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पराभव - भाग 9

पराभव

मधुदीप

भाग - नौ

सन्ध्या के छह बज रहे थे | मनोरमा अभी-अभी खाना बनाकर चुकी थी | मास्टर जसवन्त सिंह जी अभी खेत से नहीं लौटे थे | यधपि मास्टरजी श्रद्धा बाबू के गाँव से लौटे तो उनका उद्देश्य यहाँ पर कोई कार्य न करके पूर्ण आराम करने का था, मगर जिस मनुष्य ने अपने सारे जीवन में महेनत की हो, वह पूर्णतया निष्क्रिय नहीं बैठ सकता | जसवन्त सिंह जी भी यहाँ आकर अपनी खेती में लग गए थे | जमीन अधिक न थी तो भी उनके गुजारे योग्य प्रबन्ध उससे हो ही जाता था |

"मनोरमा बेटी!" बाहर से अपने नाम की पुकार सुनकर मनोरमा द्वार खोलने आई | मास्टर जसवन्त सिंह जी खेत से लौट आए थे | दरवाजा खोलने पर वे अन्दर आ गए |

मनोरमा उनके हाथ धुलाने के लिए लोटे में पानी भर लाई | मास्टरजी ने लोटा उसके हाथ से लेकर मुँह-हाथ धोए |

"खाना बना लिया बेटी?" मास्टरजी ने पूछा |

"हाँ पिताजी, अभी-अभी बनाकर चुकी हूँ |"

"तो ले आ बेटी | खेत पर काम करने से भूख खूब तगड़ी लगती है और सेहत भी ठीक रहती है | न जाने तुझे क्या हो गया है, पहले से कितनी कमजोर हो गई है |" मास्टरजी ने कहा मगर मनोरमा बिना कुछ बोले उनके लिए खाना परोसने के लिए चली गई |

मनोरमा थाली में खाना परोसकर ले आई | मास्टरजी खाना खाने लगे तो मनोरमा भी वहीँ बैठ गई |

"तूने मेरी बात कर जवाब नहीं दिया बेटी | क्यों दिन-प्रतिदिन काँटे की तरह सूखती जा रही है?" खाना खाते हुए मास्टरजी ने कहा |

"मैं खेत में तो काम करती नहीं पिताजी जो मेरी सेहत अच्छी हो |" मनोरमा ने मुसकराते हुए कहा |

"अच्छा! अपने पिता से ही मजाक करती है |" कहकर मास्टरजी कुछ देर को हँसते रहे |

खाना खाते हुए भी मास्टरजी न जाने क्या सोच रहे थे? शायद वे मनोरमा के गिरते स्वास्थ्य को लेकर ही चिन्तित थे |

"बेटी, तुझे वहाँ कोई कष्ट तो नहीं है?" कुछ सकुचाते हुए मास्टरजी ने अपनी पुत्री से पूछ ही लिया |

"नहीं पिताजी, कष्ट कैसा! अपने घर में भी किसी को कोई कष्ट होता है |"

मनोरमा की बात सुनकर निश्चिन्त होने की अपेक्षा वे और अधिक गम्भीर हो गए |

"हम सबको एक ही बात का अभाव खटकता है बेटी | अपने दोहते को गोद में खिलाने को मेरा मन भटकता है, मगर भगवान को अभी हमें यह खुशी देना स्वीकार नहीं है | तुम ही तो मेरी एकमात्र सन्तान हो | सब जिम्मेदारियों से मुक्त होकर भी मेरे मन में यह इच्छा शेष रह गई है |" मास्टरजी खाना समाप्त कर उठे तो मनोरमा ने चुपचाप उनके हाथ धुला दिए |

"श्रद्धा बेटे को चाहिए कि वह शहर जाकर किसी योग्य डाक्टर से सलाह ले | देखने में तो वह पूर्ण स्वस्थ लगता है |" मास्टरजी ने भी स्वाभाविक रूप से मनोरमा के अभी तक माँ न बन सकने का उत्तरदायित्व श्रद्धा बाबू पर ठहराया था | सन्तान न होने पर हर लड़की वाला अपने दामाद में और लड़के वाला अपनी बहू में कमी समझता है | अपने लड़के-लड़की की कमी पर लोग कम ही ध्यान देते हैं |

मास्टरजी वहाँ से उठकर अन्दर कमरे में चले गए तो मनोरमा वहीँ खड़ी सोचती रही-‘घर के अन्दर, घर से बाहर, पिता के घर या ससुराल में, हर आदमी बस एक ही चर्चा करता है कि अब तक बच्चा क्यों नहीं हुआ | न जाने क्यों हर किसी को सिर्फ एक ही बात सूझती है?’

