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पराभव - भाग 7

पराभव

मधुदीप

भाग - सात

दोपहर के दो बजे थे | मनोरमा घर के कार्य से निबटकर अन्दर के कमरे में बैठी सिलाई कर रही थी | उसकी सास बाहर के कमरे में बैठी किसी से बातें कर रही थी | उन दोनों की आवाज मनोरमा तक भी पहुँच रही थी मगर दुसरे व्यक्ति की आवाज से वह परिचित न थी |

थोड़ी देर के बाद सास ने मनोरमा को आवाज दी तो वह सिलाई का काम छोड़कर बाहर की ओर चल दी |

मनोरमा ने बाहर के कमरे में आकर देखा | उसकी सास एक भगवा वस्त्रधारी साधू से बातें कर रही थी | सास के प्रभाववश मनोरमा ने साधू को हाथ जोड़कर प्रणाम किया |

"बहु, बैठकर बाबा को अपना हाथ दिखा | ये बहुत सच बातें बताते हैं |" सास ने कहा |

मनोरमा अनिच्छा से वहाँ बैठ गई | श्रद्धा न होने पर भी उसने अपना हाथ साधू की ओर बढ़ा दिया |

साधू कुछ देर तक मनोरमा के हाथ की रेखाएँ देखता रहा | वह रह-रहकर मनोरमा के मुख की ओर भी देख लेता था |

"बहुत बड़ा भाग्य पाया है तेरी बहू ने माई |" लगभग पाँच मिनट बाद साधू ने मुँह खोला, "बड़ी गुणवती है यह |"

"बाबा, शादी को पाँच वर्ष हो गए मगर अभी तक बहू की गोद नहीं भरी | कुछ बच्चों के विषय में बताओ |" सास ने श्रद्धा-भरी आवाज में कहा |

"अवश्य...अवश्य...|" कहते हुए साधू मनोरमा की हस्त-रेखाओं का गूढ़ अध्ययन कर रहा हो |

"...हूँ...|" कुछ देर बाद वह बुदबुदाया, "सन्तान सुख! माई इसके हाथ में सन्तान सुख तो है मगर...|"

सास की बँधती आशा में ‘मगर’ ने व्यवधान उपस्थित किया तो वह कह उठी, "मगर क्या बाबा?"

"अभी ग्रह ठीक नहीं हैं माई | राहू की चाल ठीक नहीं है |" कुछ सोचते हुए साधू ने कहा |

"इसका कुछ उपाय बाबा!" सास ने पूछा |

"हाँ माई, उपाय तो है मगर...|"

"आप कहें बाबा |"

"साधारण उपाय है माई, मगर मन में श्रद्धा हो तो बताऊँ |"

मनोरमा वहाँ बैठी मन ही मन कुढ़ रही थी | श्रद्धा की बात पर उसे हँसी भी आई मगर उसने किसी तरह उस हँसी को रोक लिया |

"बताओ महाराज |" सास ने अपनी अनुमति देते हुए कहा |

कुछ देर बैठा वह साधू सोचता-विचारता रहा |

"बहू को एक ताबीज धारण करना होगा माई | इस बिच इसे बीस दिन पति के पास नहीं जाना होगा | बीस दिनों तक हमारी दवा का नित्य सेवन करना होगा | फिर बहू को गर्भ ठहर जाने पर जैसी इच्छा हो दान-पुण्य कर देना |"

"ठीक है महाराज, आप दवा और ताबीज दे दें |"

"दवा और ताबीज हमारी झोली में थोड़े ही हैं माई | दवा कल हम बना देंगे | हम तालाब वाले मन्दिर में ठहरे हैं | यदि तुम चाहो तो हम आज रात ताबीज तैयार करने का प्रबन्ध करें |"

"हाँ...हाँ महाराज!"

"इसमें कुछ खर्चा होगा माई | इस समय तुम सिर्फ पचास रूपए दे दो...शेष सौ रूपए तुम दवाई तैयार हो जाने पर दे देना |"

"यह तो बहुत है बाबा |" सास ने हिचकिचाहट दिखाई |

"माई यह तो कुछ भी नहीं है | सिर्फ डेढ़ सौ रूपए मात्र का खर्चा है और फिर यह तो श्रद्धा की बात है |" साधू ने उठने का अभिनय करते हुए कहा |

