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हॉकी का जादूगर ध्यानचंद

हॉकी का जादूगर ध्यानचंद

आशीष कुमार त्रिवेदी

देश में कई महान विभूतियां हुई हैं जिन्होंने अपने संबंधित क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। इन्होंने विश्वभर में हमारे देश का नाम रौशन किया।

हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। देश भर में यह खेल बहुत प्रचलित है। हमारे इस राष्ट्रीय खेल को उचांइयों तक पहुँचाने वाले महान खिलाड़ी का नाम है मेजर ध्यानचंद। इन्हें लोग हॉकी का जादूगर कह कर पुकारते हैं। बॉल जब उनकी हॉकी स्टिक से लगती थी तो विरोधी टीम पर गोल होना निश्चित हो जाता था। लोगों को शक होता था कि उनकी हॉकी स्टिक में कहीं चुंबक या गोंद तो नहीं लगा है।

हॉकी के अपने खेल से ध्यानचंद जी ने उस दौर में दुनिया में भारत का डंका पूरी दुनिया में बजवाया था जब हम गुलामी की बेड़ियों में जकड़े थे। दुनिया में हमारे देश की छवि अच्छी नहीं थी। उस दौर में आपने करिश्माई खेल से ध्यानचंद जी ने हमें गर्व करने का अवसर प्रदान किया। पूरी दुनिया ने इनकी प्रतिभा का लोहा माना।

भारतीय हॉकी को शीर्ष पर पहुँचाने वाले ध्यानचंद जी का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद के एक राजपूत परिवार में हुआ था। इनके पिता भारतीय फौज में सूबेदार थे। इनके दो बड़े भाई थे मूल सिंह और रूप सिंह। रूप सिंह भी एक अच्छे हॉकी खिलाड़ी थे।

इनके सूबेदार पिता का तबादला थोड़े थोड़े समय पर होता रहता था। अतः ध्यानचंद जी की शिक्षा केवल कक्षा छह तक ही हो सकी। बचपन में वह हमउम्र बच्चों के साथ पेंड़ की टहनियों की हॉकी स्टिक तथा पुराने कपड़ों की बॉल बनाकर खेला करते थे। 14 वर्ष की आयु में वह एक बार अपने पिता के साथ एक हॉकी मैच देखने गए। एक टीम दो गोल से पिछड़ी थी। इन्होंने अपने पिता से कहा कि वह हारने वाली टीम के लिए खेलना चाहते हैं। आर्मी के अधिकारी की अनुमति से वह उस टीम के लिए खेले और चार गोल दागे। इनके खेल से वह अधिकारी बहुत प्रभावित हुआ। उस अधिकारी ने उनके समक्ष सेना में भर्ती होने का प्रस्ताव रखा।

16 वर्ष की आयु में ध्यानचंद जी की भर्ती 'फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट' में साधारण सिपाही के तौर पर हुई। यहाँ हॉकी के खेल की तरफ इन्हें मोड़ने का श्रेय रेजिमेंट के सूबेदार मेजर भोले तिवारी को जाता है। मेजर तिवारी ने ही इन्हें हॉकी की आरंभिक ट्रेनिंग दी। ध्यानचंद जी के प्रथम औपचारिक कोच पंकज गुप्ता थे जिन्होंने इनकी प्रतिभा को पहचान कर घोषणा की थी कि एक दिन वह महान खिलाड़ी बनेंगे। आगे चल कर ध्यानचंद जी ने अपनी मेहनत व लगन से इस खेल में महारत प्राप्त की।

1922 ई. से 1926 ई. तक सेना की ही प्रतियोगिताओं में भाग लिया। यहीं से इनके भीतर के महान खिलाड़ी ने अपना परिचय देना आरंभ किया। एक बार पंजाब इनफैंट्री टूर्नामेंट के फाइनल मैच में ध्यानचंद जी की टीम दो गोलों से पीछे थी। हार निश्चित थी। तभी इनकी हॉकी स्टिक का जादू चला। अंतिम चार मिनटों में इन्होंने अपनी टीम के लिए तीन गोल कर जीत दिला दी। सभी तरफ इनके खेल की तारीफ होने लगी।

13 मई 1926 को न्यूजीलैंड में पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने का मौका मिला। न्यूजीलैंड में 21 मैच खेले जिनमें 3 टेस्ट मैच भी थे। इन 21 मैचों में से 18 जीते, 2 मैच अनिर्णीत रहे और और एक में टीम को हार मिली। टूर्नामेंट में टीम ने कुल 192 गोल बनाए जिसमें 100 गोल ध्यानचंद जी के थे।

1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया। लेकिन एम्स्टर्डम में खेलने से पहले भारतीय टीम ने इंगलैंड में 11 मैच खेले और वहाँ ध्यानचंद को विशेष सफलता प्राप्त हुई।

26 मई 1928 को एम्सटरडर्म ओलंपिक में हॉकी फाइनल मैच में भारत ने हालैंड को 3-0 से हराया। भारत को विश्व भर में हॉकी का चैंपियन घोषित किया गया। 29 मई को उन्हें पदक प्रदान किया गया। फाइनल में दो गोल ध्यानचंद ने किए।

