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सौतेला प्यार

सौतेला प्यार ...!

ये कहानी है, दो ऐसे दोस्तो की, जिसमे से एक सामान्य था तथा दुसरा असामान्य। दो विपरीत स्वभाव के लोग एक बारगी निभा भी लेंगे, किंतु यदी उनमे से एक ‘दिव्यांगी’ हो तब..? हिन्दी सिनेमा में दिखाई जाने वाली दोस्ती ठिक है जी..! हम सोच में तब पड जाते है, जब ऐसे दोस्तो का जीवन आपके आँखों के सामने से गुजर जाता है। तो दोस्तों, ऐसे ही दो दोस्तों की कहनी मैं आपको सुनाने जा रहा हुँ, जो मैने खुद अपनी आँखों के आगे से गुजारी है, उसे देखी है।

बात उन दिनों की है, जब मैं कॉलेज मे पढता था। मैं जिस मेस में खाना खाने जाया करता था, वहाँ ऐसे ही दो दोस्त भी खाना खाने आया करते थे। एक का नाम था ‘अजय’, जो की एक अप-टु-डेट लडका था और दुसरा था ‘भावेश’ जो की दिव्यांगी था, उसके दोनो पैर कमर से निचे अपंग थे। अजय मेस में पहले आकर दो कुर्सीयाँ रिजर्व करता, फिर बाहर अपनी गाडी पर बैठे भावेश को दोनो हाथो से उठा कर उनमे से एक कुर्सी पर बैठा देता और खुद दुसरी कुर्सी पर बैठ कर दोनो हँसते बोलते खाना खाते। उनके लिये सब कुछ सामान्य था, असामान्य तो हमे लगता था..! और हम सभी अजय की भुरी-भुरी तारीफ किया करते थे।

अजय और भावेश मुझे रोज़, सुभह-शाम मिला करते थे, धीरे धीरे परिचय बढने लगा और एक दिन मैं उनसे मिलने उनके रुम पर पहुँच गया। युँ ही बातचीत करते करते मैंने उनके बारे में कुछ अधिक जानना चाहा, तब भावेश ने बताया, “बाबु, इसके पिता हमारे यहाँ लकडी के टाल पर बचपन से काम किया करते है। हमारा फॉरेस्ट की लकडीयाँ बेचने का पुराना व्यवसाय है। अजय और मेरा जन्म एक ही महीने में हुआ था, हालाँकि मैं इससे कुछ दिनों से बडा हुँ, लेकिन यही मेरे बडे भाई के समान सेवा करता हैं, मतलब सुबह संडास ले जाने से लेकर रात को सुला देने तक... मेरा सारा काम, ये बंदा बिना किसी हिचकिचाहट के बिना कोई नागा किये, निश्काम् भाव से करता आ रहा हैं। बचपन में यह मुझे साईकील पर बैठा कर ले जाया करता था, फर्क सिर्फ इतना है कि अब हम पल्सर पर सवार होकर जाते है... हा-हा-हा...” और दोनो हँसने लगे..! मैं भी उनकी हँसी में शामिल हो गया..!!

भावेश एक कुलीन घर का गुजराती लडका था। अजय उनके यहाँ लकडी के टाल पर काम करने वाले एक गरीब मजदुर का बेटा था। घर चलाने लायक मजदुरी में जहाँ सिर्फ जीने भर का आसरा था, वहाँ अपने बेटे, अजय के लिए उच्च शिक्षण की बात सोचना भी बदस्तुर था। ऐसे में सेठजी द्वारा भावेश के साथ साथ अजय के लिये भी पढाई का इंतजाम कर देना कोई बडी बात नही थी। लेकिन यह कोई दया भाव भी न था। अजय को भावेश की सेवा के बदले वह सभी सहुलियते मुहैया करायी गयी थी, जिसकी उसे जरुरत थी। अँधा क्या चाहे दो आँखे..। अजय भी खुशी खुशी भावेश की सेवा में जुट गया। आखिर दोनो बचपन के दोस्त जो थे..! अब अजय और भावेश शहर में सि.ए. की परिक्षा दे रहे थे। मेस के अलावा भी हम लोग उनसे मिल लिया करते थे, कभी सिनेमा देखने तो कभी भेल-पुरी के ठेले पर, वे दोनो वह सारी गतिविधीयाँ सामान्य तरिके से कर लिया कर लेते थे, जैसे हम किया करते है।

