Surname in Hindi Short Stories by Kavita Nandan books and stories PDF | सरनेम

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सरनेम

सरनेम

कविता नन्दन

सोहनलाल चतुर्वेदी किसी सामाजिक संगठन के अध्यक्ष हैं। बताते हैं कि उनकी संस्था दलितों, वंचितों के अधिकार के लिए पिछले दो दशक से गंभीरता से देश-विदेश की यात्रा कर रही है। वे एक स्कूल भी चलाते हैं जिसमें गंदी बस्ती के बच्चों को इकठ्ठा करके पढ़ाने-लिखाने का कार्यक्रम होता है। अक्सर दूसरे-तीसरे महीने कोई-न-कोई उनकी संस्था में आता है और ड्रेस, कॉपी-किताब, बैग, फर्नीचर जैसे सामान दान कर जाता हैं। सुना है विदेशों से भी उन्हें इन सामाजिक कामों के लिए मोटी रकम मिलती है। उनके बारे में देख-सुनकर थोड़ी हैरानी जरूर होती है कि ब्राह्मण होते हुए भी उनके मन में दलितों, वंचितों के लिए इतना प्रेम भाव आखिर कैसे है लेकिन जब बातों-बातों में मुस्कुराते हुए धीर-गंभीर होकर वह कहने लगते हैं कि ‘हमारे पूर्वजों ने उन पर बहुत अत्याचार किया है......उनके पाप का प्रायश्चित हमें ही करना होगा’ तो लगता है कि अपराधबोध भी मनुष्य का एक सद्गुण ही है। लेकिन दूसरी बात जो बहुत ज्यादा हैरान करती है वह यह कि उनकी ब्राह्मण पत्नी में वही सनातन भाव आज भी अपने पूर्वजों की तरह बिलकुल पवित्र है। क्या मजाल कि कोई दलित, या वंचित उनके आस-पास फटक जाए। अगर किसी की सांस ने भी उन्हें छू लिया तो जाने कौन-कौन से मंत्रों का जाप करती हुई भागी-भागी स्नान करने चली जाएंगी। ऐसे में सोहनलाल जी कैसे उनके साथ एडजस्ट करते हैं, समझ में नहीं आता।

पिछले महीने पंडित जी के पवित्र चरण मेरे घर पडे़। मैं हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था। बोले बाबूसाहब! हमारे मुहल्ले में तो आप ही हैं जिसकी बात कोई नहीं टालता, एक प्रार्थना लेकर आया हूॅं। मैंने कहा आदेश करें। बोले प्रोफेसर अमित जी के परिवार से आपकी अच्छी बनती है। उनकी पत्नी को एक निमंत्रण-पत्र देना है। मैंने कहा ‘ठीक है कल यूनिवर्सिटी जाऊंगा और प्रोफेसर साहब को थमा दूंगा।’ सुनते ही उनकी प्रतिक्रिया इतनी तेज होगी मैंने सोचा भी न था। बोले ‘अरे प्रोफसर साहब को नहीं देना है, उनकी पत्नी को देना है और उन्हें मैं अपने हाथों से ही देना चाहता हूं। मैंने उनकी विशेष रूचि देखते हुए कहा ‘चलिए, दे आते हैं अभी।’ प्रोफेसर अपने लॉन में ही बैठे चाय पी रहे थे, देखते ही मुस्कुरा कर बोले ‘अरे बाबू साहब! आप देवदूत के साथ भ्रमण पर निकले हैं क्या भाई !! मैंने कहा ‘चतुर्वेदी जी आपकी पत्नी से मिलना चाह रहे थे। उन्हानें पंडितजी को बैठने का इशारा करते हूए मुझे अपने बगल में बैठा लिया। बैठे-बैठे ही अपनी पत्नी को उन्होंने आवाज दिया ‘माधुरी डीयर! देखो भाई तुम्हारे चाहने वाले आए हैं। माधुरी जी अभिवादन करती हुई प्रोफेसर की बगल में बैठ गईं। पंडितजी ने निमंत्रण पत्र उनकी ओर बढ़ा दिया। माधुरी जी ने पूछा क्या है ? पंडित जी ने इशारे से कहा कि खुद खोल कर देख लीजिए। मैडम ने देखकर कहां ‘ओफ्फ-ओह! एक बार मुझसे पूछ लिया होता। मैं ऐसे आयोजनों में नहीं जाती।’ पंडितजी इतना सुने नहीं कि माधुरी मैडम के पांव पकड़ कर जमीन पर बैठ गए। उनके इस आचरण से हम सभी भौचक्के हो गए। वह जैसे दया की भीख मांग रहे हों। दरअसल हुआ यह था कि ब्राह्मण महासभा की जिला शाखा ने यह विचार किया कि इस वर्ष किसी महिला बुद्धिजीवी से ही वार्षिकोत्सव का उद्घाटन कराएंगे और समापन के दिन कोई महिला पूंजीपति को ले आया जाएगा। सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में जब तक महिलाओं की भूमिका नहीं होगी तब तक सामाजिक परिवर्तन हो ही नहीं सकता। जब सरस्वती और लक्ष्मी की खोज हुई तो ब्राह्मण लक्ष्मियों की ढेर सारी गिनतियां हो गईं लेकिन सरस्वती जी इस क्षेत्र में अकेली माधुरी चतुर्वेदी जी थीं। इनका नाम संयोग से सोहनलाल जी की लक्ष्मी ने ही सुझाया था। ये दोनों देवियां एक-दूसरे से बचपन से ही परिचित हैं लेकिन स्वभाव से पूरब और पश्चिम हैं। माधुरी जी की पहचान एक तेज-तर्रार प्रगतिशील महिला प्रोफेसर की है और सोहनलान जी की धर्मपत्नी अदिति पंड्या महिला उद्यमियों में एक बड़ी हस्ती हैं। खैर, माधुरी जी ने किसी तरह मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह स्वीकारने में कि प्रोफेसर साहब उन्हें मात्र आयोजन के गेट तक छोड़ने और लेने ही जाएंगे, कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे बड़ी देर लगी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि प्रोफेसर साहब ब्राह्मण महासभा के अन्य सभी सदस्यों की आंख में किरकिरी थे जिसे अपने सामने कोई भी देखना नहीं चाहता था। यह सब कुछ अकारण नहीं था। प्रोफेसर साहब की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि हिन्दू संगठनों की कट्टरवादी नीतियों का घोर विरोध और आलोचना है। महासभा के सदस्य इन्हीं संगठनों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। ऐसे में महासभा उन्हें कैसे बर्दाश्त करेगी। माधुरी जी की बात अलग है। उनके स्वभाव में परिवेश के अनुकूल आचरण का ब्राह्मणी संस्कार भी है। यही सोच कर उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में मनोनीत किया गया था। जब माधुरी जी ने चतुर्वेदी जी की बात मान ली तो मैंने उनसे कहा ‘आप का काम हो गया, आप चलें मैं कुछ देर रूकूंगा। उनके जाने के बाद माधुरी जी ने मेरी ऐसी खिचाई की कि मैंने जितना सोचा था वह उससे कई गुना ज्यादा थी। पंडितजी के सामने मैं डांट खाना नहीं चाहता था, इसीलिए उनको फुर्र किया।