1932 लॉस एंजिल्स ओलंपिक में ध्यानचंद जी ने सेंटर फारवर्ड के तौर पर भाग लिया। भारतीय टीम ने निर्णायक मैच में अमेरिका को 24-1 से हराया था। इस अवसर पर एक अमेरिकी समाचार पत्र ने लिखा था कि भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया एक तूफान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया। इस बार भारतीय टीम के 262 गोल में से 101 ध्यानचंद जी के थे।

1936 बर्लिन ओलंपिक में भारतीय टीम के कप्तान बने। कप्तान बनने पर वह बोले "मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि मैं कप्तान चुना जाऊँगा।" लेकिन उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी के साथ निभाया। यहाँ भी फाइनल में जर्मनी को हरा कर भारत ने लगातार तीन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता।

पहले फाइनल का मुकाबला 14 अगस्त को खेला जाने वाला था पर उस दिन हुई बारिश के कारण मैदान में पानी भर गया और खेल को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। अतः मैच 15 अगस्त को खेला गया। अभ्यास मैच के दौरान जर्मनी की टीम ने भारत को हराया था। इस बात से सभी पहले ही डरे हुए थे। ऊपर से गीले मैदान ने परिस्थितियों को और मुश्किल बना दिया। सभी निराश थे। तब टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने तिरंगा झंडा दिखा कर सभी को देश के लिए खेलने को प्रेरित किया। युक्ति ने जादुई असर दिखाया। भारतीय खिलाड़ी जमकर खेले और जर्मन की टीम को 8-1 से हरा दिया। उस समय कौन जानता था कि 15 अगस्त को ही भारत को वर्षों की गुलामी से आज़ादी मिलेंगी।

ध्यानचंद जी को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। ध्यानचंद जी की महानता को दर्शाती हुई एक मूर्ति वियाना के एक स्पोर्ट क्लब में लगाई गई हैं। यह चार हाथों वाली एक प्रतिमा है। जिनमें सभी में वह हॉकी स्टिक लिए हुए हैं।

ध्यानचंद जी के खेल को उनके प्रशंसक ही नहीं बल्कि प्रतिद्वंदी भी बहुत पसंद करते थे। जर्मनी के तानाशाह हिटलर उनके खेल से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें जर्मन फौज में एक पद देने की पेशकश तक कर डाली।

क्रिकेट के महान खिलाड़ी सर डॉन ब्रैडमैन हाकी के जादूगर से उम्र में तीन साल छोटे थे। अपने-अपने फन में माहिर ये दोनों खिलाड़ी केवल एक बार एक-दूसरे से मिले थे। 1935 में भारतीय टीम आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर गई थी। तब भारतीय टीम एक मैच के लिए एडिलेड गई थी। उसी समय ब्रैडमैन भी वहाँ मैच खेलने के लिए आए थे। वहीं दोनों की मुलाकात हुई थी। ब्रैडमैन ने तब हॉकी के जादूगर का खेल देखने के बाद कहा था कि वे इस तरह से गोल करते हैं, जैसे क्रिकेट में रन बनते हैं। यही नहीं ब्रैडमैन को बाद में जब पता चला कि ध्यानचंद ने इस दौरे में 48 मैच में कुल 201 गोल दागे तो उनकी टिप्पणी थी कि यह किसी हॉकी खिलाड़ी ने बनाए या बल्लेबाज ने।

दो बार के ओलंपिक चैंपियन रहे केशव दत्त कहते हैं कि बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाईयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे। लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी। वो उस ढ़ंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंदी मूव कर रहे हैं।

ध्यानचंद जी के पुत्र ध्यानचंद के पुत्र और 1972 के म्यूनिख ओलंपिक खेलो में कांस्य पदक विजेता अशोक कुमार भी एक किस्सा बताते हैं जो कि उनके पिता की महानता व लोकप्रियता के दर्शाता है । एक बार उनकी टीम म्यूनिख में अभ्यास कर रही थी। तभी व्हील चेयर पर बैठे एक बुज़ुर्ग ने आकर पूंछा कि इस टीम में अशोक कुमार कौन हैं? जब अशोक जी को उनके पास ले जाया गया तो उन्होंने उन्हें गले लगा लिया और भावपूर्ण ढ़ंग से अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में बोले "तुम्हारे पिता एक महान खिलाड़ी थे।" उनके हाथ में 1936 के ख़बरों की पीली हो चुकी कतरनें थी जिसमें ध्यानचंद जी के खेल का गुणगान किया गया था।

1948 में 43 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंतरराट्रीय हॉकी से सन्यास ले लिया। उसके बाद वह अपने शहर झांसी में जाकर रहने लगे।

1956 भारत सरकार द्वारा ध्यानचंद जी को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनके जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।

भारतीय ओलंपिक संघ ने ध्यानचंद जी को शताब्दी का खिलाड़ी खिताब दिया।

ध्यानचंद जी ने विश्व हॉकी पर चौथाई सदी तक अपना वर्चस्व बनाए रखा। 3 दिसंबर 1979 को झांसी में इनकी मृत्यु हो गई। उनका अंतिम संस्कार उस मैदान में हुआ जहाँ वह हॉकी खेलते थे।

ध्यानचंद जी के हॉकी में किए गए योगदान के लिए देश उनका ऋणी है।