समय बितता जा रहा था, हम सभी अपनी अपनी पढाई के अंतिम वर्ष में पहुँच चुके थे। एक दिन शाम को मेस में खाना खाते समय अजय को एक फोन आया..! अजय ने नंबर देखा और अनपेक्षित ढंग से बाहर जाकर फोन रिसीव किया। अजय के लौटने के बाद वह कुछ ना बोला, भावेश राह देख रहा था कि अब अजय उसे बतायेगा किसका फोन था, किंतु वह कुछ ना बोला...! आखिर भावेश ने ही उससे पुछा, “किसका फोन था अजय..?”

“सर का फोन था ऑफिस से...” अजय नज़रे चुराते हुए बोला..!

ऑफिस मतलब, जहाँ ये दोनो सि.ए. की आर्टिकलशिप पुरी कर रहे थे, ये तो हमें भी समझ में आ रहा था, किंतु इसमे घबराने वाली क्या बात थी, ये बात कुछ हजम नही हो रही थी। लेकिन अजय का सेवाभाव को देखते हुए, हमें उस पर शक करना अनुचित लग रहा था। बाद में हमे ये पता चला कि अजय ऑफिस के एक आर्टिकल लडकी के प्रेम में दिवाना था और उस रात मेस में उसी का फोन अजय ने रिसीव किया था।

प्रेम यदी दस्तक देकर आता तो भावेश ने कब का उसे ‘नो-एंट्री’ का बोर्ड दिखा दिया होता..! क्यों कि, अजय अगर उससे दुर चला गया तो उसकी देखभाल कौन करेगा..? ये डर शायद भावेश को सता रहा था। किसी को भी अपना संबल टुटने पर डर लगेगा ही, ये एक स्वाभाविक सी बात हैं।

भावेश को भी अजय का प्रेम-प्रकरण पता चलने में ज्यादा देर नहीं लगी, लेकिन वह बडे मन से इस मामले को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था। दिव्यांगी बच्चों को उनके माँ-बाप के सिवाय कोई नहीं समझ सकता, अजय तो फिर भी पराया था, सेठजी के उपकार के सिवाय दुसरा ऐसा कोई कारण न था उसके पास, कि जिसके चलते अजय ता-उम्र भावेश की सेवा करता रहें..! २४-२५ साल एक बडा समय होता हैं। जीवन भी करवट ले चुका होता है, अजय अब बाँका जवान हो गया था, उसका युवा मन भी किसी के साथ की तलाश कर रहा था। कोई ऐसा जो उसके उग्र रक्त को हौले से ठंडक पहुँचाए, कि जिसकी उसे हमेशा तलाश रहे, कि जिसके ऑफिस में आते ही एक चिरपरीचित भिनी-भिनी खुशबु का झोंका सीधा दिमाग में पहुँच जाये, कि जिसके अधखुले बालों का आते जाते स्पर्श हो जाये, कि जो अपनी सहेलीओं के बीच में से उसे स्माईल दें, कि बालों को सवारते हुए, उसे ‘हाय..’ कहे, कि जो ऑडिट के लिये बाहर जाते हुए, उसे ‘कॉल मी..’ का इशारा करें..!!!

