Vikhare sapne books and stories free download online pdf in Hindi

बिखरे सपने

बिखरे सपने...!

“चलो, वापस चलते है.., आज शायद ही कोई हमसे हमारी घास खरीदने आये..!” दिसंबर की सर्द हवाओं से सर से उडता पल्लू सँवारती चंदरी, अपने पती लच्छा से बोली।

राजस्थान के एक आदिम जनजाती के कुछ बंजारे हमारे शहर में आये हुये थे। इनके पास भेड बकरीयाँ ना होने की वजह से, मिले वह काम करके अपना गुजर बसर कर लिया करते थे।

हमारे शहर में एक “गोरक्षण केन्द्र” हैं। उसके मुख्य द्वार पर ये दोनों घास काटकर बेचा करते थे। शहर के गणमान्य लोग, पुण्यलाभ कमाने के लालच में इस केन्द्र पर आया करते हैं और वहाँ दान धर्म कर अपने हाथ से गायों को घास खरीद-खरीद कर खिलाया करते हैं। इस तरह चंदरी और लच्छा की थोडी बहुत आमदानी हो जाया करती थी। इसके अलावा वे दोनो बाँस की बनी कुछ गृहोपयोगी वस्तु भी बेचकर अपना गुजारा कर लिया करते थे।

इसी गोरक्षण केन्द्र के सामने, व्ही.आय.पी. रोड के उस पार, इन बंजारों के रहने के तंबु लगे हुये थे। चंदरी और लच्छा भी अपने कुछ साथीयों के साथ एक तंबु में रहते थे। चंदरी आम औरतों से अलग थोडी महत्वाकांक्षी थी, उसे इस तरह गाँव गाँव घुमते रहना, सुहाता न था..! एक दिन वह लच्छा से बोली,

“इस तरह कब तक चलेगा..? क्या हम किसी एक जगह स्थायी नही हो सकते..?”

लच्छा एक पल को उसकी ओर देखने लगा, फिर हँसकर बोला,

“अरी बाँवरी.., हम लोग बंजारे है..! यों घुमते रहना ही हमारी फितरत है..!”

“मैं ये सब नही जानती..! हम भी कही एक जगह स्थायी होना चाहते है, जहाँ हमारा एक घर होगा और हमारे बच्चे भी अँग्रेजी स्कुल में जाया करंगे..!” चंदरी जोर देकर अपनी बात मनवाने पे तुली थी।

“ठिक हैं... देखते हैं क्या हो सकता हैं..!” लच्छा बात को यहीं खत्म करना चाहता था।

उनके तंबु के पिछे खुले मैदान में रोज शाम को कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने आया करते थे। चंदरी बाहर बर्तन माँजते हुये, उन बच्चो को खेलते देखा करती थी। कभी-कभी जोर से मारा उनका शॉट, बॉल को उसके आसपास ला पटकता। वह हॅसते हुये उनकी बॉल, उनतक फेंकती और इस तरह उसका भी समय कट जाया करता था। एक शाम जब उनका मैच रोमाँचक दौर से गुजर रहा था कि अचानक उनका बल्ला टुट गया। अब इस मैच को कैसे पुरा किया जाये..? वे सोचने लगे। तभी उन्हे काम करती चंदरी दिखायी दी, वे सभी बच्चे बडी आशा लेकर उसके पास आये और कहने लगे,

“आंटी, क्या आपके पास कोई बैट है..?” उन्होने उसे अपना टुटा हुआ बल्ला दिखाया..!

“नही.., लेकिन मैं तुम्हे कल तक नया बैट बना दुँगीं, बस इसे यहाँ छोड जाओ..” चंदरी उस टुटे हुए बैट को उलटते पलटते हुए बोली।

बच्चों के जाने के बाद चंदरी ने पास पडा एक लकडी का टुकडा लेकर उसे कुल्हाडी से बल्ले का आकार देने लगी। वह टुटे हुये बल्ले को देख-देख कर लगभग उस जैसा ही कुछ बनाने का अविरत प्रयास कर रही थी। रात को लौटकर लच्छा ने पुछा,

“ये क्या बना रही हो..?”“बैट..!” चंदरी आँखे चमका कर बोली।“ये बैट है...? लग तो कपडे धोने का फट्टा रहा है..!” लच्छा हँसते हुये बोला।

“लाओ, इसे ठिक आकार दे देता हुँ..!”