महासभा के आयोजन में माधुरी चतुर्वेदीजी की इतनी वाह-वाही हुई कि अदिति पंड्या से समापन कराने का उद्देश्य ही भूल गया। स्वागत भाषण पंड्या ने दिया और समापन भाषण चतुर्वेदी ने, याद सभी को तब आया जब अखबार की हेडलाईन पढ़ा डॉ माधुरी चतुर्वेदी के द्वारा महासभा का समापन भाषण’ अखबार से ही पता चला कि इस आयोजन का लक्ष्य महासभा के सदस्यों द्वारा चलाए जा रहे महाविद्यालय को अनुदान दिलवाना था। सरकारी अनुदान के लिए महाविद्यालय की प्रबंधक समिति वाले प्रार्थना-पत्र पर विचार करते हुए सरकार ने राष्ट्रीय स्तर के आयोजन समारोह पर अनुदान राशि देने की बात स्वीकार की। अब प्रबंधतंत्र के सामने यह समस्या थी कि सेमिनार विश्वविद्यालय की गाइडलाइन के मुताबिक होना था जो कि महासभा की कट्टरवादी नीतियों के विपरीत पड़ रहा था। ऐसे में अनुदान की मोटी राशि सिद्धांतों से समझौता करने की मांग कर रही थी। महासभा ने सोहनलाल चतुर्वेदी को इस काम को सुलझाने के लिए पकड़ा। इस बात का पता मुझे तब चला जब अचानक एक सुबह उन्होंने मुझे अपने यहां चाय पर बुलाया। वहीं मुझे पता चला कि सोहनलाल तो पहुंचे हुए फकीर हैं। सोहनलाल जी महासभा के सदस्य, सोहनलाल जी प्रबंध समिति के अध्यक्ष, सोहनलाल जी सामाजिक संगठन के अध्यक्ष, सोहनलाल जी प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष, सोहनलाल जी.....। मैं सोहनलाल जी के सामने ऐसा लग रहा था कि वह पहाड़ मैं टीला। मैं तो सुनते-सुनते उनकी भी चाय उठा कर पी गया था इसका पता भी मुझे तब चला जब उन्होंने कहा ‘चाय और मंगाऊं।’ मेरे मुंह से शायद ‘हां’ निकल गया था। मुझे उस दिन पता चला कि सोहनलाल जी हमारे मुहल्ले में प्रोफेसर साहब की वजह से बसे वर्ना इस मिडिल क्लास मुहल्ले में जहां ज्यादातर छोटी बिरादरी के लोग रहते हैं, वह कभी नहीं आते। यह मुहल्ला ही नहीं बल्कि यहां से दस किलोमीटर पूरब और उत्तर का इलाका बाबू श्यामनारायण सिंह की जागीर था। जमींदारी टूटने के बाद इस इलाके में हजारों गांव-मुहल्ले आबाद हो गए। अब यह इलाका उनके परपोते बाबू तेजबहादुर सिंह के नाम से ही पहचाना जाता है। उन्होंने देश की आजादी से लेकर कांग्रेस के खिलाफ लगभग यू.पी. की सभी राजनैतिक लड़ाईयों में हिस्सा लिया है। इसलिए उनके नाम से हर कोई परिचित है। किसी पुराने रिश्ते से प्रोफेसर साहब के वह मामा होते हैं। यह बात आज पता चली कि सोहनलाल जी इन सभी बातों से अनजान किसी साजिश के तहत यहां बस गए और यह साजिश किसी और की नहीं बल्कि खुद उन्हीं की रची हुई है।