इस विचार ने उसे पीड़ा भी दी, मगर वह चुपचाप बर्तन उठाकर रसोईघर में चल दी |

तभी बाहर से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई |

"मनोरमा बेटी, देखना बाहर कौन है?" अपने पिता की आवाज पर अपने लिए खाना परोसते मनोरमा के हाथ रुक गए और वह दरवाजा खोलने के लिए बाहर की ओर चल दी |

"आप...!" दरवाजा खोलकर मनोरमा चकित-सी खड़ी रह गई | सामने उसके पति श्रद्धा बाबू खड़े थे | तनिक झिझकते हुए उसने शर्माकर गर्दन झुका ली | एक पल को उसके पाँव वहीँ जड़ हो गए |

"कौन है बेटी?" अन्दर से आई अपने पिता की तेज आवाज सुनकर वह बिना कोई उत्तर दिए तेजी से भागती हुई अन्दर चली गई |

"प्रणाम गुरूजी |" श्रद्धा बाबू ने अन्दर कमरे में आकर मास्टरजी को प्रणाम किया | वह अपने ससुर को प्रारम्भ से यही सम्बोधन देता आया था |

"अरे श्रद्धा बेटे तुम...! आओ...आओ |" मास्टरजी ने चारपाई से उठते हुए कहा, "मैं अभी-अभी खाना खाते हुए तुम्हें ही याद कर रहा था |"

श्रद्धा बाबू ने आगे बढ़कर हाथ में लिया हुआ थैला खूँटी पर टाँग दिया और पास ही रखी एक पुरानी-सी कुर्सी पर बैठ गया |

"यहाँ मेरे पास ही आ जाओ बेटा |" मास्टरजी ने चारपाई पर बैठते हुए कहा |

"नहीं गुरूजी, यहीं ठीक है |" श्रद्धा बाबू ने कहा |

"कहो बेटा, घर पर सब कुशल-मंगल है?"

"हाँ गुरूजी, ठीक ही है | माँ वृद्ध हो गई है, इसलिए कोई-न-कोई बीमारी उन्हें घेरे रहती है |"

"बुढ़ापा तो स्वयं ही सौ-बीमारियों की जड़ है |" एक दार्शनिक की भाँती मास्टरजी ने कहा और कुछ देर को बातों का क्रम वहीँ पर रुक गया |

"बेटी मनोरमा, श्रद्धा बेटे के मुँह-हाथ धोने के लिए पानी गर्म कर दे |" कुछ देर के पश्चात् मास्टरजी ने कहा |

मनोरमा ने अपने पिता के कहने से पूर्व ही पानी करने के लिए चूल्हे पर रख दिया था | कुछ ही देर पश्चात् उसने पानी गर्म करके रसोई से बाहर आँगन में रख दिया | वह स्वयं अपने पति के सामने आने से हिचकिचा रही थी | श्रद्धा बाबू भी इस बात को समझ गया था और इससे पूर्व कि मास्टरजी उसके हाथ-मुँह धुलाने को उठें, वह स्वयं ही उठकर आँगन में आ गया | सामने आधी पानी से भरी बाल्टी और तौलिया रखा था | वह मुँह-हाथ धोने लगा |

वह मुँह-हाथ धोकर अन्दर कमरे में आया तो मास्टरजी के साथ ही दूसरी चारपाई बिछाकर मनोरमा ने उसे पर साफ धुला बिस्तर बिछा दिया था | श्रद्धा बाबू ने आगे बढ़कर देखा तो बिस्तर पर बिछी चादर और उस पर रखा तकिया बिलकुल नए थे |

श्रद्धा बाबू ने आने का पता सारी गली को चल गया था | गाँव में किसी के घर भी मेहमान आता है तो किसी वायरलैस की भाँती तुरन्त ही पूरे मोहल्ले में इसकी खबर हो जाती है |

मनोरमा अन्दर रसोई में बैठी खाना बना रही थी, तभी गली की दो लड़कियाँ और एक स्त्री वहाँ आ गई | वे तीनों ही श्रद्धा बाबू से मिलने के लिए आई थीं | मास्टरजी ने वहाँ बैठना उपयुक्त न समझा और उठकर बाहर चले गए |

मास्टरजी के जाते ही वे तीनों श्रद्धा बाबू के पास कमरें में आ गई | स्त्री ने अपने मुख पर छोटा-सा घूँघट खींच रखा था | शायद वह मनोरमा के चचेरे भाई की पत्नी थी |

"नमस्ते जीजाजी!" एक लड़की ने लजाते हुए आगे बढ़कर कहा |

"नमस्ते, कहो कैसी हो |" मुसकराते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"जैसी हैं, आपके सामने हैं |" हँसते हुए उस लड़की ने कहा और बातों का सिलसिला कुछ देर के लिए रुक गया | श्रद्धा बाबू और वे तीनों भी बातें करने के लिए सूत्र तलाश कर रही थीं |