चंदरी ने रुँठते हुए वह बैट उसे पकडा दी। लच्छा मुस्कुराता हुआ उसे आकार देने में मग्न हो गया। वह उसे बिलकुल असली बल्ला बनाने में मग्न हो गया। बिच बिच में वह चंदरी की ओर देखता हुआ उसे चिढा रहा था। चंदरी उसके इस रवैये से नाखुश होती हुई मुँह बनाते हुये, “हूँ..” कहकर दुसरी ओर देखने लगी। कुछ ही देर में एक अच्छी खासी बैट बनकर तैयार हो गया। चंदरी उसे देख खुश हो गई।

दुसरे दिन बच्चों ने आकर पुछा, “आँटी, हमारी बैट बन गई क्या..?”

“हाँ.., ये लो..!” चंदरी ने उन्हें वह बैट पकडा दी..! बैट देखकर सारे बच्चे बेहद खुश हो गये.., और उसे आजमाने के लिये खेलने में मग्न हो गये। घंटे डेढ घंटे बाद वे सभी जब उसके पास आये तो सभी बडे खुश लग रहे थे। उन्होने चंदरी के हाथ पर सौ रुपये रख दिये और बोले,

“ऑसम..! आँटी आपकी बनाई बैट तो एकदम प्रॉफेश्नल बैट की तरह बन पडी है। बिलकुल सचिन टेंडुलकर के बैट की तरह..!!”

चंदरी उन रुपये को अपने हाथ मे देखकर फुली नही समा रही थी..! उसे इनमे अपना सुनहरा भविष्य नजर आ रहा था।

“बस.., अब हम बैट बनाने का व्यवसाय करेंगे..!” रात को चंदरी लच्छा के साथ खाना खाने के बाद ये ऐलान कर दिया..!

“हमारी भी एक स्थायी जगह होगी, हमारे बच्चे भी रोज उस पीले रंग की बस में बैठकर स्कुल जाया करेंगे..! धिरे धिरे एक छोटी गाडी भी खरिद लेंगे, जिसमे हमारी बनी ‘चंदेरी बैट’ बेचने आप, सारे शहर का चक्कर लगाया करेंगे..! और रात को वापस लौटने के बाद बाहर गेट पर जब आप जोर जोर से हॉर्न बजाया करेंगे... पों...पों..! मैं दौड कर दरवाजा खोलने आ जाया करुँगी..!!” चंदरी लच्छा संग सपने बुनने में मशगुल थी।

पों...पों..!!! अरे.., सचमुच कोई हॉर्न बजा रहा था। टॉर्च की रोशनी से कोई बाहर आने को कह रहा था। लच्छा और चंदरी धडकते दिल से दौडकर बाहर आये..!

“क्या हुआ साहब..?” एक बुजूर्ग बंजारे ने पुछा।

“शहर में शीतकालिन अधिवेशन की तैयारीयाँ चल रही है। इस रोड के दोनो ओर बसे अतिक्रमन अंतर्गत सभी झुग्गी-झोपडीयों को हटाने का आदेश आया हैं। रात भर में जगह खाली करो, वरना सुबह बुलडोजर चल जायेगा।” उस अधिकारी ने उँची आवाज में उनकी ओर आँखें तरेरते हुए कहा..!

सभी लोग कुछ ना बोलते हुए, अपना अपना सामान बाँधने के लिये अपने अपने तंबु की तरफ, उदास मन से चल पडे। लच्छा और चंदरी भी अपनी गठडी बाँधने लगे। चंदरी का मन भर आया था.., अभी तो सपने बुनना शुरु भर किये थे और देखने के पहले ही टुट पडे..!

आधी रात के बाद का समय रहा होगा.., बंजारों की वह टोली अपनी पुरानी खटारा गाडी में बैठ कर, अपने अगले गंतव्य की ओर जाने लगे। लच्छा चंदरी का हाथ थामे उसका सर अपने कंधे पर रख कर, उसे समझा रहा था। खिडकी से आ रही सर्द हवा में भी लच्छा का कंधा, चंदरी के गर्म आँसुओं से सराबोर हो रहा था। चंदरी की आँखे धिरे धिरे, उनकी गाडी की टेल लाईट कि तरह मंद होती जा रही थी।

***