प्रोफेसर साहब करीब छः पीढ़ियों पहले राजस्थान से आकर यू.पी. में बसे और हम लोग उनसे थोड़ा-सा बाद में ही आए। हमारे पुरखे राजस्थानी राजपूत थे, जो अंग्रेजी शासन में फौज में काम कर रहे थे। हमारी वह पीढ़ी जो 1857 में बागी घोषित कर दी गई अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए यू.पी. में मेरठ होते हुए पूरब की दिशा में बसती चली गई। जो लोग जैसलमेर से अंग्रेजी उत्पात की वजह से माइग्रेट हुए वह हरियाणा, पंजाब तक ही गए लेकिन बागी फौजियों को अपनी जमीन से इतना दूर जाना पड़ा कि उनकी पहचान ही खत्म हो गई। बुजुर्ग बताते हैं कि उनके बाप-दादाओं को अपने नाम और जन्मस्थान को छिपाते हुए जहां-तहां बसना पड़ा था, क्योंकि मुखबिरी करने वाले उस जमाने में भी कम नहीं थे। मेरे दादा बताते थे कि यहां बसने के बाद जो बड़ी समस्या उन लोगों के सामने आई वह यह कि अपने बेटे-बेटियों की शादी-ब्याह कैसे करें। जाति-बिरादरी के नाम पर यह स्थिति हो गई की बेटियों को जहां-तहां अपनी जाति से अलग बिरादरी में ब्याहना पड़ा। बेटों में कोशिश की गई की उनका ब्याह अपने बराबरी वालों में ही हो। मजबूरी यह थी कि बागी फौजियों के बेटे-बेटियां दूसरी-तीसरी पीढ़ी के बाद आपस में भाई-बहन हो जाते इसीलिए हमें दूसरी जाति-बिरादरी भी ढूंढनी पड़ी। आज हमारी खानदानों में लगभग सभी जातियों के बेटी-दामाद हो गए हैं। ऐसे में हम लोग के लिए प्रेम विवाह या जाति-बिरादरी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं रह गया। यह समझ में आ गया है कि इंसान का रिश्ता इंसान से ही होगा, किसी धर्म-जाति से नहीं। यह सही है कि जाति-बिरादरी के नाम पर सम्मान देने वाले हमें कुजात तक कहते हैं, तो कहते रहें। प्राफेसर साहब की दादी भूमिहार थीं और उनकी मां राजपूत और अब उनकी पत्नी ब्राह्मण। ऐसा ही कुछ हाल अपने यहां भी है।

सोहनलाल जी ब्राह्मण हैं और उनके पुरखों को हमारी कहानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पता है। इसीलिए वह हमारे बच्चों से उनका सरनेम पूछा करते है। हम लोग सरनेम लगाना बंद कर चुके हैं। उन्हें मुझसे कोई तकलीफ नहीं लेकिन उस दिन चाय पीते समय पता चला कि वह कितने जातिवादी व्यक्ति हैं। दलितों, वंचितों की सेवा का मुखौटा केवल समाज को दिखाने के लिए है, भीतर तो जातीयता का सागर उमड़-घुमड़ रहा है जो कि प्रोफेसर को बरबाद कर देना चाहता है। कारण कि उनकी पत्नी ब्राह्मण है जबकि वह नहीं। लेकिन इसकी तकलीफ उन्हें ही इतनी ज्यादा क्यों हुई ? इसका रहस्य तो उनकी पत्नी से खुला। श्रीमती अदिति पंड्या ने बताया कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अमित, डॉ माधुरी, अदिति और सोहनलाल जी साथ ही पढ़ाई कर रहे थे। चतुर्वेदी जी डॉ माधुरी पर रीझ गए थे लेकिन माधुरी जी अमित जी के स्वतंत्र व्यक्तित्व पर मर मिटी थीं। चतुर्वेदीजी ने अपने परिवार से दबाव डलवाकर कर शादी भी पक्की करवा लिया था। उनसे जो लेकिन गलती हुई वह यह कि उनकी प्रतिज्ञा थी