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पराभव - भाग 8

पराभव

मधुदीप

भाग - आठ

श्रद्धा बाबू का एक मित्र रंजन शहर में रहता था | हाई-स्कूल की पढ़ाई के मध्य कस्बे में वे दोनों होस्टल के एक ही कमरे में रहते थे | विचारों की समानता ने दोनों को बहुत ही समीप ला दिया था | श्रद्धा बाबू ने हाई-स्कूल की शिक्षा के बाद अध्यापक के प्रशिक्षण हेतु प्रवेश ले लिया था और रंजन आगे की पढ़ाई के लिए कॉलिज में प्रविष्ट हो गया था | श्रद्धा बाबू जब भी विद्यालय का कोई सामान खरीदने या अन्य किसी कार्य से शहर जाता तो रंजन से मिले बिना न आता | रंजन भी प्रायः शहर की बंधी जिन्दगी से उकताकर श्रद्धा बाबू के पास गाँव में आ जाता था | दोनों ही एक-दुसरे के दुख-दर्द और रहस्यों से परिचित रहते थे | श्रद्धा बाबू के लिए रंजन जानता था कि श्रद्धा बाबू के जीवन में सब कुछ होते हुए भी उसे एक बच्चे का अभाव पीड़ा देता है | उसने कई बार कहा था कि वह भाभी को लेकर कुछ दिनों के लिए शहर आ जाए ताकि वहाँ किसी चिकित्सक से इस विषय में परामर्श लिया जा सके |

मनोरमा को अपने गाँव गए बीस दिन से अधिक हो गए थे | इस मध्य एक और घटना घटी जो श्रद्धा बाबू को गहराई तक पीड़ित कर गई |

मनोरमा के गाँव जाने के दूसरे दिन श्रद्धा बाबू विद्यालय में छात्रों को पढ़ा रहा था | एक लड़का उसके मित्र रंजन की चिठ्ठी लेकर उसके पास आया | पत्र में रंजन ने लिखा था-

‘भाई श्रद्धा बाबू,

मैं जिस बच्चे को पत्र देकर आपके पास भेज रहा हूँ, यह एक गरीब विधवा का लड़का है | इसके अतिरिक्त इसके तीन भाई और एक बहन और हैं | उस स्त्री के पास इन बच्चों को न खिलाने के लिए अन्न है और न ही पहनाने के लिए वस्त्र! गरीबी के कारण वह इन बच्चों का पालन-पोषण करने में असमर्थ है | बेचारी सारा दिन मेहनत मजदूरी करके भी इतना नहीं जुटा पाती कि इनका पेट भर सके | मैं आपके आदर्श को जानता हूँ, और इसी कारण इस बच्चे को आपके पास भेज रहा हूँ | मुझे विश्वास है कि आपके पास रहकर यह बच्चा पढ़-लिखकर मनुष्य बन जाएगा |

आप पर थोड़ा-सा आर्थिक भार अवश्य पड़ेगा लेकिन यदि इस बच्चे का जीवन बन गया तो वह भार आपको अखरने की अपेक्षा सन्तुष्टि प्रदान करेगा...ऐसा मेरे विश्वास है | मनोरमा भाभी इसे अपना पुत्र नहीं तो भाई समझकर अवश्य स्नेह देंगी |

शेष आनन्द है | शीघ्र ही मैं भी आपके पास गाँव में दो-चार दिन बिताने आऊँगा |

आपका भाई

रंजन | ’

पत्र पढ़ने के बाद श्रद्धा बाबू काफी देर तक उसी में खोया रहा था | रंजन ने कितना विश्वास करके इस बच्चे को उसके पास भेजा था और उसका तो आदर्श ही बच्चों का जीवन सँवारना था | थोड़ी देर बाद उसने दृष्टि उठाकर बच्चे को देखा | बच्चे की आयु नौ-दस वर्ष से अधिक न थी परन्तु बचपन की कोमलता का उस पर कोई चिह्न न था | गरीबी के थपेड़ों के चिह्न जैसे उस बच्चे के चेहरे पर अंकित थे | श्रद्धा बाबू का ह्रदय द्रवित हो उठा |

"बेटे क्या नाम है तुम्हारा...?"

