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पराभव - भाग 10

पराभव

मधुदीप

भाग - दस

विद्यालय की अन्तिम घंटी चल रही थी | श्रद्धा बाबू विद्यालय के छात्रों द्वारा लगाई गई क्यारियों को देख रहा था | कुछ छात्र उस क्यारियों में पानी देने का कार्य कर रहे थे | दो-तीन और अध्यापक भी वहाँ खड़े थे | उनकी कक्षा की छात्र-छात्राएँ भी खेती-बाड़ी की घंटी होने के कारण क्यारियों में कार्य कर रहे थे |

"भूमि चाहे कितनी ही उपजाऊ क्यों न हो, यदि उसमें अच्छा बिज न डाला जाए तो फसल उत्पन्न नहीं हो सकती |" एक अन्य अध्यापक अपनी कक्षा के छात्र-छात्राओं को समझा रहे थे | उधर से गुजरते श्रद्धा बाबू के कानों में भी जब ये शब्द पड़े तो उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे उस अध्यापक ने यह वाक्य उस पर व्यंग्य करते हुए उसे सुनाने के लिए ही कहा है | एक बार को तो उसकी इच्छा उस अध्यापक को बुलाकर कुछ कहने की हुई मगर फिर व्यर्थ के विवाद से बचने के लिए वह अपमान को अन्दर-ही-अन्दर पीता हुआ चुपचाप वहाँ से चल दिया |

श्रद्धा बाबू का मन इस छोटी-सी घटना से उखड़ गया था | जिस श्रद्धा बाबू को गाँव के व्यक्ति आदर्श व्यक्ति मानकर सम्मान करते थे, उसका आज एक अध्यापक ने तिरस्कार कर दिया था | छोटी-सी बात के लिए अपना इतना तिरस्कार श्रद्धा बाबू सहन नहीं कर पा रहा था | यदि उसकी सन्तान नहीं है तो समाज और अन्य व्यक्तियों को उससे क्या हानि है | क्यों कुछ लोग उसे अपमान-भरी धृणित दृष्टि से देखते हैं? श्रद्धा बाबू का मस्तिष्क विचारों में घिर रहा था | यदि उसकी सन्तान नहीं है तो वह समाज और देश पर कोई बोझ तो नहीं है | इस तरह उसने किसी न किसी रूप में जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक समस्या को कम ही किया है लेकिन नहीं...शायद समाज और इस व्यक्तियों को उससे अधिक उसके बच्चे की आवश्यकता है | जैसे यह उसका व्यक्तिगत विषय न होकर समाज के व्यक्तियों की सामूहिक समस्या हो | क्या अधिकार है इन व्यक्तियों को उसके व्यक्तिगत अभाव पर चोट करने का? सोचते हुए श्रद्धा बाबू का मस्तिष्क इस समाज और इसमें रहने वालों के प्रति घृणा से भर गया |

इसके उपरान्त श्रद्धा बाबू विद्यालय में न ठहर सका | छुट्टी होने में अभी आधा घंटा शेष था मगर वह विना किसी से कुछ कहे तुरन्त घर की ओर चल दिया |

श्रद्धा बाबू उदास मुख लिए घर पहुँचा तो माँ किसी कार्यवश बाहर गई हुई थी | मनोरमा शाम के खाने के लिए दाल साफ कर रही थी | पति को आया देखकर वह थाली रखकर उठ खड़ी हुई |

"क्या बात है, कुछ परेशान हो? आपकी तबियत तो ठीक है ना?" पति को उदास देखकर मनोरमा पूछे बिना न रह सकी |

"मुझे एक बच्चा चाहिए मनोरमा, मुझे एक बच्चा दे दो |" दोनों हाथों से पत्नी को पकड़कर झिंझोड़ते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा | आवेश और पीड़ा के कारण दो आँसू उसकी आँखों से लुढ़ककर गलों पर फैल गए |

मनोरमा अपने पति की मानसिक स्थिति समझ गई थी | उसे भी पति की यह दशा देखकर मानसिक आघात पहुँचा था | आँखों में उमड़ आई अविरल धारा को पति से छिपाने के लिए उसने मुँह दूसरी ओर धुमा लिया |

"मनोरमा!" श्रद्धा बाबू ने पत्नी के आँसुओं से द्रवित हो अपना दुख भूल उसे अपनी बाँहों में कस लिया | मनोरमा अपने पति के कन्धे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो उठी |

"चुप हो जाओ मनोरमा!" उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

आँसू बह जाने से मनोरमा के मन की पीड़ा कुछ हल्की हो गई थी | उसने पति के कन्धे से सिर हटाकर आँसू पोंछे और पति के लिए पानी का गिलास लाने के लिए रसोई की ओर चली गई |

श्रद्धा बाबू अपने मन के दर्द को किसी पर व्यक्त करना चाहता था | पत्नी से वह अपना दर्द कह नहीं सकता था | पत्नी स्वयं भी तो उसी अभाव से पीड़ित थी | चिन्ता में घिरे हुए वह कमरे में पड़ी चारपाई पर बैठ गया |

मनोरमा पति के लिए पानी का गिलास भर लाई थी | श्रद्धा बाबू पानी का गिलास उसके हाथों से लेना भूल उसके मुँह की ओर देखे जा रहा था |

"मनोरमा, क्या तुम मुझे एक बच्चा नहीं दे सकती?"