शादी नौकरी मिलने के बाद करेंगे। कुंडली का मिलान भी हुआ था और शोर भी दूर तक गया कि लड़के-लड़की की कुण्डली ऐसी मिली है कि जैसे..... की जोड़ी, लेकिन घोड़ी चढ़ने का मौका नहीं आया और सम्मान बचाने के लिए उसी तारीख को अदिति पंड्या जी के यहां बिना दान-दहेज के कर लिए। दहेज तो प्रोफेसर साहब ने भी नहीं लिया लेकिन उसका कारण उनका व्यक्तित्व और कोर्ट मैरिज था। माधुरी जी के पिताजी खुद भी चाह रहे थे कि शादी प्रोफेसर साहब से ही हो। उसी शादी के दिन चतुर्वेदी ने भीष्म प्रतिज्ञा ली कि जब तक प्रोफसर साहब को बरबाद नहीं कर दूंगा तब तक अपनी किसी संतान का मुंह नहीं देखूंगा। उनके यहां जब चैथी संतान हुई तो माधुरी जी ने उनसे कहा ‘‘भैया भीष्म तो ब्राह्मण नहीं था आप सब कुछ भुला क्यों नहीं देते’ तो चतुर्वेदी जी ने कहा परशुराम ही कहां क्षत्रिय थे लेकिन परशु उठा लिया तो...।’ खैर, चिंता की कोई बात नहीं घर की चहारदीवारी में अपने बच्चों के साथ बड़े ही प्यार से घंटों शतरंज खलेते हैं। उनके बच्चों ने ही पूरे मुहल्ले को बता रखा है और मुहल्ले वालों ने यह बात अभी तक उनसे छुपा कर रखी है।

प्रोफेसर साहब विभाग के अपने चैंबर में बैठे थे। मैं उनके सामने की कुर्सी पर बैठा हुआ इंतजार कर रहा था कि मुझे क्यों बुलाया है उसके बारे में कुछ बताएं। उन्होंने मेरी तरफ निमंत्रण पत्र बढ़ाते हुए कहा ‘बताइए क्या करूं। जबरदस्ती देकर गया है।’ यह एक सेमिनार का निमंत्रण प़त्र था जिसके कर्ता-धर्ता सोहनलाल जी स्वयं थे और निंमंत्रण पत्र भी देने खुद ही आए थे। आज ही सेमिनार था जिसकी कोई पूर्व सूचना प्रोफेसर साहब को नहीं थी। यह सेमिनार समाजशास्त्र विभाग की ओर से था और प्राफेसर साहब इतिहास विभाग के आदमी, लेकिन स्वागत भाषण वाली जगह प्रोफेसर अमित का ही नाम छपा था। स्पष्ट था कि ब्राह्मणों की महासभा में क्षत्रिय को निमंत्रण किसी सामान्य कारण से नहीं है। विषय था ‘भारतीय समाज में जाति व्यवस्था।’ मैंने कहा ‘जाना तो पड़ेगा मगर सावधान ही रहिएगा क्योंकि महासभा के सभी ब्राह्मण आपकी आलोचना से आतंकित ही नहीं कुपित भी हैं। ऐसी कोई बात मत करिएगा जिससे कोई विवाद पैदा हो। छोटा सा भाषण देकर पिण्ड छुड़ा लीजिएगा। प्रोफेसर साहब ने कहा ‘जितना ही मैं इन ब्राह्मणों से बचता हूं अनायास उतना ही मेरा पीछा करते हैं, समझ नहीं आता कि कैसे जान छुड़ाऊं।’ मैंने कहा ‘यह अनायास नहीं सायास ही है।’ खैर तय हुआ कि दो बजे सेमिनाॅर हाॅल में मिलते हैं। मैं चला आया लेकिन मुझे उनके ऊपर दया आ रही थी। मैं सोच रहा था कि जो आदमी धर्म-जाति की संकीर्णता से दूर बौद्धिक हो चुका है उसे इस दलदल में घसीटना इन लोगों को क्यों अच्छा लगता है ? क्या हमारे समाज को इस जातीय भावना के अभिशाप से कभी मुक्ति मिलेगी ?

