रह को टाल न सका और स्नान करने के लिए वहाँ से उठ गया |

मास्टरजी श्रद्धा बाबू की माँ के पास चले गये | श्रद्धा बाबू ने रसोई के दरवाजे पर एक कुर्सी लाकर रख दी और मास्टरजी माया देवी से बातों में लग गए |

लगभग आधा घंटा बाद श्रद्धा बाबू तैयार होकर मास्टरजी के साथ विद्यालय की ओर चल दिया | जब वे वहाँ पहुँचे तो कक्षाएँ आरम्भ हो चुकी थीं | मास्टर जसवन्त सिंह जी के साथ चलता हुआ वह देख रहा था कि सचमुच ही विद्यालय में काफी अव्यवस्था फैली हुई थी | कुछ बच्चे अपनी कक्षाओं को छोड़कर बाहर घूम रहे थे | कई गमलों में पौधे सूख रहे थे | शायद पिछ्ले कई दिनों से इनमें पानी नहीं दिया गया था | वहाँ सफाई का भी कार्य ठीक नहीं था | सफाई कमर्चारी भी पीछे से लापरवाही बरतता रहा था |

यह सब-कुछ देखकर श्रद्धा बाबू को बहुत दुख हुआ | यह विद्यालय उसे स्वयं से भी अधिक प्रिय था | उसने विश्चय किया कि वह अब और अवकाश न लेकर नित्य ही विद्यालय आएगा | उसे विश्वास था कि अपनी देख-रेख में वह इस फैली हुई अव्यवस्था को शीघ्र ही दूर कर सकेगा |

अब प्रतिदिन श्रद्धा बाबू विद्यालय आने लगा | वह एक बार फिर पहले से भी अधिक महेनत से विद्यालय के उत्थान में जुट गया | फैली अव्यवस्था शीघ्र ही दूर हो गई और अब फिर वहाँ श्रद्धा बाबू के अनुशासन में व्यवस्थित ढंग से कार्य होने लगा |

काम में लग जाने से श्रद्धा बाबू के मन का सन्ताप भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा था | उसकी मुसकान पुनः जीवित होने लगी थी | जीवन सामान्य गति से आगे बढ़ने लगा था |

समय यूँ ही भागता जा रहा था | श्रद्धा के पिताजी के स्वर्गवास को एक वर्ष से ऊपर हो गया था | मास्टर जसवन्त सिंह तीन महीने में कई बार माया देवी से श्रद्धा के विवाह के लिए कह चुके थे | माया देवी ने उन्हें जब श्रद्धा के विश्चय के विषय में बताया तो उन्होंने कहा था कि अब श्रद्धा पूरी तरह से अपनी जीविका कमाने के साथ-साथ मानसिक रूप से परिपक्व हो चुका है, इसलिए उसका विवाह हो जाने में कोई हानि नहीं है | वे अब शीघ्र ही स्वयं को मनोरमा के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लेना चाहते थे |

श्रद्धा की माँ माया देवी को तो अपने बेटे के विवाह का अधिक ही शौक था | पति के देहान्त को एक वर्ष से ऊपर हो गया था | वह अपने सामने आँगन में बहू को घूमते हुए देखना चाहती थी | उसे इसलिए भी जल्दी थी कि वहाँ वह स्वयं भी पति की तरह बिना बहू का मुख देखे परलोक न सिधार जाए |

एक दिन माया देवी ने श्रद्धा बाबू को अपने पास बिठाते हुए कहा, "बेटा, तुम्हारे पिताजी को गए एक वर्ष से अधिक हो गया है | तुम स्कूल चले जाते हो | पीछे से घर बड़ा सूना-सूना सा लगता है | अब तुम मनोरमा से विवाह कर लो |"

"माँ! कुछ दिन और ठहर जाती तो अच्छा था |"

"बेटा, मास्टरजी भी जिद कर रहे हैं | अब ऐसी बात तो नहीं है जो कि उनकी जिद को टाला जाए | तुम्हारे पिताजी की भी यही इच्छा थी बेटे | घर में बहू आने से मैं भी अकेली नहीं रहूँगी | मैं चाहती हूँ कि तुम हाँ कर दो | मैं मास्टरजी से कह दूँगी कि वे जल्दी ही विवाह का मुहूर्त निकलवा लें | इससे तेरे पिताजी की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी |"

"मैं पिताजी के वचन से बंधा हुआ हूँ माँ | जैसा तुम उचित समझो का लो |" उदासीनता से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"नहीं बेटा, तुम अपने को बन्धन में महसूस न करो | यदि तुम्हें मनोरमा पसन्द न हो तो...|"

"यह बात नहीं है माँ | मेरी इच्छा तो सिर्फ अभी कुछ ठहरकर विवाह करने की थी |"

"जहाँ तक मेरा विचार है, अब तेरे विवाह कर लेने में कोई हर्ज नहीं है | दो साल पहले और बाद में क्या फर्क पड़ता है |"

"मैं सोचता था माँ कि पच्चीस वर्ष की आयु से पहले विवाह न करूँ | हमारे गुरुओं ने भी विवाह के लिए वही आयु ठीक मानी है |"

"तो तू मुझ बूढ़ी से और अधिक दिन चक्की पिसवाना चाहता है |"

"नहीं माँ नहीं, यह क्या कह रही हो |"

"श्रद्धा बेटे, अब मैं बहुत थक गई हूँ | घर का सारा काम अब मुझसे ठीक से नहीं सम्भलता | तुम्हारे पिताजी बहू का मुँह देखने की आशा दिल में दबाए चले गए | कहीं तेरी शादी से पहले मेरी आँखें भी...|"

"नहीं माँ, ऐसा न कहो | मैं अभी तक उस दर्द को भी भुला नहीं पाया हूँ |"

"तो हाँ कह दे बेटा...|"

"जैसी तुम्हारी इच्छा माँ |" कहते हुए श्रद्धा बाबू बहार निकल गया |