"दे सकती हूँ |" दृष्टि झुकाए हुए मनोरमा ने कहा |

"फिर देती क्यों नहीं?"

"आप किसी डाक्टर से सलाह क्यों नहीं लेते |"

"हाँ, अब तो लेनी ही पड़ेगी |" एक निःश्वास-सा छोड़ते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा, "तुम कल ही मेरे साथ शहर चलो |"

"मेरी आवश्यकता नहीं है |" मनोरमा कह गई |

"क्यों?" आश्चर्य से श्रद्धा बाबू ने कहा |

एक पल को मनोरमा कुछ न कह सकी |

"तुम्हारी आवश्यकता क्यों नहीं है मनोरमा? क्या मैं अकेला ही बच्चा पैदा करूँगा |"

"ऐसी बात नहीं है स्वामी | मैं अपनी जाँच करवा चुकी हूँ |"

"कब...?" विस्मित-सा श्रद्धा बाबू कह उठा |

"अभी, जब गाँव गई थी तो मैं एक औरत के साथ शहर हो आई थी |"

"नहीं मनोरमा...|" एकाएक वह चीख उठा, "इसका अर्थ है कि कमी मुझमें ही है | क्या मैं ही अपूर्ण पुरुष हूँ...!" एक दुख भरी साँस अपने अन्दर खींचते हुए उसने कहा |

"ऐसा न सोचो स्वामी! आप डाक्टर से मिल लें |" मनोरमा ने उसे धैर्य-सा बँधाते हुए कहा |

श्रद्धा बाबू अपनी पत्नी की कही बात सुन ही नहीं पाया था | उसका मष्तिक सन्न होकर रह गया था | अचानक वह चारपाई पर लेट गया | उसे अपनी आँखों के सामने अन्धेरा-सा छाता दिखाई दे रहा था | उसकी दृष्टि ऊपर छत पर जमी हुई थी मगर उसे वहाँ सिर्फ एक काली चादर फैली हुई दिखाई दे रही थी |

अब तक श्रद्धा बाबू स्वयं में कमी महसूस करने की अपेक्षा मनोरमा की ही कमजोरी मानता था जिसके कारण अभी तक बच्चा न हुआ था | अधिक-से-अधिक कभी वह यह सोच लेता था कि शायद उस दोनों में ही कोई कमी है परन्तु आज तो मनोरमा ने उसे ही पूर्ण दोषी बना दिया था | जब मनुष्य अपने साथ अन्य व्यक्तियों को भी किसी कार्य में दोषी अनुभव करता है तो उसे कुछ सन्तोष-सा अनुभव होता है लेकिन जब दोष उस अकेले का रह जाए तो उसका दुख बहुत अधिक बढ़ जाता है | यही स्थिति श्रद्धा बाबू की भी थी | अब तक उसने कभी भी स्वयं को इतना दुखी अनुभव न किया था मगर आज सच्चाई जानकर दुख ने उसे अन्दर तक तोड़ दिया था |

पति को इस प्रकार चिन्तित और दुखी देखकर मनोरमा मन ही मन अपने द्वारा बताई बात पर पश्चाताप भी कर रही थी | वह अपने पति को भ्रम में भी नहीं रख सकती थी और फिर वह कब तक इस बात को छिपाती | एक न एक दिन तो इस रहस्य को उसके पति पर प्रगट होना ही था |

मनोरमा इस समय समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? वह पति को सांत्वना देना चाहती थी मगर उस द्वारा इस विषय में कुछ भी कही बात उसके पति को और अधिक दुखी कर सकती थी |

"आप चिन्ता न करें स्वामी! सब ठीक हो जाएगा |" किसी तरह साहस करके उसने कहा |

"सब भाग्य की बात है मनोरमा! मुझे डॉक्टरी जाँच करानी ही होगी | तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बता दिया |"

"मैं तुम्हें दुखी नहीं देखना चाहती थी |"

"और स्वयं इस रहस्य को अपने में समेटकर घुटना तुम्हें ठीक लगता था | तुम सारा दोष अपने सिर लेती रहीं जबकि तुम जानती थीं कि तुममें कोई कमी नहीं बल्कि दोषी मैं हूँ |" श्रद्धा बाबू मनोरमा के धैर्य से चकित रह गया था |

"सब कुछ सहना ही तो नारी का धर्म है स्वमी |"

"ओह मनोरमा!" उद्वेग के कारण वह कुछ न कह सका और उसने आगे बढ़कर पत्नी को अपनी बाँहों में भर लिया |

"मैं कल ही शहर जाऊँगा...|" श्रद्धा बाबू पत्नी को बाँहों में लिए बुदबुदा उठा |

माँ के पाँवों की आहट सुनकर मनोरमा पति से अलग हो गई | श्रद्धा बाबू वहीँ पलंग पर लेटा कल शहर जाने की योजना बनाता रहा |