मंच पर इस समय सेमिनार कम डिबेट चल रहा था। प्रोफेसर साहब से कुतर्क करते हुए उनकी जातीय पहचान पर बहस चलाई जा रही थी। डॉ माधुरी और अदिति पंड्या श्रोताओं की पंक्ति में आगे ही बैठी थीं। माधुरी जी तो प्रगतिशील विचारधारा की हैं और अदिति जी सनातनी होते हुए भी प्रोफेसर साहब के बौद्धिक व्यक्तित्व की हमेशा सराहना ही करती हैं। ऐसे में जो कुछ हो रहा था उन्हें भी बहुत बुरा लग रहा था। उन्होंने माइक हाथ में लेते हुए कहा ‘यह डिबेट कुछ इस तरह से चलाया जा रहा है जैसे किसी दलित को सवर्णों ने घेर रखा हो। आप प्रोफेसर साहब से इतने घटिया ढंग से क्यों पेश आ रहे हैं। अगर आप सभी उनके जातीय इतिहास को नहीं जानते तो उनकी आत्मकथा पढ़ लीजिए।’ प्रोफेसर साहब को माइक देते हुए उन्होंने उनसे कहा ‘आप अपने विषय पर ही बोलिए, बुद्धिजीवियों के साथ इस तरह का घटिया डिबेट नहीं होना चाहिए। हमें चाहिए कि हम उनसे कुछ सीखें ताकि समाज, देश और दुनिया के बीच एकता कायम हो सके। बुद्धिजीवियों की कोई जाति नहीं होती अगर हो सकती है तो केवल बौद्धिकता ! इससे परे कुछ नहीं।’ हम में से किसी को भी अदिति मैडम से ऐसी उम्मीद नहीं थी लेकिन उन्होने जैसे डिबेट का वातावरण ही बदल दिया। निश्चित रूप से यह बात प्रोफेसर साहब के बचाव में कही गई थी। वैसे मैं जानता हूं कि राजपूतों का अहंकारी स्वभाव रहा है कि अपनी लड़ाई वह हस्तांरित नहीं करना चाहते, भले हार जाएं। और हुआ भी कुछ ऐसा ही माइक थामते हुए प्रोफेसर साहब ने धन्यवाद देते हुए हाल में बेठे हर एक से उसी संयम के साथ कहा ‘दोस्तों ! मैं एक लेखक हूं और मैंने अपनी आत्मकथा लिखी है। आप उसे पढ़ सकते हैं और मेरे इतिहास को समझ भी सकते हैं लेकिन मैं आपसे ऐसी हमदर्दी की चाह नहीं रखता हूँ। अगर मैं लेखक न होता, तो ? अगर मैं आत्मकथा न लिखता, तो ? अगर मैं प्रोफेसर न होता, तो ? तो आप मुझे दलित ही समझिए और बताइए कि क्या मुझे मनुष्य होने का सम्मान नहीं मिलना चाहिए। यहां पर तमाम ब्राह्मण विद्वान बैठे हैं क्या वह बता सकते हैं कि उनके पूर्वजों की समझ और उनकी समझ में कोई अंतर नहीं आया है? मैं अगर दलित हूँ तो मुझे दलित बनाया किसने ? मैं अगर नीच हूँ तो किससे नीच हूँ और मुझे नीच बनाने वाला कौन है ? मुझसे अगर कोई ऊंचा है तो ऊंचा उसे बनाया किसने और वह किस आधार पर मुझसे ऊंचा हो गया ? सोहनलाल जी! फैक्टरी, मिल और कारखाने के मालिक हैं। अपने घर में आधुनिक टॉयलेट बनवा सकते हैं लेकिन आज भी उनका टॉयलेट आजादी से पहले वाला है जिसे साफ करने के लिए रोज महारिन आती है। उसे देर हो जाए तो बिना गिनें, जाने कितनी गालियां देना यह महाशय अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। आखिर क्यों ? इसलिए कि इनके भीतर की कुंठा इन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करती है। उससे साफ करवा कर इन्हें लगता है कि उसके सामाजिक स्तर को इन्होंने नीचा कर दिया, उसे गालियां बक कर आप सिद्ध करना चाहते हैं कि आपको गाली देने का अधिकार है और रोते हुए चुपचाप सुनना उसका फर्ज। यही आपका मानक है ? गंगा की सफाई तो दूर की बात है जो कौम खुद अपनी गंदगी नहीं साफ कर सकती उसे दूसरों को नीच या अपवित्र कहने का कोई अधिकार नहीं है। नीचता आप में है जो सभ्य और सुशिक्षित होने का दंभ भरते हैं और अमानवीयता का आचरण करते है।’’ ऐसा लगा कि अदिति मैडम की दलित-सवर्ण वाली बात उन्हें खटक गई। जो भी हो उनका तमतमाया चेहरा यह बता रहा था कि जातीय आधार पर होने वाले बार-बार के अपमान से वह इतने नाराज हैं कि उस नाराजगी को महासभा की इस डिबेट में निकाल देना चाहते है। वह अभी भी बोल रहे थे। हॉल के भीतर सभी लोग कोई आवाज किए बगैर ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे और सहमति में सिर हिला रहे थे। उनकी आवाज गूंज रही थी....‘‘सहारनपुर और भीमा कोरेगांव में जो हुआ वह कोई नई बात नहीं। पूरे देश में जगह-जगह दलितों की बस्तियां फूंक दी जाती हैं। हरियाणा में कोई महीना ऐसा नहीं गुजरता कि वहां बसे हमारे भाई-बंधुओं का परिवार दहशत में नहीं जी रहा हो। कभी किसी की बेटी तो कभी किसी की बहू, किसी की पत्नी, किसी की मां का बलात्कार होता रहता है। आखिर क्यों ? आप अपने कुत्ते, बिल्लियों को चुमते पुचकारते हैं, गोद में बिठाते है अपने बिस्तरों पर सुलाते हैं, क्या दलित इनसे गया-गुजरा है। इस धरती का क्या वह प्राणी नहीं है केवल आप ही हैं या आप कहीं बाहर से आए हैं। धर्म-जाति के नाम पर जनता में भेद-भाव फैलाना राजनीतिज्ञों और सत्ता का काम होता है। जनता को बरगलाने का काम सामाजिकों का नहीं है। आपके पहनावे-ओढ़ावे को देखकर लगता है कि दुनिया के सबसे सभ्य प्राणी हैं लेकिन बुद्धि से कितने भ्रष्ट! आप दुनिया भर के देशों के सामने ‘विश्व गुरू’ होने की बात करते हैं, क्या सिखाएंगे ‘ऊंच-नीच’, ‘भेद-भाव’?’ मेरे आते ही मुझसे पुछा गया ‘आपका सरनेम क्या है?’ आपको शर्म नहीं आती ? मेरे ही मुहल्ले में रहते हैं और इस तरह की बात करते हैं। क्या दुनिया भर के दलित ‘आत्मकथाएं’ लिखें तब आप जानेंगे कि वह भी इंसान है और लोकतांत्रिक तरीके से जीना चाहते हैं ? सरकार कोई समुद्र मंथन से निकलने वाली रत्नमणि नहीं होती। वह इसी जनसमुद्र का अंश है। और एक बात कहना चाहूंगा कि इस देश का विकास तभी संभव है जब हर एक नागरिक शिक्षित होगा। यह जो आप अपने स्कूल, काॅलेज और यूनिवर्सिटी की फीस बेतहाशा बढ़ा रहे हैं इससे देश का विकास नहीं बल्कि बेड़ा गर्क होगा। हमारी पहचान एशियन ही काफी है। हम भारत के लोग भारतीय हैं। इसलिए यह सरनेम पूछ-पूछ कर भेद-भाव की नीति समाप्त करिए, राष्ट्र संगठित होगा। विश्व के सामने अगर भारत को महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं तो अपने ही नागरिकों में ऊंच-नीच का भाव समाप्त कर दीजिए।’ उन्होंने माइक लेक्चर टेबल पर रखकर जेब से रुमाल निकाला और माथे का पसीना पोंछते हुए मंच की सीढ़ियों से उतर कर श्रोताओं में खामोशी से बैठ गए। संचालक दीपक मिश्रा ने मंच संभालते हुए कहा ‘प्रोफेसर साहब से मैं सहमत हूं। पढ़े-लिखे लोगों से उनका सरनेम पूछना अपने आप में मूर्खता है।....’’ मैंने देखा कि प्रोफेसर के चेहरे पर फिर तनाव आ रहा है। मैंने इशारे से समझाया कि यह आपकी आखिरी क्लास नहीं है। अभी संघर्ष जारी है।

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