"आप बैठें बाबा, मैं रूपए मँगवाती हूँ |" सास ने उसे उठता देखकर कहा |

"बहू, मेरे बक्स से पचास रूपए निकालकर बाबा को दे दे |" सास का आदेश सुनकर मनोरमा वहाँ से उठकर चली गई | वह चाहकर भी अपनी सास का विरोध नहीं कर सकती थी | मन में विरोध की एक जबरदस्त भावना जन्म ले रही थी, मगर मनोरमा किसी भी तरह स्वयं पर नियन्त्रण रखने का प्रयास कर रही थी | उसे दुख था की व्यर्थ में ही पचास रूपए की ठगी हो रही है | वह कुछ कर भी तो नहीं सकती थी, इसलिए चुपचाप उसने पचास रूपए लाकर सास के हाथ में दे दिए |

"लो महाराज, आप दवा और ताबीज बना दें |" सास ने वे रूपए साधू को देते हुए कहा |

साधू ने रूपए ले लिए और चलते-चलते बोला, "कल प्रातः मन्दिर में आकर ताबीज ले जाना |"

साधू इतना कहकर वहाँ से चल दिया | मनोरमा भी अन्दर कमरे की ओर जाने लगी मगर सास ने उसे वहीँ रोक लिया |

"इस बार मुझे लगता है कि काम बन जाएगा | बहुत पहुँचा हुआ साधू लगता था |"

मनोरमा ने सास की बात का कोई उत्तर न दिया | कुछ देर यूँ ही चुपचाप बैठी अपनी सास की व्यर्थ की आशा-भरी बातें सुनती रही |

कुछ देर पश्चात् मनोरमा ने उपयुक्त अवसर देखकर अपनी सास से कहा, "माँजी, मुझे पिताजी से मिले बहुत दिन हो गए हैं | आप कहें तो मैं कुछ दिनों के लिए अपने पिताजी के पास हो आऊँ |"

सास भी कुछ इसी तरह का विचार कर रही थी | साधू ने बहू को बीस दिन के लिए पति से अलग रहने को कहा था | साथ रहते हुए उसे ऐसा होना कठिन लग रहा था इसलिए उसकी भी इच्छा थी कि बहू दवाई कहीं बाहर जाकर ले | पिता के पास जाने से अच्छा और क्या हो सकता था |

"ठीक है बहू, तुम परसों अपने पिता के पास चली जाना | मैं कल बाबा से तुम्हारा ताबीज और दवा ला दूँगी |" सास ने अपनी स्वीकृति दी तो मनोरमा उठकर अन्दर के कमरे की ओर चल दी |

रात्रि को जब मनोरमा ने अपने पति से भी पिता के घर जाने की अनुमति माँगी तो उसने विरोध न किया | वह स्वयं भी कुछ दिन शान्ति से एकान्त में रहना चाहता था | सुबह शीघ्र ही उठकर सास मन्दिर की ओर चल दी | राह भर वह मन ही मन कामना कर रही थी कि हे भगवान इस साधू महाराज का ताबीज और दवा काम कर जाए |

जितनी आशा लिए सास मन्दिर गई थी उतनी ही निराशा लिए वहाँ से लौटी | मन्दिर में कोई साधू न था | कुछ देर वह वहाँ प्रतीक्षा भी करती रही | मन्दिर के नियमित पुजारी से जब उसने इस विषय में पूछा तो उसने भी इससे अनभिज्ञता प्रगट की | उसे विश्वास हो गया की वह साधू वास्तव में ठग था, जो उसके और शायद उसे जैसी दूसरी स्त्रियों के रूपए ठग कर ले गया है | वह निराश अपना-सा मुँह लिए वापस घर आ गई |

घर पहुँचते ही उसका सामना मनोरमा से हो गया | सास का उतरा हुआ चेहरा देखकर मनोरमा सारी कहानी समझ गई | सामना होने पर सास भी उसे साधू को गालियाँ देती हुई अपने भाग्य को कोसने लगी |

श्रद्धा बाबू को अब तक इस विषय में कुछ पता न था | मनोरमा ने जानबूझकर ही रात्रि को अपने पति को कुछ न बताया था | सुबह माँ की गालियाँ सुनकर उसे पता लगा तो उसे बहुत क्रोध आया और क्रोध को व्यक्त न कर सकने के कारण वह मन ही मन दुखी हो अन्दर कहीं से टूटता गया |

मनोरमा को कल अपने पिता के पास जाना था मगर श्रद्धा बाबू ने उसे आज ही जाने की तैयारी करने को कहा तो वह चुपचाप सिर झुकाए अन्दर जाकर जाने की तैयारी करने लगी |