अजय कोई देवदुत तो नही, वह भी एक इंसान है, उसे भी एक मन है, भावनायें है, उसका भी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है, सेवा भाव से भरा एक दयालु मन है; इतनी स्वतंत्रता उसे मिलनी ही चाहिये थी..! भावेश को भी ये बात समझ आ रही थी कि व दिव्यांगी है, किंतु अजय तो नहीं..! वह अक्षम है, लेकिन अजय तो नही..! और फिर मन बडा करने से उसके अपंग पैर तो ठीक होगे नही, कि उसमे प्राण तो आने से रहे..! जिंदगी की आखरी साँस तक उसे एक आधार की जरुरत पडने वाली थी। यही कटुसत्य था, है और रहेगा..! ये सब सोचकर भावेश कभी कभी बहुत बेचैन हो जाया करता था, पसीने से सराबोर, वह अपने नसीब को दोष देने लगता..! सोचता, उसे इतनी बुद्धी मिली, दो व्यवस्थित पैर मिल गये होते तो किसी का क्या बिगड जाता..? अब क्या भगवान के घर पर भी अंग प्रत्यंग, ‘आउट-ऑफ-ऑर्डर’ होते होगे क्या..?

“किस सोच में पड गये, मित्र...?” अजय ने भावेश को छुते हुये पुछा,”तुझे... अंजली पसंद है क्या..?” भावेश ने अजय से सीधे सवाल पुछा..! अजय चौंक उठा... उसके माथे से पसीना बहने लगा..!

“तुम्हे किसने बताया...!” अजय ने हकलाते हुये पुछा।“फुल अगर खिला हो तो सुगंध तो अपने आप फैलती है...!” भावेश कुटिलता से बोला..! “ऑफिस में सबको पता है.., तुम्हारे और अंजली के प्यार के बारे में..!”

“सॉरी...” अजय ने धिरे से जवाब दिया।“अब इसमें सॉरी-वॉरी कहने की कोई बात नहीं है भाई..!” भावेश हँसते हुये बोला..! “तु क्या मेरा जीवन भर का गुलाम है..?”

“ऐसी बात नही है... तुम्हें ये ना लगे कि मैं तुम्हे छोड कर चला जाऊँगा, इसलिये मैने नहीं बताया..” अजय अपनी वकालत करता हुआ बोला।

“भगवान के घर से बुलावा आ गया, तब भी नहीं जाओगे..?” भावेश मजाक करते हुये बोल उठा। अजय उसके पास आया और नीचे उसके पास बैठते हुये बोला, “ये सब कब और कैसे हुआ... कुछ पता ही ना चला...! बहुत अच्छी लडकी है रे वो..” कहता हुआ अजय शुन्य में कहीं खो सा गया..!

“ए.. हलो... ओ रोमीयो... कहाँ खो गये जनाब..?” भावेश अजय के आँखों के सामने से हाथ हिलाता हुआ बोला, “मैं अगर तेरी जगह होता तो शायद मैं भी यही करता, मुझे भी एक बार प्रेम में सुध-बुध खोने की इच्छा होती..!” कहता कहता भावेश भी कहीं खो सा गया..!

दोनो में से एक को प्यार करने की इजाजत नहीं थी, क्यों की वह अक्षम था और दुसरा.., सक्षम होते हुये भी प्यार कर नहीं सकता था..! कितना विरोधाभास है, नहीं क्या..? प्रेम किसी एक के करने से नही हो सकता.., उसे संपुर्णता मिलती है, दुसरी ओर से मिलने वाली स्विकरोक्ती से..! क्यों कि एकतरफा प्रेम किसी मृगतृष्ना के समान होता है..! आप उसका पिछा करते थक जाओगे... किंतु वह कभी आपको मिलेगा नहीं..!