"धनराज!" बालक ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया |

नाम सुकर श्रद्धा बाबू को बड़ा विचित्र लगा था | ‘माँ-बाप जब अपने बच्चों का नाम रखते हैं तो उनके सामने क्या-क्या सपने होते हैं | ’ एक पल को उसने सोचा |

"हमारे पास रहोगे?" अपनत्व से श्रद्धा बाबू ने बालक का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए कहा | उनकी आँखों के समक्ष उस दिन मेले की राह वाली घटना घूम गई | उस दिन राह में पड़े बच्चे पर किस तरह मनोरमा की ममता उभर आई थी | जब मनोरमा को इस बच्चे के विषय में पता चलेगा तो वह कितनी खुश होगी | कितनी शीघ्र उसने उस बच्चे को अपने बच्चे के रूप में अपनाने का निर्णय ले लिया था!

बालक खामोश और सहमा हुआ श्रद्धा बाबू के पास ही खड़ा था | उसे चुप देखकर श्रद्धा बाबू ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराते हुए पूछा, "हमारे साथ रहोगे बेटा?"

"आप रखेंगे तो रहूँगा |" बालक ने सकुचाते हुए कहा |

बालक में अपनी आयु से अधिक परिपक्वता थी | अभावों और निर्धनता में जीवन आयु को पीछे छोड़कर बहुत आगे बढ़ जाता है |

बालक धनराज के आ जाने से श्रद्धा बाबू को वास्तव में ही बहुत प्रसन्नता हुई थी | वह विद्यालय में और उसके बाद भी काफी समय बालक के विकास पर लगाने लगा था | वह उसे अपने बहुत ही समीप महसूस करने लगा था | माँ को यधपि इस बालक का घर में आना अच्छा नहीं लगा था परन्तु वह भी श्रद्धा बाबू के सामने चुप थी | एक-दो बार विरोध भी किया था मगर श्रद्धा बाबू ने उन्हें समझाकर चुप कर दिया था | श्रद्धा बाबू को इस बालक के आ जाने से ऐसा प्रतीत होता था, जैसे उसके जीवन के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हो गई हो |

बालक तनिक अड़ियल और रूखे स्वभाव का था | श्रद्धा बाबू इसे उसकी पूर्व परिस्तिथियों का कारण समझकर इस पर अधिक ध्यान न देता था | वह बच्चे को अधिक-से-अधिक स्नेह देता था और उसे विश्वास था कि एक दिन बालक के मन में भी उसके प्रति अपनत्व की भावना उत्पन्न अवश्य हो जाएगी | श्रद्धा बाबू उसे अपनी आशा के अनुरूप ढाल लेना चाहता था |

मनोरमा इन दिनों अपने गाँव गई हुई थी | बालक श्रद्धा बाबू के कमरे में उसी के पास सोता था | रात को कितनी ही बार श्रद्धा बाबू उठकर उसे कपड़ा ढाँपता | वह अपने हाथों से उसे दूध पिलाता और रात को सोने से पहले ज्ञान की रोचक कहानियाँ भी सुनाता | बालक के साथ रहते हुए अब श्रद्धा बाबू को मनोरमा का वहाँ न होना भी इतना नहीं अखरता था |

यह सब अधिक दिन तक न चल सका | शीघ्र ही श्रद्धा बाबू की आशाओं पर तुषारापात हो गया | एक रात श्रद्धा बाबू को सोता छोड़, वह बालक उसकी जेब से सौ रूपए और एक कीमती पैन निकालकर वहाँ से भाग गया |

सुबह जब श्रद्धा बाबू की आँखें खुलीं तो एक बार वह विश्वास न कर सका, मगर जेब से गायब रूपए और पैन उन्हें विश्वास करने को बाध्य कर रहे थे |

"गन्दगी का कीड़ा गन्दगी में ही तो रहेगा | अच्छा हुआ चला गया नहीं तो इस घर में भी गन्दगी फैलता |" एक आह भरते हुए क्रोध में श्रद्धा बाबू ने कह तो दिया था लेकिन उसकी आँखों से निकलकर दो आँसू उस गन्दगी के कीड़े के लिए बह गए थे |

उस दिन दुखी श्रद्धा बाबू विद्यालय भी नहीं जा सका | बालक के चले जाने से उसे मानसिक आघात पहुँचा था | वह सोचता रहा था कि बच्चे का सुख शायद उसके भाग्य में नहीं है |

माँ ने बेटे को चिन्ता में बैठे देखा तो पास आकर पूछा, "स्कूल नहीं जाएगा श्रद्धा बेटा?"

"नहीं माँ, आज मन नहीं है |" उदास मन से श्रद्धा बाबू ने कह दिया |

"बेटा, बहू को गए काफी दिन हो गए | एक दिन जाकर उसे लिवा ला |"

"लाऊँगा माँ |" श्रद्धा बाबू ने कहा तो माँ निश्चिन्त होकर वहाँ से चली गई |

श्रद्धा बाबू वहाँ अकेला बैठा सोचता रहा |