"लड्डू कब खिलाओगे?" घूँघट में से उस स्त्री ने कहा |

"किस बात के?" श्रद्धा बाबू ने पूछा |

"बड़े भोले बनते हो | शादी के पाँच वर्ष हो गए | बच्चा शायद इसलिए नहीं करते कि कहीं लड्डू न खिलाने पड़ जाएँ | बड़े ही कंजूस हो |"

"अभी कौन-से हम बूढ़े हो गए |" अपनी झेंप मिटाते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"अब की बार तो बहुत दिनों में आए हो जीजाजी, कुछ दिन तो ठहरोगे?" लड़की ने बात बदलते हुए पूछा |

"नहीं, कल सुबह चला जाऊँगा |"

"तो क्या मुँह दिखलाने के लिए आए हो जीजाजी |"

"नहीं, तुम्हारी बहन को लेने आया हूँ |"

"इतने दिनों में तो भेजी थी और साथ-ही-साथ लेने भी आ गए | कुछ दिन और रहने देते |" लड़की ने कहा |

"यहाँ रहे या वहाँ रहे, क्या फर्क पड़ता है | जैसा खाना आपके यहाँ खाएगी, वैसा इसे यहाँ भी मिल जाता है | फिर क्यों जल्दी करते हो?"

न जाने उस स्त्री ने यह कहकर श्रद्धा बाबू पर व्यंग्य किया था या सहज भाव से उसने यह बात कही थी, मगर श्रद्धा बाबू इसे स्वयं पर व्यंग्य समझकर अपमानित-सा हो गया | उसे लगा जैसे उस स्त्री ने उसके पौरुष को गाली दी हो | मनोरमा के अब तक बच्चा न होने के कारण वह स्वयं को भी कहीं दोषी समझता था | कई बार उसे लगता कि उसमें ही कहीं कमी है, मगर अपनी कमी के विषय में उस स्त्री के व्यंग्य को सुनकर उसे गुस्सा आ गया | वह गुस्से से तिलमिला रहा था, मगर प्रयास कर उसने उस गुस्से को अपने ह्रदय में उतारते हुए इतना ही कहा, "यह तो मनोरमा की इच्छा पर है कि वह मेरे साथ चले या नहीं | मैं इसके लिए किसी को मजबूर नहीं करूँगा |"

यधपि श्रद्धा बाबू ने सहजता से कहा था तो भी रोष और उपेक्षा मुख पर झलक आई थी | उसके क्रोध को अनुभव करके तीनों ही चुपचाप वहाँ से चली गई |

तीनों के बाहर जाते ही मनोरमा एक झटके से कमरे में आई और खमोश बैठे अपने पति के पाँव पकड़ लिए |

"क्या बात है?" श्रद्धा बाबू के स्वर में अभी तक रोष था |

"क्षमा कर दें!"

"किसलिए?"

"मैंने सब कुछ सुन लिया है स्वामी | वे आपके ह्रदय को समझती नहीं हैं | उनके लिए मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ |"

"उनके लिए तुम दुखी क्यों होती हो! इसमें तुम्हारा क्या दोष है | हममें ही कहीं-न-कहीं कोई कमी है...दुसरे यदि कुछ कहते हैं तो इसमें उसका कोई दोष नहीं है |" श्रद्धा बाबू ने मन से एक आह-सी निकली और वह खामोश हो गया |

"आप मन छोटा न करें स्वामी!" कहते हुए मनोरमा पति के पाँव छोड़कर उठ खड़ी हुई |

पिता के पाँवों की आहट सुनकर मनोरमा तेजी से कमरे से निकल गई | मास्टरजी शायद कोई मिठाई लेकर आए थे, जिसे उन्होंने मनोरमा के हाथों में पकड़ा दिया | मनोरमा अन्दर रसोई में जाकर खाना परोसने लगी |

भोजन करने के उपरान्त रात्रि को आराम करते हुए श्रद्धा बाबू ने मास्टरजी से सुबह जाने की बात कही | मास्टरजी चाहते थे कि वह दो-तीन दिन गाँव में रुक जाए, मगर जब श्रद्धा बाबू ने विद्यालय की व्यवस्था और माँ के अकेली होने की बात कही तो वे उससे अधिक रुकने का आग्रह न कर सके | इसके बाद रात्रि को देर तक गाँव और विद्यालय के विषय में बातें होती रहीं |

मनोरमा रात्रि को देर तक सुबह पति के साथ जाने की तैयारी करती रही |