किंतु अजय और अंजली का प्यार तो दो-तरफा ही था, तो उनका मिलना तय क्यों ना हो..? अजय एक बुध्दीमान, कर्तव्यनिष्ठ और आकर्षक युवा था। अंजली भी सुंदर, मिलनसार और होशियार लडकी थी। दोनो सी.ए. बनने वाले थे.. और क्या चाहिये किसी को... वे दोनो तो पहले दिन से ही एक सफल जिंदगी की शुरुआत कर सकते थे... नहीं..? ऑफिस में भी इन दोनों के प्यार के चर्चा जोरों पर थे.., सभी उन्हें ‘मेड-फ़ॉर-इच-अदर’ कहा करते थे।

लगभग साल भर बाद अंतिम वर्ष का रिज़ल्ट भी आ गया...! वे तीनो सी.ए.की परिक्षा में उत्तीर्ण हो गये। अजय अंजली की खुशियाँ तो समा ही नही रही थी..! लेकिन भावेश कुछ विचलीत सा लग रहा था। मैनें उससे पुछा, “आगे क्या करने का इरादा हैं..?” वह बोला, “देखते है, आगे क्या लिखा है, अपने नसीब में..!” मुझे उसके चेहरे पर निराशा साफ झलक रही थी। मैं मन ही मन उसके भले के लिये प्रार्थना कर रहा था और मैं कुछ कर भी क्या कर सकता था..! उसका तो एक मात्र आधार सिर्फ अजय ही था, जो उसके साथ बचपन से आज तक था..! किंतु अजय तो अंजली का होने वाला था..!!

***

छह महिने बाद ही अजय और अंजली का ब्याह तय हो गया। नये ऑफिस का सेटअप और शादी, दोनो कार्य एक साथ आ गये थे, वह भी उतने ही महत्वपुर्ण और जरुरी थे। दोनो की भागदौड अपनी चरम सीमा पर थी, लग्न-पत्रीका से लेकर नये ऑफिस के काम तक, दिन रात काम हो रहा था। अजय ने भावेश को गाँव जाने का अनुरोध किया, ताकी वह अपने इन कामो पर खुद को केंद्रित कर सके। अजय को नये घर की भी तलाश थी, अंजली घर में लगने वाली आवश्यक वस्तुंओं की खरीदारी कर रही थी। अजय शादी की पत्रीका लेकर अपने गाँव आया और सेठजी को सहपरीवार निमंत्रण देता हुआ, अपने माँ-बाऊजी को साथ लेता वापस आ गया।

आखिर शादी का दिन भी उजड गया, गुलाब के फुलों की भीनी-भीनी खुशबू के साथ शहनाईं की धुन, यों लग रही थी, मानो सुगंध और सूर का मिलन हो रहा हो..! भावेश अपने माँ- बाऊजी के साथ, व्हिलचेअर पर आया था। शादी का समारंभ खत्म होने के बाद, अजय और अंजली ने सभी को अपने नये ऑफिस में आने का न्योता दिया। भावेश लेकिन खुद को अपमानित सा महसुस कर रहा था। किंतु कोई इलाज ना होने की वजह से उसे भी सबके साथ जाना पडा। कुछ निमंत्रित मान्यवरों के साथ सभी अजय और अंजली के नये ऑफिस को देखने चल पडे। उनका ऑफिस छोटा सा किंतु सुंदर और सजीला था। उनके चेंबर में तीन कुर्सीयाँ देखकर सभी चकित हो गये..!! “ये तिसरा पार्टनर कौन है भाई..?” भावेश उत्सुकतावश पुछ बैठा..! अजय और अंजली ने भावेश की व्हिलचेअर बीच वाली कुर्सी के पास ले जाकर उसे उठाया और उस कुर्सी पर बैठा दिया..! तब अंजली ने कहा, “और किसकी हो सकती है भाई साहाब... ये सिर्फ आपकी है...” दोनो ने इतना कह कर आशिर्वाद लेने के लिये भावेश के पैरो पे झुक गये..! भावेश के दोनो हाथ, अश्रुपुर्ण नेत्रों से उन्हें आशिर्वाद देने के लिये उठे तो सही, किंतु वह अपने आप को उनके सामने झुका हुआ, बहुत नीचे झुका हुआ सा महसुस कर रहा था..!!!

समाप्त..!